शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

....क्योंकि हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है

द्रोपदी ने युधिष्ठिर से कहा आपमें और आपके महाबली भाइयों में प्रजापालन करने योग्य सभी गुण हैं। आप लोग दुख: भोगने योग्य नहीं है। फिर भी आपको यह कष्ट सहना पड़ रहा है। आपके भाई राज्य के समय तो धर्म पर प्रेम रखते ही थे। इस दीन-हीन दशा में भी धर्म से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करते। ये धर्म को अपने प्राणों से भी श्रेष्ठ मानते हैं। यह बात ब्राह्मण, देवता और गुरु सभी जानते हैं कि आपका राज्य धर्म के लिए भीमसेन , अर्जुन, नकुल, सहदेव और मुझे भी त्याग सकते हैं।मैंने अपने गुरुजनों से सुना है कि यदि कोई अपने धर्म की रक्षा करें तो वह अपने रक्षक की रक्षा करता है। आप जब पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट हो गए थे। उस समय भी आपने छोटे-छोटे राजाओं का अपमान नहीं किया।
आपमें सम्राट बनने का अभिमान बिल्कुल नहीं था। आपने साधु, सन्यासी और गृहस्थों की सारी आवश्यकताएं पूर्ण की थी। लेकिन आपकी बुद्धि ऐसी उल्टी हो गई कि आपने राज्य, धन, भाई और यहां तक की मुझे भी दावं पर लगा दिया। आपकी इस आपत्ति-विपत्ति को देखकर मेरे मन में बहुत वेदना हुई। मैं बेहोश सी हो जाती हूं। ईश्वर हर व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म के कर्मबीज के अनुसार उनके सुख-दुख, प्रिय व अप्रिय वस्तुओं की व्यवस्था करता है। जैसे कठपुतली सूत्रधार के अनुसार नाचती है, वैसे ही सारी प्रजा ईश्वर के अनुसार नाच रही है। सारे जीव कठपुतली के समान ही है सभी ईश्वर के अधीन है कोई भी स्वतंत्र नहीं है

किससे डरते थे युधिष्ठिर?

पाण्डवों ने आगे बढ़कर वेदव्यासजी का स्वागत किया। उन्होंने व्यासजी को आसन पर बैठाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर से कहा कि प्रिय युधिष्ठिर- मैं तुम्हारे मन की सब बात जानता हूं। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूं। तुम्हारे मन में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण का जो भय है उसका मैं रीति से विनाश करूंगा। तुम मेरा बतलाया हुआ उपाय करो। तुम्हारे मन से सारा दुख अपने आप मिट जाएगा।
यह कहकर वेदव्यास युधिष्ठिर को एकांत में ले गए और बोले युधिष्ठिर तुम मेरे शिष्य हो, इसलिए मैं तुम्हे यह मूर्तिमान सिद्धि के समान प्रतिस्मृति नाम की विद्या सिखा देता हूं। तुम यह विद्या अर्जुन को सिखा देना, इसके बल से वह तुम्हारा राज्य शत्रुओं के हाथ से छीन लेगा। अर्जुन तपस्या तथा पराक्रम के द्वारा देवताओं के दर्शन की योग्यता रखता है। इसे कोई जीत नहीं सकता।
इसलिए तुम इसको अस्त्रविद्या प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर, देवराज इन्द्र, वरूण, कुबेर और धर्मराज के पास भेजो। यह उनसे अस्त्र प्राप्त करके बड़ा पराक्रम करेगा। अब तुम लोगों को किसी दूसरे वन में जाना चाहिए क्योंकि किसी तपस्वी का लंबे समय तक एक स्थान पर रहना दुखदायी होता है। ऐसा कहकर वेदव्यास वहां से चले गए। युधिष्ठिर व्यासजी के उपदेश अनुसार मन्त्र का जप करने लगे। उनके मन में बहुत खुशी हुई।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

इसी का नाम जिंदगी है...

पं.विजयशंकर मेहता
द्वारिकाधीश ने नरकासुर को दण्ड दे दिया, वो मारा गया। आप जहां से आई हैं, जिस घर से आई हैं, जिस रिश्तेदारी से आई हैं वहां जा सकती हैं। आप स्वतंत्र हैं। वहां से चलकर एक स्थान पर भगवान विश्राम कर रहे थे। कुछ लोग भगवान से मिलने आए। उद्धव ने कहा-कुछ स्त्रियां आपसे मिलना चाहती हैं। भगवान ने कहा-भेजो। उनमें से कुछ स्त्रियों ने कहा आपने हमें मुक्त तो करा दिया है।

यदि अब हम अपने घर जाएंगी तो हमारे घर वाले हमको स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हम किसी राजा के कारावास में बंदी रहे हैं। हमें वो पवित्र नहीं मानते। स्त्री यदि एक रात के लिए बिना बताए घर से बाहर चली जाए, सारा घर उसको प्रष्नों के घेरे में खड़ा कर देगा। पुरूष से कोई नहीं पूछता।स्त्री आज भी यदि एक रात कारावास या जेल में चली जाए, सारा समाज उसको हीन दृष्टि से देखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कहां जाएंगी ये सब। उद्धव, दारूप द्वारिका के सारे लोग कृष्ण की ओर देखने लगे। क्या कृष्ण अब एक-एक को घर छोडऩे जाएंगे।
अब कृष्ण किस-किस को समझाएंगे कि सम्मान दो। तब कृष्ण ने उन स्त्रियों से कहा मैं जानता हूं पर मैं आज आपको आश्वस्त करता हंू। वसुदेव का पुत्र द्वारिका का यह कृष्ण आपको आश्वस्त कर रहा है कि मैं आपको समाज में वो दर्जा दूंगा जो किसी भी स्त्री को प्रतिष्ठित पुरुष से विवाह करने के बाद प्राप्त होता है। मैं आज से आपको अपनी धर्मपत्नी स्वीकार करता हूं और मैं इस पूरी समूची स्त्रीशक्ति को आश्वस्त करता हूं कि आपकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। भगवान् ने सारी स्त्रियों से विवाह किया। तब जो लोग प्रश्न करते हैं न कि कृष्ण सोलह हजार विवाह रचाने की क्या जरूरत थी, किसी की ताकत है जो स्त्रियों को इतना सम्मान दिला सके। पर ये कृष्ण ने किया है।
कृष्ण ने कहा-आज से आप मेरी भार्या हैं। द्वारिका में आप ससम्मान निवास करेंगी।यह कृष्ण का चरित्र है। जिस व्यक्ति की बांसुरी की एक तान पर संसारभर की स्त्रियां मोहित हो जाती हैं, जिसकी एक झलक पाने के लिए संसार का सारा सौंदर्य बेताब हो, जिसके पास रहने के लिए, जिसको जीवन में उतारने के लिए गोप, गोपियां, रानियां, राजकुमारियां बावली हुआ करती थीं। जिसके आसपास स्त्रियों का जमघट घूमता होगा उस कृष्ण का एक भी विवाह शान्ति से नहीं हुआ। आप सोचिए एक भी स्त्री को वो चैन से नहीं ला पाए। जो हुआ उसमें कोई न कोई उपद्रव हुआ पर कृष्ण ने कहा इसी का नाम जीवन है। सबको स्वीकार किया।
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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

जर्मन लोककथा

कस्बाई संगीतकार
एक था गधा जिसका नाम था ग्रुफेर्ड। वह बहुत बूढ़ा हो गया था। एक दिन वह थकाहारा और उदास होकर घास पर पड़ा हुआ था। तभी वहाँ एक कुत्ता आया। कुत्ते का नाम था पैकेन। हलो ग्रुफेर्ड, तुम कैसे हो' कुत्ते ने पूछा। बिल्कुल खराब। देख मैं बूढ़ा हो गया हूँ और ज्यादा काम नहीं कर सकता, इसलिए मेरा मालिक मुझसे नाराज रहने लगा है। कल वह मुझे मेरे चमड़े और कुत्तों के भोजन के‍ लिए बेच देगा। अत: मैं हार छोड़कर जा रहा हूँ।
तुम कहाँ जा रहे हो, मेरे दोस्त। कुत्ते ने पूछा। ब्रेमेन। बड़े कस्बे में। वहाँ मेरा भाई रहता है जो कस्बे के एक संगीतकार के यहाँ रहकर तुरही बजाता है। मैं वहाँ जाकर वीणा बजाऊँगा। पर मेरे दोस्त तुम क्यों दुखी हो।' गधे ने कुत्ते से पूछा।
मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ। मेरा मालिक ज्यादातर शिकार पर जाता है पर मैं पीछे रह जाता हूँ इसलिए उसने मुझे खाना देना बंद कर दिया है और कल वह मुझे मार डालेगा।' पैकेन ने दुखी स्वर में कहा। 'मार डालेगा तो ऐसा करो कि तुम भी मेरे साथ ब्रेमेन चलो। मैं वीणा बजाऊँगा और तुम तबला।'
बहुत अच्छा। मुझे तबला बजाना भी अच्छी तरह आता है। मैं तुम्हारे साथ ब्रेमेन चलूँगा। खुश होकर पैकेन ने कहा। गधा और कुत्ता चलते-चलते जंगल में सड़क किनारे उन्हें एक बिल्ली मिली जो लगातार दुख से रो रही थी। दोनों ने बिल्ली से पूछा 'क्या बात है बहन, तुम इतनी दुखी क्यों हो?
मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मेरे दाँत भी नहीं हैं। अत: मैं चूहे नहीं पकड़ सकती हूँ। मेरी मा‍लकिन ने मुझे खाना देना बंद कर पानी में फेंक दिया। अब मैं बचकर तो आ गई हूँ पर क्या करूँ? कैसे जिऊँ बची जिंदगी? बार्टपुट्‍जर नामक बिल्ला ने दुखी आवाज में कहा।
'क्या तुम गा सकती हो।' गधे ने पूछा।
'क्यों नहीं मैं बहुत ऊँची आवाज में गा सकती हूँ।'
'तो मेरे साथ ब्रेमेन चलो। ग्रुफेर्ड गधे ने कहा।
हाँ, ग्रुफेर्ड वीणा बजाएगा और मैं तबला और तुम गाना।' खुश होकर पैकेन कुत्ते ने कहा।
तीनों इकट्‍ठा होकर चलने लगे। दोपहर में तीनों एक गाँव में पहुँचे जहाँ एक फार्म हाउस की दीवार पर एक मुर्गा कराह रहा था।

दादी की कहानी

जब मैं और छोटा था तब मेरी दादी यह कहानी सुनाया करती थी। एक बार की बात है। सात बहनें थी। छः बहनें पूजा-पाठ करती थीं लेकिन सातवीं बहन नहीं। एक बार गणेशजी ने सोचा मैं इन सात बहनों की परीक्षा करता हूँ। वे साधु के रूप में आए और दरवाजा खटखटाया। पहली बहन से गणेशजी ने कहा- मेरे लिए खीर बना दो, मैं बड़ी दूर से आया हूँ। उसने मना कर दिया। ऐसे छः बहनों ने मना कर दिया लेकिन सातवीं बहन ने हाँ कह दी। उसने चावल बीनना शुरू किए और फिर खीर बनाना शुरू की।
अधपकी खीर उसने चख भी ली फिर साधु महाराज को खीर दी। साधु ने कहा- तुम भी खीर खा लो। सातवीं बहन ने कहा मैंने तो खीर बनाते-बनाते ही खा ली है। गणेशजी अपने पहले वाले रूप में आए और कहा मैं तुम्हें स्वर्ग ले जाऊँगा। बहन ने कहा कि मैं अकेले स्वर्ग नहीं जाऊँगी। मेरी छः बहनों को ले चलिए। गणेशजी खुश हुए और सबको स्वर्ग ले गए। स्वर्ग में मजे से घूमने के बाद सभी वापस आ गए। कहानी खतम।
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ऐसे रणबाँकुरे थे वीर कुँवर सिंह

वीर कुँवर सिंह का दुर्लभ चित्रघोड़े पर सवार कुँवर सिंह की प्रतिमा अस्सी वर्ष की उम्र में ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने वाले वीर कुँवर सिंह की याद आज की पीढ़ी के लिए धुँधली हो चुकी है। 1857 की क्रांति को कौन भूल सकता है जब एक-एक कर भारतीय रियासत में बगावत की आग भड़क उठी थी।
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता सेनानी वीर कुँवर सिंह का जन्म बिहार के तत्कालीन शाहबाद जिला के भोजपुर में जगदीशपुर नामक जगह पर हुआ था। इनके बाबूजी साहबजादा सिंह भारत के राजा भोज के वंशज थे।
1845-46 पटना में ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले षडयंत्र का भंडाफोड़ होने की वजह से वीर कुँवर सिंह अँग्रेजों की हिट लिस्ट में आ गए थे। दानानुर रेजीमेंट, बंगाल के बैरकपुर, रामगढ़ के सिपाही विद्रोह, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झाँसी, दिल्ली में विद्रोह की आग भड़क उठी थी। दानापुर का तीनों देशी पलटन 25 जुलाई 1857 को वीर कुँवर सिंह के नेतृत्व में आ गए थे। इन्होंने 27 जुलाई को अँग्रेजों के छिपने का ठिकाना आरा पर कब्जा कर लिया था। अँग्रेजों के साथ किसी भी लड़ाई में वीर कुँवर सिंह का हार का सामना नहीं करना पड़ा था। कुँवर सिंह को वहाँ का शासक घोषित कर दिया गया था।
आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कुँवर सिंह ने नोखा, बरांव, रोहतास, सासाराम, रामगढ़, मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवां बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मानियर और बलिया का दौरा किया था और संगठन खड़ा किया था। वीर कुँवर सिंह शिवपुर घाट से गंगा पार कर रहे थे कि डगलस की सेना ने उन्हें घेर लिया। बीच गंगा में उनकी बाँह में गोली लगी थी। गोली का जहर पूरे शरीर में फैल सकता था। इसे देखते हुए वीर कुँवर सिंह ने अपनी तलवार उठाई और अपना एक हाथ गंगा नदी में काटकर फेंक दिया। वहाँ से वह 22 अप्रैल को 2 हजार सैनिकों के साथ जगदीशपुर पहुँचे। अंतिम लड़ाई में भी उनकी जीत हुई लेकिन उसके तीन दिन बाद वीर कुँवर सिंह संसार से हमेशा के लिए विदा हो गए। ऐसे थे हमारे वीर कुँवर सिंह।
वीर कुँवर सिंह फाउंडेशन के अध्यक्ष निर्मल कुमार सिंह का कहना है कि भारत सरकार को संसद भवन के सामने वीर कुँवर सिंह की प्रतिमा लगानी चाहिए और वीरों के सम्मान की पाठ से युवाओं को अवगत कराना चाहिए। उनके अनुसार स्वतंत्रता की लड़ाई को भूलती जा रही नई पीढ़ी को ऐसे महान देशभक्तों को याद कर वर्तमान परिदृश्य में भ्रष्टाचार, महँगाई जैसी सामाजिक बुराइयों के विヒद्ध लड़ाई लड़ने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने बताया कि कई वर्षों से राजधानी दिल्ली में वीर कुँवर सिंह को राष्ट्रीय सम्मान दिलाने के उद्देश्य से हर साल 23 अप्रैल को फाउंडेशन राष्ट्रीय विजयोत्सव समारोह का आयोजन करता आ रहा है।

चमचम चाचा भीग ही गए...

हमारे मोहल्ले में चमचम चाचा रहते थे। नाम पता नहीं क्या बहुत लंबा चौड़ा था पर हम तो उन्हें चमचम चाचा ही कहते थे। मुँह में पान की लाली हमेशा रहती और कुर्ता तो खुद ही धोकर इस्त्री करके पहनते थे। ये सब उनकी पहचान थी। चाचा की शान अलग ही थी बस भीगने के नाम से उनकी नानी मरती थी।
वे कहीं भी जाएँ तो छतरी साथ लेकर चलते थे। भीगने से उन्हें बड़ा डर लगता था। याद नहीं आता कि कभी वे बारिश में भीगे हो। हम तो क्या हमारे पापा ने भी उन्हें कभी बरसात में भीगते नहीं देखा। बारिश के दिनों ज्यादा तो वे किसी के यहाँ आते-जाते नहीं और आते-जाते तो भी बड़ी-सी छतरी अपने साथ रखते। गर्मियों के दिनों से ही वे अपने साथ छतरी रखना शुरू कर देते थे कि पता नहीं कब बरसात आ जाए। बारिश में बहुत जरूरी काम होने पर बाहर निकलते तो अपने पाजामे को मोड़कर घुटनों तक चढ़ा लेते। ऐसे थे चमचम चाचा।
एक बार क्या हुआ कि चमचम चाचा छतरी लेकर जा रहे थे, बहुत तेज बारिश हो रही थी और तेज हवाएँ भी चल रही थीं। हम बच्चों की टोली चाचा के पीछे-पीछे चल रही थी और उन्हें कह रही थी चाचा आज तो बारिश में नहाना पड़ेगा। चाचा पानी में भीगने से डरते हैं। चाचा कहते- चलो भागो बदमाशो, नहीं तो तुम्हारे घर खबर करता हूँ। तभी बहुत जोर से हवा चली। चाचा की छतरी पलट गई।
पलटी भी क्या कि सीधी होने का नाम ही नहीं लिया। चाचा ने खूब कोशिश की पर तेज बारिश से बच न सके। आखिरकर वे भीग ही गए। भीगने के बाद छतरी का क्या काम तो उन्होंने छतरी बंद करके रख ली और फिर घर को चले। इतनी देर में तो हमने पूरे बाजार में चिल्लाकर ऐलान कर दिया कि चमचम चाचा भीग गए। लोगों के लिए तो यह अजूबा था चमचम चाचा भीग गए। देखने वाले बारिश में बाहर निकल आए। चमचम चाचा भीगे थे भई।
अगले दिन चमचम चाचा किसी को दिखाई नहीं दिए। इस दिन पानी नहीं गिरा। हम बच्चों ने सोचा कि हो सकता है चमचम चाचा को हमारी बात बुरी लगी हो। इसलिए हम उनके घर जाने के बारे में सोचने लगे। इसी बीच जब तीसरे दिन जमकर बारिश हुई तो चमचम चाचा घर से बाहर निकले और देखने वाले सारे लोग हैरत में थे कि चमचम चाचा के हाथों में छतरी नहीं थी। चमचम चाचा भीगने के लिए ही निकले थे। हुर्रे...

भागवत २३६: तब कृष्ण ने 16000 स्त्रियों की रक्षा का वचन दिया....

उनकी आठवी पत्नी लक्ष्मणा बनी। भगवान् अपनी रानियों के साथ बैठे हुए विचार कर रहे थे और उसी समय उनको सूचना दी गई कि कुछ लोग आपसे मिलना चाहते हैं। विशेष रूप से कुछ स्त्रियां हैं और उनके साथ कुछ पुरूष हैं और वो बहुत परेशान हैं। भगवान् ने कहा-ठीक है। भगवान् की सभा का नाम था सुधर्मा सभा। भगवान् ने कहा उनको भेजा जाए। वो लोग आए। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया। उन स्त्रियों ने भगवान् से कहा आपका उदय हो गया है। हमने सुना है आप सबके रखवाले हैं, आपने कंस का वध किया है। आप बार-बार घोषणा करते हैं कि आप स्त्री शक्ति, मातृ शक्ति के रक्षक हैं। क्या आप जानते हैं कि आज प्राज्ञज्योतिपुर नाम के नगर में एक राजा है नरकासुर। उसने सोलह हजार स्त्रियों को अपनी कैद में कर रखा है। उन सारी स्त्रियों को वो उठा लाया जो किसी की मां हैं, बहन हैं, पत्नी हैं, बेटी हैं और उसने अपने कारावास में उनको बन्दी बना लिया है। उस कारावास में बन्दियों की क्षमता पांच हजार है। उस पांच हजार की क्षमता वाले कारावास में उसने सोलह हजार स्त्रियों को बन्दी करके रखा है। पशु की भांति जीवन बिता रही हैं वो सब। नरकासुर जिस दिन चाहता है कारावास का दरवाजा खोलकर स्त्रियों को उठाकर ले जाता है। उसके वे मंत्री इतने कुटिल, अत्याचारी व कामी हैं कि हमारा कोई रक्षण नहीं है। आज हम आपके पास आए हैं। नरकासुर को कोई जीत नहीं सकता। आज की राजनीति, आज की राज सत्ताएं आपके आसपास हैं। हम कब तक कैद में रहेंगे? यह सुनकर भगवान् के चेहरे पर बल पड़ गए। भगवान् ने कहा-मैं आपकी रक्षा का वचन देता हंू।

क्यों मिला दुर्योधन को भीम के हाथों मरने का शाप?

व्यासजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा जो कुछ आप कह रहे है, वही तो मैं भी कहता हूं। यह बात सभी जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिए जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म, और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं। कुरुवंशियों पर दया करते हैं तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें। व्यासजी ने कहा थोड़ी देर में ही महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे है। वे पाण्डवों से मिलकर अब हम लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेश देंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ कहे, बिना सोच-विचार के करना चाहिए।
अगर उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो वे क्रोध में आकर शाप भी दे सकते हैं। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए। महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों के सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा-भगवन आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं ना। तब मैत्रेयजी ने कहा राजन में तो तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से भेट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहां बहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जूए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं क्योंकि मैं तुम पर हमेशा से ही प्रेम रखता हूं।
उन्होंने युधिष्ठिर से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली है। तुम्हे उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो। इसलिए तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो। महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने लगे और अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है और मेरी बात नहीं मानता। तेरे इस काम के कारण पाण्डवों से कौरवों का घोर युद्ध होगा और भीमसेन की गदा की चोट तेरी टांग तोड़ेगी।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

घर में क्यों नहीं रखते महाभारत?

अधिकांश हिंदू परिवारों में धर्म ग्रंथ के नाम पर रामचरितमानस या फिर श्रीमद् भागवत पुराण ही मिलता है। महाभारत जिसे पांचवां वेद माना जाता है, इसे घरों में नहीं रखा जाता। बड़े-बुजुर्गों से पूछे तो जवाब मिलता है कि महाभारत घर में रखने से घर का माहौल अशांत होता है, भाइयों में झगड़े होते हैं। क्या वाकई ऐसा है? अगर यह मिथक है तो फिर हकीकत क्या है, क्यों रामायण को घर में स्थान दिया जाता है लेकिन महाभारत को नहीं।
वास्तव में महाभारत रिश्तों का ग्रंथ है। परिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों का ग्रंथ। इस ग्रंथ में कई ऐसी बातें हैं जो सामान्य बुद्धि वाला इंसान नहीं समझ सकता। पांच भाइयों के पांच अलग-अलग पिता से लेकर एक ही महिला के पांच पति तक। सारे रिश्ते इतने बारिक बुने गए हैं कि आम आदमी जो इसकी गंभीरता और पवित्रता को नहीं समझ सकता।
वह इसे व्याभिचार मान लेता है और इसी से समाज में रिश्तों का पतन हो सकता है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने महाभारत को घर में रखने से मनाही की है क्योंकि हर व्यक्ति इस ग्रंथ में बताए गए रिश्तों की पवित्रता को समझ नहीं सकता।इसमें जो धर्म का महत्व बताया गया है वह भी सामान्य बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए गहन अध्ययन और फिर गंभीर चिंतन की आवश्यकता होती है।

...और धृतराष्ट्र बेहोश होकर गिर पड़े

जब विदुरजी हस्तिनापुर से पाण्डव के पास काम्यक वन में चले गए। तब विदुर के जाने के बाद धृतराष्ट्र को बहुत पश्चाताप हुआ। वे विदुर का प्रभाव उसकी नीति को याद करने लगे। उन्हें लगा इससे तो पाण्डवों का फायदा हो सकता है। यह सोचकर धृतराष्ट्र व्याकुल हो गए। भरी सभा में राजाओं के सामने ही मुच्र्छित होकर गिर पड़े।
जब होश आया तो उन्होंने उठकर संजय से कहा-संजय से कहा संजय मेरा प्यारा भाई विदुर मेरा परम हितैषी और धर्म की मुर्ति है। उसके बिना मेरा कलेजा फट रहा है। मैंने ही क्रोधवश होकर अपने निरापराध भाई को निकाल दिया है। तुम जल्दी जाकर उसे ले आओ। विदुर के बिना मैं जी नहीं बना सकता। धृतराष्ट्र की आज्ञा स्वीकार करके संजय ने काम्यक वन की यात्रा की।
काम्यक वन में पहुंचकर संजय ने देखा कि युधिष्ठिर अपने भाई और विदुरजी के साथ हजारों ब्राह्मणों के बीच में बैठे हुए है। संजय ने प्रणाम करके विदुरजी से कहा राजा धृतराष्ट्र आपकी याद कर रहे हैं। आप हस्तिनापुर चलिए वे आप से मिलना चाहते हैं। विदुर से मिलकर धृतराष्ट्र को बहुत खुशी है।उन्होंने कहा मेरे भाई तुम्हारा कोई जाने के बाद नींद नहीं आई। मैंने तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया है उसके लिए तुम मुझे क्षमा कर दो। इस तरह विदुर फिर से हस्तिनापुर में रहने लगे।

क्यों बन गए सारे देवता वानर?


सभी देवताओं की पूकार सुनकर आकाशवाणी हुई डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण कर लूंगा। कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूं।वे ही दशरथ और कौशल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर प्रकट हुए। उन्हीं के घर जाकर मैं राम के घर में अवतार लूंगा। आप सभी निर्भय हो जाओ।
आकाश की बात को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट आए। ब्रह्मजी ने पृथ्वी को समझाया। तब उसका डर खत्म हो गया।देवताओ को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धारण करके आप लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मजी अपने लोक को चले गए। सब देवता अपने-अपने लोक को गए। सभी के मन को शांति मिली। ब्रह्मजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत खुश हुए और उन्होंने देर नहीं की।
पृथ्वी पर उन्होंने वानर का शरीर धारण किया। उनमें बहुत बल था। वे सभी भगवान के आने की राह देखने लगे। वे जंगलों में जहां तहां अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गए। अवध में रघुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे बहुत ज्ञानी थे। उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियां सभी पवित्र आचरण वाली थी वे पति के अनुकूल थी और श्री हरि के प्रति उनका प्रेम बहुत दृढ़ था।

गृहस्थी में केवल वासना ही न हो....

अगर आपके दांपत्य में अशांति ज्यादा हो और प्रेम घट रहा हो तो यह आपस में मिल बैठकर बात करने से सुलझ सकता है। अधिकतर ऐसा होता है कि दांपत्य शुरू तो प्रेम से होता है लेकिन फिर यह वासना पर आकर ठहर जाता है। अगर दांपत्य में खुशहाली चाहिए तो आपको वासना से ऊपर उठकर प्रेम पर ही टिकना होगा। तभी गृहस्थी खुशहाल रहेगी। हमारी पहचान भी बनी रहेगी।
जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है।
यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़में नहींआ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच।पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है।
जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।
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भागवत २३४- २३५

सुखी रहने के लिए जरूरी है,अपने हक में ही संतुष्ट रहे
पं.विजयशंकर मेहता
जब पांडव वन में चले गए तब धृतराष्ट्र को बहुत चिंता होने लगी। धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाया और उनसे कहा - भाई विदुर तुम्हारी बुद्धि शुक्राचार्य जैसी शुद्ध है। तुम धर्म को बहुत अच्छे से समझते हो। कौरव और पांडव दोनों ही तुम्हारा सम्मान करते हैं। अब तुम कुछ ऐसा उपाय बताओं की जिससे दोनों का ही भला हो जाए। प्रजा किस प्रकार हम लोगों से प्रेम क रे। पाण्डव भी गुस्से में आकर हमें कोई हानि नहीं पहुंचाएं। ऐसा उपाय तुम बताओ। विदुरजी ने कहा अर्थ, धर्म और काम इन तीनों फल की प्राप्ति धर्म से ही होती है।राज्य की जड़ है धर्म आप धर्म की मर्यादा में रहकर अपने पुत्रों की रक्षा कीजिए। आपके पुत्रों की सलाह से आपने भरी सभा में उनका तिरस्कार किया है। उन्हें धोखे से हराकर वनवास दे दिया गया।
यह अधर्म हुआ। इसके निवारण का एक ही उपाय है कि आपने पांडवों का जो कुछ छीन लिया है, वह सब उन्हें दे दिया जाए। राजा का यह परम धर्म है कि वह अपने हक में ही संतुष्ट रहे, दूसरे का हक ना चाहे। जो उपाय मैंने बतलाया है उससे आपका कलंक भी हट जाएगा। भाई-भाई में फूट भी नहीं पढ़ेगी और अधर्म भी नहीं होगा।यह काम आपके लिए सबसे बढ़कर है कि आप पांडवों को संतुष्ट करें और शकुनि का अपमान करें। अगर आप अपने पुत्रों की भलाई चाहते हैं तो आपको जल्दी से जल्दी यह काम कर डालना चाहिए।
यदि आप मोहवश ऐसा नहीं करेंगे तो कुरुवंश का नाश हो जाएगा। युधिष्ठिर के मन में किसी तरह का रागद्वेष नहीं है इसलिए वे धर्मपूर्वक सभी पर शासन करें। इसके लिए यह जरूरी है कि आप युधिष्ठिर को संात्वना देकर राजगद्दी पर बैठा देना चाहिए। धृतराष्ट्र ने कहा तुम्हारा में इतना सम्मान करता हूं और तुम मुझे ऐसी सलाह दे रहे हो। तुम्हारी इच्छा हो तो यहां रहो वरना चले जाओ। धृतराष्ट्र की ऐसी दशा देखकर विदुर ने कहा कि कौरवकुल का नाश निश्चित है।


अपने भी पराए हो जाते हैं जब...
भयभीत होकर द्वारिका में भाग खड़े हुए। भगवान ने दूत को भेजकर अक्रूरजी को ढुंढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान् ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे संभाशण किया। भगवान् सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इस लिए उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा- चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है।
आप जानते ही हैं कि सत्राजीत के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के यानी उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकाऐंगे और जो कुछ बचेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे।इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे, क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है।
परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गई है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान् अक्रूरजी!आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिए।जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी।
भगवान् श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तक मणि अपने जाति भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुन: अक्रूरजी को लौटा दिया।धन का मोह ऐसा ही होता है। एक स्यमन्तक मणि ने ऐसी माया फैलाई कि खुद भगवान पर उनके ही परिजन शक करने लगे। एक ज्ञानी पुरुष सद्मार्ग से भटक गया, तप से पाई मणि को खुद की सम्पदा समझने वाला सत्राजीत अपने प्राण खो बैठा। आपके पास जो सम्पत्ति है उसे केवल अपना समझकर न रखें।
भगवान कहते हैं यह समाज और राष्ट्रहित में लगा दें। तप को सम्पत्ति की सम्पत्ति का इससे बेहतर और कोई सदुपयोग नहीं है।सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है।जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।देखिए सम्पत्ति जो है कलह का कारण बन जाएगी। यदि द्वेष भाव है, षडय़न्त्र है, एक दूसरे पर सन्देेह है तो भगवान् ने सबको समझाया कि इतनी बढिय़ा मणि द्वारिका में है और हम लोग इसके लिए लड़ रहे हैं यह प्रतिदिन सोना देती है।

सुन्दरकांड का पाठ क्यों करना चाहिए?

बजरंग बली को प्रसन्न करने के लिए हनुमान चालिसा का पाठ किया जाता है। वहीं सुंदरकांड का पाठ भी सबसे अच्छा उपाय है हनुमानजी की कृपा प्राप्ति का।सुंदरकांड गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सात कांडों में से एक हैं। रामचरितमानस के सभी कांड भगवान की भक्ति के लिए सर्वोत्तम हैं परंतु सुंदरकांड का महत्व अत्यधिक बताया गया है।
ऐसा माना जाता है कि किसी भी प्रकार की परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की सलाह देते हैं।रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय को दर्शाता है।
मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है। हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। इसलिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।

पांडवों को जंगल में ही मार डालने का षडयंत्र?

जब दुर्योधन को यह समाचार मिला कि विदुरजी पाण्डवों के पास से लौट आए है,तब उसे बड़ा दुख: हुआ। उसने अपने मामा शकुनि, कर्ण, और दु:शासन को बुलाया। उसने उनसे कहा हमारे पिताजी के अंतरंग मन्त्री विदुर वन से लौटकर आ गए हैं। वे पिताजी ऐसी उल्टी सीधी बात समझाएंगें।
उनके ऐसे करने से पहले ही आप लोग कुछ ऐसा कीजिए। दुर्योधन की बात कर्ण समझ गया। उसने कहा क्यों ना हम वनवासी पाण्डवों को मार डालने के लिए वन चले। जब तक पाण्डव लडऩे भिडऩे के लिए उत्सुक नहीं हैं। असहाय है तभी उन पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। तभी हमारा कलह हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। सभी ने एक स्वर में कर्ण की बात को स्वीकार किया। वे सभी गुस्से में आकर रथों पर सवार होकर जंगल की ओर चल दिए। जिस समय कौरव पाण्डवों का अनिष्ट करने के लिए पुरुष है।
उसी समय महर्षि वहां पहुंचे क्योंकि उन्हें अपनी दिव्यदृष्टी से पता चल गया कि कौरव पांडवों के बारे में षडयंत्र कर रहे थे। उन्होंने वहां जाकर कौरवों को ऐसा करने से रोक दिया। उसके बाद वे धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उनसे बोले धृतराष्ट्र मैं आपके हित की बात करता हूं। दुर्योधन ने कपट पूर्वक जूआ खेलकर पाण्डवों को हरा दिया। यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी है। यह निश्चित है कि तेरह साल के बाद कौरवों के दिए हुए कष्टो को स्मरण करके पाण्डव बड़ा उग्ररूप धारण करेंगे और बाणों की बौछार से तुम्हारे पुत्रों का ध्वंस कर डालेंगे। यह कैसी बात हैकि दुर्योधन उनसे उनका राज्य तो छीन ही चुका है अब उन्हें मारने डालना चाहता है। यदि तुम अपने पुत्रों के मन से द्वेष मिटाने की कोशिश नहीं करोगे तो मैं तुम्हे समझा रहा हूं ।
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गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

क्यों करते हैं भगवान की आरती?

आरती का अर्थ होता है व्याकुल होकर भगवान को याद करना उनका स्तवन करना, आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है। आरती चार प्रकार की होती है: - दीप आरती - जल आरती - धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती - पुष्प आरती दीप आरती: दीपक लगाकर आरती का आशय है। हम संसार के लिए प्रकाश की प्रार्थना करते हैं। जल आरती: जल जीवन का प्रतीक है। आशय है हम जीवन रूपी जल से ईश्वर की आरती करते हैं।
धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती: धूप, कपूर और अगरबत्ती सुगंध का प्रतीक है। यह वातावरण को सुगंधित करते हैं तथा हमारे मन को भी प्रसन्न करते हैं। पुष्प आरती: पुष्प सुंदरता और सुगंध का प्रतीक है। अन्य कोई साधन न होने पर पुष्प से आरती की जाती है। आरती एक विज्ञान है। आरती के साथ-साथ ढोल-नगाढ़े, तुरही, शंख, घंटा आदि वाद्य भी बजते हैं। इन वाद्यों की ध्वनि से रोगाणुओं का नाश होता है। वातावरण पवित्र होता है। दीपक और धूप की सुंगध से चारों ओर सुगंध का फैलाव होता है। पर्यावरण सुगंध से भर जाता है। आरती के पश्चात मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है।

क्यों बन गए सारे देवता वानर?

सभी देवताओं की पूकार सुनकर आकाशवाणी हुई डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण कर लूंगा। कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूं।वे ही दशरथ और कौशल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर प्रकट हुए। उन्हीं के घर जाकर मैं राम के घर में अवतार लूंगा। आप सभी निर्भय हो जाओ।
आकाश की बात को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट आए। ब्रह्मजी ने पृथ्वी को समझाया। तब उसका डर खत्म हो गया।देवताओ को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धारण करके आप लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मजी अपने लोक को चले गए। सब देवता अपने-अपने लोक को गए। सभी के मन को शांति मिली। ब्रह्मजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत खुश हुए और उन्होंने देर नहीं की।
पृथ्वी पर उन्होंने वानर का शरीर धारण किया। उनमें बहुत बल था। वे सभी भगवान के आने की राह देखने लगे। वे जंगलों में जहां तहां अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गए। अवध में रघुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे बहुत ज्ञानी थे। उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियां सभी पवित्र आचरण वाली थी वे पति के अनुकूल थी और श्री हरि के प्रति उनका प्रेम बहुत दृढ़ था।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

ऐसी पेंटिंग्स लगाने से हो जाती है घर की कायापलट

घर की सुंदरता बढ़ाने के लिए पेंटिंग्स, वालपेपर आदि का खूब इस्तेमाल किया जाता है। सुंदर और आकर्षक फोटो लगाने से दीवारों की सुंदरता बढ़ती है साथ ही हमारा मन भी प्रसन्न होता है। इसी वजह से किस प्रकार की पेंटिंग्स लगानी चाहिए इस संबंध में कुछ बातें ध्यान रखनी चाहिए।

फेंगशुई पेंटिंग्स सबसे ज्यादा प्रयोग की जाती हैं। ऐसी पेंटिंग्स लगाने से पूरी जगह का कायापलट हो जाता है। घर की पर्सनैलिटी को इनसे खूबसूरत रंगों का स्पर्श मिलता है और बेजान अंधेरे कोनों में जान आ जाती है। पेंटिंग्स में फेंगशुई को इमेज के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पानी की पेंटिंग्स वातावरण में यही एलिमेंट लाती है। फेंगशुई आर्ट पीस कई तरह से बनाए जाते हैं और इनके मतलब भी अलग-अलग होते हैं। ऐसे में लोग इन्हें अलग-अलग तरीकों से देखते हैं और इनकी अलग परिभाषा निकालते हैं।
फेंगशुई आर्टपीस बहुत ध्यान से खरीदने चाहिए और खरीदने से पहले आपको कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिए।
फेंगशुई आर्टपीस को लेने से पहले उसके रंग और वे क्या रिप्रजेंट करते हैं, इन पर भी गौर करें। यह सब कुछ वाकई बहुत महत्वपूर्ण है।
ध्यान दें कि पेंटिंग्स और उसके भीतर की इमेज लगाई जाने वाली जगह पर प्रेम और सुखद अहसास पैदा कर सकें। यहां तक कि पेंटिंग का फैब्रिक और फ्रेम भी उसके एलिमेंट के अनुरूप होना चाहिए।

भागवत २३३ : तब कृष्ण को पत्नी के रूप में मिली सत्यभामा

भगवान उसको लेकर वापस आते हैं और जब वो मणि सत्राजीत को दी गई तो सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ, ग्लानि भी हुई, लज्जा भी आई कि मैंने कृष्णजी पर आरोप लगाया हत्या व चोरी का। उसने क्षमा मांगी और उसने कृष्णजी से कहा मैं अपनी ग्लानि को मिटाना चाहता हूं तो मेरी पुत्री है सत्यभामा आपको मैं सौंपता हूं। आप उसे स्वीकार करिए और उसने कहा यह मणि भी आप रखिए दहेज में। कृष्ण ने कहा-यह मणि तो आफत का काम है और दो-दो मणि मिल गई एक मणि के चक्कर में। मैं इन्हीं को संभालता हूं। आप यह मणि रखो अपने पास।
सत्यभामा, जामवती, रुक्मिणी कृष्णजी के जीवन में आ गईं। मणि उन्होंने सत्राजीत को वापस कर दी। ऐसा कहते हैं कि उस मणि ने इतनी आफत पैदा कर दी कि जब भगवान् को सूचना मिली कि लाक्ष्यागृह में पाण्डव जल गए हैं तो भगवान् कुछ दिन के लिए हस्तिनापुर चले गए। भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारिका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया।
उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा-तुम सत्राजीत से मणि क्यों नहीं छीन लेते? सत्राजीत ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृश्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजीत भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाए? शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजीत को मार डाला और मणि लेकर वहां से चंपत हो गया। सत्यभामा को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गए हैं बड़ा शोक हुआ। वह हस्तिनापुर को गईं।

बदले से अधिक सुकून देती है माफी

लोगों को अक्सर यह कहते सुना होगा कि जब तक मैं बदला नहीं ले लेता मेरे कलेजे को ठंडक नहीं पहुंचेगी। मेरा जितना अपमान और नुकसान हुआ है, जब तक सामने वाले का उतना ही बिगाड़ नहीं कर लूं मुझे चैन से नींद नहीं आएगी। ये ऐसी बातें हैं, जिनसे पता चलता है कि इंसान बदले की आग में खुद ही जल रहा है। कभी कभी बदले की भावना में आदमी इतना अंधा हो जाता है कि उसे ये ध्यान भी नहीं होता कि ऐसी भावना कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगी क्योंकि किसी के लिए प्रतिशोध की भावना कभी अच्छा फ ल नहीं देती। आइये चलते हैं ऐसी ही कथा की ओर जो बदले की भावना के नतीजों से रूबरू करवाती है......
एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है । इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।
कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए लेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

द्रोपदी के खाने के बाद ही खाली होता था चमत्कारी पात्र क्योंकि...

