शुक्रवार, 17 जून 2011

भागवत २८१

किसी भी परिस्थिति में ना छोड़े इस रास्ते को क्योंकि...
पं.विजयशंकर मेहता
भगवान् के पुत्र प्रद्युम्न ने देखा हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सबको ढांढस बंधाया और कहा कि डरो मत। उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब के सब महारथी थे। शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा।
शाल्व के मंत्री का नाम था द्युमान जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पच्चीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्न पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और मार लिया, मार लिया कहकर गरजने लगा। गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्युम्नजी का वक्षस्थल फट सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हांक रहा था। वह सारथि धर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया।
प्रद्युम्नजी की जब मूर्छा टूटी तब उन्होंने सारथी से कहा-तूने यह बहुत बुरा किया। अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्ण के सामने जाकर क्या कहूंगा? अब तो सब लोग यही कहेंगे न कि मैं युद्ध से भाग गया? मेरी भाभियां हंसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गए? अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमि से भगाकर अक्षम्य अपराध किया है।
यह प्रसंग हमें हमारा कर्तव्य बताता है। किस परिस्थिति में धर्म का पालन कैसे हो हमें यही विचार करना चाहिए। धर्म का पथ न छोड़ें। प्रद्युम्न के सारथी ने जो उत्तर दिया वह इसका ही उदाहरण है।सारथी ने कहा-मैंने जो भी किया है, सारथी का धर्म समझकर ही किया है। शत्रु ने आप पर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्छित हो गए थे, बड़े संकट में थे इसी से मुझे ऐसा करना पड़ा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें