मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मीठा उपहार

शहंशाह अकबर ने एक बार सभी दरबारियों को भोज दिया, बीरबल पर उनका प्यार कुछ ज्यादा, उन्होंने विशेष आग्रह करके उन्हें खिलाया। अब बीरबल खा-खाकर हो गए परेशान, तो बोले अब नहीं है मेरे पेट में जगह श्रीमान। अब और नहीं खा सकूँगा, आपकी आज्ञा मान नहीं सकूँगा। तभी एक सेवक आम काटकर एक प्लेट में लाया, देखकर बीरबल का मन ललचाया।

बीरबल ने हाथ बढ़ाकर, आम की फाँकें उतार ली पेट में अंदर। बीरबल को आम खाता देखकर शहंशाह को गुस्सा आया, उन्होंने गरज कर बीरबल को बुलाया। बीरबल खड़े हो गए अकबर के सामने जाकर, फिर बोले हाथ जोड़कर-'जब बहुत भीड़ होती है रास्ते पर, और निकलने की नहीं होती जगह तिल भर। आपकी सवारी को होता है वहाँ से गुजरना, तो अपने आप सबको होता है आपको जगह देना।

उसी तरह महाराज, आम भी करता है सभी फलों पर राज। जिस तरह आप हैं शहंशाह, वैसे ही आम भी है शाहों का शाह, तो कैसे नहीं देगा पेट उसे पनाह? जवाब सुनकर अकबर मान गए बीरबल की बुद्धिमानी का लोहा, मँगवाया उन्होंने मीठे आमों का एक टोकरा। बहुमूल्य भेंट दी बीरबल को उस टोकरे के साथ, बीरबल बहुत खुश थे पाकर यह मीठा उपहार।

चल मेरे कद्दू टुनूक टुनूक

एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। उसकी बेटी की शादी उसने दूसरे गाँव में की थी। अपनी बेटी से मिले बुढ़िया को बहुत दिन हो गए। एक दिन उसने सोचा कि चलो बेटी से मिलने जाती हूँ।

यह बात मन में सोचकर बुढ़िया ने नए-नए कपड़े, मिठाइयाँ और थोड़ा-बहुत सामान लिया। और चल दी अपनी बेटी के गाँव की ओर।
चलते-चलते उसके रास्ते में जंगल आया। उस समय तक रात होने को आई और अँधेरा भी घिरने लगा। तभी उसे सामने से आता हुआ बब्बर शेर दिखाई दिया।

बुढ़िया को देख वह गुर्राया और बोला- बुढ़िया कहाँ जा रही हो? मैं तुम्हें खा जाऊँगा।

बुढ़िया बोली- शेर दादा, शेर दादा तुम मुझे अभी मत खाओ। मैं अपनी बेटी के घर जा रही हूँ। बेटी के घर जाऊँगी, खीर-पूड़ी खाऊँगी। मोटी-ताजी हो जाऊँगी फिर तू मुझे खाना।

शेर ने कहा- ठीक है, वापसी में मिलना।

फिर बुढ़िया आगे चल दी। आगे रास्ते में उसे चीता मिला। चीते ने बुढ़िया को रोका और वह बोला- ओ बुढ़िया कहाँ जा रही हो?

बुढ़िया बड़ी मीठी आवाज में बोली- बेटा, मैं अपनी बेटी के घर जा रही हूँ। चीते ने कहा- अब तो तुम मेरे सामने हो और मैं तुम्हें खाने वाला हूँ।

बुढ़िया गिड़गिड़ाते हुए कहने लगी- तुम अभी मुझे खाओगे तो तुम्हें मजा नहीं आएगा। मैं अपनी बेटी के यहाँ जाऊँगी वहाँ पर खीर-पूड़ी खाऊँगी, मोटी-ताजी हो जाऊँगी, फिर तू मुझे खाना।

चीते ने कहा- ठीक है, जब वापस आओगी तब मैं तुम्हें खाऊँगा।

फिर बुढ़िया आगे बढ़ी। आगे उसे मिला भालू। भालू ने बुढ़िया से वैसे ही कहा जैसे शेर और चीते ने कहा था। बुढ़िया ने उसे भी वैसा ही जवाब देकर टाल दिया।

सबेरा होने तक बुढ़िया अपनी बेटी के घर पहुँच गई। उसने रास्ते की सारी कहानी अपनी बेटी को सुनाई।बेटी ने कहा कि माँ फिक्र मत करो। मैं सब संभाल लूँगी।

बुढ़िया अपनी बेटी के यहाँ बड़े मजे में रही। चकाचका खाया-पिया, मोटी-ताजी हो गई। एक दिन बुढ़िया ने अपनी बेटी से कहा कि अब मैं अपने घर जाना चाहती हूँ।

बेटी ने कहा कि ठीक है। मैं तुम्हारे जाने का बंदोबस्त कर देती हूँ।

बेटी ने आँगन की बेल से कद्दू निकाला। उसे साफ किया। उसमें ढेर सारी लाल मिर्च का पावडर और ढेर सारा नमक भरा।

फिर अपनी माँ को समझाया कि देखो माँ तुम्हें रास्ते में कोई भी मिले तुम उनसे बातें करना और फिर उनकी आँखों में ये नमक-मिर्च डालकर आगेबढ़ जाना। घबराना नहीं।
बेटी ने भी अपनी माँ को बहुत सारा सामान देकर विदा किया। बुढ़िया वापस अपने गाँव की ओर चल दी। लौटने में फिर उसे जंगल से गुजरना पड़ा। पहले की तरह उसे भालू मिला।

उसने बुढ़िया को देखा तो वह खुश हो गया। उसने देखा तो मन ही मन सोचा अरे ये बुढ़िया तो बड़ी मुटिया गई है।

भालू ने कहा- बुढ़िया अब तो मैं तुम्हें खा सकता हूँ?

बुढ़िया ने कहा- हाँ-हाँ क्यों नहीं खा सकते। आओ मुझे खा लो।

ऐसा कहकर उसने भालू को पास बुलाया। भालू पास आया तो बुढ़िया ने अपनी गाड़ी में से नमक-मिर्च निकाली और उसकी आँखों में डाल दी।

इतना करने के बाद उसने अपने कद्दू से कहा- चल मेरे कद्दू टुनूक-टुनूक। कद्दू अनोखा था, वह उसे लेकर बढ़ चला।

बुढ़िया आगे बढ़ी फिर उसे चीता मिला। बुढ़िया को देखकर चीते की आँखों में चमक आ गई।

चीता बोला- बुढ़िया तू तो बड़ी चंगी लग रही है। अब तो मैं तुम्हें जरूर खा जाऊँगा और मुझे बड़ी जोर की भूख लग रही है।

बुढ़िया ने कहा- हाँ-हाँ चीतेजी आप मुझे खा ही लीजिए। जैसे ही चीता आगे बढ़ा बुढ़िया ने झट से अपनी गाड़ी में से नमक-मिर्च निकाली और चीते की आँखों में डाल दी।

चीता बेचारा अपनी आँखें ही मलता रह गया। बुढ़िया ने कहा- चल मेरे कद्दू टुनूक-टुनूक। आगे उसे शेर मिला।

बुढ़िया और कद्दू ने उसके साथ भी ऐसी ही हरकत की। इस तरह बुढ़िया और उसकी बेटी की चालाकी ने उसे बचा लिया। वह सुरक्षित अपने घर पहुँच गई।

कर्म का संदेश देती है गीता

भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव भादौ मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को बड़ी श्रृद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। आध्यात्म की दृष्टि से देंखे तो यह दिन कर्म का दिन है क्योंकि श्रीकृष्ण ने ही सर्वप्रथम निष्काम कर्म का संदेश गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था। इसीलिए श्रीकृष्ण को कर्मयोगी की संज्ञा भी दी गई। गीता को हिंदू धर्म में बड़ा ही पवित्र ग्रंथ माना जाता है। गीता के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने संसार को धर्मानुसार कर्म करने की प्रेरणा दी।

वास्तव में यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण कलयुग के मापदंड को ध्यान में रखते हुए ही दिया है। कुछ लोग गीता को वैराग्य का ग्रंथ समझते हैं जबकि गीता के उपदेश में जिस वैराग्य का वर्णन किया गया है वह एक कर्मयोगी का है। कर्म भी ऐसा हो जिसमें फल की इच्छा न हो अर्थात निष्काम कर्म। गीता में यह कहा गया है कि निष्काम काम से अपने धर्म का पालन करना ही निष्कामयोग है।
इसका सीधा का अर्थ है कि आप जो भी कार्य करें, पूरी तरह मन लगाकर तन्मयता से करें। फल की इच्छा न करें। अगर फल की अभिलाषा से कोई कार्य करेंगे तो वह सकाम कर्म कहलाएगा। गीता काउपदेश कर्मविहिन वैराग्य या निराशा से युक्त भक्ति में डूबना नहीं सीखाता वह तो सदैव निष्काम कर्म करने की प्रेरणा देता है।

क्यों कान्हा खाए माखन?

कान्हा यानि श्रीकृष्ण माखन चोर के नाम से प्रसिद्ध हैं। क्योंकि कान्हा को माखन सबसे प्रिय है। किंतु माखन खाने के लिए चोरी जैसा काम करने पर भी भगवान को माता से लेकर गोकुलवासियों का स्नेह और प्यार मिला। यहां तक कि आज भी उनको इसी बाललीला के कारण बालकृष्ण रुप में घर-घर पूजा जाता है। इसलिए यह जानना जरुरी है कि लीलाधर श्रीकृष्ण ने माखन खाकर जगत को क्या संदेश दिया -

दरअसल मक्खन की प्रकृति स्निग्ध यानि चिकनी और स्नेहक यानि ठंडक पहुंचाने वाली होती है। स्नेहक शब्द भी स्नेह से बना है। इसका मतलब हुआ कि मक्खन स्नेह यानि प्रेम, प्यार का ही प्रतीक है। बालकृष्ण के माखन खाने के पीछे यही संदेश है कि बचपन से ही हम बच्चों के जीवन में प्रेम उतारें यानि परिवार में उनसे बोल, व्यवहार और संस्कार में प्रेम ही शामिल हो। क्योंकि अच्छे या बुरे संस्कार ही बाल मन पर सीधा असर करते हैं। जिससे जीवनभर उसका अच्छा चरित्र, व्यवहार और जीवन नियत होता है।
व्यावहारिक जीवन में भी प्रेम ही ऐसा तरीका माना जाता है कि जिससे किसी का भी दिल जीता जा सकता है। विरोध में भी समर्थन मिल सकता है। इस तरह प्रेम भी भी मक्खन की तरह ठंडक पहुंचाता है। मक्खन का एक ओर गुण है कि वह गर्मी पाकर पिघलता है। ठीक इसी तरह प्रेम, स्नेह और प्यार से भी कठोर और नफरत भरे मन पिघल जाता है। इसे बोलचाल में दिल चुराना भी कहा जाता है।
इस तरह बालकृष्ण का मक्खन खाने का यही संदेश है कि वाणी से लेकर आचरण तक हर रुप में प्रेम में घुल जाएं। वैसे लोकभाषा में प्रचलित मक्खन लगाना या मक्खन की तरह पिघलना जैसे जुमलों के पीछे भी मूल भाव प्रेम ही है।

काम नहीं काम विजय लीला
भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है।

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं।

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है -

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक कि बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है।

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

श्रीकृष्ण ने ऐसे भी बताया जीवन का रहस्य
महाभारत के युद्ध के बाद जब अश्वत्थामा ने सोए हुए द्रोपदी के पुत्रों का वध किया था तब उसका प्रतिशोध लेने के लिए अर्जुन व श्रीकृष्ण अश्वत्थामा के पीछे गए। घबराकर अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र छोड़ा लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन जीवित रहे। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़कर उसके मस्तक की मणि निकाल ली। गुरुपुत्र होने के कारण पाण्डवों ने उसके प्राण नहीं लिए।

अपने अपमान से झुब्ध होकर अश्वत्थामा ने एक बार फिर पुन: धरती को पाण्डवविहिन करने के उद्देश्य से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया यह ब्रह्मास्त्र जाकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ पर लगा। जिससे उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को प्राणों का भय हो गया। तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के वंश को विनाश से बचाने के लिए सुक्ष्म रूप धारण किया तथा उत्तरा के गर्भ में जाकर ब्रह्मास्त्र के तेज से उस बालक की रक्षा की। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने परीक्षित के प्राणों की रक्षा की तथा पाण्डवों के वंश का नाश होने से बचाया।
यही राजा परीक्षित बाद में श्रीमद्भागवद् के माध्यम से जगत को धर्म के माध्यम से जीवन जीने के सूत्र पहुंचाने के प्रमुख पात्र बने। इस तरह कर्म का संदेश देने वाली गीता के साथ ही जीवन के रहस्य उजागर करने वाली श्रीमद्भागवत धर्म भी श्रीकृष्ण की कृपा से जगत में पहुंचा।

सोमवार, 30 अगस्त 2010

जैरी भाग, टॉम आया

टॉम हो या जैरी, दोनों एक-दूसरे के पीछे पड़े रहते हैं। दोनों किसी का कुछ बिगाड़ना नहीं चाहते, बस, छीनना चाहते हैं, तो एक-दूजे का सुकून। यानि बस तंग करना ही मकसद है। इनके खेल बड़े मज़ेदार होते हैं। आपको भी पंसद हैं न। तो चलिए, कुछ जानते हैं इनके बारे में -

गर्मी के दिन थे। जैरी अपने घर में चादर ओढ़े आराम से सो रहा था। तभी उसके नाक में पनीर की खुशबू ने प्रवेश किया। पनीर उसे बहुत पसंद था, वह पलंग से उछल पड़ा और उस दिशा में चल पड़ा, जहां से खुशबू आ रही थी। अपने घर के छोटे-से दरवाजे से निकलते ही उसे सामने पनीर का एक बड़ा टुकड़ा दिखाई दिया। वह खुशी से उछल पड़ा, हुररर्र्..। उसके मुंह से लार टपकने लगी। जैसे ही उसने टुकड़े की ओर हाथ बढ़ाया, वैसे ही पीछे से टॉम ने उसे पकड़ लिया। जैरी समझ गया था कि टॉम ने ही उसे पनीर का लालच देकर फंसाया है। टॉम ने जैसे ही जैरी को खाने के लिए अपना मुंह खोला, जैरी ने उसके मूंछों के बालों को ज़ोर से खींच दिया। दर्द के कारण जैरी के हाथों से टॉम छूट गया। जैरी भागा और टॉम भी उसके पीछ-पीछे भागा। इस तरह फिर से शुरू हो गया चूहे-बिल्ली का वह खेल, जिसके करोड़ो बच्चे दीवाने हैं।

टॉम एंड जैरी का जन्म

जोसफ बारबेरा बैंकिंग हमेशा कागज़ों पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश किया करते थे। हालांकि, उनका मकसद बैंकिंग के क्षेत्र में काम करने का था लेकिन उनको काटरून बनाने का भी काफी शौक था। उनके काटरून जल्द ही पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगे। 1930 के दशक के आखिरी में मैट्रो गोल्डवेन मेयर फिल्म स्टूडियो में उनकी मुलाकात हाना से हुई। इसी मुलाकात में दोनों ने एक ऐसा कार्टून सीरियल बनाने का सोचा, जो एक घरेलू बिल्ली और एक चूहे के बीच लगातार चलने वाली दुश्मनी पर केन्द्रित हो। इसी सोच के साथ उन्होंने टॉम एंड जैरी काटरून पात्रों को छोटे पर्दे पर साकार किया।
जोसेफ-हाना की जोड़ी ने 17 साल के सफर में टॉम एंड जैरी सीरीज़ के लिए सात ऑस्कर पुरस्कार हासिल किए और कुल 14 बार इन्हें पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।

मज़ेदार है चूहे-बिल्ली की यह खेल

एक शरारती चूहा और एक खुराफाती बिल्ली, अगर एक ही घर में हों, तो दिलचस्प घटनाओं की भरमार हो जाती है। टॉम एंड जैरी के द्वारा एक दूसरे का पीछा करने और आपसी लड़ाई में हास्यास्पद भिड़ंत शामिल है। इसी कारण 70 सालों से लेकर आज तक यह दुनियाभर में न केवल बच्चों द्वारा बल्कि उनके अभिभावकों द्वारा भी पसंद किया जाता है। भारत में इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि टॉम एंड जैरी के कार्यक्रम हिंदी के साथ ही अंग्रेजी, तमिल और तेलुगू भाषाओं में भी प्रसारित किए जाते हैं।

आखिर यह भाग-दौड़ क्यों?

प्रत्येक कार्टून फिल्म की कहानी आमतौर पर जैरी को पकड़ने के लिए टॉम के अनगिनत प्रयासों और उसके कारण हुई हाथापाई और दौड़ा-भागी पर आधारित होती है। इनको देखकर यह समझना मुश्किल है कि आखिर ?यों टॉम, जैरी का इतना अधिक पीछा करता है। काटरून को देखकर जो अंदाज़ा लगाया जा सकता है, उसके हिसाब से कुछ कारणों में एक बिल्ली का एक चूहे के साथ बैर, अपने मालिक के आदेश का पालन, टॉम को सौंपे गए कार्यों को जैरी द्वारा बिगाड़ने की कोशिश, जैरी द्वारा टॉम के मालिक का भोजन खा जाना, जिसकी निगरानी का जिम्मा टॉम को सौंपा गया है, दूसरे को चिढ़ाने की भावना, जेरी द्वारा टॉम के अन्य संभावित शिकारों (जैसे कि बतख, चिड़िया या मछली) को खाए जाने से बचाना, दूसरी बिल्ली से प्रतिस्पर्धा आदि शामिल हैं।

थोड़ी तकरार-थोड़ा प्यार

ऐसा नहीं है कि यह जोड़ी हमेशा लड़ाई ही करती रहती है, कभी-कभी ये दोनों वास्तव में एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह व्यवहार करते भी दिखाई देते हैं। ‘जैरी एंड द लॉयन’ में जब जेरी को एक शरारत सूझती है और वह मरने का नाटक करने लगता है, जिससे कि टॉम यह सोचे कि उसने जैरी को गोली मार दी है। जैरी को लेटा देखकर टॉम प्राथमिक चिकित्सा किट लेकर दौड़ता हुआ आता है। इससे पता चलता है कि टॉम और जैरी में तकरार के बाद भी प्यार छिपा हुआ है। साथ ही दिलचस्प बात यह है कि कई सारे चित्रों में भी टॉम तथा जैरी एक दूसरे पर मुस्कुराते हुए दिखाए गए हैं, जो प्रत्येक काटरून में दूसरे पर प्रदर्शित अत्यधिक झुंझलाहट के बजाय प्यार-तकरार का रिश्ता अंकित करता है।
जैरी की चालाकी और किस्मत की वजह से टॉम शायद ही कभी जैरी को पकड़ने में सफल हो पाएगा, लेकिन इतना तो अवश्य है कि इन दोनों के दौड़-भाग का यह खेल हमेशा लोगों को गुदगुदाता रहेगा।

टॉम एंड जेरी कौन हैं?

टॉम का असली नाम थॉमस है, जो कि नीली-स्लेटी आंखों वाला ब्रिटिश घरेलू बिल्ला है। जैरी भूरे रंग का छोटा-सा चूहा है। शुरुआती कहानियों में टॉम का नाम जैस्पर और जैरी का जिं?स था। टॉम को गुस्सा जल्दी आता है, जबकि जैरी अवसरवादी और खुशदिल है।

वैसे तो कहा जाता है कि बिल्लियां बड़ी चालाक होती हैं, लेकिन टॉम और जैरी की कहानी में टॉम की हर फुर्ती को जैरी का दिमाग बड़ी आसानी से हरा देता है। हालांकि, हर कहानी में जीत जैरी की होती है लेकिन कहीं अगर जैरी अपनी सीमाएं तोड़ देता है, या कहीं किसी बुराई का साथ दे बैठता है, तो टॉम की विजय भी होती दिखाई देती है।

मनोविज्ञानी कहीं-कहीं इस चूहे-बिल्ली की कहानी को महज़ शरारत नहीं मानते। यह दूसरे को नुकसान पहुंचाने की कहानी भी बन जाती है। उनका कहना है कि बच्चों को सिर्फ शो का मज़ा लेना चाहिए। किसी भी तरह से ऐसे खेलों को अपने दोस्तों या बच्चों के साथ नहीं खेलना चाहिए। टॉम एंड जैरी के खेल काल्पनिक हैं, इनकी नकल करना घातक हो सकता है।
sabhar dainik bhaskar

भागवत: 60; प्रेम पर टिका है पारिवारिक जीवन

हमारे पारिवारिक जीवन में प्रेम होना चाहिए। परिवार जब भी टिकेगा प्रेम पर टिकेगा। समझौतों पर टिका हुआ दाम्पत्य बड़े दुष्परिणाम लाता है। एक काल की घटना है जिस समय हस्तिनापुर में दाम्पत्य घट रहे थे लोगों के। उसी समय द्वारिका में कृष्णजी का भी दाम्पत्य घट रहा था पर कितना अंतर है कोई ये नहीं कह सकता कि इतने सारे परिवार में सदस्य थे इसलिए हस्तिनापुर में कौरव-पांडव लड़ मरे। जितने कौरव थे उससे चार गुना तो श्रीकृष्ण की संतानें थीं लेकिन कृष्ण के दाम्पत्य में कभी आप अशांति नहीं पाएंगे क्योंकि कृष्ण ने एक सूत्र दिया ?

