बुधवार, 29 सितंबर 2010

भागवत: ८०: सफलता परिश्रम से ही मिलती है


अब हम धर्म व अर्थ के बाद काम में प्रवेश कर रहे हैं यानि पुरुषार्थ में प्रवेश कर रहे हैं। ग्रंथ में आगे ध्रुव की संतानों का वर्णन किया गया है। ध्रुव का पहला बेटा था उत्कल, दूसरा बेटा था वत्सल। उसके बाद वेन पैदा हुआ और वेन के बाद उसके यहां पृथु नाम का राजा पैदा हुआ। ये संक्षेप में वंशावली है। पृथु अवतार हैं। पृथु ध्रुव के वंश में पैदा हुए, चार-पांच पीढ़ी बाद। पृथु का पृथ्वी से बड़ा संबंध रहा। आपने कथा सुनी होगी कि जब पृथु राजा बने तो उनके राज में अकाल पड़ा। पृथ्वी ने धन-धान्य, संपत्ति और औषधि देने से मना कर दिया तो त्राही-त्राही मच गई। जनता अपने राजा के पास पहुंची कि पृथ्वी हमें धन-धान्य आदि कुछ दे नहीं रही है आप कुछ करिए।
पृथु को बड़ा क्रोध आया कि पृथ्वी अपनी संपदा क्यों नहीं दे रही? राजा तीर कमान लेकर पृथ्वी के पीछे दौड़े, पृथ्वी गाय बनकर भागी। पृथ्वी भागते-भागते थक गई तो वापस पृथु की शरण में आई और कहा आप मुझे क्षमा कर दीजिए। आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं, पृथु ने कहा तुमने सारी संपत्ति, सारी प्रकृति, सारी औषधियां, सारी वस्तुएं अपने गर्भ में छुपा रखी है। प्रजा को कुछ भी नहीं दे रही इसलिए मैं तेरा वध करूंगा। पृथ्वी ने कहा मैं देने को तैयार हूं। आप ले लीजिए लेकिन दुहना पड़ेगा मुझे।
पृथ्वी कहती है मुझे दुहे बिना, उद्यम किए बिना, मेरा मंथन किए बिना कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे।कहते हैं पृथु राजा ने पृथ्वी का दोहन किया और ये सारी संपत्ति फिर निकलकर आई। जब ये सब हो गया तो एक दिन पृथ्वी ने पृथु से पूछा राजा आप मेरे पीछे धनुष लेकर दौड़े मुझे मारने के लिए, मैं एक प्रश्न आपसे पुछूं। पृथ्वी ने जो प्रश्न पृथु से पूछा वो आज भी हमसे पूछा जा रहा है। पृथ्वी पृथु से पूछ रही है ''आपने मुझे मारने की तैयारी कर ली, मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने गर्भ में सब वस्तु छिपा ली, कभी पूछा मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? आप तो राजा हैं आप तो प्रजा का हाल जानते हैं मैं आपकी प्रजा हूं और प्रजा संतान समान होती है।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

दानवीर कर्ण का नियम


-अरुण कुमार बंछोर
बात उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे। राजा होने के नाते वे काफी दान-पुण्य भी करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवों को इसका अभिमान होने लगा। कहते हैं कि भगवान दर्पहारी होते हैं। अपने भक्तों का अभिमान, तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। एक बार श्रीकृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुंचे। भीम व अजरुन ने उनके सामने युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की। दोनों ने बताया कि वे कितने बड़े दानी हैं।
तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, ‘लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना।’ पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, ‘भला वो कैसे?’ कृष्ण ने कहा कि ‘समय आने पर बतलाऊंगा।’ बात आई-गई हो गई। कुछ ही दिनों में सावन शुरू हो गए व वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, ‘महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं।
आज मेरा व्रत है और हवन किए बिना मैं कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, कृपा कर मुझे दे दें। अन्यथा मैं हवन पूरा नहीं कर पाऊंगा और भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।’ युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया।
संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अजरुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़-धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, ‘मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।’ ब्राह्मण की आखों में चमक आ गई।
भगवान ने अजरुन व भीम को भी इशारा किया, वेष बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवाकर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ।
ब्राह्मण निराश हो गया। अजरुन-भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान को ताकने लगे। लेकिन वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, ‘हे देवता! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास।’ देखते ही देखते कर्ण ने अपने महल के खिड़की-दरवाज़ों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा, ‘आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए।’ कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए ब्राह्मण के साथ अपना सेवक भी भेज दिया। ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए।
वापस आकर भगवान ने कहा, ‘साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है। अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।’ इस कहानी का तात्पर्य यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए कि हम उस स्थिति तक पहुंच जाएं जहां पर स्वाभाविक रूप से जीव भगवान की सेवा करता है।
हमें भगवान को देखने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने को ऐसे कार्यो में संलग्न करना चाहिए कि भगवान स्वयं हमें देखें। केवल एक गुण या एक कार्य में अगर हम पूरी निष्ठा से अपने को लगा दें, तो कोई कारण नहीं कि भगवान हम पर प्रसन्न न हों। कर्ण ने कोई विशेष कार्य नहीं किया, किंतु उसने अपना यह नियम भंग नहीं होने दिया कि उसके द्वार से कोई निराश नहीं लौटेगा।

भागवतः ७७ - ७९: कर्कश वाणी सभी दु:खों का कारण है


मनु महाराज के पुत्र उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने जब अपने पिता को सिंहासन पर बैठा देखा तो वह भी राजसिंहासन पर चढऩे का प्रयास करने लगा। पांच साल के बालक ने कोशिश की कि अपने पिता की गोद में बैठ जाए। उत्तानपाद ने सोचा इसको गोदी में बैठा लेता हूं लेकिन जैसे ही प्रयास करने लगे, उनकी दूसरी पत्नी सुरुचि अड़ गई। सुरुचि ने कहा ध्रुव तू पिता की गोद में नहीं बैठ सकता। उसने कहा- क्यों मां? वह बोली यदि तुझे पिता की गोद में बैठना है तो तुझे सुरुचि के गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा, नहीं तो भगवान की पूजा कर फिर वही देखेंगे।
सौतेली मां ने ऐसी कर्कश वाणी बोली जिसे सुन ध्रुव परेशान हो गया। रोने लगा और चूंकि राजा उत्तानपाद सुरुचि के प्रभाव में थे तो पत्नी को मना भी नहीं कर सके, क्योंकि वो जानते थे कि अगर मैंने ध्रुव को गोदी में उठाया तो ये सारा घर माथे पर उठा लेगी। वह सुरुचि का स्वभाव जानते थे। ध्रुव रोते-रोते अपनी मां सुनीति के पास चला गया। उसने कहा मां से- मैं आज पिताजी की गोद में बैठने गया तो मां ने मुझे बैठने नहीं दिया और ऐसा कहा है कि जा तू भगवान को पा ले तो तू अधिकारी बनेगा। मां भगवान कहां मिलते हैं।
सुनीति ने कहा ध्रुव तू सौभाग्यशाली है कि तेरी सौतेली मां ने तुझसे यह कहा कि जा भगवान को प्राप्त कर। तेरा बहुत सौभाग्य है। तू भगवान को प्राप्त कर। वो यह सीखा रही है। पांच साल का बच्चा जंगल में चल दिया। ऐसा कहते हैं जब वो जंगल की ओर जा रहा था उसके मन में विचार आ रहा था कि भगवान कैसे मिलते हैं, भगवान कहां मिलेंगे, कैसे प्राप्त होंगे और चल दिया।
यहां एक बात ग्रंथकार कह रहे हैं घर-परिवार में सुरुचि ने कर्कश वाणी बोली और ध्रुव का दिल टूट गया। समाज में, परिवार में, निजी संबंधों में कर्कश वाणी का उपयोग न करें। ये बहुत घातक है । शब्दों का नियंत्रण रखिए। जीवन में कभी भी कर्कष वाणी न बोलिए। भक्त की वाणी हमेशा निर्मल होती है इसलिए ध्रुव चला जा रहा है और भगवान को ढूंढ़ रहा है। उसे मार्ग में नारदजी मिल गए।

कठिन तप से मिलते हैं भगवान

अब तक की कथा में आपने पढ़ा कि भगवान की खोज में निकले ध्रुव को मार्ग में नारदजी मिले। नारदजी ने ध्रुव को रोका और कहा बालक इस जंगल में कहां जा रहा है। नारदजी को देखकर ध्रुव कहते हैं कि मैं भगवान को प्राप्त करने जा रहा हूं। नारदजी हंसे, तू जानता नहीं है भगवान क्या होता है। बड़ा कठिन है जंगल में तप करना। ऐसे ही भगवान नहीं मिलते। नारदजी ध्रुव को डरा रहे हैं। ध्रुव ने कहा कि देखिए मुझे डराइए नहीं, अगर आप भगवान को प्राप्त करने का कोई रास्ता बता सकते हैं तो अच्छी बात है मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं।
जो भी स्थिति होगी मैं भगवान को प्राप्त करुंगा। बस मैंने सोच लिया है, मेरा हठ है। नारदजी बोले वाह, ठीक है क्या चाहता है? ध्रुव बोले आप मेरे गुरु बन जाओ। नारदजी को गुरु बना लिया। नारदजी ने उसे मंत्र दिया ऊं नमो भगवते वासुदेवाय, जा तू इसका जप करना, जितनी देर तू इसका जाप करेगा और अगर सिद्ध हो गया तो परमात्मा तेरे जीवन में उतर आएंगे। ध्रुव बैठ गए और ध्यान किया। उन्होंने ''ऊं नमो भगवते वासुदेवाय'' का जप शुरू कर दिया। छह महीने तक करते रहे। भगवान सिद्ध हो गए, सिंहासन डोल गया, भगवान को लगा कोई भक्त मुझे याद कर रहा है। अब मुझे जाना पड़ेगा।
भगवान प्रकट हुए और जैसे ही भगवान प्रकट हुए तो देखा कि ध्रुव तो बस ध्यान लगाए बैठा है। अपने हाथों से ध्रुव के गाल को स्पर्श किया। आंख खोली तो भगवान सामने खड़े हुए थे। ध्रुव ने भगवान को प्रणाम किया, धन्य हो गए। भगवान ने कहा बोल क्या चाहता है? बच्चा था ज्यादा बातचीत करना तो आती नहीं थी, पांच साल के बच्चे ने कह दिया बस जो आप दे दो। भगवान बहुत समझदार हैं उन्होंने कहा ठीक है तू वर्षों तक राज करेगा, तेरी अनेक पीढिय़ां सिद्ध हो जाएंगी। तेरे पुण्य प्रताप से वे धन्य हो जाएंगे, तेरा राज्य अद्भुत माना जाएगा। तुझे मनोवांछित की पूर्ति होगी जो तू चाहता है वो मिलेगा, तथास्तु कह कर भगवान चले गए।

दिव्य होता है संतों का जीवन

वरदान देकर जैसे ही भगवान गए तो ध्रुव को याद आया अरे ये मैंने क्या किया। भगवान मुझको मिले और मैंने ये मांग लिया और वो दे भी गए मुझे तो मांगना था आप मिलो। मुझे नहीं चाहिए धन-दौलत ये वैभव-संपत्ति, राज-राजतिलक, दास-दासी ये तो बहुत थे मेरे पास और ज्यादा दे गए। मुझे ये चाहिए ही नहीं। फिर ध्रुव ने सोचा जो मिला वही प्रसाद सही।

जैसे ही ध्रुव लौटे और ध्रुव के माता-पिता को सूचना मिली, नारदजी ने उन्हें बताया कि ध्रुव को परमात्मा प्राप्त हो गए हैं। आपका बेटा चैतन्य हो गया है तो पिता उत्तानपाद मां सुनीति, मां सुरुचि सब के सब दौड़ पड़े कि हमारे बेटे को भगवान मिल गए। बहुत दिव्यता आ गई। जिसके जीवन में परमात्मा उतर आएं फिर उसके जीवन में दिव्यता आ जाती है। लोग दौड़ते हैं ध्रुव के पीछे। छ: महीने पहले जिसको राजसिंहासन पर नहीं चढऩे दे रहे थे, जिसको पिता की गोद में बैठने से वंचित कर दिया गया। छह महीने बाद वो लौटा तो सारा राजनगर, सारा राजमहल, सारे रिश्तेदार आगे-पीछे घूम रहे हैं।
इसलिए तो आपने देखा होगा इस देश में हमारे अध्यात्म, धर्म, संस्कृति में लोग साधु-संतों के पीछे बहुत पागल हैं। बावरी हो जाती है लोगों की श्रद्धा और आस्था। कोई साधु आ जाए, कोई संन्यासी आ जाए दौड़ता फिरता है जमाना। ध्रुव के पीछे भी भागने लगे लोग। ध्रुव से कहा आओ सिंहासन पर बैठो। सब ने बड़ा सम्मान दिया। ध्रुव सोच रहे हैं कल तक मुझे कोई पूछता नहीं था आज सारा संसार आ गया। सब के सब आए ध्रुव बैठे और यहां ध्रुव प्रसंग की समाप्ति करते हुए शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं बहुत काल तक ध्रुव ने राज्य किया। ध्रुव के राज्य में अच्छा शासन रहा, सबकुछ अच्छा था।

कठोरता छोड़ विनम्रता सीखो


- अरुण कुमार बंछोर
एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?' शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा।
कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भी दाँत शेष नहीं बचा। शायद कई वर्षों से आपका एक भी दाँत नहीं है।' साधु बोले-'देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।'
सबने उत्तर दिया-'हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।' इस पर सबने कहा-'पर यह हुआ कैसे?' मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?'
शिष्यों ने उत्तर दिया-'हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।'
उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- 'यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके। दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'
थोड़ी देर के बाद एक शिष्य ने गुरु से इसका कोई दूसरा उदाहरण बताने को कहा।
संत ने कहा-'क्या तुमने बेंत या बाँस नहीं देखा है। आँधी भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती जबकि तनकर खड़े रहने वाले बड़े-बड़े पेड़ धराशायी हो जाते हैं।' उनकी बात सुनकर शिष्यों को समझ में आ गया कि नम्रता से काम बन जाता है।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

गलत मार्ग का अंजाम

- अरुण कुमार बंछोर
किसी ग्राम में किसान दम्पती रहा करते थे। किसान तो वृद्ध था पर उसकी पत्नी युवती थी। अपने पति से संतुष्ट न रहने के कारण किसान की पत्नी सदा पर-पुरुष की टोह में रहती थी, इस कारण एक क्षण भी घर में नहीं ठहरती थी। एक दिन किसी ठग ने उसको घर से निकलते हुए देख लिया।
उसने उसका पीछा किया और जब देखा कि वह एकान्त में पहुँच गई तो उसके सम्मुख जाकर उसने कहा, “देखो, मेरी पत्नी का देहान्त हो चुका है। मैं तुम पर अनुरक्त हूं। मेरे साथ चलो।” वह बोली, “यदि ऐसी ही बात है तो मेरे पति के पास बहुत-सा धन है, वृद्धावस्था के कारण वह हिलडुल नहीं सकता। मैं उसको लेकर आती हूं, जिससे कि हमारा भविष्य सुखमय बीते।” “ठीक है जाओ। कल प्रातःकाल इसी समय इसी स्थान पर मिल जाना।”
इस प्रकार उस दिन वह किसान की स्त्री अपने घर लौट गई। रात होने पर जब उसका पति सो गया, तो उसने अपने पति का धन समेटा और उसे लेकर प्रातःकाल उस स्थान पर जा पहुंची। दोनों वहां से चल दिए। दोनों अपने ग्राम से बहुत दूर निकल आए थे कि तभी मार्ग में एक गहरी नदी आ गई।
उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले जाकर मैं क्या करूंगा। और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो वैसे भी संकट ही है। अतः किसी प्रकार इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए। यह विचार कर उसने कहा, “नदी बड़ी गहरी है। पहले मैं गठरी को उस पार रख आता हूं, फिर तुमको अपनी पीठ पर लादकर उस पार ले चलूंगा। दोनों को एक साथ ले चलना कठिन है।”
“ठीक है, ऐसा ही करो।” किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला, “अपने पहने हुए गहने-कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। और कपड़े भीगेंगे भी नहीं।”
उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार गया तो फिर लौटकर आया ही नहीं।वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही। इसलिए कहते हैं कि अपने हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।

वंश की रक्षा
किसी पर्वत प्रदेश में मन्दविष नाम का एक वृद्ध सर्प रहा करता था। एक दिन वह विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है, जिससे बिना परिश्रम किए ही उसकी आजीविका चलती रहे। उसके मन में तब एक विचार आया।
वह समीप के मेढकों से भरे तालाब के पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते देखकर तालाब के किनारे एक पत्थर पर बैठे मेढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पूछा,“मामा! आज क्या बात है? शाम हो गई है, किन्तु तुम भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो?”
र्प बड़े दुःखी मन से कहने लगा, “बेटे! क्या करूं, मुझे तो अब भोजन की अभिलाषा ही नहीं रह गई है। आज बड़े सवेरे ही मैं भोजन की खोज में निकल पड़ा था। एक सरोवर के तट पर मैंने एक मेढक को देखा। मैं उसको पकड़ने की सोच ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया। समीप ही कुछ ब्राह्मण स्वाध्याय में लीन थे, वह उनके मध्य जाकर कहीं छिप गया।” उसको तो मैंने फिर देखा नहीं। किन्तु उसके भ्रम में मैंने एक ब्राह्मण के पुत्र के अंगूठे को काट लिया। उससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दुःख हुआ और उस शोकाकुल पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा, “दुष्ट! तुमने मेरे पुत्र को बिना किसी अपराध के काटा है, अपने इस अपराध के कारण तुमको मेढकों का वाहन बनना पड़ेगा।” “बस, तुम लोगों के वाहन बनने के उद्देश्य से ही मैं यहां तुम लोगों के पास आया हूं।”
मेढक सर्प से यह बात सुनकर अपने परिजनों के पास गया और उनको भी उसने सर्प की वह बात सुना दी। इस प्रकार एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कानों में जाती हुई यह बात सब मेढकों तक पहुँच गई। उनके राजा जलपाद को भी इसका समाचार मिला। उसको यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सबसे पहले वही सर्प के पास जाकर उसके फन पर चढ़ गया। उसे चढ़ा हुआ देखकर अन्य सभी मेढक उसकी पीठ पर चढ़ गए। सर्प ने किसी को कुछ नहीं कहा।
मन्दविष ने उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाए। सर्प की कोमल त्वचा के स्पर्श को पाकर जलपाद तो बहुत ही प्रसन्न हुआ। इस प्रकार एक दिन निकल गया। दूसरे दिन जब वह उनको बैठाकर चला तो उससे चला नहीं गया।
उसको देखकर जलपाद ने पूछा, “क्या बात है, आज आप चल नहीं पा रहे हैं?” “हां, मैं आज भूखा हूं इसलिए चलने में कठिनाई हो रही है।” जलपाद बोला, “ऐसी क्या बात है। आप साधारण कोटि के छोटे-मोटे मेढकों को खा लिया कीजिए।” इस प्रकार वह सर्प नित्यप्रति बिना किसी परिश्रम के अपना भोजन पा गया। किन्तु वह जलपाद यह भी नहीं समझ पाया कि अपने क्षणिक सुख के लिए वह अपने वंश का नाश करने का भागी बन रहा है। सभी मेढकों को खाने के बाद सर्प ने एक दिन जलपाद को भी खा लिया। इस तरह मेढकों का समूचा वंश ही नष्ट हो गया।
इसीलिए कहते हैं कि अपने हितैषियों की रक्षा करने से हमारी भी रक्षा होती है।

देश का अपमान


राष्ट्रीय नेटबाल टीम की खिलाड़ी प्रीती बंछोर के साथ जिस प्रकार का व्यवहार किया गया वह निंदनीय है.पहले प्रीती का चयन फिर टीम से बाहर करना प्रीती का ही अपमान नहीं ,पुरे छत्तीसगढ़ का अपमान है.प्रीती के स्थान पर एक कमजोर खिलाड़ी का चयन कर देश के साथ भी धोखा किया गया है.मेघा चौधरी का चयन सिर्फ इसलिए कर दिया गया कि वह एक चयनकर्ता की रिश्तेदार है.ऐसे चयन से क्या टीम मजबूत होगी चयन में रिश्ते नहीं प्रतिभा देखी जानी चाहिए.आइये हम प्रीती के साथ खड़े हों ओउर आवाज बुलंद करें.

शनिवार, 25 सितंबर 2010

भागवत: ७६: जीवन साथी का आदर करें



एक दृश्य में जब पार्वतीजी आती हैं तो शंकरजी कह रहे हैं ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा जानी प्रिय'' दो शब्द आए हैं प्रिया और आदर। अपनी पत्नी पार्वतीजी को प्रिया प्रेम दिया। केवल प्रेम देने से काम नहीं चलता। शंकरजी कहते हैं आदर भी जरूरी है। ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा'' ये दाम्पत्य का सूत्र है। शंकरजी यहीं नहीं रुकते ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा''। पार्वतीजी को अपने बाएं भाग में समान बैठाया। पहली बात है हम प्रेम दें, आदर करें। अपने जीवनसाथी के साथ समानता का व्यवहार करें। बाम, भाग, आसन हर दिन्हा, अपने पास में बैठाया।
शंकरजी दाम्पत्य का छोटा सा सूत्र बताते हैं, हमें यह समझना चाहिए। अब ग्रंथकार हमें आगे ले जा रहे हैं। ये धर्म का प्रसंग था। धर्म का प्रसंग हमने पढ़ा, धर्म कैसे बच सकता है। चाहे वह गृहस्थ धर्म हो। अब हम चतुर्थ स्कंध के उस प्रकरण में प्रवेश कर रहे हैं जिसे अर्थ प्रकरण कहा है और अर्थ प्रकरण में धु्रव भगवान का जन्म होने वाला है। मनु-शतरूपा के वंश की चर्चा चल रही थी। हमने तीनों पुत्रियों का जीवन, दाम्पत्य देख लिया। अब पुत्रों की बारी आ रही है। तो उत्तानपाद और प्रियव्रत, उनके दो पुत्र थे।
उत्तानपाद की कहानी अब ग्रंथकार कह रहे हैं। सूतजी कह रहे हैं कि शौनकजी सावधान होकर सुनिएगा। उत्तानपाद बड़े धार्मिक राजा थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। इन दो पत्नियों के साथ उनका जीवन चल रहा था। एक बार सिंहासन पर बैठे थे उत्तानपाद। वे छोटी पत्नी सुरुचि को बहुत प्यार करते थे। वह पास में बैठी थी। सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था धु्रव। पांच साल का बालक ध्रुव अपने पिता के पास आया। उसने देखा पिता की गोद में उत्तम भी बैठा है पास में सौतेली मां सुरुचि बैठी हुई है।

पितृभक्ति देख निर्दयी जेलर पिघला


हारूं रशीद बगदाद का बहुत नामचीन बादशाह था। एक बार किसी कारण से वह अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने वजीर और उसके लड़के फजल को जेल में डलवा दिया।
वजीर को ऐसी बीमारी थी कि ठंडा पानी उसे हानि पहुंचाता था। उसे सुबह हाथ-मुंह धोने को गर्म पानी आवश्यक था। किंतु जेल में गर्म पानी कौन लाए? वहां तो कैदियों को ठंडा पानी ही दिया जाता था।
फजल रोज शाम लौटे में पानी भरकर लालटेन के ऊपर रख दिया करता था। रातभर लालटेन की गर्मी से पानी गर्म हो जाता था। उसी से उसके पिता सुबह हाथ-मुंह धोते थे। उस जेल का जेलर बड़ा निर्दयी था। जब उसे ज्ञात हुआ कि फजल अपने पिता के लिए लालटेन पर पानी गर्म करता है, तो उसने लालटेन वहां से हटवा दी।
फजल के पिता को ठंडा पानी मिलने लगा। इससे उनकी बीमारी बढऩे लगी। फजल से पिता का कष्ट नहीं देखा गया। उसने एक उपाय किया। शाम को वह लौटे में पानी भरकर अपने पेट से लोटा लगा लेता था। रात भर उसके शरीर की गर्मी से लौटे का पानी थोड़ा बहुत गर्म हो जाता था। उसी पानी से वह सुबह अपने पिता का हाथ-मुंह धुलाता था। किंतु रातभर पानी भरा लोटा पेट पर लगाए रहने के कारण फजल सो नहीं सकता था। क्योंकि नींद आने पर लोटा गिर जाने का भय था। कई राते उसने बिना सोये ही गुजार दी। इससे वह अति दुर्बल हो गया। किंतु पितृभक्त फजल ने उफ तक नहीं की।
जब जेलर को फजल की इस पितृभक्ति का पता चला तो उसका निर्दयी हृदय भी दया से पिघल गया और उसने फजल के पिता के गर्म पानी का प्रबंध करा दिया। पिता के लिए फजल की यह त्याग भावना सिखाती है कि अपने जनक के प्रति हमारे मन में वैसा ही समर्पण होना चाहिए। जैसा उनका हमारे लिए होता है। पितृ ऋण चुकाने का यही सही तरीका है।

आवाज ने खोला भेद
किसी नगर में एक धोबी रहता था। अच्छा चारा न मिलने के कारण उसका गधा बहुत कमजोर हो गया था। एक दिन धोबी को जंगल में बाघ की एक खाल मिल गई। उसने सोचा कि रात में इस खाल को ओढ़ाकर मैं गधे को खेतों में छोड़ दिया करुँगा।
गाँववाले इसे बाघ समझेंगे और डर से इसके पास नहीं आएँगे। खेतों में चरकर यह खूब मोटा-ताजा हो जाएगा। एक रात गधा बाघ की खाल ओढ़े खेत में चर रहा था। तभी उसने दूर से किसी गधी का रेंकना सुना। उसकी आवाज सुनकर गधा प्रसन्न हो उठा और मौज में आकर स्वयं भी रेंकने लगा।
गधे की आवाज सुनते ही खेतों के रखवालों ने उसे घर लिया और पीट-पीटकर जान से मार डाला। इसलिए कहते हैं अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए। कभी-कभी यह खतरनाक भी साबित होता है।

चंचलता से बुद्धि का नाश
किसी तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। तालाब के किनारे रहने वाले संकट और विकट नामक हंस से उसकी गहरी दोस्ती थी। तालाब के किनारे तीनों हर रोज खूब बातें करते और शाम होने पर अपने-अपने घरों को चल देते। एक वर्ष उस प्रदेश में जरा भी बारिश नहीं हुई। धीरे-धीरे वह तालाब भी सूखने लगा।
अब हंसों को कछुए की चिंता होने लगी। जब उन्होंने अपनी चिंता कछुए से कही तो कछुए ने उन्हें चिंता न करने को कहा। उसने हंसों को एक युक्ति बताई। उसने उनसे कहा कि सबसे पहले किसी पानी से लबालब तालाब की खोज करें फिर एक लकड़ी के टुकड़े से लटकाकर उसे उस तालाब में ले चलें।
उसकी बात सुनकर हंसों ने कहा कि वह तो ठीक है पर उड़ान के दौरान उसे अपना मुंह बंद रखना होगा। कछुए ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह किसी भी हालत में अपना मुंह नहीं खोलेगा।कछुए ने लकड़ी के टुकड़े को अपने दांत से पकड़ा फिर दोनो हंस उसे लेकर उड़ चले। रास्ते में नगर के लोगों ने जब देखा कि एक कछुआ आकाश में उड़ा जा रहा है तो वे आश्चर्य से चिल्लाने लगे।
लोगों को अपनी तरफ चिल्लाते हुए देखकर कछुए से रहा नहीं गया। वह अपना वादा भूल गया। उसने जैसे ही कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोला कि आकाश से गिर पड़ा। ऊंचाई बहुत ज्यादा होने के कारण वह चोट झेल नहीं पाया और अपना दम तोड़ दिया। इसीलिए कहते हैं कि बुद्धिमान भी अगर अपनी चंचलता पर काबू नहीं रख पाता है तो परिणाम काफी बुरा होता है।

सूर्यास्त से पहले भोजन क्यों जरूरी हैं?


जैन समाज में नियमों का बड़ा महत्व है। पूरी दिनचर्या के लिए कई नियम तय कर दिए गए हैं। सुबह से लेकर शाम तक के लिए तरह-तरह के नियम और सिद्धांत निश्चित हैं।
ये सिद्धांत न केवल धार्मिक रूप से आवश्यक हैं बल्कि पूरी तरह से वैज्ञानिक भी हैं। ऐसा ही एक नियम शाम का भोजन सूर्यास्त के पहले करना। कई लोग इस बात को अभी तक पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर इस नियम के पीछे क्या कारण है।
दरअसल यह नियम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। सूर्यास्त के पहले भोजन करने से न केवल पाचन तंत्र ठीक रहता है बल्कि हम कई तरह की बीमारियों से भी बच जाते हैं। कई तरह के बैक्टिरिया और अन्य जीव हमारे भोजन के साथ शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते।
इस नियम के पीछे सबसे बड़ा कारण है कि सूर्यास्त के बाद मौसम में नमी बढ़ जाती है और इस नमी के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव और बैक्टिरिया उत्पन्न हो जाते है। सूर्य की रोशनी में ये गरमी के कारण पनप नहीं पाते हैं और सूर्यास्त के साथ ही जैसे ही नमी बढ़ती है ये जीव सक्रिय हो जाते हैं।
रात को भोजन करने में इन सूक्ष्म जीवों का हमारे शरीर में प्रवेश हो जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों की आशंका रहती है। इसलिए जैन समाज के विद्वानों ने रात के समय भोजन करने को निषेध माना है।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

ऐसे जन्मा मिकी माउस


जीवन में असफलता का डर नहीं होना चाहिए। बस स्वीकार कर लें कि ठीक है असफल हूं तो क्या हुआ? जिंदगी एक खेल की तरह है। चाहे हारे या जीते। तब भी हम खेल खेलते है क्योंकि इस खेल को हम बीच में नहीं छोड़ सकते। इसीलिए असफलता से डरे नहीं। यदि असफल हो तो कोई बात नहीं तब भी काम करते जाओ। जीवन सफलता और असफलता दोनों का मिलाजुला रूप है। जो असफल होता है, वही सफलता की कीमत जान पाता है। हमेशा आगे बढऩा चाहिये और अपने आप से पूछना चाहिए कि मैंने बीते कल से क्या सिखा?

एक युवक को अपनी जिन्दगी में कुछ नया कर गुजरने की चाह थी। वह बहुत अच्छा कार्टुनिस्ट था। उसे खुद पर विश्वास था लेेकिन जिंदगी शायद उसकी परिक्षा लेना चाहती थी। इसीलिए वह खूब भटका। उसने कई अखबारों के आफिसो के चक्कर काटे। उसे कहीं काम नहीं मिला। उसे थोड़ी निराशा जरूर हुई लेकिन वह फिर भी जुटा रहा। उसे अखबार में तो काम नहीं मिला लेकिन उसे एक चर्च के पादरी ने कुछ कार्टुन बनाने का काम दिया। वो युवक जिस शेड के नीचे काम कर रहा था। वहां चूहे उधम मचा रहे थे। एक चूहा देखकर उसके मन में एक कार्टून बनाने का ख्याल आया और वही से मिकी माउस का जन्म हुआ। वह व्यक्ति और कोई नहीं वाल्ट डिज्री था। सफल लोग हर छोटे काम को भी पूरे समर्पण के साथ करते है। इसीलिए उनका जीवन हम सबके लिए एक प्रेरणा की तरह होता है।

भागवत: ७५ : पार्वती श्रद्धा व भगवान शंकर विश्वास हैं


जब माता ने सती ने देह त्याग किया तो ऐसा कहते हैं कि अगले जन्म में वो पार्वती कहलाईं। इस जन्म में वे हिमाचल के यहां बेटी बनीं। मनुष्य के अंतिम समय में जो उसकी अंतिम इच्छा होती है वह अगले जन्म का कारण बन जाती है। पार्वती बनकर नया दाम्पत्य शंकरजी का आरंभ हुआ। शंकर और पार्वती का दिव्य दाम्पत्य था तभी तो उनके यहां कार्तिकेय व गणेश जैसी संतानें पैदा हुईं। ''भवानीशंकरोवंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ'' अर्थात पार्वती श्रद्धा हैं शंकर विश्वास हैं। जीवन में श्रद्धा और विश्वास का जब मिलन होता है तब कार्तिकेय व गणेश पैदा होते हैं।

सूतजी शौनकादि से कह रहे हैं, परीक्षित को समझा रहे हैं शुकदेवजी। अपने दाम्पत्य को ऐसे बचाकर रखो। मां देवहुति ने भी अपने पुत्र कपिल से यही प्रश्न पूछा था कि गृहस्थी में भक्ति कैसी हो। यहां भी यही प्रश्न आया। तो सती और पार्वती के माध्यम से हम ये सीख सकते हैं कि अपने दाम्पत्य को आपसी समझ व गइराई से कैसे चलाया जाए।आइए हम अगले दृश्य में प्रवेश करते हैं। ग्रंथकार बहुत सुंदर दृश्य बताते हैं। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह हुआ और अभी-अभी दोनों कैलाश पर पहुंचे हैं। दोनों बैठे हैं पति-पत्नी और बैठकर बात कर रहे हैं।
पार्वतीजी, शंकरजी से पूछ रही है कि आप मुझे रामकथा सुनाइए जो मैं चूक गई सती जन्म में।तो शंकरजी उनको रामकथा सुना रहे हैं। अब देखिए पति-पत्नी अकेले में बैठे हों तो कामकथा फूटती है पर यहां रामकथा फूट रही है। दिव्यता का महत्व है जीवन में। परमात्मा उतरेगा तो शुद्धता को पसंद करके उतरता है। दोनों पति-पत्नी बैठकर बातचीत कर रहे हैं।

यहां गुफाओं में बसते हैं अनगिनत भगवान


भारत में मंदिरों की कोई कमी नहीं है पर कुछ मंदिर अपनी बनावट और विशेषता के कारण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि पूरी दुनिया उनकी ओर आकर्षित हो जाती है। ऐसे ही मंदिर हैं- महाबलीपुरम में।
महाबलीपुरम के गुफा मंदिरों का क्षेत्र 6 किलोमीटर तक फैला हुआ है। एक गांव के पास पत्थर काट कर लंगूर की तरह बंदरों का समूह बनाया गया है। वहां से समुद्र की ओर दुर्गाजी का एक मंदिर है। उनके पास सात ओर मूर्तियां हैं।
वहां से थोड़ी दूरी पर एक साढ़े चार फुट ऊंचा शिवलिंग है जिसमें नक्काशी की हुई है। यहां स्थापित नन्दी की प्रतिमा बहुत सुंदर है।
इतिहास- महाबलीपुरम के मंदिर वहीं की चट्टानों को काट कर बनाए गए हैं। हालांकि समुद्र की तेजगति की हवाओं ने इनका स्वरूप कुछ बिगाड़ दिया है। ये मंदिर पल्लववंश के राजाओं द्वारा बनाए गए हैं। यहां मंदिरों को गुफाओं का रूप दिया गया है जो काफी आकर्षक और सुंदर लगता है।
यहां के मुख्य मंदिरों में शिव मंदिर, विष्णु मंदिर, गणेश मंदिर, दुर्गा मंदिर आदि प्रसिद्ध हैं। एक मंदिर में वाराह स्वामी का मण्डप है। इसमें हिरण्याक्ष दैत्य के ऊपर अपना एक पैर रखे भगवान वाराह खड़े हैं।
सामने की दीवार में भगवान वामन की विशाल मूर्ति है। भगवान का एक चरण स्वर्ग को नापने के लिए ऊपर उठा हुआ है। दोनों चरणों के पास बहुत सी मूर्तियां हैं।
कहा जाता है कि यहां अर्जुन ने शक्ति के लिए आराधना की थी। इसका प्रमाण यहां बने पाण्डवों के मंदिरों से लगता है।
कैसे पहुचें- महाबलीपुरम समुद्र किनारे एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। यह पक्षीतीर्थ से लगभग 13 किलोमीटर दूर है। पक्षीतीर्थ से महाबलीपुरम तक के लिए आसानी से बसें मिल जाती हैं जो वापसी में चेंगलपट तक लौटती हैं।

श्राद्ध पक्ष है शुभ और सुख की घड़ी


पुरातन काल से लेकर आधुनिक समय तक आए सामाजिक बदलावों के साथ धर्म और उससे जुड़े कर्मकाण्ड के भ्रामक प्रचार और व्याख्या के कारण यह लोक मान्यता बन गई कि श्राद्धपक्ष के 15 या 16 दिन के समय में किया जाने वाला हर शुभ कार्य अशुभ होता है। इसके साथ ही यह भी माना जाता है कि इस काल में जिन कार्यों में आनंद और सुख मिले वह निषेध है। किंतु ऐसी मान्यताएं व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से विचार करें तो गलत साबित होती हैं।

जानते है इसके कारण -
दरसअल पुरातन काल से ही पितृपक्ष में श्राद्ध से जुड़ी धार्मिक परंपराओं का पालन करते समय आचरण और चरित्र की शुद्धि के लिए नियम और विधि नियत है। जो हर उत्सव, व्रत, त्यौहारों के लिए भी होते हैं। जिनका संबंध खान-पान, पहनावे से होता है। संभवत: इसे ही हमारी मूल जरुरतों रोटी, कपड़ा और मकान सुख के बंधन से जोड़ लिया गया। जबकि दूसरी ओर आज हम श्राद्ध के लिए बनाए गए भोजन में पितरों को पसंद चावल और दूध से बनी खीर के अलावा अन्य कई मीठे पकवान बनाते हैं। उस दिन स्वयं और अतिथि आधुनिक और अच्छे वस्त्र पहनते हैं। इस तरह जहां मीठे पकवान स्वाद में तो वस्त्र एहसास में आनंदित ही तो करते हैं।
दूसरा इस काल विशेष में देवता के समान पितरों की पूजा कर सुख और समृद्धि की कामना की जाती है। ठीक वैसे ही जैसे सावन में शिव, भादौ में श्री गणेश या आश्विन माह में शक्ति की उपासना कर उनकी कृपा से जीवन में सुखों की कामना की जाती है।
तीसरा श्राद्ध कर्म न केवल मृत परिजनों से भावनाओं को जोड़कर मनोबल और विश्वास बढ़ाता है बल्कि उनकी याद में शामिल होने वाले सभी जीवित परिजनों के बीच भावना, संवेदना, प्यार, स्नेह, भरोसे और रिश्तों के बंधन को मजबूत बनाए रखता है और पूर्वजों की परिवार और परंपराओं को आगे बढ़ाने, अपने वंशजों के सुख और समृद्धि से जीवन जीने इच्छाओं को पूरा करता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि श्राद्ध पक्ष व्यावहारिक जीवन के लिए कोई बंधन का काल नहीं बल्कि उस मानसिक और वैचारिक आजादी का है। जिसमें हम अपने पूर्वजो और पितरों के सुख और संतुष्टि के लिए हर जतन करते हैं और बदले में पितर हमें वैसा ही आनंद और सुख का आशीर्वाद देकर हमारे जीवन से कलह और दु:ख को मिटा देते हैं।

मौत के बाद होता है ऐसा जीवन


सनानत धर्म में आश्विन माह के पहले 15 या 16 दिनों में श्राद्ध पक्ष आने पर पूर्वजों को याद कर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु धर्म की समझ से दूर अनेक लोगों के मन में यह प्रश्र होता है कि आखिर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को कैसे संतुष्टि मिलती है। यहां करते हैं इसी जिज्ञासा को शांत -

सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित २७ तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष १७ तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।

हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर १ साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।

इसके बाद वह अपने कर्म के अनुसार अलग-अलग योनि को प्राप्त करता है। हर योनि में किए गए कर्म के अनुसार जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।

यही कारण है कि मृत्यु के बाद वर्ष भर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस सूक्ष्म रुप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में। जबकि यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरुर आते हैं।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

चतुराई से कठिन काम भी संभव

- अरुण कुमार बंछोर

एक जंगल में महाचतुरक नामक सियार रहता था। एक दिन जंगल में उसने एक मरा हुआ हाथी देखा। उसकी बांछे खिल गईं। उसने हाथी के मृत शरीर पर दांत गड़ाया पर चमड़ी मोटी होने की वजह से, वह हाथी को चीरने में नाकाम रहा।
वह कुछ उपाय सोच ही रहा था कि उसे सिंह आता हुआ दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने सिंह का स्वागत किया और हाथ जोड़कर कहा, “स्वामी आपके लिए ही मैंने इस हाथी को मारकर रखा है, आप इस हाथी का मांस खाकर मुझ पर उपकार कीजिए।” सिंह ने कहा, “मैं तो किसी के हाथों मारे गए जीव को खाता नहीं हूं, इसे तुम ही खाओ।”
सियार मन ही मन खुश तो हुआ पर उसकी हाथी की चमड़ी को चीरने की समस्या अब भी हल न हुई थी।थोड़ी देर में उस तरफ एक बाघ आ निकला। बाघ ने मरे हाथी को देखकर अपने होंठ पर जीभ फिराई। सियार ने उसकी मंशा भांपते हुए कहा, “मामा आप इस मृत्यु के मुंह में कैसे आ गए? सिंह ने इसे मारा है और मुझे इसकी रखवाली करने को कह गया है। एक बार किसी बाघ ने उनके शिकार को जूठा कर दिया था तब से आज तक वे बाघ जाति से नफरत करने लगे हैं। आज तो हाथी को खाने वाले बाघ को वह जरुर मार गिराएंगे।”
यह सुनते ही बाघ वहां से भाग खड़ा हुआ। पर तभी एक चीता आता हुआ दिखाई दिया। सियार ने सोचा चीते के दांत तेज होते हैं। कुछ ऐसा करूं कि यह हाथी की चमड़ी भी फाड़ दे और मांस भी न खाए। उसने चीते से कहा, “प्रिय भांजे, इधर कैसे निकले? कुछ भूखे भी दिखाई पड़ रहे हो।”
सिंह ने इसकी रखवाली मुझे सौंपी है, पर तुम इसमें से कुछ मांस खा सकते हो। मैं जैसे ही सिंह को आता हुआ देखूंगा, तुम्हें सूचना दे दूंगा, तुम सरपट भाग जाना”। पहले तो चीते ने डर से मांस खाने से मना कर दिया, पर सियार के विश्वास दिलाने पर राजी हो गया।चीते ने पलभर में हाथी की चमड़ी फाड़ दी।
जैसे ही उसने मांस खाना शुरू किया कि दूसरी तरफ देखते हुए सियार ने घबराकर कहा, “भागो सिंह आ रहा है”। इतना सुनना था कि चीता सरपट भाग खड़ा हुआ। सियार बहुत खुश हुआ। उसने कई दिनों तक उस विशाल जानवर का मांस खाया।सिर्फ अपनी सूझ-बूझ से छोटे से सियार ने अपनी समस्या का हल निकाल लिया। इसीलिए कहते हैं कि बुद्धि के प्रयोग से कठिन से कठिन काम भी संभव हो जाता है।

