सोमवार, 6 जून 2011

भागवत २७१

जो कुछ बोलें सोचकर बोलें
पं.विजयशंकर
पूर्व में भगवान् श्रीकृष्ण ने स्पष्ट ही कहा कि प्रसन्नता राग-द्वेष से मुक्त होने पर चित्त में समाहित होती है और प्रसन्नचित्त से बुद्धि स्थिर होती-तरंगें प्रवाह में नहीं उठतीं वैसे ही जैसे जल स्थिर हो जाए तो उसमें प्रतिबिंब देखा जा सकता है। बुद्धि रूपी सरोवर में साधक फिर अपने आराध्य के दर्शन कर सकता है।
विश्वरूप दर्शन के पश्चात जब श्री अर्जुन एक न्यायाधीश के मानिन्द होकर विधि के विधान को समझ सका तब उसको किसी भी अन्य साधन से न देख सकने वाले नारायण स्वरूप को चतुर्भुज रूप में देखने में समर्थ हुआ। यह नर-नारायण के दो आइने सामने आ गए और अर्जुन अनन्त को अनन्त में देख गीतामृत के माध्यम से लोक कल्याण कर सके।चलिए पाण्डवों के दाम्पत्य की ओर चलें।
श्रीकृष्ण ने कहा दाऊ आप बैठो, वह सब संभाल लेगा और ऐसा हुआ भी। पांचों भाइयों ने मिलकर उन राजाओं को जो दण्ड दिया है कि त्राहि-त्राहि मच गई। फिर बड़े लोग बीच में आए। क्यों झगड़ रहे हो भैया! लड़की तैयार है, ये तैयार है अपने-अपने घर जाओ। उस दिन अंदाजा लग गया कि यह अर्जुन ही है। कर्ण ने उस दिन शपथ ली कि मैं इस द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लूंगा।
भरी राजसभा में इस द्रौपदी ने मुझको सूतपुत्र कहकर नीचा दिखाया है। एक दिन भरी राजसभा में मैं अपने अपमान का बदला लूंगा। इसलिए सार्वजनिक रूप से किसी पर टिप्पणी करें तो सावधान रहें। द्रौपदी इनकार भी कर सकती थी पर उसने भरी सभा में कहा-नहीं ये तो सूतपुत्र है। अपनी टिप्पणियों से द्रौपदी ने दो बार स्वयं विपत्ति आमन्त्रित की। जब भी कुछ बोलें तो आगे-पीछे का सोचकर बोलें। द्रौपदी ने अपने लिए अनजाने में ही एक शत्रु खड़ा कर लिया। हम भी अपने जीवन में ऐसे ही न जाने कितने शत्रु बना लेते हैं। याद रखें, हमारे बोले गए शब्द इस ब्रम्हाण्ड में घूमते हुए एक दिन फिर हमारे पास ही किसी अन्य रूप में पहुंचते हैं।

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