रविवार, 5 जून 2011

भागवत २७०

स्थिति कैसी भी हो आप उसे बदल सकते हैं....
पं.विजयशंकर मेहता
काम सारे पांडवों से कराए कृष्ण ने कभी ये नहीं कहा कि मैं पीठ पर हूं तुम जाकर सो जाओ। करना तुम्हें है लेकिन अब मैं तुम्हारी योजना में शामिल हूं, तुम्हारे विचार में, तुम्हारे लक्ष्य में और तुम्हारी सफलता में हिस्सेदारी अब मेरी होगी चलो आगे चलते हैं। यहां से भगवान् के जीवन में पाण्डव युग का आरम्भ हो रहा है। भगवान् को चलते समय सूचना दी गई थी कि जरासन्ध बहुत अत्याचार कर रहा है, बहुत परेशान कर रहा है।
भगवान् अब पाण्डवों के जीवन में आ गए हैं। वो पाण्डवों के लिए कौरवों से बात करते हैं, उन्हें अलग राज्य दिलवाते हैं। भगवान् अब भक्त के लिए हर वह काम करेंगे जो एक दूत करता है। एक गुरु करता है, एक स्वामी करता है, सखा करता है और एक सेवक जो भूमिका निभाता है। भगवान् वे सारे काम पाण्डवों के लिए करेंगे।भगवान् ने कहा-हमें तो लम्बी यात्रा करना है चिंता छोड़ो, आओ। आप लोग यहीं रहो, आपकी ओर से मैं जा रहा हूं कौरवों से बात करने।
भगवान पहुंचे हैं कुरूवंश के राजदरबार में। भीष्म ने सबको सूचना दी कि कृष्ण आ रहे हैं बड़ी-लंबी चौड़ी चर्चा है महाभारत में, लेकिन हम हमारे काम की बात कर लें। भगवान् ने कहा-उनको उनका हिस्सा दे दीजिए। सारी राज सत्ता दुर्योधन के कहने में थी, दुर्योधन ने कहा यहां तो नहीं देंगे। उसने कहा हस्तिनापुर से बाहर एक खाण्डव वन है, उजाड़ वन, वो दे देते हैं इनको जो करना है वो करें।
सबको लगा कि यह तो कोई बात ही नहीं होती है, लेकिन वो तो कृष्ण थे। कृष्ण ने कहा-चलेगा खाण्डव वन दे दो। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि कृष्ण खाण्डव वन लेकर आए। लेना तो आधा राज्य था या फिर युधिष्ठिर को राजकुमार बनाने की बात थी, लेकिन जब कृष्ण लौटे तो कुन्ती से बोले-मैं खाण्डव वन लेकर आ गया हूं। पांचों भाई चौंक गए, लेकिन पांचों भाई एक बात जानते थे कि कृष्ण जो करेंगे वो हमारे हित में ही करेंगे।
कृष्ण ने पांचों भाइयों से कहा कि जीवन में कभी न कभी नई शुरूआत करना ही पड़ती है। लम्बे चलने के बाद भी कभी वो स्थिति आ जाती है कि हमें एक से पुन: गिनती गिननी पड़ती है।
आओ खाण्डव वन को कुछ नया करें, पांचों भिड़ जाते हैं और अन्य राजाओं से मदद लेते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा-मैं द्वारिका से धन दूंगा, द्वारिका से भवन बनाने के लिए विशेषज्ञ बुलवाऊंगा। चलो इस खाण्डव वन को इन्द्रप्रस्थ बनाते हैं और देखते ही देखते कृष्ण के नेतृत्व में इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हो गई। ऐसा सुंदर भवन, ऐसी सुंदर राजधानी बना दी इन लोगों ने और कृष्ण ने हमको यह शिक्षा दी है कि कैसी भी स्थिति हो आप उसको बदल सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें