रविवार, 6 फ़रवरी 2011

गजराज बन गया सरजू...

सूरगढ़ के राजा गजानंद सिंह के राज्य में घोड़ों से भी ज्यादा हाथी थे। राजा वर्ष में एक बार हाथी मेला आयोजित करवाते थे। इस मेले में हाथियों के बीच तरह-तरह की प्रतियोगिताएं होती थीं। सर्वश्रेष्ठ रहने वाले हाथी को गजराज की उपाधि दी जाती थी। गजराज बनने का मतलब होता था, हाथी के लिए वर्षभर खाने का इंतज़ाम राजा की ओर से और दूसरा हाथी के महावत को ईनाम के तौर पर ढेर सारी नकद राशि।

इस बार मेले में सरजू नाम का एक हाथी काफी चर्चा में था। यह पहली बार ही इस मेले में आया था। इसके महावत बिरजू ने हाथी को ह्रष्ट-पुष्ट बनाने और प्रशिक्षित करने में सालभर मेहनत की थी। इसी का परिणाम था कि सरजू आखरी परीक्षा के लिए चुने गए इन हाथियों में शामिल हो गया था। सभी को उम्मीद थी कि इस बार बिरजू का सरजू ही गजराज बनेगा।
आखरी परीक्षा के समय सभी हाथी दौड़ के लिए कतार में खड़े थे। तोप चलने की आवाज़ के साथ ही हाथियों को दौड़ शुरू होनी थी।
इस परीक्षा के समय सूरगढ़ के राजा गजानंद सिंह स्वयं उपस्थित थे। राजा, रानी और राजकुमार एक ऊंचे मंच पर बैठे थे। उनसे थोड़ा नीचे बने अन्य मंच पर राज्य के सामंत, सेठ और अधिकारी बैठे थे। उनसे नीचे दौड़ने के स्थान के दोनों तरफ बल्लियां लगाकर जन साधारण के खड़े होने की जगह बनाई हुई थी। हाथियों की दौड़ देखने काफी संख्या में लोग आए थे। सभी लोग गजराज को देखने के लिए उत्सुक थे। महावत भी खूब जोश में थे। इन दस हाथियों के महावतों में हर कोई यही सोच रहा था कि उसका हाथी ही गजराज बनेगा। पर सभी आशंकित भी थे और जीत के लिए मन ही मन प्रार्थना भी कर रहे थे। बिरजू सोच रहा था, ‘उसका सरजू गजराज बन गया तो उसे खूब पैसा मिलेगा। उनसे अपने टूटे घर की जगह नया घर बना लूंगा और अपने लिए एक खेत भी खरीद लूंगा।’
इतने में तोप से गोला छूटा, महावतों ने इशारा किया और हाथी दौड़ने लगे। लोगों ने भी आवाज़ें करके और तालियां बजाकर हाथी दौड़ का स्वागत किया। देखते ही देखते सरजू सबसे आगे निकल गया। लोग ‘सरजू-सरजू’ चिल्लाने लगे। सरजू आम लोगों की भीड़ के पास से गुज़र रहा था कि अचानक उसके कदम रुक गए। वह भीड़ में खड़े एक आदमी को ध्यान से देख रहा था। वह उसका महावत बिरजू नहीं था। फिर भी वह दौड़ को छोड़कर उसकी तरफ बढ़ा। इतने में दूसरे हाथी आगे निकल गए। यह देखकर लोग हैरान रह गए। ‘अरे! यह क्या हुआ?’ के अलावा उनके मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था। सरजू की बदलती चाल को देखकर बिरजू भी कुछ समझ नहीं पा रहा था।
सरजू इस सबसे बेखबर बल्लियों से परे खड़े गांव के लोगों की ओर बढ़ा। हालांकि दौड़ के मैदान और उनके बीच लकड़ी की मज़बूत बल्लियां थीं, फिर भी कुछ लोग डर कर पीछे हट गए। सरजू सीधा वहीं खड़े एक आदमी के पास गया। बल्ली के ऊपर से उसने अपने सूंड को बढ़ाकर उस आदमी का सिर, कंधा और हाथ छूने लगा। ऐसा लगा, जैसे वह किसी बात के लिए उसे धन्यवाद दे रहा हो। उस आदमी ने भी अपने हाथ से सरजू की सूंड सहलाई और थपकी दी।
