हिमालय के बारे में पहले भी ऊल-जलूल घोषणाएँ और भविष्यवाणियाँ होती रही हैं लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर बने अंतर्देशीय पैनल (आईपीसीसी) की 2007 में प्रकाशित चौथी रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि वर्ष 2035 तक हिमालय के हिमनद पूरी तरह पिघल जाएँगे। हिमालय की 4,300 मीटर से लेकर 5,800 मीटर की ऊँचाइयों पर 33,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हिमनदों में जमा 1,400 घन किलोमीटर बर्फ को लेकर ऐसी खबर ने लोगों को बेहद चिंतित कर दिया।
इनके विलुप्त होने का मतलब इनसे निकलने वाली सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों और उनकी सैकड़ों सहायक नदियों का खत्म हो जाना था। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) की 'इन्वेन्ट्री ऑफ ग्लेशियर-2009' के अनुसार हिमालय के भारतीय क्षेत्र में कुल 9,575 हिमनद हैं।
बहरहाल, हिमनदों के निकट भविष्य में सूख जाने की घोषणा करने वाली आईपीसीसी को पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्ष 2007 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। इस रिपोर्ट के अनुसार, 'दुनिया के अन्य भागों में स्थित हिमनदों की तुलना में हिमालय के हिमनद तेजी से सिकुड़ रहे हैं और सिकुड़ने की गति यदि यही रही तो ये ग्लेशियर वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाएँगे। यदि पृथ्वी इसी गति से गर्म होती रही तो ये हिमनद और भी जल्दी समाप्त हो सकते हैं।'
इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद विश्व समुदाय तथा वैज्ञानिकों में हलचल मचनी स्वाभाविक थी। दुनिया के 2,500 शीर्ष वैज्ञानिकों वाली आईपीसीसी की ख्याति तथा उसे दी गई मान्यता को देखते हुए इस रिपोर्ट को नकारना भी आसान नहीं था। रिपोर्ट के अनुसार हिमनदों के सिकुड़ने को सीधे-सीधे 'ग्लोबल वार्मिंग' से जोड़ा गया था।
बहरहाल, हिमालय के हिमनदों पर पिछले एक दशक से संवेदनशील यंत्रों की सहायता से शोध कर रहे भारतीय हिमनद वैज्ञानिकों के आँकड़े कुछ और कह रहे थे। उनका मानना था कि ये हिमनद इतनी तेजी और असामान्य गति से नहीं पिघल रहे हैं कि आईपीसीसी की घोषणा के अनुरूप कुछ ही सालों में सूख जाएँगे।
दूसरी और आईपीसीसी की रिपोर्ट में आँकड़े नहीं दिखाए गए थे और लगता था कि वह पूरी तरह अनुमान पर आधारित है। इस रिपोर्ट को वर्ष 2005 की डब्लूडब्लूएफ की रिपोर्ट, वर्ष 1996 में यूनेस्को की जल विज्ञान पर छपे पत्र तथा वर्ष 1999 में 'न्यू साइंटिस्ट' पत्रिका में छपे एक साक्षात्कार के आधार पर बनाया गया था।
इस साक्षात्कार में हिमालय के हिमनदों पर काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय कमीशन (आईसीएसआई) के अध्यक्ष डॉ. सैयद इकबाल हसनैन ने बयान दिया था, "हिमालय के अधिकांश हिमनद 40 सालों में समाप्त हो जाएँगे।' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हसनैन वर्तमान में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) में कार्यरत हैं। हसनैन को पिछले साल ग्लेशियर विज्ञान में सराहनीय योगदान के लिए भारत सरकार पद्मश्री पुरस्कार भी दे चुकी है।
वर्ष 1996 में रूसी जल विज्ञानी बी.एम. कोटलाव ने भी वर्ष 2350 तक हिमालय के हिमनदों के पिघलकर पाँचवें हिस्से तक रह जाने की घोषणा की थी। महज एक पत्रिका में छपे साक्षात्कार या वर्ष 2350 को वर्ष 2035 लिख देने की गलती को सत्य की खोज और सटीक आँकड़ों के आधार पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक समुदाय के एक वर्ग द्वारा जगह-जगह दोहराई जाने लगी।
देहरादून के वाडिया संस्था के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक बिना झिझक स्वीकार करते हैं कि उस दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वाडिया संस्थान में जाँच के लिए आने वाले शोधपत्रों में भी इस अवैज्ञानिक तथ्य को दोहराया गया था। अब लोगों की समझ में आ रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के हिमनदों के वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाने की यह घोषणा भारत-चीन सहित हिमालय से सटे अन्य देशों को भी इस पारिस्थितिकीय घटना के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराना था।
इन भ्रांतियों से क्षेत्रीय राजनीतिक अस्थिरता तो आती ही, आर्थिक उठापटक भी होती। क्योटो प्रोटोकॉल को अस्वीकार करने के बाद विकसित देश दरअसल वर्ष 2007 में होने वाले 'बाली सम्मेलन' में कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी विकासशील देशों की तरफ खिसकाने की तैयारी कर चुके थे।
कोपेनहेगन में 2009 में हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में तो विकसित देशों ने विकासशील देशों को वर्ष 2020 तक 25 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने की सहमति वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का दबाव भी डाला। पर्यावरण कानून के विशेषज्ञ डॉ. ए. के. कांटू अपने शोधपत्र 'मौसम परिवर्तन के राजनीतिक तथा आर्थिक प्रभाव' में लिखते हैं, 'जीवाश्म और पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा मॉडलों को बनाए रखने के लिए अमेरिका ने तेल की राजनीति से ध्यान भटकाने के लिए मौसम परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग का हौंवा खड़ा किया है।'