आपके पास ध्यान योग हो, आपके पास ज्ञान योग हो, आपके पास कर्मयोग हो, आपके पास भक्तियोग हो तो कृष्ण बोलते हैं कि यह सब बेकार है यदि आपके पास प्रेमयोग नहीं है। अंतिम बात आपका निजी जीवन पवित्रता पर टिकेगा। पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। परमात्मा हमारे जीवन में तभी उतरेगा जब हमारा निजी जीवन पवित्र होगा । भागवत में प्रवेश से पहले अपने चार जीवन को टटोलते रहिएगा। पवित्रता बनाई रखिए, पवित्रता का बड़ा महत्व है। जिसके जीवन से पवित्रता चली गई वह बहुत कष्ट उठाएगा।
इसलिए आज हम जिन प्रसंगों में प्रवेश कर रहे हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के प्रसंग हैं तो जीवन के ये चार व्यवहार को समझिए और आइए हम प्रवेश करें इसके पहले मैं आपको पुन: दोहरा दूं हमने शास्त्रों का सार देख लिया, भगवान का वांड्मय रूप देख लिया। जीवन के चार व्यवहार हमने देख लिए और दाम्पत्य के सात सूत्र हम आने वाले दिनों में पढ़ते चलेंगे।

विद्याध्ययन

यहां शिक्षा प्राप्त की श्रीकृष्ण ने
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। इसके बाद वे गोकुल में रहे। श्रीकृष्ण ने कंस का वध कर महाराज उग्रसेन को मथुरा का राज सौंप दिया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण के माता-पिता ने उन्हें विद्याध्ययन करने का आदेश दिया। विद्याध्ययन करने के लिए श्रीकृष्ण परम पावन धाम अवंतिकापुरी(वर्तमान में उज्जैन) आए। यहां भगवान श्रीकृष्ण व बलराम ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की।
धर्म शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि मात्र 64 दिनों में ही भगवान श्रीकृष्ण व बलराम ने रहस्य (मंत्रोपनिषत्) व संग्रह (अस्त्रप्रयोग) के सहित संपूर्ण धनुर्वेद सीख लिया। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अवंतिकापुरी में शिक्षा ग्रहण कर यहां की भूमि को पवित्र किया। उज्जैन में आज भी सांदीपनि गुरु का आश्रम मंगलनाथ मार्ग पर स्थित है।

जीवन में क्यों जरूरी है गुरु?

आज भी कई लोगों के लिए यह सवाल कायम है कि कोई किसी संत को गुरु क्यों बनाता है। आज के अध्यात्मिक जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर संतों के प्रति आम आदमी के मन में न केवल श्रद्धा कम हुई है बल्कि संतों के प्रति नजरिया भी बदला है। फिर क्यों गुरु बनाना जरूरी है? दरअसल इसके पीछे हमारी शांति की तलाश होती है। भौतिक जीवन में सफलता तो मिल जाती है लेकिन उसके साथ नहीं मिलती है तो बस शांति।

इसी शांति की तलाश को कोई अध्यात्मिक गुरु पूरा कर सकता है। सांसारिक जीवन में सफलता के साथ शांति और आध्यात्मिक जीवन में उपलब्धि की स्पष्टता गुरु के द्वारा आती है। इसी विचार के कारण लोग साधु संतों के पीछे पड़े रहते हैं। लोग समझते हैं जीवन में गुरु आएं, संतों से मिलना हुआ और काम हो गया। यह जल्दबाजी गुरु-शिष्य के संबंधों के लिए नुकसान दायक है। यह रिश्ता बड़ा नाजुक है। परमात्मा को पाने के मार्ग का गुरु एक ट्रेफिक सिग्नल है। लोगों ने यातायात संकेतों को ही राह मान लिया, कई जल्दबाजों ने तो इसे ही मंजिल की घोषणा में बदल दिया। भगवान महावीर स्वामी ने एक जगह सुन्दर बात कही है च्च्मार्ग पर चलो तो मार्ग फल अवश्य मिलेगाज्ज् एक सूत्र के माध्यम से उन्होंने मार्ग को उपाय और मार्गफल को निर्वाण बताया है।
दंसणणाण चरित्राणि, मोक्खमग्गो त्रि सेविदव्वाणि साधुहि इदं भणिदं, तेहिं दु बन्धो व मोक्खो वा|
इसका अर्थ है दर्शन, ज्ञान और चरित्र मोक्ष का मार्ग है। इनका आचरण साधु पुरुषों को करना चाहिए। स्वाश्रित होने पर मोक्ष और पराश्रित होने से बंधन होगा। महावीर का इशारा था कि अपने मूल मार्ग को समझा जाए और उसे पूरी तरह जीया जाए। जैन मुनि चन्द्रप्रथजी ने बहुत खुलकर बताया है जो सभी धर्मों के पथिकों पर लागू होता है कि सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन तथा सम्यक चरित्र जीवन में तब आएगा जब बाहरी कर्मकांड से मुक्त होकर मूल मार्ग को भीतर से समझा जाएगा। वरना सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन जैसी अन्य क्रियाएं जीवनभर करते रहो हाथ कुछ दिव्यानुभूति जैसा नहीं लगेगा।

भगवान कृष्ण की रासलीला

ऐसा सुपर डांस है रासलीला

युग के बदलाव के कारण आज भगवान कृष्ण की रासलीला को कोई साधारण नृत्य मानकर उसके धार्मिक और दार्शनिक महत्व को नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि इस रासलीला के जीवन से जुड़े गहरे अर्थ है, जो धर्मशास्त्रों में बताए गए हैं। जानते हैं इस पहलू को -
रासलीला का धर्म दर्शन यही है कि भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा हैं और राधा या अन्य गोपियां जीव आत्मा का रुप है। इस बात को सरल रुप मे समझें तो पूरा जगत भगवान श्रीकृष्ण का रुप और इसमें होने वाली समस्त क्रियाएं और हलचल जिसे प्रकृति नृत्य कहा जा सकता है, गोपियां हैं। इस तरह जगत में होने वाली हर घटना श्रीकृष्ण यानि पुरुष और प्रकृति यानि गोपियों के मिलन से होने वाला महारास ही है। इस प्रकार इसे आत्मा और परमात्मा का मिलन माना जाता है।
चूंकि हमारा जीवन भी इसी जगत का हिस्सा है। इसलिए जीवन में मिलने वाला शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक सुख और उस सुख के साधन उस महारास का ही एक रुप है। भगवान कृष्ण ने यही संदेश बचपन में ही गोपियों और गोपियों के माध्यम से जगत को दिया। रासलीला में हर गोपी को कृष्ण के उनके साथ ही नृत्य करने का एहसास होना भी इसी बात का प्रतीक है।
इसलिए श्रीकृष्ण की रासलीला साधारण नृत्य नहीं था। रासलीला का साधारण या यौन अर्थ निकालना भी धर्म की दृष्टि से हास्यास्पद और निरर्थक ही है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

ये कैसा निर्णय

सीमा सुरक्षा बल के जवानो को सीमा से हटाकर छत्तीसगढ़ के जंगलों में तैनात करना कहाँ की बुद्धिमानी है.आज पांच जवान शहीद हो गए.अच्छा होगा सरकार सीमा से जवान न हटाए .वरना दुश्मनों को घुसपैठ करने में और आसानी होगी.जिससे देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा.

भागवत: 59 ;जीवन में जरुरी है पारदर्शिता

हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे।

हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी।
भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में।

नन्द के आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की

भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में जन्माष्टमी पर्व मनाया जाता है। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को मध्य रात्रि में, रोहिणी नक्षत्र तथा वृषभ लग्न में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए प्रतिवर्ष जन्माष्टमी मनायी जाती है।

भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी को रात्रि बारह बजे मथुरा नगरी के कारागार में वासुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से षोडश कला सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण जी का अवतार हुआ था।
जन्माष्टमी व्रत के ज्योतिषीय योग
भाद्रपद कृष्णपक्ष में आधी रात में अष्टमी तिथि हो चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो तो यह जयंती नामक अति शुभ योग बन जाती है। ‘जयंती योग’ से युक्त जन्माष्टमी अति पुण्यमयी होती है।
सूर्योदय से लेकर मध्यरात्रि पर्यन्त अष्टमी हो चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में हो तो यह व्रत अक्षय पुण्य का लाभ देने वाला होता है।

सूर्योदय के समय सप्तमी तिथि हो, मध्यरात्रि में अष्टमी व रोहिणी नक्षत्र हो अर्थात् सप्तमी विद्धा अष्टमी हो तो यह व्रत अगले दिन करें क्योंकि भगवान का जन्म अविद्धा तिथि एवं बेध रहित नक्षत्र रोहिणी में हुआ था।

सूर्योदय के समय अष्टमी तिथि हो तदुपरांत नवमी तिथि हो, दिन सोमवार या बुधवार हो रोहिणी नक्षत्र हो तो यह व्रत अति पुण्यदायक फल प्रदान करता है। जो इस योग में जन्माष्टमी का व्रत करता है वह अपने कुल की पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।

भगवान श्रीकृष्ण की जन्मपत्रिका

भगवान श्रीकृष्ण की जन्मपत्री में गुरु, चन्द्रमा, सूर्य, बुध, शनि, मंगल, शुक्र सभी उच्च राशियों में तथा स्वग्रही हैं। चतुर्थ भाव से दूसरे में बुध तथा बारहवें भाव में गुरु होने से ‘शुभ मध्यत्व’ योग हुआ। पंचम भाव के भी दोनों और सूर्य, शुक्र विद्यमान है, प्रबल चतुर्थ पंचम भाव श्रीकृष्णजी के ऐश्वर्य राज्य वैभव सुख-समृद्धि के कारक भाव एवं राशियां भी बलयुक्त हैं। उच्च राशि में मंगल, उच्च राशि के गुरु से केन्द्र में स्थित हैं यही मंगल धर्म युद्ध महाभारत में गीता का ज्ञान एवं विजयश्री का द्योतक है। पूर्ण पुरुषोत्तम विश्वम्भर प्रभु का भाद्रपद मास के अन्धकारमय पक्ष को अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि के समय प्रादुर्भाव होना निराशा में आशा का संचार स्वरूप है।

श्रीमद्भागवत् में कहा गया है-

‘‘निशीधे तमे उभूते जायमाने जनार्दने
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहाशय:।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कल:।।’’

अर्थात् अर्धरात्रि के समय जब अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय हो रहा था उस समय देवरूपिणी देवकी के गर्भ से सबके अन्त:करण में विराजमान पूर्ण व्यापक प्रभु श्रीकृष्ण प्रकट हुए जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्रमा प्रकट हुआ हो।

इस दिन भगवान का प्रादुर्भाव होने के कारण यह उत्सव मुख्यतया उपवास, जागरण एवं विशिष्ट रूप से श्री भगवान की सेवा एवं श्रृंगार का है। दिन में उपवास, रात्रि में जागरण तथा षोडशोपचार से भगवान का पूजन, भगवत् कीर्तन इस उत्सव के प्रधान अंग हैं। श्रीनाथद्वारा, मथुरा एवं वृन्दावन में यह उत्सव बड़े विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में मन्दिरों में विशेष रूप से भगवान का श्रृंगार किया जाता है। कृष्णावतार के उपलक्ष्य में गली, मुहल्ले एवं घरों में भगवान की मूर्ति का श्रृंगार करके झूला झुलाया जाता है।

व्रत-उपवास विधि

प्रात:काल उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करें। इस दिन केले के खम्भे, आम अथवा अशोक के पत्ते आदि से घर का द्वार सजाया जाता है। दरवाजे पर मंगल कलश स्थापित करें। सर्वप्रथम कलश की पूजा करें। कलश के साथ पञ्च देवों की पूजा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती जी की पूजा करें। इसी कलश को प्रतीक मानकर क्रमश: वासुदेव-देवकी, नन्द, यशोदा, बलदेव, रोहिणी मां एवं रोहिणी नक्षत्र की पूजा करें।

‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम:’’ इस मंत्र से से पूजन करके नव वस्त्र अलंकार से सुसज्जित करके भगवान को सजे हुए हिंडोले में प्रतिष्ठित करें। धूप-दीप, अन्न रहित नैवेद्य तथा प्रसूति के समय सेवन होने वाले सुस्वादु मिष्ठान्न, विभिन्न फलों, पुष्पों, नारियल, छुआरे, अनार, पंजीरी तथा मेवे से बने प्रसाद भगवान को अर्पित करें। इस प्रकार भगवान बाल मुकुन्द के मनोहर स्वरूप का ध्यान करें। आधी रात में भगवान का जन्मोत्सव मनाएं जैसे कि घर में किसी बालक ने जन्म लिया हो। मांगलिक गीत, स्तुति, वाद्य यंत्रों के साथ गाएं। रात्रि के बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतिस्वरूप खीरा काटकर भगवान का जन्म कराएं। जन्मोत्सव मनाएं। बालस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण जी को पंञ्चामृत से स्नान कराएं। केसर, कस्तूरीयुक्त चंदन का लेपन करें। सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कराएं। पुष्प व रत्न मालाओं से अलंकृत करें, मधुर व्यंञ्जनों का भोग अर्पत करें।
जन्मोत्सव के पश्चात् कपूर आदि से प्रज्जवलित कर समवेत स्वर से भगवान की आरती स्तुति करें।

जन्माष्टमी व्रत का महात्म्य

विष्णुलोक की प्राप्ति

जो मनुष्य जन्माष्टमी का व्रत करता है वह विष्णुलोक को प्राप्त होता है। व्रत के पूरे दिन में जितना खाली समय मिले उसमें ‘‘श्रीकृष्णाय नम:’’ मंत्र का ही मानसिक या वाचिक जप करना चाहिए।

संतान सुख

जिन स्त्रियों को संतान नहीं है उन्हें बालकृष्ण श्रीकृष्ण जी का प्रात:काल अवश्य पूजन एवं दर्शन करना चाहिए एवं मंत्र का जप भी करें-

ऊँ देवकी सुत गोविन्दं वासुदेव जगत्पते
देहि मे तनय कृष्णं त्वाहं शरणं गत:।।
इससे सुन्दर तथा स्वस्थ संतान प्राप्त होती है।

पति-पत्नी में स्थायी प्रेम

इस व्रत से भगवान प्रसन्न होते हैं। परिवार में सुख बढ़ता है। पति-पत्नी में प्रेम और सौहार्द बढ़ता है। अंत में भजन भी करें-

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
राधे कृष्ण कृष्ण राधे राधे।

स्तनपान

स्तनपान नहीं कराने वाली माताओं को मधुमेह का खतरा
जो महिलाएं अपने बच्चों को स्तनपान नहीं करातीं उन्हें आगे चलकर टाइप-2 मधुमेह से ग्रस्त होने का खतरा रहता है। दूसरी ओर, स्तनपान कराने वाली माताएं आमतौर पर इससे दूर रहती हैं।

टाइप-2 मधुमेह सबसे आम प्रकार का मधुमेह है। बीती शताब्दी की तुलना में इस शताब्दी में स्तनपान नहीं कराने वाली महिलाओं के इस बीमारी के ग्रसित होने की संख्या बढ़ी है। पीट्सबर्ग विश्वविद्यालय के मेडिसिन, इपिडेमियोलॉजी और ऑब्सट्रेटिक्स विभाग की डॉक्टर बिमला श्वार्ज ने कहा, ‘बीती शताब्दी की तुलना में स्तनपान नहीं कराने वाली महिलाओं के इस बीमारी से ग्रसित होने की घटनाएं बढ़ी हैं।’

टाइप-टू मधुमेह के लिए मुख्य तौर पर खानपान और व्यायाम नहीं करना जिम्मेदार होते हैं। यह बात भी सामने आई है कि स्तनपान कराने से इस बीमारी के खतरे को कम किया जा सकता है। खासतौर पर स्तनपान नहीं कराने वाली महिलाओं को उम्र के दूसरे पड़ाव में इस प्रकार के मधुमेह से ग्रसित होने का खतरा रहता है।

यह निष्कर्ष 40 से 78 वर्ष की उम्र की 2233 महिलाओं पर किए गए शोध के माध्यम से निकाला गया है। इसमें पता चला है कि अपने बच्चों को एक महीने तक स्तनपान कराने वाली 56 फीसदी महिलाएं इस बीमारी से दूर रही हैं। इसकी तुलना में बच्चों को स्तनपान नहीं कराने वाली 27 फीसदी महिलाओं को उम्र के इस पड़ाव में मधुमेह ने अपनी चपेट में ले लिया। इनमें वे महिलाएं भी शामिल हैं, जो मां नहीं बन सकीं।

कैसा होता है पूर्ण पुरुष

भारतीय चिंतन धारा में कृष्ण को ही पूर्ण पुरुष कहा गया है। लेकिन एक मिथक यह है कि चूंकि उनकी 16 हजार रानियां थीं, शायद इसलिए उन्हें पूर्ण मान लिया गया। क्या यह सच है? तो कैसा होता है पूर्ण पुरुष? बता रहें हैं महाभारत के व्याख्याकार नरेन्द्र कोहली। साथ में- क्या सोचती हैं आज की सेलेब युवतियां?

सन् 1896 ई में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के डिट्रायट नगर में गए थे, तो उनका विरोध करने के लिए पादरी थबर्न ने हिंदू धर्म के विरोध में बहुत कुछ कहा और लिखा था। उसमें एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि स्वामी के आराध्य श्रीकृष्ण की दस सहस्र रानियां थीं और वे श्लथ-चरित्र की महिलाएं थीं। वस्तुत: पादरी थबर्न का संकेत कृष्ण की सोलह सहस्र रानियों की ओर था और इसके माध्यम से वे कृष्ण को लांछित कर, हिंदू धर्म को और उसके माध्यम से स्वामी विवेकानन्द को कलंकित करना चाहते थे। स्वामी ने उनकी बात का उत्तर नहीं दिया था, क्योंकि न वे उस निम्न धरातल पर उतरना चाहते थे, जिस पर पादरी उतरे हुए थे और न ही संन्यासी के रूप में वे अपने बचाव में कुछ कहना चाहते थे।

श्रीकृष्ण के विषय में ऐसे ही प्रश्न आज भी पूछे जाते हैं। मुझ से भी पूछा गया कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं, फिर भी मैं उनको भगवान मानता हूं?

मुझे लगता है कि यह जिज्ञासा नहीं है। यह तो शुद्ध आरोप है। उस आरोप के पीछे आपत्ति है, विरोध है, अश्रद्धा है, आवेश है। जाने कब से श्रीकृष्ण के इस अति बहुविवाह के विरुद्ध आक्रोश पल रहा है लोगों में और वे उसको समझने का प्रयत्न नहीं करते। स्वयं को सर्वथा निदरेष मानते हैं और भगवान में भी दोष दिखा कर, स्वयं को उससे भी महान मान कर, प्रसन्न होते हैं। इस विरोध से मेरे मन में भी रोष जन्मता है। मैं अपने आराध्य पुरुषों पर इस प्रकार के तर्कहीन आरोप सहन नहीं कर सकता। मैंने भी कब से ऐसी बेसिर-पैर की आपत्तियां करने वालों के विरुद्ध अपने मन में रोष संचित कर रखा है। मैं बोलता हूं तो मेरा स्वर भी आवेश से मुक्त नहीं रहता। कभी-कभी तो मैं कह देता हूं कि मैं इसीलिए ही उन्हें भगवान मानता हूं, क्योंकि उनकी सोलह सहस्र रानियां थीं।