शौनक जी ने युधिष्ठिर से कहा आप जैसे अच्छे लोग दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं। जो लोग पापी होते हैं वे अपना पेट भरने के लिए दूसरों के हक का खा लेते हैं। जिस समय संस्कार मन के रुप में जागृत हो जाते हैं। संकल्प कामना उत्पन्न हो जाती है। अज्ञान के कारण कामनाएं, या इच्छाएं पूरी होने पर और ज्यादा बढऩे लगती है। कर्म करो और कर्म करके छोड़ दो ये दोनों ही बातें वेदों में लिखी गई है। शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गए और अपने भाइयों के सामने ही उनसे कहने लगे- वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी ब्राह्मण मेरे सामथ्र्य नहीं है, इससे में बहुत दुखी हूं। न तो मैं उनका पालन पोषण नहीं कर सकता हूं।
ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, आप कृपा करके यह बतलाइए। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टी से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। धर्मराज को संबोधन करके कहा धर्मराज सृष्टी प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब भगवान सूर्य ने दया करके कहा धर्मराज सृष्टी के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब सूर्य ने पृथ्वी का रस खींचा। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया तब चंद्रमा ने उसमें ओषधीयों का बीज डाला और उसी से अन्न व फल की उत्पति हुई। उसी अन्न से प्राणीयों ने अपनी भुख मिटायी। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है।
सूर्य ही सब प्राणीयों की रक्षा करते हैं इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर सूर्य की आराधना का तरीका बतलाते हुए कहा- मैं तुम्हे सूर्य के एक सौ आठ नाम बताता हूं तुम इन नामों का जप करना। भगवान सूर्य तुम पर कृपा करेंगे। धौम्य की बात सुनकर युधिष्ठिर ने सूर्य की आराधना प्रारंभ की। इस प्रकार युधिष्ठिर ने पूरी श्रृद्धा के साथ सूर्य की आराधना की और उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया वह पात्र अक्षय था यानी कभी खाली नहीं होता था। उन्होंने वह पात्र द्रोपदी को दे दिया। उसी से युधिष्ठिर ब्राहणों को भोजन करवाते थे। ब्राह्मणों के बाद सभी भाइयों को भोजन करवाने के बाद युधिष्ठिर भोजन करते और सबसे आखिरी में द्रोपदी भोजन करती थी।

भागवत २३२: ...और कृष्ण पर लगा हत्यारे होने का कलंक

वहां द्वारिका में कृष्णजी के यदुवंश में एक बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे सत्राजीत। सत्राजीत सूर्य देवता के उपासक थे। सूर्य देवता ने प्रसन्न होकर सत्राजीत को एक मणि दी। मणि का नाम था स्यमन्तक मणि। कथा इस प्रकार है। सत्राजीत भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गए थे। सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तक मणि दी थी।

सत्राजीत उस मणि को गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो।जब सत्राजीत द्वारिका में आया, तब अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आंखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे।
यह बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा - अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजीत है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजीत अपने समृद्ध घर में चला गया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तक मणि को एक देव मंदिर में स्थापित करा दिया। भगवान के लिए लोक हित, राष्ट्रहित सर्वोपरि है।
वे व्यक्तिगत उपलब्धियों को महत्व नहीं देते, वे लोक नायक हैं जब तक किसी उपलब्धि से राष्ट्र का हित न हो, वे उसे उपलब्धि नहीं मानते। सत्राजीत ने सूर्य से मणि प्राप्त की लेकिन इसे व्यक्तिगत उन्नति और सम्पन्नता में लगा दिया।वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह पूजित होकर रहती थी। उसने भगवान की आज्ञा को अस्वीकार कर दिया।एक दिन सत्राजीत के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहां एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेष कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ।इधर सत्राजीत ने देखा कि मणि भी नहीं है और मेरा भाई भी नहीं है तो सत्राजीत लोगों से कहता है कि मुझे यह संदेह होता है कि श्रीकृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला और मणि ले ली क्योंकि श्रीकृष्ण कह रहे थे कि मणि हमें दे दो और मैंने मना कर दिया। बात खुसुर-फुसर फैल गई और सारी द्वारिका में यह चर्चा होने लगी कि कृष्ण ने मणि ले ली और कृष्ण हत्यारे हैं। कृष्ण पर कलंक लगना आरम्भ हुआ।

मोटापे का अंत चाहें तो पीएं एक गिलास रोज ...

कितने ही लोगों को धन, बल, ज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में सक्षम होने पर भी किसी न किसी शारीरिक कमी के कारण मन मसोसकर रह जाना पड़ता है। दुबलापन भी एक ऐसी ही शारीरिक कमी है जिसके कारण व्यक्ति को सब कुछ होते हुए भी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है।
असंभव को संभव करने के सारे तरीके खोजते-खोजते अंत में मनुष्य को अपनी बड़ी से बड़ी समस्या का हल मिल ही जाता है। आश्चर्यजनक रूप से मोटापे का इलाज एक गिलास छाछ में पाया गया है। आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और योग के सम्मिलित प्रयासों से मोटापे की समस्या का 100-प्रतिशत कारगर उपाय खोज निकाला गया है। ये बेहद सरल उपाय ये हैं-
-प्रतिदिन सुबह खाली पेट एक गिलास घर पर बनी शुद्ध छाछ पीएं, स्वाद के अनुसार थोड़ा सा काला नमक व हींग-जीरा भी मिलाया जा सकता है।
-प्रतिदिन सोते समय गुनगुने पानी से एक से दो चम्मच त्रिफला चूर्ण का सेवन करें।
-किसी जानकार के मार्गदर्शन में प्रतिदिन सुबह खुले प्राकृतिक स्थान पर जाकर आसन और प्राणायाम का अभ्यास करें।

वहां भगवान खुद चले आते हैं जहां...

पराये धन और परायी स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे। साधुओं से सेवा करवाते थे। जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना चाहिए। यह सब देखकर पृथ्वी व्याकुल हो गई। वह सोचने लगी कि पर्वतों नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं पड़ता जितना भारी मुझे ये पापी लगते हैं। पृथ्वी देख रही है कि सबकुछ धर्म के विपरित हो रहा है पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं रही है। उसका दिल सोच- विचारकर, गौ का रूप धारण कर धरती वहां गयी, जहां सब देवता और मुनि थे।
पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुख सुनाया, पर किसी से कुछ काम ना बना। तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मजी के लोक को गए। भय और शोक से व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौका शरीर धारण किए हुए थे। ब्रह्मजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलेगा। इसलिए ब्रह्मजी ने कहा धरती मन में धीरज रखो। हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं।
ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे। सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहां ढूंढे। कोई वैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीर समुद्र में निवास करते हैं। जिसके दिल में जैसी भक्ति और प्रीति होती है। प्रभु वहां सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। पार्वती उस समय में भी वहां उपस्थित था। मैं तो यह जानता हूं कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं। प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। प्रभु तो हर जगह है।
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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

भागवत २३१: मन जल्दी से हार मानने वाला नहीं है,क्योंकि...

इस प्रसंग के माध्यम से हम मन की स्थिति पर एक बार फिर चिंतन कर लें। मन की तीन अवस्थाएं हैं- अभियंत्रित अर्थात असंयमित, नियंत्रित अर्थात् संयमित तथा स्वाभाविक। अनियंत्रित अवस्था से नियंत्रित अवस्था की ओर आने के लिए अपने आपको संभालना पड़ता है, संयम का प्रयास करना पड़ता है, भागते मन के पीछे भागकर उसे पकडऩा पड़ता है, बार-बार उसके प्रवाह को मोडऩे का प्रयास करना पड़ता है।
यह समय साधक के लिए काफी संघर्शमय होता है। किसी अन्य से नहीं, अपनेआप से संघर्ष मन की वासनाओं, कुविचारों तथा कुप्रवाहों से संघर्ष, मन की चंचलताओं एवं उपद्रवों से संघर्ष। इस अवस्था में अंतर की वासनाएं उदय होकर बाहर भयंकर तूफान के रूप में प्रकट होती है तथा मनुष्य को तिनके की भांति, संसार के प्रलोभनों, आकर्षणों तथा उत्तेजनाओं के अनंत आकाश के लिए उड़ती है। संयम के सहारे साधक, अपने पांव जमाए रखने का प्रयत्न करता है। यदि कभी, तूफान के आवेग में उसके पांव उखडऩे लगते हैं तो जमाने का प्रयास करता है, ईश्वर को पुकारता है।मन जल्दी हार मानने वाला नहीं है।
जन्म-जन्मांतर के अर्जित तथा स्थापित साम्राज्य को इतनी आसानी से हाथ से जाने भी कैसे दिया जा सकता है? वह साम, दाम, दण्ड का सहारा लेकर किसी भी प्रकार साधक को रणक्षेत्र से खदेडऩे का प्रयत्न करता है। वास्तव में यह युद्ध अंतर में लड़ा जाता है। बाहर उसके केवल प्रतिछाया होती है। अंतर में अस्त्रों-शास्त्रों का प्रयोग होता है एवं अंतर में ही घात-प्रतिघात। अंतर में ही चेतना का विकास होता है तथा अंतर में ही लहुलुहान होता है। यदि साधक को व्यवहार-शुद्धि का युद्ध जीतना है तो उसे आंतरिक शक्ति का विकास करना होगा, मन का बिखराव रोकना होगा, उसे नियंत्रित एवं अनुशासित करना होगा।

भागवत २३०: करें हर मुश्किल परिस्थिति का सामना, कुछ इस तरह...

पं.विजयशंकर मेहता
मायावती रति ने इस प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्न को महामाया नाम की विद्या सिखायी। यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकार की मायाओं का नाश कर देती है। अब प्रद्युम्नजी शम्बरासुर के पास जाकर उस पर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे। शम्बरासुर की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। वह हाथ में गदा लेकर बाहर निकला। उसने अपनी गदा बड़े जोर से आकाश में घुमाई और इसके बाद प्रद्युम्नजी पर चला दी।
प्रद्युम्न ने एक तीक्ष्ण तलवार उठाई और शम्बरासुर का किरीट एवं कुण्डल से सुशोभित सिर जो लाल-लाल दाढ़ी, मूंछों से बड़ा भयंकर लग रहा था, काटकर धड़ से अलग कर दिया। देवता लोग पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना जानती थीं, अपने पति प्रद्युम्नजी को आकाश मार्ग से द्वारकापुरी में ले गईं।
पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजी के साथ वहां पधारे। भगवान् श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे, परन्तु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। यहां भगवान स्थितप्रज्ञ, मौन जैसे गुणों को सिखा रहे हैं। खोया बेटा लौट आया, दस दिन का था तब गुम हुआ था, अब जवान होकर लौट आया। विधि का विधान है, भगवान कृष्ण सब जानकर भी एक दम चुप खड़े हैं। न ज्यादा आश्चर्य जताया, नहीं खुशी दिखाई।

जैसी दशा द्वारिका के वासियों और अंत:पुर की स्त्रियों की हो रही है, उससे एकदम अलग, बिल्कुल निश्चिंत खड़े हैं भगवान। ज्ञानी पुरुष ऐसा ही होता है, हर परिस्थिति को परमात्मा जनित मानकर अपना लेता है। जब बेटा खो गया तब भी कृष्ण विचलित न थे और अब पुत्र के लौट आने पर भी बिल्कुल शांत हैं। हमें जीवन में इस घटना को गहराई से उतारना चाहिए।
इतने में ही नारदजी वहां आ पहुंचे और उन्होंने प्रद्युम्नजी को शम्बरासुर का हर ले जाना, समुद्र में फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएं घटित हुई थीं, वे सब कह सुनाई। नारदजी के द्वारा यह महान आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण के अन्त:पुर की स्त्रियां चकित हो गईं और बहुत वर्शों तक खोए रहने के बाद लौटे हुए प्रद्युम्नजी का इस प्रकार अभिनंदन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो।
देवकीजी, वसुदेवजी, भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी और स्त्रियां सब उस नवदम्पत्ति को हृदय से लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए। जब द्वारकावासी नर-नारियों को यह मालूम हुआ कि खोए हुए प्रद्युम्नजी लौट आए हैं, तब वे परस्पर कहने लगे-अहो, कैसे सौभाग्य की बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया।इस प्रसंग के माध्यम से हम मन की स्थिति पर एक बार फिर चिंतन कर लें।

6 मई को बनेगा ऐसा अद्भुत योग...

हिंदू शास्त्रों के अनुसार वर्षभर में कई विशेष योग बनते हैं लेकिन 6 मई को एक महायोग बन रहा है। इस महायोग का नाम है अक्षय तृतीया। यह वर्ष में सिर्फ एक बार ही आता है। ज्योतिष के अनुसार इस दिन किए गए पुण्य कर्मों का अक्षय पुण्य प्राप्त होता है।

भारतीय कालगणना के अनुसार चार स्वयं सिद्ध मुहूर्त है- उनमें से एक आखातीज या अक्षय तृतीया। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया ही आखातीज या अक्षय तृतीया कहलाती है।
अक्षय का अर्थ जिसका कभी क्षय ना हो जो स्थाई रहे। इसी दिन परशुरामजी का जन्म भी हुआ था। परशुरामजी चिरंजिवी है। उनकी आयु का क्षय नहीं हुआ इसलिए इस तिथि को चिरंजीवी तिथि भी कहा जाता है। चारों युगों में त्रेतायुग का आरंभ इस तिथि से हुआ। इस वजह से इसे युगादितिथि भी कहते हैं। चारों धामों में से एक बद्रीनाथधाम के पट इसी दिन से खुलते है। माना जाता है कि इस दिन किया गया दान, पूजन, हवन, दक्षिणा या कोई भी पुण्य कार्य अक्षय फल प्रदान करने वाला होता है।
यह एक स्वर्य सिद्ध मुहूर्त है इस कोई भी शुभ कार्य करने के लिए सबसे अच्छा होता है। कोई भी मांगलिक कार्य इस दिन संपन्न किया जा सकता है। भगवान नर-नारायण, हयग्रीव एवं परशुराम का जन्म इसी तिथि को हुआ था। लोकमान्यता है कि अक्षय तृतिया को यदि रोहिणी नक्षत्र ना हो तो दुष्टों का बल बढ़ता है। हमारे सौभाग्य से इस बार रोहिणी से युक्त अक्षय तृतिया है जो दुष्टों के लिए हानिकर होगी। इस दिन जल से भरे कलश, जूता, छाता, गौ, भूमी, स्वर्णपात्र का दान करना चाहिए। मृत पितरों का तर्पण यह मानकर किया जाता है कि इसका उनको अक्षय फल प्राप्त होगा।

हर दुख का कारण यही है...