इनके विलुप्त होने का मतलब इनसे निकलने वाली सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों और उनकी सैकड़ों सहायक नदियों का खत्म हो जाना था। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) की 'इन्वेन्ट्री ऑफ ग्लेशियर-2009' के अनुसार हिमालय के भारतीय क्षेत्र में कुल 9,575 हिमनद हैं।
बहरहाल, हिमनदों के निकट भविष्य में सूख जाने की घोषणा करने वाली आईपीसीसी को पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्ष 2007 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। इस रिपोर्ट के अनुसार, 'दुनिया के अन्य भागों में स्थित हिमनदों की तुलना में हिमालय के हिमनद तेजी से सिकुड़ रहे हैं और सिकुड़ने की गति यदि यही रही तो ये ग्लेशियर वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाएँगे। यदि पृथ्वी इसी गति से गर्म होती रही तो ये हिमनद और भी जल्दी समाप्त हो सकते हैं।'
इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद विश्व समुदाय तथा वैज्ञानिकों में हलचल मचनी स्वाभाविक थी। दुनिया के 2,500 शीर्ष वैज्ञानिकों वाली आईपीसीसी की ख्याति तथा उसे दी गई मान्यता को देखते हुए इस रिपोर्ट को नकारना भी आसान नहीं था। रिपोर्ट के अनुसार हिमनदों के सिकुड़ने को सीधे-सीधे 'ग्लोबल वार्मिंग' से जोड़ा गया था।
बहरहाल, हिमालय के हिमनदों पर पिछले एक दशक से संवेदनशील यंत्रों की सहायता से शोध कर रहे भारतीय हिमनद वैज्ञानिकों के आँकड़े कुछ और कह रहे थे। उनका मानना था कि ये हिमनद इतनी तेजी और असामान्य गति से नहीं पिघल रहे हैं कि आईपीसीसी की घोषणा के अनुरूप कुछ ही सालों में सूख जाएँगे।
दूसरी और आईपीसीसी की रिपोर्ट में आँकड़े नहीं दिखाए गए थे और लगता था कि वह पूरी तरह अनुमान पर आधारित है। इस रिपोर्ट को वर्ष 2005 की डब्लूडब्लूएफ की रिपोर्ट, वर्ष 1996 में यूनेस्को की जल विज्ञान पर छपे पत्र तथा वर्ष 1999 में 'न्यू साइंटिस्ट' पत्रिका में छपे एक साक्षात्कार के आधार पर बनाया गया था।
इस साक्षात्कार में हिमालय के हिमनदों पर काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय कमीशन (आईसीएसआई) के अध्यक्ष डॉ. सैयद इकबाल हसनैन ने बयान दिया था, "हिमालय के अधिकांश हिमनद 40 सालों में समाप्त हो जाएँगे।' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हसनैन वर्तमान में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) में कार्यरत हैं। हसनैन को पिछले साल ग्लेशियर विज्ञान में सराहनीय योगदान के लिए भारत सरकार पद्मश्री पुरस्कार भी दे चुकी है।
वर्ष 1996 में रूसी जल विज्ञानी बी.एम. कोटलाव ने भी वर्ष 2350 तक हिमालय के हिमनदों के पिघलकर पाँचवें हिस्से तक रह जाने की घोषणा की थी। महज एक पत्रिका में छपे साक्षात्कार या वर्ष 2350 को वर्ष 2035 लिख देने की गलती को सत्य की खोज और सटीक आँकड़ों के आधार पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक समुदाय के एक वर्ग द्वारा जगह-जगह दोहराई जाने लगी।
देहरादून के वाडिया संस्था के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक बिना झिझक स्वीकार करते हैं कि उस दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वाडिया संस्थान में जाँच के लिए आने वाले शोधपत्रों में भी इस अवैज्ञानिक तथ्य को दोहराया गया था। अब लोगों की समझ में आ रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के हिमनदों के वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाने की यह घोषणा भारत-चीन सहित हिमालय से सटे अन्य देशों को भी इस पारिस्थितिकीय घटना के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराना था।
इन भ्रांतियों से क्षेत्रीय राजनीतिक अस्थिरता तो आती ही, आर्थिक उठापटक भी होती। क्योटो प्रोटोकॉल को अस्वीकार करने के बाद विकसित देश दरअसल वर्ष 2007 में होने वाले 'बाली सम्मेलन' में कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी विकासशील देशों की तरफ खिसकाने की तैयारी कर चुके थे।
कोपेनहेगन में 2009 में हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में तो विकसित देशों ने विकासशील देशों को वर्ष 2020 तक 25 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने की सहमति वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का दबाव भी डाला। पर्यावरण कानून के विशेषज्ञ डॉ. ए. के. कांटू अपने शोधपत्र 'मौसम परिवर्तन के राजनीतिक तथा आर्थिक प्रभाव' में लिखते हैं, 'जीवाश्म और पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा मॉडलों को बनाए रखने के लिए अमेरिका ने तेल की राजनीति से ध्यान भटकाने के लिए मौसम परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग का हौंवा खड़ा किया है।'
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