भौमासुर की पराजय के पश्चात जब उसके अंत:पुर में बंदी सोलह सहस्र (यह ठीक-ठीक संख्या न होकर, मुहावरा भी हो सकता है) नारियों को मुक्त किया गया तो उनकी क्या स्थिति थी? वे अपहृत थीं, क्रीत की गई थीं, भय के कारण उपहार में दी गई थीं अथवा किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। किंतु यह सत्य है कि वे पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं।

मेरे मन में एक समानांतर बिंब जन्मता है। 1947 ई़ में जब पाकिस्तान बना था, तब अनेक हिंदू स्त्रियों का अपहरण हुआ था। वे अपने परिवार से वियुक्त होकर शत्रुओं के अधिकार में चली गई थीं। उनमें से कुछ जब किसी प्रकार लौटा कर भारत लाई गई थीं तो उनके पतियों, भाइयों और पिताओं ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया था। उन लांछित स्त्रियों को कौन अपने परिवार में स्वीकार करता? अहल्या तक को गौतम ने त्याग दिया था, तो ये तो बेचारी साधारण नारियां थीं।

बांगलादेश की मुक्ति से पहले असंख्य बंगाली महिलाओं के साथ पाकिस्तानी सैनिकों ने बलात्कार किया था। बंगलादेश की मुक्ति के पश्चात उन महिलाओं को उनके परिवारों ने स्वीकार नहीं किया। तो फिर भौमासुर के अंत:पुर से मुक्त हुई उन अभागी स्त्रियों को ही कौन पति, पुत्र, भाई या पिता स्वीकार कर लेता। तब भी यह प्रश्न उठा होगा कि उन महिलाओं का क्या होगा? उनको भोजन और आश्रय तो कोई भी राज्य दे सकता था, किंतु उनका समाज में स्थान क्या होगा? समाज में सम्मान? उनकी सामाजिक पहचान? कौन थीं वे? किसकी पुत्री, किसकी पत्नी और किस की मां थीं? तब श्रीकृष्ण ने उन सबका कलंक अपने माथे पर लेते हुए कहा होगा कि उन्हें कृष्ण की पत्नियां होने का सम्मान दिया जाए। बात केवल कृष्ण के निर्णय की ही नहीं थी, उन स्त्रियों के विश्वास की भी थी।

यदि लौकिक धरातल पर सोचा जाए तो सोलह सहस्र स्त्रियों के साथ एक पुरुष का संबंध असंभव है। वैसा नारी-पुरुष संबंध वहां था भी नहीं। यदि कृष्ण का नारायण रूप स्वीकार किया जाए, तो कुछ भी संभव है। वे सोलह सहस्र रूप भी धारण कर सकते थे, किंतु नारायण को तो लांछित नहीं किया जा सकता। वहां न प्रश्न उठते हैं, न उनके उत्तर खोजे जाते हैं। लांछन तो कृष्ण के लौकिक रूप पर ही लग सकता है। किंतु उस रूप में उनके सोलह सहस्र स्त्रियों से संबंध की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जहां किसी एक स्त्री का कलंक उसका पति अथवा पिता तक वहन नहीं करता, वहां श्रीकृष्ण ने सोलह सहस्र स्त्रियों को सम्मान देकर उनका कलंक अपने माथे पर वहन किया और आज तक कर रहे हैं। आज भी लोग उन पर आरोप लगा रहे हैं। इतने दीर्घ काल तक, इतना बड़ा आक्षेप सहते रहना और शांत मन से बांसुरी बजाते जाना किसी साधारण मनुष्य के बस का है क्या? भगवान ही कर सकते हैं ऐसा महान काम।

यह मेरी कल्पना नहीं है। भागवत में स्पष्ट वर्णन है। कोई भी पढ़ सकता है कि ये स्त्रियां कौन थीं और किन परिस्थितियों में उनका श्रीकृष्ण से साक्षात्कार हुआ। यह ठीक है कि भागवत उसे भक्ति के प्रसंग में प्रस्तुत करता है और मैं उसे सामाजिक संदर्भ में आपके सामने रख रहा हूं। जो लोग कृष्ण पर इस प्रकार का आरोप लगाते हैं, उनका आरोप और प्रश्न भक्ति क्षेत्र का नहीं, सामाजिक मान्यताओं के क्षेत्र का है।

अत:आवश्यक है कि उन्हें उन्हीं के धरातल पर समझाया जाए। भक्ति के धरातल पर तो भगवान ही उन्हें समझा सकते हैं, जब वे उन पर कृपा कर उनके मन में भक्ति अंकुरित करेंगे। यह प्रवृत्ति सब कहीं है। लोग आरोप लगाने से पहले महापुरुषों की महानता को समझने का प्रयत्न नहीं करते। वे उन पर आरोप लगा कर सहज ही उनसे बड़े हो जाना चाहते हैं। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो भगवान के काम में भी त्रुटियां खोजता है और उसे नि:शुल्क परामर्श भी देता है।

जो पार्टनर को बराबर का दर्जा दे सके
अद्वैता काला, प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार व फिल्म लेखक

मुझे लगता है कि पूर्ण पुरुष का सबसे बड़ा गुण है कि वह अपने आपमें सुरक्षित महसूस करे और इस बात पर अन्दर से खुशी महसूस करे कि मेरी पार्टनर यहां-वहां जा रही है और अच्छा काम कर रही है। यह एटीट्यूड होना चाहिए क्योंकि पहले वाली बात अब नहीं रही। अब प्रोवाइड और रिसीव का समय चला गया, पार्टनरशिप का समय आ गया है और पत्नी काम पर जा सकती है तो पुरुष को भी किचन में जाने से परहेज नहीं होना चाहिए। मैं मानती हूं कि जो अपने पार्टनर को अपने व्यक्तिगत जीवन में सही दर्जा दे सके, वही पूर्ण पुरुष है।

पश्चिम में एक नया ट्रेंड आया है। रेडिकल हाउस वाइफ का,जहां हाउस वाइफ कह रही हैं कि हम भी काम करती हैं, जिसका हमें पैसा नहीं मिलता। जब तलाक की स्थिति आती है तो वे सारे साल कोर्ट की बहस में शामिल किए जाते हैं। अमेरिका के जैक वेल्च प्रकरण से हम सब अवगत हैं जो 8-10 साल पहले सामने आया था। पढ़ाई में भी अपने पति को सहयोग करने वाली पत्नी को तलाक के समय पति की संपत्ति का बड़ा हिस्सा मिला था।

आज समाज बदल रहा है, महिलाएं बदल रही हैं। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति, पारिवारिक मूल्य आदि को काफी झटका लगा है। अगर कोई इन बातों का ध्यान रखता है तो निश्चित रूप से उनकी नजर में कमिटमेंट का मूल्य है। आज यंग वुमन दो हिस्सों में बंटी हुई हैं। एक तरफ काम पर जाने वाली महिलाएं हैं तो दूसरी तरफ वो जो ट्रैडिशन-कमिटमेंट से बंधी हुई हैं। वह आधुनिकता और परंपरा को संतुलित करने में लगी हैं।