इसके बाद सरजू दौड़ने के स्थान पर आकर फिर दौड़ने लगा। तब तक दूसरे हाथी काफी आगे निकल चुके थे। बहुत पीछे दौड़ते सरजू पर अब लोग हंस रहे थे। यह नज़ारा राजा ने भी देखा। वे हैरान थे कि सबसे आगे दौड़ने वाला सरजू अचानक रुक क्यों गया था? वह भीड़ में खड़े उस आदमी के पास क्यों गया?
दौड़ खत्म हो चुकी थी। सभी लोग गजराज की घोषणा की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन राजा ने गजराज की उपाधि की घोषणा न करके अपने सैनिकों को भेजकर भीड़ में खड़े उस आदमी को बुलाया। राजा ने पूछा, ‘तुम कौन हो और यह हाथी रुक कर तुम्हारे पास क्यों आया?’
उसने कहा, ‘महाराज, मैं एक वैद्य हूं। गांव में रहता हूं। गरीबों और जानवरों का इलाज करता हूं। मैं ना तो सरजू का मालिक हूं और न ही महावत। मैं खुद ही नहीं समझा पाया था कि यह हाथी मेरे पास क्यों आया? लेकिन कई साल पहले जड़ी-बूटियों की खोजने के लिए मैं एक जंगल में गया था। वहां एक गड्ढे में हाथी का एक बच्चा घायल पड़ा था। मैंने गड्ढे में उतरकर उसके घावों पर दवा लगाई थी। दो-तीन दिन तक उसके घावों पर दवा लगाने से वह ठीक होने लगा था। उसके बाद मैं चला आया। हो ना हो वह बच्चा ही यह हाथी है। मैंने तो इसे नहीं पहचाना, लगता है, इसने मुझे पहचान लिया है और मुझे धन्यवाद देने आया था। मुझे खुशी के साथ अफसोस भी हो रहा है। मेरे कारण यह दौड़ से बाहर हो गया और गजराज कहलाने से रह गया।’
राजा ने पूछा, ‘तुम वैद्य हो तो वहां जनसाधारण में क्यों खड़े थे? राज्य के दूसरे वैद्य तो मंच पर सामंतों और अधिकारियों के साथ बैठे हैं।
महाराज, ‘मैं गांव के गरीबों का और जानवरों का इलाज करता हूं। अमीरों का इलाज करने वाले वैद्य हमें अपने से छोटा समझते हैं। हम उनके बराबर कैसे बैठ सकते हैं?’
यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। राजा ने कहा, ‘कम पैसे लेकर गांववासियों और मूक पशुओं का इलाज करने वाला छोटा कैसे हुआ? यदि हमारी राजधानी के वैद्यों की यह सोच है, तो यह बहुत गलत है। आज के बाद तुम अपने को छोटा मत समझना। राजा का इलाज करने वाला राजवैद्य कहलाता है और गांव में चिकित्सा करने वाला वैद्य, वैद्यराज कहलाएगा। जाओ, तुम उस मंच पर बैठ जाओ।’
राजा की यह घोषणा सुनकर राजवैद्य और नगर के दूसरे वैद्यों को अपनी सोच पर शर्म महसूस हुई। वे आगे आकर उस वैद्य को अपने साथ मंच पर लेकर गए। राजा ने हाथियों की तरफ देखा और बोले, ‘दौड़ में प्रथम आने वाला हाथी ही गजराज कहलाने का अधिकारी है। पर सरजू को भी हारा हुआ कैसे कहा जाए? भला करने वाले का अहसान मानना तो मानवीय गुण है। मनुष्य में यह गुण कम होता जा रहा है। पर पशु कहलाने वाले हाथी में अभी यह गुण ज़िंदा है। सरजू ने अहसान प्रकट करने के लिए जीत-हार की परवाह भी नहीं की। इसलिए में इस बार दो हाथियों को गजराज की उपाधि देता हूं। एक सरजू को और एक प्रथम आने वाले हाथी को। इसके बाद लोगों ने इतने ज़ोर से तालियां बजाईं और नारे लगाए कि राजा के आगे की बात किसी को सुनाई ही नहीं दी।
(www.bhaskar.com)

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