मंगलवार, 1 मार्च 2011

सेवा में बसा ईश्वर

उस दिन रविवार था। दीनबंधू एंड्रयूज से मिलने एक ईसाई सज्जन सवेरे ही आ पहुंचे। दीनबंधू ने उनका यथोचित सत्कार किया। उनके मध्य बातचीत होने लगी। अनेक मुद्दों पर चर्चाओं का दौर चला।
थोड़ी देर बाद दीनबंधू ने घड़ी ने समय देखा और बोले-ओह। दस बज गए। क्षमा कीजिएगा, मुझे चर्च जाना है। मैं फिर किसी दिन आपसे बात करता हूं।यह सुनकर वे सज्जन तत्काल बोल पड़े-चर्च तो मुझे भी जाना है। चलिए, मैं भी चलता हूं। दोनों का साथ भी हो जाएगा और बातें भी। दिनबंधू ने कहा-किंतु मैं उस चर्च में नहीं जा रहा हूं, जहां आपको जाना है। उन सज्जन ने आश्चर्य से पूछा- तो फिर किस चर्च में जाएंगे?
तब दीनबंधू मुस्कुराकर बोले-चलिए, आज आप मेरा चर्च देख ही लीजिए।दीनबंधू उन सज्जन को लेकर एक निर्धन बस्ती में पहुंचे। वहां एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी, जिसके भीतर चारपाई पर एक बच्चा लेटा था, जिसकी सेवा एक वृद्ध कर रहा था।दीनबंधू ने झोपड़ी प्रवेश कर वृद्ध से पंखा लेते हुए -बाबा। अब आप जाइए। जब वृद्ध चला गया, तो उन सज्जन से दीनबंधू ने कहा-यह बालक अनाथ है और ज्वरग्रस्त भी। यह वृद्ध ही इसकी देख-रेख करता है किंतु यह समय इसका ड्यूटी पर जाने का है।
दोपहर तक लौट आएगा, तब तक मैं ही इसकी सेवा करता हूं। यही मेरी पूजा है और यह झोपड़ी ही मेरे लिए चर्च है। यह सुनकर वे सज्जन दीनबंधू के प्रति श्रृद्धा से भर गए।
वस्तुत: दीन-दु:खियों की सेवा ही सच्ची ईश पूजा है। यदि हम पूजास्थल न भी जाएं और किसी जरुरतमंद की सेवा कर दें तो यही सही मायनों में धार्मिकता है क्योंकि सभी धर्म एक स्वर से असहायों की सहायता करना सबसे बड़ा मानव धर्म बताते हैं।
(www.bhaskar.com)

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