ब्राह्मणों की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत शोक प्रकट किया। वे उदास होकर जमीन पर बैठ गए। तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा राजन् अज्ञानी मनुष्यों को सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक और भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्मबंधन में नहीं पड़ते। वे तो हमेशा मुक्त ही रहते है। आपकी चित्तवृति, यम, नियम आदि अष्टांगयोग से पुष्ट है।
आपकी जैसी बुद्धि जिसके पास है उसे अन्न-वस्त्र के नाश से दुख नहीं होता। कोई भी शारीरिक या मानसिक दुख उसे नहीं सता सकता। जनक ने जगत को शारीरिक और मानसिक दुख से पीडि़त देखकर उसके लिए यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिए। शरीर के दुख: के चार कारण है- रोग, किसी दुख पहुंचाने वाली वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और मनचाही वस्तु ना मिलना।
इन सभी बातों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुख ही शारीरिक दुख का कारण बन जाता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाए तो वह जल गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर खराब हो जाता है। इसलिए जैसे आग को पानी से ठंडा किया जाता है। वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख मिट जाता है। मन के दुखी होने का कारण प्यार है। प्यार के कारण ही मनुष्य दुखों में फंसता चला जाता है।
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रविवार, 17 अप्रैल 2011

स्वयं पर शासन करके स्वामी बन गए बादशाह

एक स्वामी स्वयं को बादशाह कहा करते थे। ऐसे ही विश्व भ्रमण के दौरान वे किसी देश पहुंचे, तो वहां के राष्ट्रपति उनसे मिलने आए। लेकिन स्वामीजी को देखकर वे बोले कि आपके पास तो ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे यह लगे कि आप बादशाह हैं। बादशाह तो वह होता है, जिसके पास आठ-दस देश हों, अपार धन व संपत्ति हो। इस पर स्वामीजी ने कहा कि बस थोड़ा-सा फासला अभी बाकी है मुझमें और मेरे बादशाह बनने में। वह फासला है मेरी लंगोटी। जिस दिन मैं अपनी इस लंगोटी का भी परित्याग कर दूंगा, उसी दिन मैं पूर्णरूप से बादशाह बन जाऊंगा। बादशाह तो उसे कहते हैं, जिसे किसी भी चीज की जरूरत न हो। जो संपूर्णता से भरा हुआ हो, वही तो बादशाह है और मैं संपूर्ण रूप से भरा हुआ हूं। मुझे इस संसार में किसी चीज की कामना नहीं है, मेरी कोई भी इच्छा नहीं है। इसलिए ही तो मैं बादशाह हूं। बादशाह का मतलब यह नहीं होता कि मेरे पास एक राज्य है और मैं दूसरा राज्य भी चाहता हूं। दस अरब की संपत्ति मिल गई है तो अब बीस अरब की संपत्ति मुझे और मिल जाए। यह कामना बादशाहत की नहीं, बल्कि भिखारीपन की निशानी है। मेरे पास जितना है, उससे मुझे संतुष्टि नहीं मिलती, बल्कि और चाहिए की कामना रहती है। जिसका सारा जहान अपना बन जाए, उससे बड़ा बादशाह और कौन हो सकता है? वस्तुत: जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर शासन कर लिया, उससे बड़ा बादशाह कोई और नहीं।
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और राजा ब्राह्मणी के आगे नतमस्तक हो गए

पंडित श्रीरामनाथ कृष्णनगर के बाहर एक कुटिया में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। एक दिन जब वे विद्यार्थियों को पढ़ाने जा रहे थे, उनकी पत्नी ने उनसे कहा - भोजन क्या बनेगा? घर में एक मुट्ठी चावल ही हैं। पंडितजी ने पत्नी की ओर देखा और बिना कोई उत्तर दिए चले गए। भोजन के समय जब उन्होंने थाली में थोड़े-से चावल और उबली हुई कुछ पत्तियां देखीं तो पत्नी से पूछा - भद्रे, यह स्वादिष्ट शाक किसका है? पत्नी बोली - मेरे पूछने पर आपकी दृष्टि इमली के वृक्ष की ओर गई थी। मैंने उसी के पत्तों का शाक बनाया है। पंडितजी ने बड़ी ही निश्चिंतता से कहा - इमली के पत्तों का शाक इतना स्वादिष्ट होता है। तब तो हमें भोजन की कोई चिंता ही नहीं रही। जब कृष्णनगर के राजा शिवचंद्र को पंडितजी की गरीबी का पता चला तो उन्होंने पंडितजी के सामने नगर में आकर रहने का प्रस्ताव रखा, किंतु उन्होंने इनकार कर दिया। तब महाराज ने स्वयं उनकी कुटिया में जाकर उनसे पूछा - आपको किसी चीज का अभाव तो नहीं? पंडित बोले - यह तो घरवाली ही जाने। तब महाराज ने कुटिया में जाकर ब्राह्मण की पत्नी से पूछा। वह बोली - राजन! मेरी कुटिया में कोई अभाव नहीं। मेरे पहनने का वस्त्र अभी इतना नहीं फटा कि उपयोग में न आ सके। जल का मटका अभी तनिक भी फूटा नहीं है और फिर मेरे हाथ में जब तक चूड़ियां बनी हुई हैं, मुझे क्या अभाव। राजा उस देवी के समक्ष श्रद्धा से झुक गए। वस्तुत: सीमित साधनों में ही संतोष की अनुभूति हो तो जीवन आनंदमय हो जाता है।
भास्कर न्यूज

रात के भी 'राजा' थे डायनासोर

एक नए शोध से पता चला है कि कुछ डायनासोर रात में भी शिकार किया करते थे। इसके लिए अलग-अलग दिनचर्या वाले पक्षियों और रेंगने वाले जानवरों यानि सरीसृपों की वर्तमान प्रजातियों की आँखों का अध्ययन कर उसकी तुलना डायनासोर के जीवाश्म के हिस्सों से की गई।
शोध से इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि माँसाहारी डायनासोर रात में शिकार करते थे जबकि शाकाहारी डायनासोर रात और दिन दोनों समय भोजन की तलाश करते थे।

इस नए वैज्ञानिक शोध में उस प्रचलित अवधारणा को भी चुनौती दी गई है कि रात में ही शिकार तलाशने वाले स्तनधारी जीव दिन में भोजन की तलाश में जुटे डायनासोर से खुद को बचाने के लिए ऐसा करते थे।
युनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया डेविस के शोधकर्ताओं लार्स स्मित्ज और रयोस्की मॉटनी ने लगातार कई सालों तक डायनासोर और उनके वंशज छिपकली व पक्षियों की आँखों का अध्ययन किया। वो चाहते थे कि ये पता चल सके कि क्या डायनासोर की आँखे रात में सक्रिय रहती थीं।
पुरानी अवधारणा : आमतौर पर अब तक ये माना जाता रहा है कि डायनासोर सिर्फ दिन में ही जागते थे। शोधकर्ता ये पता करने की कोशिश कर रहे थे कि डायनासोर की आँखे कितनी बड़ी और रोशनी के प्रति कितनी संवेदनशील रही होंगी।
हालाँकि जीवाश्म के अध्ययन से इस बात के संकेत नही मिले कि उनकी आँखों की पुतली कितनी बड़ी रही होंगी।
शोधकर्ता डॉ लार्स स्मित्ज ने बीबीसी को बताया कि उन्होनें ऐसी प्रजातियों का अध्ययन किया जो अलग-अलग दिनचर्या वाली थीं। उन्होनें छिपकली और पक्षियों की आँखों की छानबीन की। आँखों को घेरने वाली हड्डियों की नाप जोख के बाद उसकी तुलना डायनासोर की आँखों से की।
शोधकर्ताओं ने 33 डायनासोर की आँखों के ढ़ाँचों का लेखा-जोखा तैयार किया और नतीजा निकाला कि डायनासोर रात और दिन दोनों समय सक्रिय रहते थे।
शोधकर्ता कहते हैं कि इस शोध के बाद डायनासोर की कहानी और पेचीदी हो गई है और अब इस दिशा में ज्यादा शोध की जरूरत है।
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भय का नाश करता है यह हनुमान मंत्र

क्या आप किसी अज्ञात भय से ग्रसित हैं या आपको हर समय किसी का डर सताता रहता है। कुछ लोगों को इस प्रकार की समस्या रहती है। उन्हें हर समय किसी न किसी बात का डर सताता रहता है। जब यह भय अधिक बढ़ जाता है तो एक रोग का रूप ले लेता है। यदि आपके साथ भी यही समस्या है तो नीचे लिखे मंत्र का विधि-विधान से जप करने से इसका निदान संभव है। अज्ञात भय से रक्षा के लिए इस हनुमान मंत्र का जप लगातार 7 दिनों तक प्रतिदिन 75 बार हनुमान यंत्र के सामने करें। यंत्र का धूप-दीप से पूजन भी करें, उसके बाद मंत्र का जप करें-

मंत्र

अंजनीर्ग सम्भूत कपीन्द्रसचिवोत्तम।
राम प्रिय नमस्तुभ्यं हनुमते रक्ष सर्वदा।।

इसके बाद इस यंत्र को किसी हनुमान मंदिर में अर्पित कर दें। इससे मंत्र से सभी भयों का नाश हो जाता है।

हनुमान जन्म और लंकादहन का कारण

श्री हनुमान रामायण रूपी माला के रत्न पुकारे गए हैं, क्योंकि श्री हनुमान की लीला और किए गए कार्य अतुलनीय और कल्याणकारी रहे। श्री हनुमान ने जहां राम और माता सीता की सेवा कर भक्ति के आदर्श स्थापित किए, वहीं राक्षसों का मर्दन किया, लक्ष्मण के प्राणदाता बने, देवताओं के भी संकटमोचक बने और भक्तों के लिए कल्याणकारी बने। रामायण में आए श्री हनुमान से जुड़ें ऐसे ही अद्भुत संकटमोचन करने वाले प्रसंगों में लंकादहन भी प्रसिद्ध है।

सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक बात जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई। जानते हैं वह रोचक बात -
दरअसल, श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।
दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।
जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।
यही प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है।

तो श्री हनुमान को इस मंत्र से चढ़ाएं सिंदूर

हनुमान जयंती (18 अप्रैल) यानी श्री हनुमान के जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर हनुमान उपासना मन, शरीर और विचार को बलवान बनाने के साथ-साथ पावन भी बनाती है, जिससे जीवन और कार्य के प्रति सत्य व समर्पण की भावना भी मजबूत होती है।
अगर आप भी सफलता और सुख की हर चाहत को पूरा करना चाहते हैं, किंतु कलह से भरे अशांत जीवन से बेचैन हैं तो यहां बताई जा रहे हनुमान उपासना के इन सरल उपायों को अपनाएं -

- हनुमान जयंती, मंगलवार या शनिवार के दिन तन, मन, वचन से पूरी पवित्रता के साथ घर या देवालय में श्री हनुमान की पूजा करें।
- श्री हनुमान की पूजा में कुमकुम, अक्षत, फूल, नारियल, लाल वस्त्र और लाल लंगोट के साथ ही विशेष रूप से सिंदूर और चमेली का तेल चढ़ाने का महत्व है।
- श्री हनुमान की ऐसी प्रतिमा जिस पर सिंदूर का चोला चढ़ा हो, पर पवित्र जल से स्नान कराएं। इसके बाद सभी पूजा सामग्री अर्पण कर इस विशेष मंत्र से थोड़ा सा चमेली के तेल में सिंदूर मिलाकर या सीधे प्रतिमा पर हल्का सा तेल लगाकर उस पर सिंदूर का चोला चढ़ा दें -

सिन्दूरं रक्तवर्णं च सिन्दूरतिलकप्रिये।
भक्तयां दत्तं मया देव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम।।
- श्री हनुमान चालीसा पाठ करें या सुनें। इसके बाद गुग्गल धूप व तेल के दीप से श्री हनुमान की आरती करें व दु:खों की मार से रक्षा की प्रार्थना करें।
श्री हनुमान की ऐसी उपासना नियमित रूप से भी करें तो शांत मन से पैदा ईश्वर व खुद के प्रति विश्वास व्यावहारिक रूप से आपके तनाव को दूर करेगा।

हनुमान जयंती 18 को,

ऐसे करें हनुमानजी का पूजन
कलयुग में सर्वाधिक हनुमानजी की ही पूजा की जाती है क्योंकि उन्हें कलयुग का जीवंत देवता माना गया है। धर्म शास्त्रों के अनुसार चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन भगवान हनुमान का जन्म हुआ था। इस पर्व को हनुमान जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस बार हनुमान जयंती 18 अप्रैल, सोमवार को है।
पूजन विधि
हनुमानजी का पूजन करते समय सबसे पहले कंबल या ऊन के आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाएं। हनुमानजी की मूर्ति स्थापित करें। इसके पश्चात हाथ में चावल व फूल लें व इस मंत्र से हनुमानजी का ध्यान करें-

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यं।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

ऊँ हनुमते नम: ध्यानार्थे पुष्पाणि सर्मपयामि।।

इसके बाद चावल व फूल हनुमानजी को अर्पित कर दें।

आवाह्न- हाथ में फूल लेकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हनुमानजी का आवाह्न करें एवं उन फूलों को हनुमानजी को अर्पित कर दें।

उद्यत्कोट्यर्कसंकाशं जगत्प्रक्षोभकारकम्।

श्रीरामड्घ्रिध्याननिष्ठं सुग्रीवप्रमुखार्चितम्।।

विन्नासयन्तं नादेन राक्षसान् मारुतिं भजेत्।।

ऊँ हनुमते नम: आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।।

आसन- नीचे लिखे मंत्र से हनुमानजी को आसन अर्पित करें-

तप्तकांचनवर्णाभं मुक्तामणिविराजितम्।

अमलं कमलं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम्।।

आसन के लिए कमल अथवा गुलाब का फूल अर्पित करें। इसके बाद इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए हनुमानजी के सामने किसी बर्तन अथवा भूमि पर तीन बार जल छोड़ें।

ऊँ हनुमते नम:, पाद्यं समर्पयामि।।

अध्र्यं समर्पयामि। आचमनीयं समर्पयामि।।

इसके बाद हनुमानजी की मूर्ति को गंगाजल से अथवा शुद्ध जल से स्नान करवाएं तत्पश्चात पंचामृत(घी, शहद, शक्कर, दूध व दही ) से स्नान करवाएं। पुन: एक बार शुद्ध जल से स्नान करवाएं।

अब इस मंत्र से हनुमानजी को वस्त्र अर्पित करें व वस्त्र के निमित्त मौली चढ़ाएं-

शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम्।

देहालकरणं वस्त्रमत: शांति प्रयच्छ मे।।

ऊँ हनुमते नम:, वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि।

इसके बाद हनुमानजी को गंध, सिंदूर, कुंकुम, चावल, फूल व हार अर्पित करें। अब इस मंत्र के साथ हनुमानजी को धूप-दीप दिखाएं-

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया।

दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम्।।

भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने।।

त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीपज्योतिर्नमोस्तु ते।।

ऊँ हनुमते नम:, दीपं दर्शयामि।।

इसके बाद केले के पत्ते पर या किसी कटोरी में पान के पत्ते के ऊपर प्रसाद रखें और हनुमानजी को अर्पित कर दें तत्पश्चात ऋतुफल अर्पित करें। (प्रसाद में चूरमा, भीगे हुए चने या गुड़ चढ़ाना उत्तम रहता है।) अब लौंग-इलाइचीयुक्त पान चढ़ाएं।
पूजा का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए इस मंत्र को बोलते हुए हनुमानजी को दक्षिणा अर्पित करें-

ऊँ हिरण्यगर्भगर्भस्थं देवबीजं विभावसों:।

अनन्तपुण्यफलदमत: शांति प्रयच्छ मे।।

ऊँ हनुमते नम:, पूजा साफल्यार्थं द्रव्य दक्षिणां समर्पयामि।।

इसके बाद एक थाली में कर्पूर एवं घी का दीपक जलाकर हनुमानजी की आरती करें।
इस प्रकार पूजन करने से हनुमानजी अति प्रसन्न होते हैं तथा साधक की हर मनोकामना पूरी करते हैं।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

आंखों के नीचे काला घेरा हो तो अपनाएं ये 5 टिप्स

आज की तनाव भरी जिंदगी में स्वास्थ्य का ध्यान रख पाना काफी मुश्किल हो गया है। इन्हीं कारणों के चलते काफी लोगों को डार्क सर्कल की समस्या हो जाती है। डार्क सर्कल यानि आंखे के नीचे काले घेरे बन जाते हैं। इस वजह से लड़कियों की सुंदरता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
डार्क सर्कल्स से बचने के लिए कई देसी उपाय बताए गए हैं। इन्हें अपनाने से यह समस्या तो दूर होगी साथ ही अन्य स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त होंगे-
रात को बादाम पानी में भिगोकर रख दें। सुबह भिगे हुए बादाम को पीस लें, इसमें नींबू की कुछ बूंद मिलाएं और इसे आंखों के आसपास लगाएं। डार्क सर्कल्स दूर करने के लिए खीरा सबसे अच्छा उपाय है। इसके लिए खीरा और उसमें पोदीने की कुछ पत्तियां मिलाकर पीस लें। इस पेस्ट को डार्क सर्कल्स पर लगाएं। कुछ ही दिनों में लाभ होगा।
दिन में कम से कम ढाई लीटर पानी अवश्य पीएं।
जहां तक हो सके चिंताओं से दूर रहें। कार्य का अतिरिक्त भार आपकी सेहत पर बुरा प्रभाव डालता है। योग और ध्यान करें। इससे मन को शांति मिलेगी और तनाव दूर होगा। जिससे डार्क सर्कल्स की समस्या से निजात मिलेगी।
प्रतिदिन फल अवश्य खाएं। हो सके तो प्रतिदिन एक सेब अवश्य लें।

ऐसे जीती रावण ने लंका...

मय नाम का एक राक्षस था। मय दानव की मन्दोदरी नाम की एक कन्या थी। मन्दोदरी बहुत सुन्दर और स्त्रियों में शिरोमणि थी। उससे शादी करके रावण प्रसन्न था। फिर उसने विवाह कर दिया क्योंकि उसे पता था कि यह राक्षसों का राजा होगा। उसके बाद रावण ने अपने दोनों छोटे भाइयों का भी विवाह कर दिया। समुद्र के बीच में त्रिकूट नाम का एक बड़ा भारी किला था। मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।
जैसे नागकुल की पाताल में भोगावतीपुरी है और इन्द्र के रहने की अमरावती पुरी है उनसे भी अधिक सुन्दर वह दुर्ग था। वही दुर्ग संसार में लंका नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे चारों और से समुद्र की बहुत गहरी खाई घेरे हुए है। भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प जो राक्षसों का राजा होता है वही शूर, प्रतापी अतुलित बलवान अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है।
वहां बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इन्द्र प्रेरणा से वहां कुबेर के एक करोड़ रक्षक रहते हैं। रावण को कहीं ऐसी खबर मिली तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उसे बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष वहां से भाग गए। तब रावण ने घूम फिरकर सारा नगर देखा, उसकी चिन्ता मिट गयी। रावण ने उस नगर को अपनी राजधानी बनाया। योग्यता क े अनुसार रावण ने सभी राक्षसों को लंका में घर बांट दिए। एक बार उसने कुबेर से युद्ध करके पुष्पक विमान भी जीत लिया।
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एक नीबू और पेट की कई बीमारियां हो जाएंगी छू मंतर

चिकित्सा के क्षेत्र में दुनिया ने काफी तरक्की कर ली है। लेकिन आज भी स्वास्थ्य कि क्षेत्र में प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और योग को सर्वाधिक भरोसेमंद और अचूक माना जाता है।

ऐलोपैथिक दवाइयां रोग के लक्षणों को दबाती और नष्ट करती है, जबकि प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद और योग का लक्ष्य बीमारी को दबाना नहीं बल्कि शरीर को अंदर से मजबूत करके हर बीमारी को जड़ से मिटाना होता होता है। आयुर्वेद के अंतर्गग नीबू के प्रयोग को बेहद फायदेमंद और गुणकारी माना गया है।
नीबू में ऐसे कई दिव्य गुण होते हैं जो पेट संबंधी अधिकांस बीमारियों को दूर करने में बेहद कारगर होता है।
खुल कर भूख न लगना, कब्ज रहना, खाया हुआ पचाने में समस्या आना, खट्टी डकारें आना, जी मचलाना, एसिडिटी होना, पेट में जलन होना....ऐसी ही कई बीमारियों में नीबू का प्रयोग बहुत फयदेमंद और कारगर सिद्ध हुआ है।
सावधानियां
- नीबू की तासीर ठंडी मानी गई है, इसलिये शीत प्रकृति के लोगों को इसका प्रयोग कम मात्रा में ही करना चाहिये।
-जहां तक संभव हो नीबू का प्रयोग दिन में ही करना चाहिये, शाम को या रात में प्रयोग करने से सर्दी-जुकाम होने की

संभावना रहती है।
- व्यक्ति अगर किसी अन्य बीमारी से ग्रसित हो तो उसे किसी जानकार आर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श के बाद ही नीबू

का सेवन करना चाहिये।

ऐसी मूर्ति का पूजन अपशकुन माना जाता है क्योंकि...

हमारे हिन्दू धर्म में पूजा से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं इसीलिए हमारे यहां पूजा में कई छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा जाता है क्योंकि उनसे जुड़ी कई शकुन व अपशकुन की मान्यताएं हैं।

ऐसी ही एक मान्यता है खंडित मूर्ति का पूजन ना करने की।हमेशा पूजन आदि कर्म करते समय यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मूर्ति किसी भी प्रकार से खंडित या टूटी हुई न हो, खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है।
शास्त्रों के अनुसार ऐसी मुर्ति के पूजन से अशुभ फल की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि प्रतिमा पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा।
जब पूजा में मन नहीं लगेगा तो व्यक्ति की भगवान की ठीक से भक्ति नहीं कर सकेगा और वह अपने आराध्य देव से दूर होता जाएगा। इसी बात को समझते हुए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन बताते हुए उसकी पूजा निष्फल ठहराई गई है।

जब हस्तिनापुर की जनता पहुंची युधिष्ठिर के पास?

प्रजा की बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा-प्रजाजनों वास्तव में हम लोगों में कोई गुण नहीं है, फिर भी आप लोग प्यार और दया के वश में होकर हममें गुण देख रहे है। यह बड़े सौभाग्य की बात है। मैं अपने भाइयों के साथ आप लोगों से प्रार्थना करता हूं। आप अपने प्रेम और कृपा से हमारी बात स्वीकार करें। इस समय हस्तिनापुर में पितामह भीष्म, राजा, धृतराष्ट्र, विदुर आदि सभी हमारे सगे सम्बंधी निवास करते हैं। जैसे आप लोग हमारे लिए दुखी हो रहे हैं।
उतनी ही वेदना उनके मन में भी है। आप लोग हमारी प्रसन्नता के लिए वापस लौट जाइए। आप लोग बहुत दूर तक आ गए हैं अब साथ ना चले। मेरे प्रिय लोग में आपके पास धरोहर के रूप में छोड़कर जा रहा हूं। मैं आप लोगों से दिल से कह रहा हूं आपके ऐसा करने से मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। मैं उसे अपना सत्कार समझूंगा। जब सभी लोग उनके आग्रह पर हस्तिनापुर लौट गए तो पाण्डव रथ में बैठकर वहां से चल पड़े। उसके बाद वे गंगा तट पर प्रणाम कर बरगद के पेड़ के पास आए।
उस समय संध्या हो चली थी। वहां उन्होंने रात बिताई। उस समय बहुत से ब्राह्मण पाण्डवों के पास आए, उनमें बहुत से अग्रिहोत्रि ब्राह्मण भी थे। उनकी मण्डली में बैठकर सभी पांडवों ने उनसे अनेक तरह की बातचीत की। रात बीत गई। जब उन्होंने वन में जाने की तैयारी की। तब ब्राह्मणों ने पाण्डवों से कहा महात्माओं वन में बड़े-बड़े विघ्र और बाधाएं हैं। इसलिए आप लोगों को वहां बड़ा कष्ट होगा। इसलिए आप लोग उचित स्थान पर जाएं। हमें आप अपने पास रखने की कृपा कीजिए। हमारे पालन पोषण के लिए आपको चिंता की आवश्कता नहीं होगी। हम अपने-अपने भोजन की व्यवस्था कर लेंगे। वहां बड़े प्रेम से अपने इष्ट का ध्यान करेंगें। उससे आपका कल्याण होगा।
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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

भागवत २२९: जीवन की हर उलझन का है, ये जवाब...


द्वारिका में जब भगवान का विवाह हुआ तो भगवान के दाम्पत्य का आरंभ हुआ तो भगवान ने कुछ नियम बना लिए और यहीं से हम दसवें स्कंध के उतरार्ध को आरंभ कर रहे हैं। भागवत का यह सबसे बड़ा स्कंध है, दसवां स्कंध। इसके दो भाग थे तो आज हम इसके उतरार्ध में प्रवेश कर रहे हैं।अब श्रीकृष्ण की जो लीलाएं आएंगी उनमें हमें कई दार्शनिक विचार मिलेंगे। कामदेव उनके पुत्र बनकर आएंगे।

काम और मन का बड़ा संबंध है।आध्यात्मिक पुरुष कट्टरवाद से बहुत दूर हैं। मन का कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई जाति अथवा देश नहीं। मन इन सभी सीमाओं से अतीत है। मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र भी है तथा शत्रु भी। मन ही जीवन है। मन ही व्यक्तित्व है। मन ही वर्तमान भविष्य है। मन ही कर्म का आधार है। जीवन का भी केन्द्र बिन्दु है।
मन ही शान्ति तथा युद्ध का कारण है, शुभ तथा अशुभ कर्म मन की ही गतिविधियां हैं। शास्त्रों ने कहा, मन ही बंध एवं मोक्ष का कारण है।जो मन हमें भासित होता है, अनुभव होता है, वह शुद्ध मन नहीं हैं उसका प्रतिबिम्ब मात्र है। उस मूल मन पर आवरण हैं-प्रकृति के, हमारे कर्मों के। जो कुछ समय में आता है, असल में उससे बहुत भिन्न है।
इस भिन्नता के कारण ही हम जीवन की उलझनों से बाहर नहीं निकल पाते, सुख का अनुभव नहीं कर पाते। जीवन भर थपेड़े खा कर भी शान्ति का अनुभव नहीं कर पाते। इस यथार्थ मन तथा प्रतिबिम्बत मन को ही बहिर्मन तथा अन्तर्मन कहा गया है। इसी को जगदाभिमुखी मन तथा आत्माभिमुखी मन भी कहा जाता है। अन्तर्मन में ही संस्कारों का भण्डार, वृत्तियों का उदयाहत, वासनाओं का समूह एवं इच्छाओं, कामनाओं की निरंतर गतिशीलता विद्यमान है। मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व उसके अंतर्मन में निहित है। बहिर्मन यदि जगत के समीप है तो अन्तर्मन आत्मा से सटा हुआ है।

तब कुंभकरण ने वरदान में मांगी छ:महीने की नींद


राजा प्रतापभानु का ब्राह्मणों के शाप के कारण राक्षस रूप में जन्म लेना अब आगे...राजा प्रतापभानु ने ही रावण नामक राक्षस के रूप में जन्म लिया। उसके दस सिर और बीस भुजाएं थीं। वह बहुत शुरवीर था। अरिमर्दन नाम का उस राजा का छोटा भाई था जिसने कुंभकर्ण के रूप में जन्म लिया। उसका जो मंत्री धर्मरुचि था वह रावण का सौतेला भाई हुआ। उसका नाम विभीषण था। वह विष्णु भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। जो राजा के पुत्र और सेवक थे उन सभी ने राक्षस के रूप में जन्म लिया।
वे सभी बहुत ही भयानक और सभी को दुख पहुंचाने वाले साबित हुए। वे पुलत्सय ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए। तीनों भाइयों ने अनेक प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तप देखकर ब्रह्मजी उनके सामने प्रकट हुए और बोले मैं प्रसन्न हूं वर मांगो। रावण ने उनसे वर मांगा कि वानर और मनुष्य इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे ना मरे।
शिवजी कहते हैं कि मैंने और ब्रह्म ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्मजी कुंभकर्ण के पास गए । उसे देखकर उन्हें मन ही मन बड़ा आश्चर्य हुआ। जो यह दुष्ट रोज भोजन करेगा तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। सरस्वती ने ब्रह्मा की प्रेरणा से उसकी बुद्धि फेर दी उसने छ: महीने की नींद मांगी फिर ब्रह्मजी विभीषण के पास गए और बोले वर मांगो। उसने भगवान के चरण में निर्मल प्रेम मांगा। उनको वर देकर ब्रह्मजी वहां से चले गए।

इसीलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि

पाण्डवों के वन जाने के बाद नगर में अनेक अपशकुन हुए। उसके बाद नारदजी वहां आए और उन्होंने कौरवों से कहा कि आज से ठीक चौदह वर्ष बाद पाण्डवों के द्वारा कुरुवंश का नाश हो जाएगा अब आगे.... द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी।
सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं।
द्रोपदी की दृष्टी से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी।

भागवत २२८ जीवन के हर क्षेत्र में कैसे करें उन्नति?

इसके अंदर वेदों की ऋचाएं हैं, वेदों के संदेश है, यह पुराणों का तिलक है। ज्ञानियों का चिंतन है, संतों का मनन है, भक्तों का वंदन है, भारत की धड़कन है। यह ऐसा समन्वयकारी साहित्य है जो हमारे मनभेद और मतभेद दोनों मिटा देता है। इसके पद-पद में, पंक्ति-पंक्ति, शब्द-शब्द में रस घुला हुआ है।
यह ऐसा साहित्य है जिसमें भगवान बार-बार कह रहे हैं कि मैं कौन हूं, तू कौन है यह जान ले। इस साहित्य को ऐसे रचा गया है कि इसमें बीते कल की स्मृति है, आज का शोध है और भविष्य की योजना है। इस अद्भुत साहित्य में हम प्रवेश कर रहे हैं। पूर्व में हम कथा सुन चुके थे भगवान पहुंच गए हैं मथुरा। भगवान की लीला नए रूप में आरंभ होने वाली है। भगवान गोकुल और ब्रज में सबको छोड़कर मथुरा आ गए।
मथुरा में भगवान का जीवन आरंभ हुआ और भगवान ने कल अपना विवाह रचाया। भगवान का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। मैं आपको पुन: दोहरा दूं हम बार-बार यह स्मरण करते आए हैं कि श्रीमद्भागवत परमात्मा का वाङमय स्वरूप है। इसमें शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है।
भागवत हमें मरना सिखा रही है, महाभारत हमें रहना सिखा रही है, रामायण जीना सिखा रही है और गीता करना।
हमने अपने जीवन की चार शैली है जिसमें से सामाजिक जीवन में पारदॢशता, हमारे व्यवसायिक जीवन का परिश्रम और हमारे परिवार का प्रेम और निजी जीवन का पावित्र इसके लगातार प्रसंग देख रहे हैं। अब निजी जीवन के पवित्रता वाले भाग में प्रवेश कर रहे हैं। निजी जीवन कैसे पवित्र हो हमारे भगवान श्रीकृष्ण से हम देखते चलेंगे और चूंकि अब हम अंत समय की ओर बढ़ रहे हैं जीवन का वो काल जिसका एक दिन सबको मुकाबला करना है, भगवान हमको वहां लेकर चल रहे हैं। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र देखे थे।
आज हमारा सूत्र है कैसे हम सक्षम बनें। भगवान कहते हैं सक्षम होने का अर्थ उन्नयन करें, प्रगति करें, आगे बढ़ें और हर तरह से तन, मन और धन से सक्षम होना दाम्पत्य की उपलब्धि है। भगवान कहते हैं कि क्या हम करते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम होते हैं। आखिर अपने आपको पहचानना पड़ेगा। हम लोगों ने कई चीजों में उलझकर अपना जीवन इतना उथला और धुंधला कर लिया है कि हम पहचान नहीं पा रहे हैं और अब अपने ही केंद्र पर विस्फोट करने का समय आ गया है।
अब भीतर हमको एक जाग्रति लानी ही पड़ेगी। भगवान अपने चरित्र से यह घोषणा कर रहे हैं कि बहुत चीजों में उलझकर आराम का जीवन, अपनी सुविधा का जीवन, अपनी निजी पंसद का जीवन बहुत जी लिया अब थोड़ा संघर्ष का जीवन आया है। अब व्यापक दृष्टिकोण रखना पड़ेगा। भगवान कहते हैं कि आपकी समस्याओं का निदान सिर्फ आप ही हो सकते हैं दूसरों से उधार मत लीजिएगा। भगवान हमको सिखा रहे हैं भगवान हमको कह रहे हैं उधार का जीवन, उधार के विचार, उधार की शैली बहुत लंबे नही ले जाएगी।

केंसर का रामबाण इलाज है यह पौधा

तुलसी का पौधा कितना अनमोल है, यह इसी बात से पता चल जाता है कि इसे गुणों को देखकर इसे भगवान की तरह पूजा जाता है। यूं तो आज हर आदमी को किसी न किसी बीमारी ने अपने कब्जे में कर रखा है। लेकिन केंसर एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज कही जाती है।

तक इस बीमारी का कोई परमानेंट इलाज नहीं है। आज यह बीमारी तेजी से फैल रही है। वैसे तो केंसर का कोई परमानेंट इलाज नहीं है लेकिन फि र भी आर्युवेद ने तुलसी को केंसर से लडऩे का एक बड़ा तरीका बताया है। आर्युवेद में बताया गया है कि तुलसी की पत्तियों के रोजाना प्रयोग से केंसर से लड़ा जा सकता है। और इसके लगातार प्रयोग से केंसर खत्म भी हो सकता है।
- कैंसर की प्रारम्भिक अवस्था में रोगी अगर तुलसी के बीस पत्ते थोड़ा कुचलकर रोज पानी के साथ निगले तो इसे जड़ से खत्म भी किया जा सकता है।
-तुलसी के बीस पच्चीस पत्ते पीसकर एक बड़ी कटोरी दही या एक गिलास छाछ में मथकर सुबह और शाम पीएं कैंसर रोग में बहुत फायदेमंद होता है।
केंसर मरीज के लिए विशेष आहार- अंगूर का रस, अनार का रस, पेठे का रस, नारियल का पानी, जौ का पानी, छाछ, मेथी का रस, आंवला,लहसुन, नीम की पत्तियां, बथुआ, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, पालक और नारियल का पानी।

प्यार गर सच्चा हो तो मिलन होकर रहता है

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा। कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। गर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।
लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्याार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है।
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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

जादू के नींबू

ये आंटी मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जब घर आएगी, कुछ न कुछ काम जरूर बताएँगी। कभी कहेंगी चिट्ठी डाल आ, कभी बढ़िया-सा पान लगवाकर लाने की फरमाइश करेंगी और कुछ नहीं सूझेगा तो टाँगें दबाने को कहेंगी, जैसे पता नहीं कहाँ हल जोतकर आए हैं।
साफ मना कर सकता हूँ, पर ये माँ की बचपन की सहेली है। दोनों साथ-साथ पढ़ी हैं।
लो मुसीबत आई- वे मुझे पुकार रही हैं।
'पप्पू बेटे, मरने पर कोई अपनी यादगार मकान के रूप में, कोई जमीन के, कोई बैंक के लाखों रुपयों के रूप में छोड़ जाते हैं, पर मेरे पास तो कुछ नहीं, मकान भी किराए का है। मुझे पता नहीं क्यों, लगता है कि अब जल्दी भगवान के घर से मुझे बुलावा आने वालाहै। यह नींबू की कलम ले आई हूँ। जा, जल्दी से एक गड्ढा खोद और खाद देकर इसे लगा दे।
जब यह फल देगा तो मेरी याद करना। मरने के पीछे लोग हमें याद करें, यह इच्छा क्यों होती है, बेटे?'
'मुझे क्या मालूम'- मैं मन ही मन झुँझलाया और उस छोटे पौधे को बरामदे के कोने में रख दिया।
'न-न बेटे, रख मत, जल्दी से लगा दे, नहीं तो सूख जाएगा।'
'नींबू का पौधा ऐसे दो दिन भी रखा रहे तो नहीं सूखता। अभी मैं खेलने जा रहा हूँ कल लगाऊँगा।' मैंने टालने के लिए कहा।
'क्यों रजनी, यह जल्दी नहीं सूखता?' माँ से उनकी सहेली ने पूछा।
'हाँ, देखा तो यही गया है कि मिट्टी में थोड़ा-सा दबाकर रख दो तो हफ्ता तो आसानी से खींच ले जाता है।' माँ ने उत्तर दिया।
मुझे मौका मिला और मैं रैकेट लेकर बाहर दौड़ गया।
दूसरे दिन माँ ने कई बार मुझे गड्ढा खोदने को कहा, पर मकान के पीछे जगह नहीं और आगे सड़क चलती है। लोग क्या कहेंगे कि खुद गड्ढा खोद रहा है, किसी माली को कुछ पैसे देकर नहीं खुदवा सकते।
मैं जानता हूँ कि माँ इन कामों में बिलकुल शर्म नहीं करतीं,पर वे गड्ढा नहीं खोद सकतीं, क्योंकि वे हमेशा ही अस्वस्थ रहती हैं। नींबू का ही तो पौधा है। नींबू ही लगेंगे न, हीरे-जवाहरात तो लगने से रहे और नींबू बाजार में बहुत मिलते हैं।
नींबू के पेड़ में फल लगे और खूब लगे। सारे घर में नींबू लुढ़कते, माँ बाँटते-बाँटते थक गईं। नींबू बारहमास लगे रहते।
उस बार किसी कारणवश पिताजी को ऑफिस से तनख्वाह समय पर नहीं मिली। सब भाई-बहनों को वार्षिक परीक्षा से पहले फीस के रुपए देने ही थे। उनके न देने से भी चलता, पर मेरी बोर्ड की परीक्षा थी, रुक नहीं सकती थी। माँ को इधर-उधर से माँगने की आदत न थी, पर
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, 'माँ, सभी तो एक-दूसरे से लेकर काम चलाते हैं। तुम्हें माँगने में क्यों शर्म लगती है?'
'पर मुझे माँगने की जरूरत ही नहीं। मैं तुम्हें नींबू तोड़कर देती हूँ। आजकल नींबू बहुत महँगा है। इनके कम से कम तुमको पचास रु. मिल जाएँगे। तुम इन्हें बाजार में किसी दुकानदार को दे आओ। यदि कुछ रुपए फीस में कम हो गए तो मैं उनका इंतजाम कर दूँगी।' मैं ऐसे उछला, जैसे साँप पास से निकल गया हो।
बाजार में नींबू बेचने जाऊँ, इससे तो परीक्षा ही न दूँ, तो ठीक है। मैंने साफ मना किया तो माँ शेरनी-सी गरजीं, 'शांता ने उस दिन एक गड्ढा खोदकर यह नींबू लगाने की तुझसे मिन्नातें कीं, पर तेरी शान में बट्टा लगता था। आज इन्हें बेचने जाने में भी तुझे शर्म आती है। पर तू
इसी गड्ढे से माल निकालकर महँगी शर्ट बनवाने के चक्कर में था। वह तो दूसरे का पैसा होता, तेरा क्या हक उस पर? उसको इस्तेमाल करने में तुझे संकोच नहीं होता! घर में तुम जैसे लड़कों के कारण ही पैसा नहीं रह पाता। जब देखो, तब गंदी पिक्चरें देखने के लिए माँ-बाप से पैसे के लिए झगड़ा। न दो तो चोरी। उसमें नहीं आती शर्म तुम्हें?
हैसियत से ज्यादा शान जताते हो, उसमें तुम्हें बुरा नहीं लगता? जा, मत दे परीक्षा, मेरे पास पैसे नहीं। जीवन की असली परीक्षाओं में हमेशा फेल होते हो,इस परीक्षा में पास होकर ही क्या तीर मारोगे? इंसान नहीं बने और केवल रुपया कमाने की मशीन बने तो क्या बने!'
माँ मुझे डाँट रही थीं। मेरा सिर शर्म से झुक गया। मैं चुपचाप नीबुओं को एक थैले में भरकर बाजार चल दिया। हफ्तेभर में नींबू के पेड़ ने हमें चार सौ रु. दिलवा दिए।

आजादी की पहली लड़ाई के नायक थे मंगल पांडे

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में मंगल पांडे का नाम अग्रणी योद्धाओं के रूप में लिया जाता है जिनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन बुरी तरह हिल गया था।
उन्नीस जुलाई 1827 को जन्मे मंगल पांडे बंगाल नेटिव इन्फैंट्री (बीएनआई) की 34वीं रेजीमेंट के सिपाही थे। सेना की बंगाल इकाई में जब ‘एनफील्ड पी-53’ राइफल में नई किस्म के कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ तो हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मों के सैनिकों के मन में अंग्रजों के खिलाफ रोष पैदा हो गया।
इन कारतूसों को मुँह से खोलना पड़ता था। सेना में ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों में गाय तथा सुअर की चर्बी का इस्तेमाल किया जाता है और अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए ऐसा जानबूझकर किया है।
चौंतीसवीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री का कमांडेंट व्हीलर ईसाई उपदेशक का काम भी करता था। 56वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के कैप्टन विलियम हैलीडे की पत्नी उर्दू और देवनागरी में बाइबल की प्रतियाँ सिपाहियों को बाँटने का काम करती थी। इस तरह भारतीय सिपाहियों के मन में यह बात पुख्ता हो गई कि अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करने का यत्न कर रहे हैं।
इतिहासकार दीप्ति किशोर के अनुसार बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को हुई घटना ने पूरे देश में खलबली मचा दी और जहाँ-जहाँ खबर फैली वहीं फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया।
उनके मुताबिक ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ मंगल पांडे के बगावती तेवरों ने आग में घी डालने का काम किया और मन ही मन सुलग रही क्रांति की चिनगारी ज्वाला बनकर भड़क उठी। नए कारतूस का प्रयोग अंग्रेजों के लिए घातक साबित हुआ।
देश में क्रांति की पहली लौ जलाने वाले मंगल पांडे को आठ अप्रैल 1857 को फाँसी पर लटका दिया गया था। उनके बाद 21 अप्रैल को उनके सहयोगी ईश्वरी प्रसाद को भी फाँसी दे दी गई। इस घटना की खबर के फैलते ही देश में जगह-जगह आजादी का बिगुल बज उठा और हिन्दुस्तानियों तथा अंग्रेजों के बीच हुई जंग में काफी खून बहा। हालाँकि बाद में अंग्रेज इस विद्रोह को दबाने में सफल हो गए। भारतीय इतिहास में इस घटना को ‘1857 का गदर’ नाम दिया गया। बाद में इसे आजादी की पहली लड़ाई करार दिया गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार सुरेंद्र नाथ सेन के अनुसार 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री का रिकॉर्ड काफी अच्छा था। कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जिससे साबित हो सके कि अशांति के पीछे यह रेजीमेंट जिम्मेदार थी लेकिन मंगल पांडे की दिलेरी ने अंग्रेजों के मन में जबर्दस्त खौफ पैदा कर दिया। गोरे हुक्मरानों को उसी दिन से आगाज हो गया कि एक न एक दिन उन्हें भारत छोड़कर जाना पड़ सकता है।

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

ये कैसा वरदान मिला राजा को?

अब वह तपस्वी राजा को अपनी पुरानी कहानी कहने लगा। कर्म, धर्म आदि की कहानियां कहकर अपने ज्ञान का बखान करने लगा। राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा राजन् मैं तुम को जानता हूं। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा। तुम्हारी चतुराई से मुझे बड़ा प्रेम हो गया है। तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। गुरू की कृपा से मैं सब जानता हूं। तुम्हारे स्वभाव के सीधेपन व प्रेम से मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गयी है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कहानी सुनाता हूं। अब मैं प्रसन्न हूं तुम इसमें अपने मन में कोई संशय मत रखना। तब राजा ने कहा- मुनि सिर्फ आपके दर्शन से ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मेरी मुठ्ठी में आ गए तो भी आपको खुश देखकर यह वर मांगना चाहता हूं कि मेरा शरीर वृद्धवस्था मृत्यु और दुख से रहित हो जाए और मुझेे युद्ध में कोई ना जीत पाए। तब तपस्वी ने कहा राजन ऐसा ही हो पर एक बात कठिन है उसे भी सुन लो। केवल ब्राह्मण कुल को छोड़कर काल भी तुम्हारे चरणों में सिर झुकाएगा एवमस्तु। कपटी मुनि फिर बोला- तुम मेरे मिलने की या राह भूल जाने की बात किसी से कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं। अगर यह बात किसी और के कान में पड़ गई तो तुम्हारा नाश हो जाएगा।

वनवास जाते समय द्रौपदी ने क्या कहा?

राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों द्वारा पाण्डवों पर किए गए अत्याचार को देखकर परेशान हो गए और उन्होंने तुरंत विदुरजी को बुलाया और उनके पूछा कि पाण्डव किस वन में जा रहे हैं और वे इस समय क्या कर रहे हैं यह बताओ।विदुरजी ने धृतराष्ट्र को बताया कि छल से राज्य छिन जाने के बाद भी युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर दया भाव रखते हैं। वे अपने नेत्रों को बंद किए हुए हैं क्योंकि कहीं उनकी आंखों के सामने पड़कर कौरव भस्म न हो जाएं। भीमसेन अपने बांह फैला-फैलाकर दिखाते जा रहे हैं कि समय आने पर मैं अपने बाहुबल का जौहर दिखाकर कौरव को समाप्त कर दूंगा।
अर्जुन धूल उड़ाते हुए चल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि युद्ध के समय शत्रुओं पर कैसी बाण वर्षा करेंगे। सहदेव ने अपने मुंह पर धूल मल रखी है। वे ये कहना चाह रहे हैं कि कोई मेरा मुंह ने देखे। नकुल ने तो अपने सारे शरीर पर ही धूल लगा ली है। उनका अभिप्राय है कि मेरा रूप देखकर कोई मुझ पर मोहित न हो। द्रौपदी अपने केश खोलकर रोते-रोते जा रही है।
द्रौपदी ने कहा है कि जिनके कारण मेरी यह दुर्दशा हुई है, उनकी स्त्रियां भी आज से चौदहवे वर्ष अपने स्वजनों की मृत्यु से दु:खी होकर इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी। और इनसे आगे पुरोहित धौम्य चल रहे हैं।

पाण्डवों के जाने के बाद नगर में क्या-क्या अपशकुन हुए?


विदुरजी धृतराष्ट्र से बोले- पाण्डव को वन में जाते देख हस्तिनापुर के नागरिक बहुत दु:खी हो रहे हैं और कुरुकुल के वृद्धों को तथा पाण्डवों के साथ अन्याय करने वालों को धिक्कार रहे हैं। उधर पाण्डवों के वन में जाते ही आकाश में बिना बादल के ही बिजली चमकी, पृथ्वी थरथरा गई, बिना अमावस्या के ही सूर्यग्रहण लग गया। नगर की दाहिनी ओर उल्कापात हुआ। इन सभी घटनाओं का एक ही अर्थ है भरतवंश का विनाश।
जब विदुरजी यह बात धृतराष्ट्र से कह रहे थे तभी वहां नारदजी अनेक ऋषियों के साथ आ गए और बोले- दुर्योधन के अपराध के फलस्वरूप आज से चौदहवें वर्ष भीमसेन और अर्जुन के हाथों कुरुवंश का विनाश हो जाएगा। यह सुनकर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने द्रोणाचार्य को ही अपना प्रधान आश्रय समझकर पाण्डवों का सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। तब द्रोणाचार्य ने कहा कि पाण्डव देवताओं की संतान हैं उन्हें कोई मार नहीं सकता। यदि तुम अपनी भलाई चाहते हैं तो बड़े-बड़े यज्ञ करो, ब्राह्मणों को दान दो। सभी सुख भोग लो क्योंकि चौदहवें वर्ष तुम्हें बड़े कष्ट सहना होंगे।

दोस्त वो...जो बुराइयों को मिटाए

कबीरदास जी ने कहा है कि निंदक नियरे राखिये आंगन कुटि छवाय बिन साबुन बिना निर्मल करे सुभाय कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है। ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती काद्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकर कृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए। अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा।
जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने के लिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नीयती से बड़ी कोई ताकत नहीं होती।

अगर शांति चाहिए तो इससे दोस्ती कीजिए...

पं. विजयशंकर मेहता
यदि आप शांति की तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से भी कर ली जाए। पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है।
दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति-पत्नी में खटपट हो तो यह तय हो जाता है कि एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे बहुत से माध्यम से बात की जाती है।
भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं। यह चुप्पी है। इसमें इतने शब्द भीतर उछाल दिए गए कि उन शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए।
मौन यानी भीतर भी बात नहीं करना, थोड़ी देर खुद से भी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं। आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं।
कोई आपको क्यों सुनेगा यदि आपके पास सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होंगे। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना है तो जीवन में मौन घटित करना होगा। समझदारी से चुप्पी से बचते हुए मौन को साधें। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान। जीवन में मौन उतारने का एक और तरीका है जरा मुस्कराइए...

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आंसुओं के क्या मानी हैं?

रचना समंदर
जाने कब-कब बरस पड़ती हैं आंखें। घुमड़ता मन है, बरसती ये हैं। सच्चे भाव दस्तक देते हैं, तो मन का आंगन कच्ची मिट्टी-सा पिघल जाता है। कभी सुख में सीजता है, तो कभी दुख से दरक जाता है। पिछले दिनों एक पारिवारिक चर्चा के दौरान यह मुद्दा उठा कि अगर आंसुओं का रंग भावनाओं को प्रदर्शित कर पाता तो कितना अच्छा होता। मिसाल के तौर पर, खुशी के आंसू आते तो अलग रंग के होते, ग़म के होते, तो कुछ अलग रंग होता। सारे रंग तय हो गए, तभी तस्वीर का दूसरा रुख सामने आया। किसी के दुख के मौके पर अगर खुशी के रंगों वाले आंसू निकल गए, तो क्या होगा? जहां खुशी मनानी हो, वहां ईष्र्या के रंगों वाली दो बूंदें छलक गईं, तो? क्या जाने मन को क्या महसूस होता? और फिर आंसुओं के रंगों पर कैसे काबू पाते?
बात दिमाग में अटक कर रह गई। क्या गलत होता, जो खास आंसुओं के खास रंग होते? कितना आसान हो जाता एक-दूजे को समझना। लेकिन हम शायद यही नहीं चाहते हैं। किसी को सही समझने से डरते हैं या कोई हमें समझ जाएगा, इसका भय सताता है? इस कदर डरते हैं, हम भावों से? क्यों?
यही तो सौगात हमें मिली थी इंसान होने के नाते कि अपने मन को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकें। हमने उसे भी मुखौटे में तब्दील कर लिया? मन की तहें खोलते-खोलते, खुद रहस्य बनने में रोमांच महसूस करने लगे।
सच को कितने पर्दो के पीछे छुपा दिया है हमने, अब तो इसका हिसाब भी नहीं रहा। मन की सच्चई सामने न दिखे, इसके लिए क्या-क्या जतन करते हैं हम। तभी तो आंसुओं के रंगों से भी भय खा गए। बुज़ुर्ग कहा करते थे कि हंसते इंसान के साथ सब रहते हैं, रोने को कोई साथ नहीं आता। सच ही था क्योंकि हंसी को नकली हुए तो ज़माने हो गए। खोखली, बेजान हंसी हंसते युग बीत गए। लेकिन आंसुओं में दम बाकी था। ये निकलते ही तभी थे, जब मन पिघले। अब मन ने आंखें फेर ली हैं। खरे अश्क, इंसानी फितरत का खोटापन पा गए।
सच है, ईश्वर ने कुछ सोचकर ही जब रंगों-भरी दुनिया बनाई, तो पानी को रंग देने से खुद को रोक दिया होगा। उसने भी इंसान को रहस्यमय बनाने के लिए इस कैनवास को रीता छोड़ दिया।
काश, हम उसके सृजन के भेद को समझें। काश, हम मन से आंखें न फेरें।

भगवानों के वाहन पशु ही क्यों होते हैं?

किसी भी मंदिर में जाइए, किसी भी भगवान को देखिए, उनके साथ एक चीज सामान्य रूप से जुड़ी हुई है, वह है उनके वाहन। लगभग सभी भगवान के वाहन पशुओं को ही माना गया है। शिव के नंदी से लेकर दुर्गा के शेर तक और विष्णु के गरूढ़ से लेकर इंद्र के ऐरावत हाथी तक। लगभग सारे देवी-देवता पशुओं पर ही सवार हैं।
आखिर क्यों सर्वशक्तिमान भगवानों को पशुओं की सवारी की आवश्यकता पड़ी, जब की वे तो अपनी दिव्यशक्तियों से पलभर में कहीं भी आ-जा सकते हैं? क्यों हर भगवान के साथ कोई पशु जुड़ा हुआ है?
भगवानों के साथ जानवरों को जोडऩे के पीछे कई सारे कारण हैं। इसमें अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक कारणों से भारतीय मनीषियों ने भगवानों के वाहनों के रूप पशु-पक्षियों को जोड़ा है। वास्तव में देवताओं के साथ पशुओं को उनके व्यवहार के अनुरूप जोड़ा गया है।
जैसे शिव भोलेभाले, सीधे चलने वाले लेकिन कभी-कभी भयंकर क्रोध करने वाले देवता हैं तो उनका वाहन नंदी है। दुर्गा तेज, शक्ति और सामथ्र्य का प्रतीक है तो उनके साथ सिंह है। ऐसे ही बाकी देवताओं के साथ भी पशुओं को उनके व्यवहार और स्वभाव के आधार पर जोड़ा गया। दूसरा सबसे बड़ा कारण है प्रकृति की रक्षा। अगर पशुओं को भगवान के साथ नहीं जोड़ा जाता तो शायद पशु के प्रति हिंसा का व्यवहार और ज्यादा होता।
हर भगवान के साथ एक पशु को जोड़कर भारतीय मनीषियों ने प्रकृति और उसमें रहने वाले जीवों की रक्षा का एक संदेश दिया है। हर पशु किसी न किसी भगवान का प्रतिनिधि है, उनका वाहन है, इसलिए इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। मूलत: इसके पीछे एक यही संदेश सबसे बड़ा है।

...और ब्राह्मणों ने राजा को राक्षस बनने का दे दिया श्राप

कपटी तपस्वी ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार प्रतापभानु के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि भ्रम में डाल दी। अब तपस्वी पुरोहित का रूप बना लिया। सुबह जब राजा ने खुद को राजमहल में देखा तो उसने तपस्वी का उपकार माना।
राजा प्रतापभानु चुपचाप फिर से वन में चला गया और कुछ समय पर पुन: नगर में लौट आया ताकि किसी को शंका न हो। राजा के सकुशल लौट आने पर नगर में काफी खुशियां मनाई गईं। उसी समय पुरोहित के वेश में वह तपस्वी राजा ने मिला और राजा ने उसे पहचान लिया।
राजा ने तपस्वी गुरु की आज्ञा पाकर एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया। पुरोहित ने माया से वेदों के अनुसार भोजन बनाया। भोजन में अनेक प्रकार के पशुओं का मांस भी पकाया जिसमें कपटी तपस्वी ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। प्रतापभानु इस कपट को समझ नहीं सका।
निमंत्रण पाकर सभी ब्राह्मण वहां आ पहुंचे। राजा ने भोजन परोसना शुरू किया उसी समय मायावी राक्षस कालकेतु ने आकाशवाणी की और बता दिया कि इस भोजन में ब्राह्मणों का मांस मिला हुआ है। यह सुनते ही सभी ब्राह्मण क्रोधित हो गए और राजा प्रतापभानु को श्राप दे दिया कि वह पूरे परिवार सहित राक्षस बन जाएगा।

वनवास जाते समय द्रौपदी ने क्या कहा?

राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों द्वारा पाण्डवों पर किए गए अत्याचार को देखकर परेशान हो गए और उन्होंने तुरंत विदुरजी को बुलाया और उनके पूछा कि पाण्डव किस वन में जा रहे हैं और वे इस समय क्या कर रहे हैं यह बताओ।विदुरजी ने धृतराष्ट्र को बताया कि छल से राज्य छिन जाने के बाद भी युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर दया भाव रखते हैं। वे अपने नेत्रों को बंद किए हुए हैं क्योंकि कहीं उनकी आंखों के सामने पड़कर कौरव भस्म न हो जाएं। भीमसेन अपने बांह फैला-फैलाकर दिखाते जा रहे हैं कि समय आने पर मैं अपने बाहुबल का जौहर दिखाकर कौरव को समाप्त कर दूंगा।
अर्जुन धूल उड़ाते हुए चल रहे हैं। वे बता रहे हैं कि युद्ध के समय शत्रुओं पर कैसी बाण वर्षा करेंगे। सहदेव ने अपने मुंह पर धूल मल रखी है। वे ये कहना चाह रहे हैं कि कोई मेरा मुंह ने देखे। नकुल ने तो अपने सारे शरीर पर ही धूल लगा ली है। उनका अभिप्राय है कि मेरा रूप देखकर कोई मुझ पर मोहित न हो। द्रौपदी अपने केश खोलकर रोते-रोते जा रही है।
द्रौपदी ने कहा है कि जिनके कारण मेरी यह दुर्दशा हुई है, उनकी स्त्रियां भी आज से चौदहवे वर्ष अपने स्वजनों की मृत्यु से दु:खी होकर इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी। और इनसे आगे पुरोहित धौम्य चल रहे हैं।