धोखेबाज का अंत
किसी स्थान पर एक बहुत बड़ा तालाब था। वहीं एक बूढ़ा बगुला भी रहता था। बुढ़ापे के कारण वह कमजोर हो गया था। इस कारण मछलियाँ पकड़ने में असमर्थ था। वह तालाब के किनारे बैठकर, भूख से व्याकुल होकर आँसू बहाता रहता था।
एक बार एक केकड़ा उसके पास आया। बगुले को उदास देखकर उसने पूछा, ‘मामा, तुम रो क्यों रहे हो? क्या तुमने आजकल खाना-पीना छोड़ दिया है?॥अचानक यह क्या हो गया?’ बगुले ने बताया- ‘पुत्र, मेरा जन्म इसी तालाब के पास हुआ था। यहीं मैंने इतनी उम्र बिताई। अब मैंने सुना है कि यहाँ बारह वर्षों तक पानी नहीं बरसेगा।’
केकड़े ने पूछा, ‘तुमसे ऐसा किसने कहा है?’बगुले ने कहा- ‘मुझे एक ज्योतिषी ने यह बात बताई है। इस तालाब में पानी पहले ही कम है। शेष पानी भी जल्दी ही सूख जाएगा। तालाब के सूख जाने पर इसमें रहने वाले प्राणी भी मर जाएँगे। इसी कारण मैं परेशान हूँ।’
बगुले की यह बात केकड़े ने अपने साथियों को बताई। वे सब बगुले के पास पहुँचे। उन्होंने बगुले से पूछा-‘मामा, ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे हम सब बच सकें।’ बगुले ने बताया-‘यहां से कुछ दूर एक बड़ा सरोवर है। यदि तुम लोग वहाँ जाओ तो तुम्हारे प्राणों की रक्षा हो सकती है।’ सभी ने एक साथ पूछा-‘हम उस सरोवर तक पहुँचेंगे कैसे?’
चालाक बगुले ने कहा-‘मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ। तुम लोग चाहो तो मैं तुम्हें पीठ पर बैठाकर उस तालाब तक ले जा सकता हूँ।’सभी बगुले की पीठ पर चढ़कर दूसरे तालाब में जाने के लिए तैयार हो गए। दुष्ट बगुला प्रतिदिन एक मछली को अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले जाता और शाम को तालाब पर लौट आता। इस प्रकार उसकी भोजन की समस्या हल हो गई।
एक दिन केकड़े ने कहा-‘मामा, अब मेरी भी तो जान बचाइए।’ बगुले ने सोचा कि मछलियाँ तो वह रोज खाता है। आज केकड़े का मांस खाएगा। ऐसा सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बैठा लिया। उड़ते हुए वह उस बड़े पत्थर पर उतरा, जहाँ वह हर दिन मछलियों को खाया करता था।केकड़े ने वहाँ पर पड़ी हुई हड्डियों को देखा। उसने बगुले से पूछा-‘मामा, सरोवर कितनी दूर है? आप तो थक गए होंगे।’
बगुले ने केकड़े को मूर्ख समझकर उत्तर दिया-‘अरे, कैसा सरोवर! यह तो मैंने अपने भोजन का उपाय सोचा था। अब तू भी मरने के लिए तैयार हो जा। मैं इस पत्थर पर बैठकर तुझे खा जाऊँगा।’ इतना सुनते ही केकड़े ने बगुले की गर्दन जकड़ ली और अपने तेज दाँतों से उसे काट डाला। बगुला वहीं मर गया।
केकड़ा किसी तरह धीरे-धीरे अपने तालाब तक पहुँचा। मछलियों ने जब उसे देखा तो पूछा-‘अरे, केकड़े भाई, तुम वापस कैसे आ गए। मामा को कहाँ छोड़ आए? हम तो उनके इंतजार में बैठे हैं।’ यह सुनकर केकड़ा हँसने लगा। उसने बताया-‘वह बगुला महाठग था। उसने हम सभी को धोखा दिया। वह हमारे साथियों को पास की एक चट्टान पर ले जाकर खा जाता था। मैंने उस धूर्त्त बगुले को मार दिया है। अब डरने की कोई बात नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल भी होता है।’

लोहागर : यहां अस्थियां पानी में ही गल जाती हैं



भारत में एक से बढ़कर एक तीर्थ हैं, बस फर्क सिर्फ इतना है कि कोई वैष्णव है तो कोई शैव। वहीं सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी के तीर्थ अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
पर एक तीर्थ ऐसा भी है कि जिस की रक्षा स्वयं ब्रह्माजी करते हैं। वह तीर्थ है- लोहागर।
विशेषता- यह राजस्थान का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। यह क्षेत्र पिण्ड-दान और अस्थि-विसर्जन के लिए भी विख्यात है।
यहां की विशेषता है कि यहां विसर्जित अस्थियां पानी में ही गल जाती हैं। यहां चैत्र में सोमवती अमावस्या और भाद्रपद अमावस्या को मेला लगता है।
मुख्य तीर्थ- यहां का मुख्य तीर्थ पर्वत से निकलने वाली सात धाराएं हैं। कहा जाता है कि इस पर्वत के नीचे ब्रह्मह्लद है। ये धाराएं उसी में से निकली हैं।
यहां के प्रधान देवतासूर्य हैं। सूर्य कुण्ड के आसपास 45 मंदिर और हैं। लोहागर की परिक्रमा भाद्रपद-कृष्णा 9 से पूर्णिमा तक होती है।
कथा- ब्रह्मह्लद तीर्थ देवताओं का प्रिय तीर्थ था। कलयुग में पापी इसमें स्नान करके इसे अपवित्र न कर दें इसलिए सभी ने इसकी रक्षा करने के लिए ब्रह्माजी से प्रार्थना की।
ब्रह्माजी ने हिमालय के पुत्र केतु को यहां भेजा। केतु ने अपनी आराधना से यहां के अधिदेवता को प्रसन्न किया और तीर्थ को आच्छादित कर लिया। इस प्रकार ब्रह्मह्लद तीर्थ पर्वत के नीचे गायब हो गया पर उसकी सात धाराएं पर्वत के नीचे से बहने लगीं। वे सातों धाराएं आज भी मौजूद हैं।
महाभारत के युद्ध के बाद पाण्डवों के मन में महासंहार का बड़ा दुख था। वे पवित्र होना चाहते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि तीर्थों की यात्रा करते समय भीमसेन की अष्टधातु की गदा जहां गलकर पानी हो जाए समझ लेना कि वहां सब लोग शुद्ध हो गये हैं।
पाण्डव हर तीर्थ में अपने शस्त्र धोते थे। एकायक यहां शस्त्र धोते ही भीमसेन की गदा सहित सभी शस्त्र पानी हो गए। इसलिए तभी से इस तीर्थ का नाम लोहागर पड़ गया।
कैसे पहुचें- पश्चिम रेलवे की एक लाइन राजस्थान में सवाई माधोपुर से लुहारू तक गई है। इसी लाइन पर सीकर या नवलगढ़ स्टेशन पड़ता है। बस यही लोहागर का नजदीकी स्टेशन है। यहां से तीर्थ स्थल तक जाने के लिए आसानी से साधन मिल जाते हैं।

श्राद्ध विधि : ऐसे करें पितरों को तृप्त


आश्विन कृष्ण पक्ष में जिस दिन पूर्वजों की श्राद्ध तिथि आए उस दिन पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध विधि-विधान से करना चाहिए। किंतु अगर आप किसी कारणवश शास्त्रोक्त विधानों से न कर पाएं तो यहां बताई श्राद्ध की सरल विधि को अपनाएं -

- सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें।
- घर आंगन में रंगोली बनाएं।
- महिलाएं शुद्ध होकर पितरों के लिए भोजन बनाएं।
- श्राद्ध का अधिकारी श्रेष्ठ ब्राह्मण (या कुल के अधिकारी जैसे दामाद, भतीजा आदि) को न्यौता देकर बुलाएं।
- ब्राह्मण से पितरों की पूजा एवं तर्पण आदि कराएं।
- पितरों के निमित्त अग्नि में गाय का दूध, दही, घी एवं खीर अर्पित करें। गाय, कुत्ता, कौआ व अतिथि के लिए भोजन से चार ग्रास निकालें।
- ब्राह्मण को आदरपूर्वक भोजन कराएं, मुखशुद्धि, वस्त्र, दक्षिणा आदि से सम्मान करें।
- ब्राह्मण स्वस्तिवाचन तथा वैदिक पाठ करें एवं गृहस्थ एवं पितर के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करें।

पितरों को कैसे भोजन मिलता है?

धर्मग्रंथों में श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को नास्तिक कहा गया है। पितरों की शांति न होने पर परिवार में पितृदोष उत्पन्न होता है।पितृदोष से अनेक प्रकार की व्याधियां तथा अशांति होती हैं। इसीलिए श्राद्ध कर पितरों को तृप्त किया जाता है।
यह उत्सुकता का प्रश्र होता है कि श्राद्ध में पितरों को चढ़ाए पदार्थ किस तरह पितरों तक पहुंचते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि माता-पिता को उनके गोत्र और नाम बोलकर जो भोजन अर्पण किया जाता है, वह उनको मिल जाता है। अगर मृत्यु के बाद देवयोनि मिली हो तो वह भोजन अमृत बनकर उनको मिलता है। इसी तरह गंधर्व लोक में जाने पर भोग रुप में, पशु योनि में घास के तिनके बनकर, नाग योनि में वायु बनकर, राक्षस योनि में मांस बनकर, पिशाच योनि में खून बनकर और मानव रुप में अनाज के रुप में मिलता है।
इस बारे में पुराणों में भी कहा गया है कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से बनकर मिलता है, इनके साथ मन, बुद्धि, प्रकृति और अहंकार आदि नौ तत्वों के साथ दसवें तत्व के रूप में भगवान पुरुषोत्तम निवास करते हैं। यही पितृ कहे जाते हैं।
सूक्ष्म रूप में रहने वाले पितर उन्हें अर्पित किए जाने वाले पदार्थों का सार शब्द, गंध, भावना जैसे सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं। इस प्रकार श्राद्ध के द्वारा हम भगवान को ही पूजते हैं। पितर श्राद्ध से संतुष्ट होकर आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, राज्य एवं अन्य सभी सुख भी देते हैं।

क्या करें-क्या न करें श्राद्ध पक्ष में


धार्मिक दृष्टि से हर धार्मिक परंपरा, उत्सव, पर्व और व्रत-उपवास के शुभ फल तभी मिलते हैं। जब उनसे संबंधित शास्त्रों में बताए गए विधान और नियम का सही पालन किया जाए। इसी कड़ी में श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के लिए कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।
- श्राद्ध में सात पदार्थ महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।
- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकला तक संतुष्ट रहते हैं।
- सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है। - केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।
- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।
- आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।
- चना, मसूर, बड़ा उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध निषेध है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

आवाज ने खोला भेद


 -अरुण कुमार बंछोर
किसी नगर में एक धोबी रहता था। अच्छा चारा न मिलने के कारण उसका गधा बहुत कमजोर हो गया था। एक दिन धोबी को जंगल में बाघ की एक खाल मिल गई। उसने सोचा कि रात में इस खाल को ओढ़ाकर मैं गधे को खेतों में छोड़ दिया करुँगा।
गाँववाले इसे बाघ समझेंगे और डर से इसके पास नहीं आएँगे। खेतों में चरकर यह खूब मोटा-ताजा हो जाएगा। एक रात गधा बाघ की खाल ओढ़े खेत में चर रहा था। तभी उसने दूर से किसी गधी का रेंकना सुना। उसकी आवाज सुनकर गधा प्रसन्न हो उठा और मौज में आकर स्वयं भी रेंकने लगा।
गधे की आवाज सुनते ही खेतों के रखवालों ने उसे घर लिया और पीट-पीटकर जान से मार डाला। इसलिए कहते हैं अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए। कभी-कभी यह खतरनाक भी साबित होता है।

चालक खरगोश
एक गुफा में एक बड़ा ताकतवर शेर रहता था। वह प्रतिदिन जंगल के अनेक जानवरों को मार डालता था। उस वन के सारे जानवर उसके डर से काँपते रहते थे। एक बार जानवरों ने सभा की। उन्होंने निश्चय किया कि शेर के पास जाकर उससे निवेदन किया जाए।
जानवरों के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि शेर के पास गए। जानवरों ने उसे प्रणाम किया।फिर एक प्रतिनिधि ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, ‘आप इस जंगल के राजा है। आप अपने भोजन के लिए प्रतिदिन अनेक जानवरों को मार देते हैं, जबकि आपका पेट एक जानवर से ही भर जाता है।’
शेर ने गरजकर पूछा-‘तो मैं क्या कर सकता हूँ?’सभी जानवरों में निवेदन किया, ‘महाराज, आप भोजन के लिए कष्ट न करें। आपके भोजन के लिए हम स्वयं हर दिन एक जानवर को आपकी सेवा में भेज दिया करेंगे। आपका भोजन हरदिन समय पर आपकी सेवा से पहुँच जाया करेगा।’
शेर ने कुछ देर सोचा और कहा-‘यदि तुम लोग ऐसा ही चाहते हो तो ठीक है। किंतु ध्यान रखना कि इस नियम में किसी प्रकार की ढील नहीं आनी चाहिए।’इसके बाद हर दिन एक पशु शेर की सेवा में भेज दिया जाता। एक दिन शेर के पास जाने की बारी एक खरगोश की आ गई।
खरगोश बुद्धिमान था।उसने मन-ही मन सोचा- ‘अब जीवन तो शेष है नहीं। फिर मैं शेर को खुश करने का उपाय क्यों करुँ? ऐसा सोचकर वह एक कुएँ पर आराम करने लगा। इसी कारण शेर के पास पहुँचने में उसे बहुत देर हो गई।’खरगोश जब शेर के पास पहुँचा तो वह भूख के कारण परेशान था।
खरगोश को देखते ही शेर जोर से गरजा और कहा, ‘एक तो तू इतना छोटा-सा खरगोश है और फिर इतनी देर से आया है। बता, तुझे इतनी देर कैसे हुई?’खरगोश बनावटी डर से काँपते हुए बोला- ‘महाराज, मेरा कोई दोष नहीं है। हम दो खरगोश आपकी सेवा के लिए आए थे। किंतु रास्ते में एक शेर ने हमें रोक लिया। उसने मुझे पकड़ लिया।’
मैंने उससे कहा- ‘यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे राजा तुम पर नाराज होंगे और तुम्हारे प्राण ले लेंगे।’ उसने पूछा-‘कौन है तुम्हारा राजा?’ इस पर मैंने आपका नाम बता दिया। यह सुनकर वह शेर क्रोध से भर गया।
वह बोला, ‘तुम झूठ बोलते हो।’ इस पर खरगोश ने कहा, ‘नहीं, मैं सच कहता हूँ तुम मेरे साथी को बंधक रख लो। मैं अपने राजा को तुम्हारे पास लेकर आता हूँ।’खरगोश की बात सुनकर दुर्दांत शेर का क्रोध बढ़ गया। उसने गरजकर कहा, ‘चलो, मुझे दिखाओ कि वह दुष्ट कहाँ रहता है?’खरगोश शेर को लेकर एक कुँए के पास पहुँचा।
खरगोश ने चारों ओर देखा और कहा, महाराज, ऐसा लगता है कि आपको देखकर वह शेर अपने किले में घुस गया।’शेर ने पूछा, ‘कहां है उसका किला?’ खरगोश ने कुएँ को दिखाकर कहा, ‘महाराज, यह है उस शेर का किला।’ खरगोश स्वयं कुएँ की मुँडेर पर खड़ा हो गया। शेर भी मुँडेर पर चढ़ गया। दोनों की परछाई कुएँ के पानी में दिखाई देने लगी।
खरगोश ने शेर से कहा, ‘महाराज, देखिए। वह रहा मेरा साथी खरगोश। उसके पास आपका शत्रु खड़ा है।’शेर ने दोनों को देखा। उसने भीषण गर्जन किया। उसकी गूँज कुएँ से बाहर आई। बस, फिर क्या था! देखते ही देखते शेर ने अपने शत्रु को पकड़ने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी और वहीं डूबकर मर गया।

मूर्तियों को पानी में क्यों करते हैं विसर्जित?.


अब गणपति की विदाई में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं। घर-घर में विराजे गणपति कल विदा होकर फिर अपने धाम चले जाएंगे। पीछे रह जाएगा एक सूनापन। लोग पूजन-अर्चनकर भगवान गणपति की प्रतिमा को नदी-तालाब और समंदर में विसर्जित कर देंगे। इस दौरान एक सवाल मन में उठता है कि प्रतिमाओं को पानी में ही क्यों बहाया जाता है? क्या इनकी विदाई का कोई और मार्ग नहीं है?

भगवान बारह दिन और माता दुर्गा नौ दिन हमारे घर में रहती हैं। उत्सव के आखिरी दिन हम इनकी प्रतिमाओं को नदी, तालाब या किसी अन्य जलस्रोत में विसर्जित कर देते हैं। दरअसल यह एक परंपरा ही नहीं है, इसके पीछे बहुत बड़ी वैज्ञानिकता और दर्शन छिपा है। वास्तव में जल से सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और जल ही पूरी सृष्टि का मूल है। जल बुद्धि का प्रतीक है और गणपति इसके अधिपति हैं। प्रतिमाएं नदियों की मिट्टी से बनती है। हम अपनी शुद्ध बुद्धि से यह कल्पना करते हैं कि इसमें भगवान विराजित हैं। अंतिम दिन हम प्रतिमाओं को जल में इसी लिए विसर्जित कर देते हैं क्योंकि वे जल के किनारे की मिट्टी से बने हैं और हमारी श्रद्धा से ही उसमें परमात्मा विराजित है।
पानी को इस सृष्टि में सबसे पवित्र तत्व माना गया है क्योंकि उससे ही सबकी उत्पत्ति हुई है। पानी को ही ब्रह्मा भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को हम विसर्जित करते समय यही सोचते हैं कि भगवान अपने धाम को वापस को जा रहे हैं यानी प्रतिमा अपने वास्तविक स्थान परमात्मा से मिलने जा रही है।

भागवत: ७३- ७४ : दाम्पत्य में झूठ नहीं होना चाहिए



भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए सतीदेवी गईं । विचार किया इनकी परीक्षा लूं तो सीता का वेश धर लिया और सोचा ये तो राजकुमार हैं सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सीता बनकर गईं और रामजी ने देखा तो दूर से प्रणाम किया। श्रीराम बोले आपको नमन है माताजी, पिताजी कहां हैं। ओह! सतीजी समझ गईं कि मैं पकड़ी गईं। ये तो मुझे पहचान गए। भागी वहां से, लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं।

शंकरजी ने पूछा देवी परीक्षा ले ली? कुछ उत्तर नहीं दिया, झूठ बोल दिया। ''कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।'' इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।झूठ बोल गईं अपने पति से। भगवान शंकर ने ध्यान लगाकर देखा कि घटना तो कुछ और हुई है और ये कुछ और बता रही हैं। इन्होनें सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गई, मेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। दोनों लौटकर कैलाश आए भगवान ध्यान में बैठ गए।
थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया । तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। उसी समय देखा ऊपर से विमान उड़कर जा रहे थे। मालूम हुआ कि पिता दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ किया है, ये सारे देवता उसी में भाग लेने जा रहे हैं। बेटी को चिंता हुई, पिता के घर इतना बड़ा काम और मुझे आमंत्रित नहीं किया। तब उनको ध्यान आया कि श्वसुर-दामाद का बैर चल का रहा है। सती ने कहा- हमको बुलाया नहीं गया लेकिन मैं जाऊंगी।

अहंकार ही पतन का कारण है

पिता दक्ष के यहां यज्ञ की बात सुनकर सतीजी अपने पति शंकरजी से बोलती हैं पिता के घर यज्ञ हो रहा है आप मुझे जाने दीजिए। शंकरजी कह रहे हैं देवी बात समझो, बिना आमंत्रण के नहीं जाना चाहिए। दक्षराज के मन में मेरे प्रति ईश्र्या है, आप मत जाइए। लेकिन सती बोलीं नहीं मैं तो जाऊंगी। शंकरजी ने कहा आप जाएं साथ में ये दो गण भी ले जाएं। ये आपकी रक्षा करेंगे।

वे गईं और जैसे ही वहां पहुंची तो देखा दक्षराज का बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था। दक्षराज ने देखा मेरी बेटी आई है तो ध्यान ही नहीं दिया अपनी बेटी पर। माता प्रसूति ने देखा तो बेटी से बोला आ तू बैठ। सतीजी ने कहा मां तू तो लाड़ करती हैं पर यह सब क्या, मेरे पति शंकरजी का आसन नहीं है। उनका स्थान नहीं इस यज्ञ में, यह तो बड़ा भारी अपमान है। तब बड़ा क्रोध आया सतीजी को और क्रोधाग्नि में उन्होंने अपनी देह को भस्म कर दिया। जैसे ही उनकी देह भस्म हुई शंकरजी के गणों ने उपद्रव शुरू कर दिया। दक्ष के सैनिकों ने उनकी पिटाई कर दी। कुटे-पिटे गण आए शंकरजी के पास कैलाश पर। पूरा वृत्तांत सुनाया। शंकरजी को क्रोध आया, जटाएं हिलाईं। वीरभद्र नाम का एक गण पैदा किया, और कहा जाओ ध्वंस कर दो दक्ष के यज्ञ को।
शिवजी तांडव की मुद्रा में आ गए। वीरभद्र ने सारा यज्ञ ध्वंस कर दिया। सारे देवता दौड़ते-भागते ब्रह्मा और विष्णुजी के पास गए। भगवान ने कहा तुमने शिव के प्रति अपराध किया तो यह तो भुगतना ही है। सबने जाकर भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाएं इनको क्षमा कर दें, उन्होंने क्षमा भी किया। इसीलिए उनका एक नाम आशुतोष पड़ा। इस तरह यह कथा हमको यह बता रही है कि दक्ष का अहंकार दक्ष को ले डूबा। सती को जाते-जाते ये बड़ा दु:ख था कि मैं अपने पति का अपमान नहीं देख सकती इसलिए मैं जा रही हूं लेकिन मैं जन्म-जन्म तक इन्हें ही पति चाहती हूं।

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

दोस्ती की परख

अरुण कुमार बंछोर
एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।
खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"उन्होंने कहा - "अच्छा ।" तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।
एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा - "तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"
गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया । कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।
तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।
बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया । वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है। दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।

बोलने वाली मांद
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक बार वह दिन-भर भटकता रहा, किंतु भोजन के लिए कोई जानवर नहीं मिला। थककर वह एक गुफा के अंदर आकर बैठ गया। उसने सोचा कि रात में कोई न कोई जानवर इसमें अवश्य आएगा। आज उसे ही मारकर मैं अपनी भूख शांत करुँगा।
उस गुफा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गुफा पर आया। उसने गुफा के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान देखे। उसने ध्यान से देखा। उसने अनुमान लगाया कि शेर अंदर तो गया, परंतु अंदर से बाहर नहीं आया है। वह समझ गया कि उसकी गुफा में कोई शेर छिपा बैठा है।
चतुर सियार ने तुरंत एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।उसने द्वार से आवाज लगाई- ‘ओ मेरी गुफा, तुम चुप क्यों हो? आज बोलती क्यों नहीं हो? जब भी मैं बाहर से आता हूँ, तुम मुझे बुलाती हो। आज तुम बोलती क्यों नहीं हो?’
गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज देकर सियार को बुलाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है। इसलिए आज मैं ही इसे आवाज देकर अंदर बुलाता हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई और कहा-‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’
आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि अंदर शेर बैठा है। वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और इस तरह सियार ने चालाकी से अपनी जान बचा ली।

लालच बुरी बला है
किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था। सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था।
उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है। मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही वह उठा और कहीं से जाकर दूध मांग लाया।
उसे उसने एक मिट्टी के बरतन में रखा और बिल के समीप जाकर बोला, “हे क्षेत्रपाल! आज तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध कीजिए।”
इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया। वहां उसने देखा कि जिस बरतन में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।
उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा मिली।इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया करती थी।
कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदानुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।
उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन ही मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है। मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया।
इससे सर्प तो मरा नहीं और इस प्रकार से क्रुद्ध होकर उसने ब्राह्मण-पुत्र को अपने विषभरे दांतों से काटा कि उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं उसी खेत पर जला दिया। कहा भी जाता है लालच का फल कभी मीठा नहीं होता है।

चालक खरगोश
एक गुफा में एक बड़ा ताकतवर शेर रहता था। वह प्रतिदिन जंगल के अनेक जानवरों को मार डालता था। उस वन के सारे जानवर उसके डर से काँपते रहते थे। एक बार जानवरों ने सभा की। उन्होंने निश्चय किया कि शेर के पास जाकर उससे निवेदन किया जाए।
जानवरों के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि शेर के पास गए। जानवरों ने उसे प्रणाम किया।फिर एक प्रतिनिधि ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, ‘आप इस जंगल के राजा है। आप अपने भोजन के लिए प्रतिदिन अनेक जानवरों को मार देते हैं, जबकि आपका पेट एक जानवर से ही भर जाता है।’
शेर ने गरजकर पूछा-‘तो मैं क्या कर सकता हूँ?’सभी जानवरों में निवेदन किया, ‘महाराज, आप भोजन के लिए कष्ट न करें। आपके भोजन के लिए हम स्वयं हर दिन एक जानवर को आपकी सेवा में भेज दिया करेंगे। आपका भोजन हरदिन समय पर आपकी सेवा से पहुँच जाया करेगा।’
शेर ने कुछ देर सोचा और कहा-‘यदि तुम लोग ऐसा ही चाहते हो तो ठीक है। किंतु ध्यान रखना कि इस नियम में किसी प्रकार की ढील नहीं आनी चाहिए।’इसके बाद हर दिन एक पशु शेर की सेवा में भेज दिया जाता। एक दिन शेर के पास जाने की बारी एक खरगोश की आ गई।
खरगोश बुद्धिमान था।उसने मन-ही मन सोचा- ‘अब जीवन तो शेष है नहीं। फिर मैं शेर को खुश करने का उपाय क्यों करुँ? ऐसा सोचकर वह एक कुएँ पर आराम करने लगा। इसी कारण शेर के पास पहुँचने में उसे बहुत देर हो गई।’खरगोश जब शेर के पास पहुँचा तो वह भूख के कारण परेशान था।
खरगोश को देखते ही शेर जोर से गरजा और कहा, ‘एक तो तू इतना छोटा-सा खरगोश है और फिर इतनी देर से आया है। बता, तुझे इतनी देर कैसे हुई?’खरगोश बनावटी डर से काँपते हुए बोला- ‘महाराज, मेरा कोई दोष नहीं है। हम दो खरगोश आपकी सेवा के लिए आए थे। किंतु रास्ते में एक शेर ने हमें रोक लिया। उसने मुझे पकड़ लिया।’
मैंने उससे कहा- ‘यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे राजा तुम पर नाराज होंगे और तुम्हारे प्राण ले लेंगे।’ उसने पूछा-‘कौन है तुम्हारा राजा?’ इस पर मैंने आपका नाम बता दिया। यह सुनकर वह शेर क्रोध से भर गया।
वह बोला, ‘तुम झूठ बोलते हो।’ इस पर खरगोश ने कहा, ‘नहीं, मैं सच कहता हूँ तुम मेरे साथी को बंधक रख लो। मैं अपने राजा को तुम्हारे पास लेकर आता हूँ।’खरगोश की बात सुनकर दुर्दांत शेर का क्रोध बढ़ गया। उसने गरजकर कहा, ‘चलो, मुझे दिखाओ कि वह दुष्ट कहाँ रहता है?’खरगोश शेर को लेकर एक कुँए के पास पहुँचा।
खरगोश ने चारों ओर देखा और कहा, महाराज, ऐसा लगता है कि आपको देखकर वह शेर अपने किले में घुस गया।’शेर ने पूछा, ‘कहां है उसका किला?’ खरगोश ने कुएँ को दिखाकर कहा, ‘महाराज, यह है उस शेर का किला।’ खरगोश स्वयं कुएँ की मुँडेर पर खड़ा हो गया। शेर भी मुँडेर पर चढ़ गया। दोनों की परछाई कुएँ के पानी में दिखाई देने लगी।
खरगोश ने शेर से कहा, ‘महाराज, देखिए। वह रहा मेरा साथी खरगोश। उसके पास आपका शत्रु खड़ा है।’शेर ने दोनों को देखा। उसने भीषण गर्जन किया। उसकी गूँज कुएँ से बाहर आई। बस, फिर क्या था! देखते ही देखते शेर ने अपने शत्रु को पकड़ने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी और वहीं डूबकर मर गया।

रविवार, 19 सितंबर 2010

भागवत: ७०-७२: ऐसे करें भगवान के दर्शन


अभी मनु और शतरूपा की संतानों की कथा चल रही है। जब मनु और शतरूपा ने भगवान के पहली बार दर्शन किए तो भगवान के दर्शन को लेकर मनु और शतरूपा ने जो भाव प्रकट किया वो हमारे भीतर हमें रखना चाहिए। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, मनु-शतरूपा ने देखा तो ऐसा लिखा है-
छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी, एकटक रहे नयन पट रोकी। चितवहीं सादर रूप अनूपा, तृप्ति न मानही मनु-शतरूपा।छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी

अर्थात भगवान के रूप को देखकर ऐसा लगे कि ये छवि का समुद्र है, सौंदर्य का सागर है । पहला भाव ये होना चाहिए। एकटक रहे नयन पट रोकी अर्थात एकटक हो जाइए, अचंभित हो जाइए जैसे बहुत समय बाद हमारा परिचित मिले हम उसको देखकर चौंक जाते हैं, ऐसे ही भगवान को देखकर एकदम अचंभित होने का भाव लाइए। नयनपट रोकी, पलकों को झुकाना बंद कर दीजिए। पलक तो दुनिया के सामने झुकाई जाती है भगवान को देखें तो एकटक देखते रहें। तीसरा काम नैनो को रोक दीजिए आंख खुली रखकर देखते जाइए-देखते जाइए।
चितवहीं सादर रूप अनूपा, चौथी बात प्रतिमा को देखें तो सादर, आदर का भाव रखें। मूर्ति के प्रति सम्मान का भाव रखें, गरिमा से खड़े रहें। चितवहीं सादर रूप अनूपा, एक शब्द आया अनूपा, भगवान के रूप को देखें तो प्रतिपल अनूप लगना चाहिए, नया-नया लगना चाहिए। छठी सबसे महत्वपूर्ण बात तृप्ति न मानहीं मनु-शतरूपा। दर्शन करने के बाद मनु-शतरूपा को तृप्ति नहीं हुई। अतृप्त भाव बना रहे। भगवान के दर्शन करने के बाद तृप्ति का भाव न बना रहे। इन छह तरीकों से भगवान के दर्शन किए जाते हैं।

दिव्य है शंकर-पार्वती का दाम्पत्य

मनु-शतरूपा ने अपनी पुत्री प्रसूति दक्षराज को सौंपी और प्रसूति तथा दक्ष की सौलह कन्याएं हुईं उसमें सौलहवीं सबसे छोटी कन्या थीं सती। सतीजी का विवाह किया गया शंकरजी से। अब आप सती और शंकर का दाम्पत्य देखिए। सती के साथ शंकरजी का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। ग्रंथकार अब हमको आगे ले जा रहे हैं। दक्ष की कथा बताई।
सबसे पहले जब दक्ष को सम्मान मिला तो दक्ष को आया अहंकार। एक बार साधु-संतों का कार्यक्रम था, अनुष्ठान था उसमें सब देवता साधु-महात्मा बैठे हुए और उसमें दक्ष सबसे बाद में आए। उन्होंने इधर-उधर देखा कि मैं आया तो सब खड़े हो गए पर शंकर भगवान खड़े नहीं हुए, ध्यान लगाए बैठे थे। बस यहीं से श्वसुर और दामाद में बैर-भाव आरंभ हो गया। दोनों में मतभेद हो गए। उस सभा में बात ऐसी हुई कि दक्ष के जो सचिव थे उन्होंने शंकरजी को कुछ कह दिया। तो शंकरजी के जो गण थे उन्होंने उनको भी अपशब्द कह दिए। सती को भी ये मालूम हो गया कि मेरे पिता से मेरे पति का मतभेद हो गया है।
एक बार शंकरजी की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शंकरजी आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शंकरजी को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सतीदेवी ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शंकरजी तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शंकरजी को आनंद हो गया। हम संक्षेप में चर्चा करते चल रहे हैं। शंकरजी ने कथा सुनी, अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं।

जब माता सती ने ली श्रीराम की परीक्षा

सतीजी कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं। शंकरजी ने बोला आपकी इच्छा आप सुनो या न सुनो। जब दोनों पति-पत्नी लौट रहे थे तब भगवान श्रीरामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। सीताजी का अपहरण हो चुका था। भगवान सीताजी को ढूंढ रहे थे। सामान्य राजकुमार से रो रहे थे। यह देखकर शंकरजी ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शंकरजी ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद।
और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सतीजी का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पतिदेव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को। शंकरजी ने बोला ''सतीदेवी आप समझ नहीं रही हैं ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए''। सतीजी ने बोला मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। सतीजी ने कहा ये ब्रह्म हैं मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी। शंकरजी ने कहा ले लीजिए लेकिन मर्यादा का ध्यान रखना देवी तथा एक पत्थर पर बैठ गए।
सतीजी गईं हठ करके परीक्षा लेने। लिखा है ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहां प्रभु सुखधामा।'' शंकरजी कह रहे हैं अब जो होगा भगवान की इच्छा। कई लोग इन पंक्तियों का अर्थ आलस्य से करते हैं। ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।'' तर्क की शाखा बढ़ाने से क्या फायदा, होगा वही जो भगवान चाहेंगे। इसलिए कुछ मत करो ऐसा समझना बिल्कुल गलत बात है। शंकरजी ने पूरा पुरूषार्थ किया, कथा सुनाने ले गए , कथा सुनाते समय समझाया, वापस समझाया अपना पूरा पुरूषार्थ करने के बाद परिणाम के लिए भगवान पर छोड़ दिया।

यहां की गर्मी से पानी भी उबल जाता है



सहारा मरूस्थल को विश्व की सबसे गर्म जगह माना जाता है। यहां ऐसा लगता है मानो बादल पानी की जगह आग बरसा रहे हों। पर भारत में भी एक जगह ऐसी है जहां की गर्मी पानी को भी उबाल देती है। वह जगह है- मणिकर्ण।
पौराणिक मान्यता- मणिकर्ण पर्वत का नाम हरेन्द्रगिरि भी है। मणिकर्ण का महात्म्य ब्रह्माण्डपुराण में आता है। भगवान शंकर के कान की मणि गिर जाने से इसका नाम मणिकर्ण पड़ा।
अद्भुत तथ्य- मणिकर्ण सरोवर का पानी इतना गर्म है कि अगर शरीर के किसी भाग पर उसकी एक बूंद भी गिर जाए तो उतने भाग पर फफोला पड़कर मांस उधड़ जाता है। मणिकर्ण सरोवर के जल से बटलोही में चावल रखकर पकाया जाता है।
कहते हैं कि इसका गर्म पानी चर्म रोगों में मिटाने में काफी असरदार रहता है।
अन्य दर्शनीय स्थल- मणिकर्ण सरोवर से आधे किलोमीटर दूर पार्वतीगंगा है जिसका प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त मनोहर है। यहां आए श्रद्धालु मणिकर्ण तथा पार्वतीगंगा के संगम पर स्नान करते हैं।
कैसे पहुचें- मणिकर्ण पहुंचने के लिए अमृतसर से पठानकोट होती हुई योगीन्द्रनगर तक रेल जाती है। उसके आगे मोटर-लारी भूमन्तर पड़ाव पर छोड़ देती है। यहां से पैदल व्यासगंगा का पुल पार करके 20 किलोमीटर चलने पर जरी पड़ाव आता है। उसके आगे चढ़ाई पर पार्वतीगंगा के तट पर मणिकर्ण तीर्थ आता है।
चूंकि यह पहाड़ी इलाका है इसलिए यहां पैदल बहुत चलना पड़ता है।

क्यों शुभ है नाचते हुए गणेश की तस्वीर ?


भगवान श्रीगणेश आदि व अनन्त हैं। पुरातन काल से ही भगवान गणेश की पूजा सबसे पहले करने का विधान है। भगवान गणेश की पूजा कई रूपों में की जाती है जैसे- लंबोदर, शूपकर्ण, एकदंत आदि। भगवान गणेश के हर स्वरूप का अपना एक अलग महत्व है। वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन के दरवाजे के ऊपर भगवान गणेश की तस्वीर लगाना अति शुभ होता है। ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता।

वास्तु शास्त्रियों की मानें तो घर में नाचते हुए गणेश की तस्वीर लगाना अति शुभ होता है। इस स्वरूप में भगवान गणेश अति प्रसन्न नजर आते हैं। इस तस्वीर से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार होता है तथा सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा स्वत: ही घर से बाहर चली जाती है। नाचते हुए गणेश की तस्वीर को देखने से मन प्रफुल्लित होता है तथा घर में संपन्नता का वास होता है। जब घर के सदस्य खुश होंगे और घर में संपन्नता होगी तो जीवन सुखमय हो जाएगा। नाचते हुए गणेश की तस्वीर घर में ऐसे स्थान पर लगाना चाहिए जहां बार-बार नजर आए जिससे कि इसका प्रभाव मनोमस्तिष्क पर बना रहे।

एक शाप, मिली दो पत्नियां


प्राय: पूजा-अर्चना में भगवान को तुलसी चढ़ाना बहुत पवित्र माना जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से भी तुलसी को औषधीय गुणों वाला पौधा माना जाता है। किंतु भगवान गणेश की पूजा में पवित्र तुलसी का प्रयोग निषेध माना गया है। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है -

एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप कर रहे थे। तभी विवाह की इच्छा से तीर्थ यात्रा पर निकली देवी तुलसी वहां पहुंची। वह श्री गणेश के रुप पर मोहित हो गई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।
इस बात से दु:खी तुलसी ने श्री गणेश के दो विवाह होने का शाप दिया। इस श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारी संतान असुर होगी। एक राक्षस की मां होने का शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम्हारी संतान शंखचूर्ण राक्षस होगा। किंतु फिर तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा।
तब से ही भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।

घर में न आए नकारात्मक ऊर्जा


वास्तु शास्त्र सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा के सिद्धांत पर कार्य करता है। यदि घर में या घर के आस-पास कोई ऐसी वस्तु हो जिससे नकारात्मक ऊर्जा निकलती हो तो यह गंभीर वास्तु दोष की श्रेणी में आता है। ऐसे दोषों को इस प्रकार दूर किया जा सकता है-

1- घर के आंगन में सूखे एवं भद्दे दिखने वाले पेड़ जीवन के अंत की ओर इशारा करते हैं। ऐसे पेड़ों या ठूंठ को शीघ्र ही कटवा देना चाहिए।
2- इंटीरियर डेकोरेशन के लिए कुछ ऐसी कलाकृतियों का प्रयोग होता है जो सूखे ठूंठ या नकारात्मक आकृति के होते हैं। ये सभी मृतप्राय: सजावटी वस्तुएं वास्तु शास्त्र में अच्छे नहीं माने जाते हैं अत: इनके प्रयोग से भी बचें।
3- यदि ड्रॉइंगरूम में फूलों को सजाते हैं तो ध्यान दें कि उन्हें प्रतिदिन बदलते रहना जरुरी है। चूंकि जब ये फूल मुरझा जाते हैं तो इनसे नकारात्मक ऊर्जा निकलने लगती है।
4- कभी-कभी बेडरूम की खिड़की से नकारात्मक वस्तुएं दिखाई देती हैं जैसे- सूखा पेड़, फैक्ट्री की चिमनी से निकलता हुआ धुआं आदि। ऐसे दृश्यों से बचने के लिए खिड़कियों पर परदा डाल दें।
5- किसी भी भवन के मुख्य द्वार के पास या बिल्कुल सामने बिजली के ट्रांसफार्मर लगे होते हैं जिनसे चिंगारियां निकलती हैं । ऐसे दृश्य भी नकारात्मक ऊर्जा फैलाते हैं।
6- पुराने भवन के भीतर कमरों की दीवारों पर सीलन पैदा होने से बनी भद्दी आकृतियां भी नकारात्मक ऊर्जा का सूचक होती हैं। ऐसी दीवारों की तुरंत रिपेयरिंग करवा लें।
(sabhar bhaskar)

शनिवार, 18 सितंबर 2010

रूठा है तो मना लेंगे!


रूठे हुए को मनाने के बीच सबसे बड़ी अड़चन होता है अहंकार! अगर यह अहंकार नहीं होता तो हजारों परिवार टूटने से बच जाते, रिश्तों के बीच खटास नहीं आती। अपने अहंकार को पोषित करने के लिए व्यक्ति अपनों के साथ रिश्तों को ताक पर रख देता है। इस एक अवगुण को दूर करें तो रिश्ते टूटने से बच सकते हैं।
यकीन मानिए, यदि आगे बढ़कर आपने 'सॉरी' कह दिया तो आप छोटे नहीं होंगे बल्कि इससे आपका बड़प्पन ही झलकेगा, फिर चाहे बात दोस्ती के रिश्तों की हो या पति-पत्नी के बीच संबंधों की।
हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता था। हमारे बगल में होने के कारण उसके घर की बातें हमें अनायास ही सुनाई पड़ती थीं। पिता व पुत्र के बीच जैसा सम्मानजनक रिश्ता होना चाहिए, वैसा उस घर में नहीं था।
बेटा अपने पिता से सीधे मुँह बात तक नहीं करता था। अपने पिता का कुछ भी पूछना या सलाह देना उसे गवारा नहीं था। उनके कुछ पूछते ही वह उबल पड़ता था कि 'अब मैं बड़ा हो गया हूँ। अपना भला-बुरा समझता हूँ। बात-बात पर मुझे टोका मत कीजिए।'
कुछ समय बाद उसकी शादी हुई और जब वह पिता बना, तब उसे अहसास हुआ कि माँ-बाप अपने बच्चों का हमेशा ही भला चाहते हैं। पर जब उसे होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी। उसके पिता इस दुनिया से दूर जा चुके थे।
अब उसे यही दर्द सालता रहता है कि मैंने अपने अहंकार के चलते अपने पिता से बदसलूकी की। मैंने अदब से, नम्रता से पिता को समझने की कोशिश व अपनी बात समझाने की कोशिश क्यों नहीं की!
अक्सर किसी भी विवाद की स्थिति में दोनों पक्ष कहते हैं कि गलती दूसरे पक्ष की है और चूँकि गलती उनकी है तो उनको ही झुकना चाहिए। यह तनातनी और गुस्सा सेहत पर भी बुरा असर डालता है। आपने देखा होगा कैसे बच्चे आपस में लड़ते हैं और बाद में सब भूलकर फिर खेलने लग जाते हैं। उनका अनुसरण करने की जरूरत हमें भी है।
आपके अपने अनमोल हैं। प्यार का भी कोई मूल्य नहीं होता। इसे तो बस प्यार और सम्मान देकर ही पाया जा सकता है। पति-पत्नी के बीच अहं का टकराव, मामूली-सी बात पर तनातनी आम बात हो गई है। इस पर कोई झुकने को भी तैयार नहीं होता और कई-कई दिनों तक बातचीत बंद हो जाती है।
याद रखें, इससे आपके बच्चों पर भी बुरा असर पड़ता है। यदि आप आगे बढ़कर अपने से रूठे हुए को मनाएँगे तो उन्हें भी अपनी गलती का अहसास होगा। इससे प्यार में इज़ाफा ही होगा। इस बात का भी ध्यान रखें कि पड़ोसियों से जब भी मिलें, मुस्कराकर मिलें।
अगर आपके और उनके स्वभाव नहीं मिलते तो सम्मानजनक दूरी बनाएँ। रिश्ता कोई भी हो, आपसे कोई रूठा हुआ है तो उसे मनाने के लिए आप ही पहल करें। यदि आप उससे मिल नहीं सकते तो कम से कम फोन तो कर ही सकते हैं।
हर किसी को उसकी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों के साथ स्वीकार करें। हर समस्या को धीरज के साथ बैठकर पूरी तहजीब के साथ, बिना किसी गुस्से के, गरिमामय वातावरण बनाए रखते हुए सुलझाएँ।

जादूगर चाचा...


