बुधवार, 2 मार्च 2011

भागवत २०३: बुरे लोगों का यही अंत होता है...

दुष्टों का यही अंत होता है। जो जिंदगी भर निरपराध और कमजोरों को सताते हैं, वे अपनी मृत्यु को सामने देख ऐसे ही घबराते हैं। कंस मृत्यु के भय से ही जीवनभर पाप करता रहा। कई बेगुनाहों के प्राण लिए। कई घरों के चिराग बुझ दिए। अब मृत्यु स्वयं उसके दरवाजे पर खड़ी है।
भगवान नगर घूम रहे हैं। हर भक्त से मिल रहे हैं, उनका उद्धार कर रहे हैं। मथुरा के जिस रास्ते से कान्हा गुजरे वहां उनका स्वागत करने, आरती उतारने वालों की कतारें लग गई। भक्तवत्सल ने किसी को निराश नहीं किया। हर एक से मिले। अब कंस की अंतिम घड़ी आ गई सो उसकी यज्ञशाला की ओर चल पड़े।
भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियों से धनुष यज्ञ का स्थान पूछते हुए रंगशाला में पहुंचे और वहां उन्होंने इन्द्र धनुष के समान एक अद्भुत धनुष देखा। उस धनुश में बहुत सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारों से उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गई थी और बहुत से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने रक्षकों के रोकने पर भी उस धनुष को उठा लिया। उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचोंबीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले जैसे बहुत बलवान मतवाला हाथी खेल ही खेल में ईख को तोड़ डालता है। जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएं भर गईं, उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया। अब धनुष के रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान् श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गए और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे-पकड़ लो, बांध लो, जाने न पावे। उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गए और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया।उन्हीं धनुष खण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिए कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञ के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आए और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे।

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