पंडित जवाहरलाल नेहरू मजेदार बातों के एक ऐसे जादूगर भी थे, जो एक मिनट के भीतर क्या से क्या कर सकते थे? नेहरूजी को भाषा पर अधिकार था। वे बहुत अच्छा बोलते थे।
जीवन भर तुनकते-तपते नेहरूजी, संसार में अपनी, भारत की और अहिंसा की नीति का आदर पाकर अपनी सारी गर्मी, उत्तेजना और झुंझलाहट को अपने भीतर से निकाल चुके थे।
एक बार कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन के समय बड़ी भीड़ हुई। भीड़ इतनी बढ़ी कि महिलाओं के बैठने के स्थान के पीछे पुरुषों की भारी भीड़ जमा होकर उमड़ पड़ी।
नेहरूजी से देखा न गया, वे माइक पर आए, भीड़ की ओर देखा और बोले, आप पुरुष होकर महिलाओं में आ रहे हैं? जिनको आना हो वे सानंद आ सकते हैं, हमारी मुबारकबाद।
उफनते हुए दूध पर जैसे पानी के ठंडे छींटे पड़ गए, भीड़ पीछे खिसक गई! नेहरूजी को इतिहास के पन्नों में 'मजेदार बातों का जादूगर' भी कहा जाता है।


चतुर कविराज
एक थे चतुर कविराज, उन्हें था अपनी अकल पर बड़ा नाज। वो थे भी होशियार, राजा भी उनकी हर बात मानने को हो जाते थे तैयार।
एक दिन कविराज ने एक कविता लिखी, सुनकर राजा की तबियत खिली। बोले-'बोलो क्या माँगते हो, क्या इनाम चाहते हो।' कविराज ने सोचा देखते हुए ऊपर, फिर दिया कुछ देर बाद उत्तर-'महाराज मुझे तो दे दीजिए एक शिकारी कुत्ता' सुनकर सारे दरबारी हुए हक्का-बक्का।
सब दरबारियों ने सोचा कविराज ने एक अवसर खो दिया, खनखनाते सिक्कों से हाथ धो लिया। राजा ने कहा-'जो तुमने माँगा है वह मिल जाएगा, शिकारी कुत्ता तुम्हें दे दिया जाएगा।'
कविराज ने कहा-'महाराज आप हैं बहुत दयावान, यदि घोड़ा भी होता मेरे पास तो मैं शिकार पर जाता श्रीमान।' राजा ने कहा-'घोड़ा भी दे देते हैं, तुम्हारी इच्छा पूरी कर देते हैं।'
कविराज ने आगे कहा-'जब भी शिकार मेरे साथ आए, तो चाहता हूँ कि कोई उसे पकाकर खिलाए।'
राजा ने उसे रसोइया भी दे दिया, पर आगे कविराज ने कहा-'आपकी उदारता का नहीं है जवाब, पर मैं इतने सारे उपहार कहाँ रखूँगा जनाब?' राजा ने उसे एक महल भी दे दिया, कविराज का मन अभी भी नहीं था भरा।
फिर उसने कहा-'मैं इतनी बड़ी व्यवस्था को संभालूँगा कैसे, यह सब काम होगा कैसे?' राजा ने कहा मैं दूँगा तुम्हें एक खजूर का बाग, उसमें जमा लेना अपना सारा काम। 'मैंने देखी नहीं ऐसी दयालुता, ऐसी उदारता। मैंने जो चाहा आपने दिया। आप हैं कविता के सही कदरदान, मेरा आभार स्वीकार करें श्रीमान।'


वसंत का रहस्य
- जयेंद्र
वसंत का मौसम सचमुच कितना खुशनुमा लगता है। वन में, बगियों में रंग-बिरंगे फूल खिले रहते हैं। आम की शाखा पर कोपले पंचम स्वर में कूँकती रहती हैं। भँवरे और तितली फूलों पर मँडराते रहते हैं, सूरजमुखी एवं सरसों के फूलों से अटे खेत सोने की तरह चमकते दिखाई देते हैं।
बुद्धि, विद्या और वाणी की देवी 'सरस्वती' का जन्मदिन 'वसंत पंचमी' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन देवी सरस्वती की आराधना की जाती है। इस दिन पीले वस्त्र पहनना तथा पीले व्यंजन खाना शुभ समझा जाता है। वसंत ऋतु की भी एक हानि है। यूनान में अनाज और कृषि की एक देवी मानी जाती है, जिसे 'डैमेटर' कहते हैं। किसी समय इस देवी के एक रूपवान लड़की थी, जिसका नाम था फलेरी। ऐसे ही एक बार जब यूनान में वसंत ऋतु चल रही थी तो फलेरी ने चुपचाप अपनी माँ का सोने का रथ हाँका और वह आसमान से धरती पर उतरी, अपने रथ को धरती के राजा प्लेटो के शाही बगीचे में ले जाकर मस्त-मस्त रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों के बीच घूमने-फिरने लगी, कभी फूल तोड़ने लगी तो कभी प्यारी-प्यारी तितलियाँ पकड़ने लगी..।
राजा प्लेटो जब किसी काम से अपने शाही उपवन में आया तो उसकी नजर फूलों के बीच खड़ी खूबसूरत फलेरी पर अटकी। वह उस पर मोहित हो गया। उसने तरकीब से उसका अपहरण कर अपने महल में ले गया और उसके साथ चुपचाप विवाह रचा लिया।
इधर जब डैमेटर को अपनी बेटी स्वर्ग लोक में कहीं दिखाई न दी तो वह पृथ्वी पर उतरी। उसने पृथ्वी का चप्पा-चप्पा छान मारा, किंतु उसे अपनी बेटी कहीं नहीं मिली। अंत में वह निराश होकर एक पेड़ के नीचे बैठकर रोने लगी, जब सूर्य देवता ने डैमेटर को इस तरह रोते देखा तो उन्हें दया आ गई। उन्होंने फलेरी का पता उसे बता दिया। यह अनोखी खबर सुनते ही डैमेटर गुस्से में आग बबूला हो गई। आखिर वह भी एक देवी थी। राजा प्लेटो की यह मजाल कि वह उसकी बेटी को इस तरह चुराकर अपने महल में रख ले। उसने तुरंत घोषणा कर दी। पृथ्वी पर अनाज का एक भी दाना तब तक न निकले, जब तक कि उसकी बेटी उसे वापस नहीं मिल जाती। किसानों ने अपने खेतों में जी-तोड़ मेहनत की, खेतों को खाद से पाट दिया, किंतु सब व्यर्थ, अनाज का एक भी दाना नहीं उगा, अब तो पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मचने लगी। खलिहान सूने पड़े रहे। सभी देवताओं को चिंता होने लगी कि कहीं पृथ्वी पर अकाल न पड़ जाए? अंत में देवताओं के राजा जुपिटर ने यह निश्चय किया कि उसे शीघ्र ही इन दोनों में कोई समझौता करा देना चाहिए, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा, उसने डैमेटर से आग्रह किया कि वह अपना कड़ा प्रतिबंध पृथ्वी से हटा ले...।
लेकिन, डैमेटर तो अड़ी हुई थी कि जब तक उसे अपनी बेटी वापस नहीं मिल जाती, वह पृथ्वी पर एक भी बीज नहीं फूटने देगी। इधर प्लेटो भी फलेरी को छोड़ना नहीं चाहता था। अंत में जुपिटर ने दोनों के बीच एक समझौता कराया कि फलेरी छः महीने राजा प्लेटो के पास रहेगी और छः महीने अपनी माँ के पास।
फलेरी जब अपने पति के पास होती है तो बसंत ऋतु आ जाती है, फूल खिलकर महकने लगते हैं। वृक्षों पर कोयल की सुरीली आवाज सुनाई देने लगती है और जब छः महीने के लिए अपनी प्यारी-प्यारी माँ के पास लौटती है तो पृथ्वी पर पतझड़ आ जाता है।

भगवान का साथ
एक समय की बात है। एक छोटे बच्चे ने जब बचपन से जवानी में प्रवेश किया। तब वह कहीं भी जाता तो उसके पदचिह्न के साथ एक और पदचिह्न नजर आते थे, लेकिन जब वह बूढ़ा हुआ तो ये पदचिह्न नजर आना बंद हो गए।
जब वह मरने के बाद भगवान के पास गया और उसने भगवान से प्रश्न पूछा- जब तक मैं जवान था तब तक मुझे मेरे पदचिह्न
के साथ एक और पदचिह्न नजर आते थे, तब भगवान ने कहा- वह मेरे पदचिह्न थे। इस पर उसने पूछा- जब मुझे बुढ़ापे में आपकी जरूरत थी। तब आपने मेरा साथ छोड़ दिया।
तब भगवान ने कहा- तब तू चल नहीं सकता था। तब मैं ही तुझे उठाकर चल रहा था। इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हर क्षण- हर वक्त भगवान हमारे साथ हैं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

प्रेम कहानी


तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी।
लाइब्रेरी में लड़का अपने सामने अखबार फैलाए बैठा था, मगर उसका सारा ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही था। सीढ़ियों पर जैसे ही किसी के आने की आहट होती, वह चौकन्ना होकर उधर देखने लगता। उसे पूरी उम्मीद थी, कि लड़की आएगी। दरअसल वह खुद ही तयशुदा वक्त से पंद्रह-बीस मिनट पहले आ गया था। आज तो लड़की को हर हालत में आना ही था, क्योंकि वह नौकरी ज्वॉइन करने दिल्ली जो जा रहा था।
यूँ इस कस्बे में उन दोनों की मुलाकातें न के बराबर ही हो पाती थीं। सारा दिन एक-दूसरे के लिए तड़पते रहने के बावजूद, वे दस-पंद्रह दिनों में एकाध बार, बस तीन-चार मिनट के लिए ही मिल पाते थे। इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान भी आमतौर पर उनमें आपस में कोई बात न हो पाती। उनकी बातचीत का माध्यम वे स्लिपें ही रह गई थीं, जो एक-दूसरे को लिखा करते थे। इन्हीं स्लिपों में वे अपनी सब भावनाएँ, अपने सब दर्द उड़ेल दिया करते थे। इन्हीं स्लिपों से तय होती थी, उनकी अगली मुलाकात की जगह और उसका वक्त।
दरअसल छोटे से इस कस्बे में लड़के-लड़की का आपस में बात करना इतना आसान नहीं था। बात तो कहीं न कहीं की जा सकती थी, पर बात करने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे कस्बे में फैलते देर नहीं लगती थी। कम उम्र के होने के बावजूद लड़के-लड़की में इतनी समझ थी, कि वे न तो अपनी और न अपने घर वालों की बदनामी होने देना चाहते थे। इसलिए जब भी वे आपस में मिलते तो यही कोशिश करते, कि बात न की जाए। हाँ, कभी-कभार मौका मिल जाने पर एकाध वाक्य का आदान-प्रदान हो जाया करता था।
लड़का अखबार सामने रखे अपने आसपास बैठे लोगों पर भी नजर रखे था। यह ध्यान रखना बेहद जरूरी था, कि उन लोगों में से उसकी जान-पहचान का कोई न हो। साथ ही इस बात का ख्याल रखना भी जरूरी था, कि वहाँ बैठे किसी आदमी को उस पर यह शक न हो जाए कि वह वहाँ अखबार पढ़ने के लिए नहीं बल्कि किसी और इरादे से आया है। एक समस्या और भी थी। सामने के, किताबों से भरी अलमारियों वाले, कमरे में लाइब्रेरियन के अलावा कई लोग मौजूद होते थे। उस कमरे में लोगों का आना-जाना भी लगा रहता था।
लड़के-लड़की की मुलाकात करीब एक साल पहले एक टाइपिंग क्लास में हुई थी। लड़के ने बीए करने के बाद नौकरी पाने के लिए कोई इम्तिहान दिया था और फिर टाइपिंग सीखने के लिए इस क्लास में आने लगा था। यहाँ आना शुरू करने के दूसरे-तीसरे दिन से उसने एक टाइपराइटर छोड़कर, अगले टाइपराइटर पर टाइप करती लड़की पर ध्यान देना शुरू किया था। वह भी टाइप करने दो से तीन बजे ही आया करती थी। हालाँकि वह एक छोटे कद की, साँवली सी, साधारण-सी लड़की थी, पर न जाने क्यों लड़के को वह बड़ी आकर्षक लगी थी। लगभग एक महीने तक साथ-साथ टाइप करते रहने के बावजूद उनके बीच सिर्फ एक बार बात हुई थी, जब लड़की ने लड़के से अपना टाइपराइटर थोड़ा-सा दूसरी तरफ खिसका लेने के लिए कहा था। यह बात जरूर थी कि टाइप करने के दौरान लड़का लड़की की तरफ नजरें उठाकर देख लिया करता था। इस तरह देखने के दौरान कभी-कभी लड़की भी लड़के की ओर देख लेती थी। हालाँकि लड़का बहुत चाहता था, कि लड़की से बात की जाए, पर ऐसा करने की हिम्मत अपने में पाता नहीं था। अलबत्ता उसने क्लास के रजिस्टर से यह जरूर जान लिया था, कि लड़की का नाम सपना था।
फिर अचानक लड़की टाइपिंग क्लास में दिखना बंद हो गई। दो-चार दिन तो लड़का यही सोचता रहा, कि कहीं बाहर गई होगी या बीमार होगी। मगर जब पूरे एक सप्ताह तक लड़की की शक्ल दिखाई न दी, तो उसने क्लास के रजिस्टर के जरिए पता लगाया, कि लड़की अब चार से पाँच के बीच वहाँ आती है। लड़के ने भी अपना वक्त बदलवाकर चार से पाँच करवा लिया। साथ ही अपना टाइपराइटर बदलवाकर लड़की के साथ वाला करवा लिया। अब वे दोनों पास-पास बैठकर टाइप करते।
तब धीरे-धीरे उनमें बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कस्बे के माहौल के हिसाब से कुछ ज्यादा बात तो की नहीं जा सकती थी। मगर करीब दस-बारह दिन बाद ही जब लड़के के एक दोस्त, विपिन ने उससे पूछा कि लगता है टाँका फिट हो गया है, तो वह सन्न-सा रह गया। अपने दोस्त की बात सुनकर लड़के को यह एकदम से समझ आ गया था, कि इस स्थिति को और ज्यादा खींचना ठीक नहीं है। उसने लड़की से बात करके अपना टाइपराइटर बदलवा लिया। अब वह उससे दूर बैठने लगा था। एक-दूसरे से बात करने का एक नया तरीका उन्होंने ढूँढ निकाला। वे छोटी-छोटी स्लिपों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करके उन्हें किताब में रखकर एक-दूसरे को पकड़ा देते। मगर किताब के अंदर रखकर स्लिप देने का तरीका दो-चार दिन ही चल पाया। जल्दी ही लड़के-लड़की को यह भान हो गया कि ही रोज इस तरह किताबों का आदान-प्रदान करना ठीक नहीं। तब एक नया तरीका उन्होंने निकाला, कि पेन में निब वगैरह निकाल उस जगह में स्लिप रखकर एक-दूसरे को देने लगे। एक-दूसरे तक ऐसा 'पेन' पहुँचाना भी कोई आसान बात नहीं थी। इसके लिए किया यह जाता था, कि टाइप करते-करते दोनों में से कोई एक टाइप करने की सामग्री वाला कोई दूसरा गत्ता ढूँढते-ढूँढते दूसरे के पास जाता और चुपचाप पेन वहाँ रख देता।
लेकिन जल्दी ही लड़के को लगा कि उनके बीच उपजे संबंध की बात फैल रही है। ऐसा उसे तब लगा, जब टाइप क्लास के मालिक ने उसे चेतावनी दी, कि यहाँ यह सब नहीं चलेगा। तब लड़के ने लड़की से फिर बात की और अपना वक्त पाँच से छः बजे तक का करवा लिया।
अब उन दोनों के मिलने का तरीका बस यही रह गया था कि वह लड़की के, टाइप खत्म करके घर लौटने के, वक्त से कुछ पहले साइकल पर सवार होकर टाइपिंग क्लास की ओर निकल पड़ता। ऐसे में कभी-कभी वे एक-दूसरे को सड़क पर आते-जाते देख पाते। कभी एक-दो मिनट का हिसाब गड़बड़ा जाने पर, एक-दूसरे को देख पाना संभव न हो पाता। ऐसे में एक दूसरे से बात करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।
फिर कुछ महीने बाद लड़की ने टाइप सीखना बंद कर दिया। शायद उसकी आर्थिक स्थिति इसका कारण थी- ऐसा लड़के को लगा था। लड़का हर रोज दोपहर के बाद लाइब्रेरी जाया करता था। एक दिन संयोग से या न जाने कैसे, लड़की उसे लाइब्रेरी में मिल गई। अब उन्हें आपस में मिलने की एक नई जगह मिल गई थी। उस कस्बे में तीन लाइब्रेरियाँ थीं, जो ज्यादा बड़ी नहीं थीं। इनमें से एक तो बिल्‍कुल ही छोटी थी- एक छोटे कमरे जितनी। अब लड़का, लड़की के घर पर चिट्ठी लिखता मधु के नाम से और लड़की, लड़के को चिट्ठी लिखती रमेश के नाम से। कोड शब्दों के जरिए मिलने की जगह, तारीख और समय तय कर लेते और इस तरह दस-पंद्रह दिनों में एक बार मिला करते। इन्हीं मुलाकातों में वे भावनाओं से लबालब अपनी-अपनी स्लिपें, किसी न किसी तरीके से एक-दूसरे को पकड़ा देते।
आज का मिलना भी इसी तरह एक चिट्टी के जरिए ही तय हुआ था, जो लड़के ने लिखी थी। लड़की की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह मान रहा था कि उसकी चिट्ठी लड़की को मिल गई हो। उसकी नजरें बार-बार अपनी कलाई घड़ी से टकराती। तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी।
इसी उधेड़बुन में कई मिनट बीत गए। लड़का बड़ी बेचैनी-सी महसूस कर रहा था। इससे पहले ऐसे कई मौके आए थे, जब वे इस तरह लाइब्रेरी में मिले थे और आपस में उनकी कोई बात नहीं हो पाई थी, पर आज का दिन तो विशेष था। एक बार दिल्ली जाने के बाद फिर न जाने कब लड़के का वापस आना होता।
तभी अचानक लड़की मेज पर रखा लिफाफा, धीरे से उसकी तरफ खिसकाते हुए फुसफुसाई, 'आल दि बेस्ट!' ये शब्द सुनते ही आसपास बैठे तीन-चार लोगों के चेहरे एकदम से लड़की की ओर घूम गए, जो तब तक बैंच से उठकर सीढ़ियों की तरफ जा रही थी। संकोच, डर और घबराहट से लड़के का चेहरा पीला पड़ गया और उसके माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा। सीढ़ियों की तरफ जा रही लड़की को देख पाने का साहस जुटा पाना, उसके लिए संभव नहीं हो पाया। वह उसी तरह नजरें गड़ाए, अखबार पढ़ने का नाटक करता रहा।

हल्की भूरी आँखों का जादू
- अमर

अपने ऑफिस के कमरे में बैठा मैं हमेशा की तरह काम में मशगूल था। मुझे खनकती हँसी सुनाई दी, यह हँसी पहले तो इस ऑफिस में कभी भी नहीं सुनाई दी? आखिर किसकी हँसी है यह, छनकते घुँघरुओं सी? मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और केबिन खोलकर बाहर झाँकने पर मजबूर हो ही गया। देखा तो केबिन के सामने एक डेस्क छोड़कर ही वह बैठी थी, हल्की भूरी बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, चेहरे पर बच्चों सा भोलापन। वह फोन पर किसी से बात कर रही थी। मुझे इस तरह देखता हुआ पाकर वह सहम गई। वह नई-नई नियुक्त हुई थी, फिर किसी न किसी काम को लेकर बातें होती रहीं।
एक दिन शाम को जाते-जाते उसका स्कूटर खराब हो गया, मैं भी निकल ही रहा था। मैंने मदद करने की बहुत कोशिश की पर स्कूटर ने चालू होना गवारा नहीं किया। मैंने उसे लिफ्ट का प्रस्ताव दिया और वह मान गई। मैं उसे लेकर उड़ चला।
बस उस दिन के बाद से हमारी दोस्ती ने उड़ान भरना शुरु कर दी। मुलाकातें शुरु हुई और फिर प्यार का इजहार हुआ। 21 फरवरी 1994 का वह दिन आज मुझे याद है जब हम दोनों ने पवित्र अग्नि के फेरे लिए। विवाह-बंधन ने हमारे प्रेम को मजबूती दी। मैं अपने आपको इस दुनिया का सबसे भाग्यशाली पुरुष मान रहा था, और बाद में भी यही हुआ। उसने मुझ पर अपनी सारी खुशियाँ कुर्बान कर दी और बदले में मैंने उसे कभी दुःख न देने का वादा किया। आज इतने वर्ष बीत गए लेकिन हमारा प्यार आज भी वही है, वैसा ही जैसा सालों पहले था।
कुछ समय से मैं काम में बहुत मसरूफ हो गया और समय नहीं निकाल पाया। उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा, कभी कोई शिकायत नहीं की। फिर भी मैं उसके मन के भावों को जान गया। वह कुछ उदास सी रहने लगी थी। मैंने ऑफिस से आठ दिन की छुट्टी के लिए आवेदन दिया और केरल का टूर बुक कराया। केरल की हरी-भरी खूबसूरती उसे बेहद भाती है, यह मुझे पता था। दो दिन पहले जब मैंने उसे यह बात बताई तो वह खुशी से उछल पड़ी। हम यात्रा पर चल पड़े, ट्रेन में खिड़की के पास बैठकर जब वह बाहर का नजारा देख रही थी तो मैं उसे देख रहा था। मैंने देखा उसकी बड़ी-बड़ी भूरी आँखों में बच्चों की सी चमक फिर से जिंदा हो उठी है।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

ऐसा प्यार और कहाँ?


ध्वनि और प्रकाश की कहानी हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल से कम नहीं। जिसे पढ़ने और सुनने के बाद मुँह से केवल एक ही बात निकलती है। आह! इसे कहते हैं प्यार, जिसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

ध्वनि और प्रकाश दोनों एक ही काम्प्लेक्स में हाल ही में रहने आए हैं। इस बिल्डिंग को बने ज्यादा समय नहीं हुआ। ध्वनि जहाँ सुंदर दिखती है, वहीं प्रकाश भी स्मार्ट और हैंडसम है। निगाहों-निगाहों से उतरे दोनों एक-दूसरे के दिल में। लिफ्ट में जब पहली बार दोनों अकेले मिले। तो जान-पहचान के हिसाब से प्रकाश ने ध्वनि से हलो किया और खुद का नाम बताते हुए ध्वनि से नाम पूछ लिया। ध्वनि ने रिएक्ट ऐसे किया जैसे उनके अलावा और भी कोई लिफ्ट में हो। मी? आई एम ध्वनि।
ऐसे ही कभी कभार टकराने पर दोनों कुछेक जुमले छोड़ दिया करते थे। पहले कहाँ रहते थे या आप क्या करते हैं। वगैरह-वगैरह। उसके बाद दोनों के फ्रेंड सर्कल के जरिये दोनों में संपर्क बढ़ा। अन्य फ्लैट्‍स के दोस्त और ध्वनि की फ्रेंड्‍स के जरिये आगे की जानकारी दोनों तक पहुँच जाती थी। आग दोनों तरफ लगी हुई। चोरी-छिपे मिलना, फोन पर बात करना शुरू हुआ।
साल-दो साल की इन मुलाकातों के बाद ध्वनि ने एक दिन प्रकाश को बताया कि उसके दिल में छेद है। पहले तो प्रकाश का दिल धक करके रह गया। एक क्षण तो लगा जैसे ऐसी गंभीर बीमारी उसे खुद ही हो। लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ज्यादा ठीक न होने के कारण उसका ऑपरेशन नहीं हो पा रहा है। यदि तुम चाहो तो अपना जीवनसाथी कोई दूसरा चुन सकते हो। मैं तुम्हें यह बात पहले भी बताना चाहती थी लेकिन पता नहीं समय कब निकलता गया और आज हमें मिले 2 साल होने को आए। लेकिन अभी भी कुछ देर नहीं हुई है।
सोच-विचार करने के बाद प्रकाश ध्वनि की मेडिकल रिपोर्ट लेकर चेन्नईClick here to see more news from this city के हॉस्पिटल गया और इलाज के खर्च के बारे में पता लगा जिसमें लगभग ढाई से तीन लाख रुपए खर्च आना था। प्रकाश ने अपनी सैलेरी से सारे खर्च बंद करके पैसा जोड़ना शुरू किया। यहाँ तक कि घंटों ध्वनि से फोन पर बात करना बंद कर दिया। क्योंकि उसे फोन लगाने के लिए एसटीडी का ही उपयोग करना पड़ता था और उसका बिल महीने भर का लगभग दो-ढाई हजार आता था। कभी-कभार ही थोड़े समय के लिए फोन लगाता। अब उसके जीवन में रुपयों की अहमियत काफी बढ़ गई थी।
लगभग 2 साल में उसने डेढ़ लाख रुपया जोड़ लिया। प्रकाश और ध्वनि के दोस्तों ने भी उसकी आर्थिक मदद की। अपने माता-पिता को जैसे-तैसे राजी कर वह सवा लाख रुपया लेने में सफल हो गया। अंतरजातीय होने के कारण लड़की के माता-पिता बिल्कुल भी दोनों की शादी के पक्ष में नहीं थे। इसलिए दोनों ने चुपचाप चेन्नई जाकर इलाज करवाया और फोन पर ध्वनि के माता-पिता को इसकी जानकारी दी।
जीवन में कभी उन लोगों पर भरोसा मत करो, समय बदलने के साथ जिनकी भावनाएँ भी बदल जाती हैं बल्कि उन लोगों पर भरोसा करो जिनकी भावनाएँ समय बदलने के साथ नहीं बदलती। जैसा प्रका‍श ने किया ध्वनि की बीमारी पता लगने के बाद भी उसकी चाहत में कोई कमी नहीं आई।
दोनों के साथ होने की खबर लगते ही ध्वनि के माता-पिता नाराज हुए और प्रकाश के घर उसके माता-पिता से लड़ने पहुँच गए कि कैसे तुम्हारा बेटा हमारी बेटी को लेकर चला गया और पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखाने की बात करने लगे। लेकिन कुछ घंटों के बाद प्रकाश के माता-पिता ध्वनि के घर गए और उनसे विनम्रता पूर्वक बोले 'आप ही नहीं दोनों की शादी के हम भी खिलाफ थे। परंतु जब प्रकाश ने हमें सारी बात बताई कि दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं और इलाज के बाद शादी भी करने को तैयार हैं तो आखिर मुझे भी हार माननी पड़ी और शादी के लिए राजी होना पड़ा और जब वह इतना प‍रेशान हो ही रहा है आपकी बेटी के इलाज के लिए तो मेरा आपसे हाथ जोड़कर निवेदन है कि आप भी इतनी सी बात मान लें।
प्रकाश ने कभी पैसे का इतना महत्व नहीं समझा जितना पिछले 2 सालों में उसे समझ में आया है। मैंने तो हकीकत में इतना प्रेम पहली बार ही देखा है। सोचने का समय माँगकर उस समय भी ध्वनि के माता-पिता बात को टाल गए और दो दिन बाद जब प्रकाश और ध्वनि चेन्नई से लौटे तो प्रकाश से मिलने के बाद उन्होंने भी शादी के लिए हाँ कर दी। दोनों ने बड़ी धूमधाम से शादी रचाकर अन्य प्रेमी युगलों के लिए मिसाल पेश की। आज भी दोनों अपनी गृहस्थी भलीभाँति चला रहे हैं।
जीवन में कभी उन लोगों पर भरोसा मत करो, समय बदलने के साथ जिनकी भावनाएँ भी बदल जाती हैं बल्कि उन लोगों पर भरोसा करो जिनकी भावनाएँ समय बदलने के साथ नहीं बदलती। जैसा प्रका‍श ने किया ध्वनि की बीमारी पता लगने के बाद भी उसकी चाहत में कोई कमी नहीं आई।