इस स्थिति में अपने आपको समझने में उसे बहुत समय लग जाता है। और कई सवाल खड़े हो जाते हैं। उनमें एक सवाल यह भी कि क्या वह समाज में स्वीकार्य है। आधुनिकता कहती है कि उपलब्धि हासिल करो और परंपरा कहती है कि उसका पार्टनर उससे अच्छा होना चाहिए। यानी हमारे मानक बहुत ऊंचे हो गए हैं जिस कारण अकेले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। पार्टनर से बढ़ रही उम्मीदें पूरा होना आसान नहीं।

वो चमत्कारी ही नहीं, एकमात्र सम्पूर्ण पुरुष हैं
विद्या बालन, फिल्म अभिनेत्री

नंदलाला भगवान कृष्ण की महिमा चमत्कारी है। उनके विराट रूप का वर्णन करना हम जैसे उनके असंख्य भक्तों के लिए संभव नहीं है। मैं इसका सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए कभी-कभी भगवद्गीता पढ़ लेती हूं। तब जीवन के कटु सच सहज ही मेरे रू-ब-रू हो जाते हैं। मैं उनके सारे गुणों की बात नहीं कर रही हूं, पर उनके कुछेक गुण की बात जाने दें, तो एक व्यक्ति के रूप में वे आदर्श हैं।

जीवन के हर दौर में उनका क्रियाकलाप एक उदाहरण बनकर सामने आता है। पुत्र, भाई, सखा, प्रेमी आदि अपने हर रूप में वे अतुलनीय हैं। अत्याचारी मामा कंस को मारकर उन्होंने अपने माता-पिता और जन्मभूमि के लोगों की रक्षा की। भाई बलराम के प्रति उनका स्नेह और सम्मान भाव-विभोर कर देता है। यही नहीं, द्रोपदी के मुंहबोले भाई के रूप में भी वे हमेशा याद रहते हैं। बाल सखा और घोर दरिद्र सुदामा के दर्द को उन्होंने जिस तरह से समझा वे मित्रता की एक अद्भुत मिसाल पेश करता है। गोपियों के साथ उनकी रासलीला या राधा के प्रति उनका गहरा लगाव उनके प्रेमी स्वभाव को व्यक्त करता है। पति के तौर पर भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। उनकी सहनशीलता भी एक प्रेरणा का काम करती है।

शिशुपाल की सौ गलतियों को उन्होंने क्षमा किया था। पांडव का साथ देकर उन्होंने न्याय का साथ दिया। उन्होंने मिथ्या का सहारा लिया, लेकिन सिर्फ जरूरतमंद की मदद और जुल्म का खात्मा करने के लिए। जीवन का सारा रस उन्होंने अपने अंदर समेट रखा था, पर उनके व्यक्तित्व में इसकी कोई अतिरंजना कहीं नजर नहीं आती है। श्री कृष्ण का रूप निराला है और उनके इसी व्यक्तित्व पर पूरी दुनिया मोहित है और मैं भी।


दिल से खूबसूरत और जिम्मेदार होना चाहिए
ऋचा व्यास, रेडियो
बात अगर पूर्ण पुरुष की, कि जाए, वह भी कृष्ण के संदर्भ में तो मेरी नजर में एक पूर्ण पुरुष को सबसे पहले दयालु होना चाहिए। उसमें इनसानियत होनी चाहिए। अगर उसके स्वभाव में दयालुता है तो वह अपनों के साथ-साथ दूसरों के प्रति दया रखेगा।

दूसरी बात, उसे बहादुर होना चाहिए। बहादुरी का मतलब यह नहीं कि वह अकेला ही चार-चार गुंडों से भिड़ जाए। मेरी नजर में उसमें हिम्मत होनी चाहिए, विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की। वह परिस्थितियों से घबराए नहीं बल्कि उनका सामना करे।

हिम्मत होना अच्छी बात है लेकिन अगर इसमें रोमानियत का साथ भी मिल जाए तो जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे आप तपती हुई धूप में लंबा सफर तय करके आ रहे हों और आपको अचानक से शीतल हवा का झोंका छू जाए और जिंदगी के नए मायने सिखा जाए। मेरा खयाल से रोमांटिक होना अच्छी बात है, इसलिए उसे रोमांटिक भी होना चाहिए। सिर्फ प्रेम करना ही जरूरी नहीं है, बल्कि उसका इजहार भी जरूरी है। आप जिससे प्यार करते हैं, उसे इसका एहसास होना भी जरूरी है कि कोई उसकी केयर भी करता है, उससे प्यार करता है और उसका, उसकी जिंदगी में होना खास मायने रखता है।
प्यार के साथ-साथ उसमें सेंस ऑफ ह्यूमर का होना भी जरूरी है, नहीं तो जिंदगी और प्यार के मायने बदलते देर नहीं लगती। इन सबसे बड़ी बात यदि पुरुष में या फिर कहें आपके साथी में जिम्मेदारी की भावना नहीं है तो उसकी सारी खूबियों को खामियों में बदलते देर नहीं लगती। जिम्मेदारी का एहसास इनसान को जीवन में न केवल ऊंचाइयों तक ले जाता है, बल्कि दूसरों के करीब भी ले जाता है।

एक बात और, इन सारी बातों के अलावा अगर वह गुड लुकिंग भी हो तो कोई बुरी बात नहीं है। मेरा मानना है कि तन के साथ-साथ मन की यानी कि दिल की खूबसूरती की होना भी बहुत जरूरी है। अगर ये सारी खूबियां एक पुरुष में हैं तो मेरी नजर में वह पूर्ण पुरुष है।


जो दूसरों को खुशियां दे वही है पूर्ण पुरुष
ममता खरब, (पूर्व कप्तान, भारतीय महिला हॉकी टीम)

इस संसार में हर शख्स का एक ही ध्येय होता है कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल जाएं। वह जिंदगी भर आनंद के सागर में डूबा रहे। व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, उसका एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि उसके जीवन में कभी किसी तरह की कोई परेशानी पैदा न हो। मनोविज्ञान के पितामह सिगमंड फ्राइड ने भी यही बात कही है। हर धर्म और दर्शन शास्त्र का उद्देश्य भी मानवजाति के लिए खुशी अर्जित करना है। हां, यहां व्यक्ति का खुद का व्यवहार भी बहुत मायने रखता है।

बेशक यहां भगवान कृष्ण का उदाहरण दिया जा सकता है। गीता के उपदेश भगवान कृष्ण के जीवन का सटीक उदाहरण हैं। गीता में कृष्ण के चरित्र का बखूबी वर्णन किया गया है। कृष्ण ने अपने जीवन में बेशक कितने भी छल-कपट किए हों लेकिन उनका उद्देश्य यही होता था कि सब खुश रहें। बावजूद इसके मेरे आइडियल कृष्ण नहीं हैं। मेरे आइडियल तो हैं भगत सिंह। भगत सिंह ने जीवनर्पयत स्ट्रगल किया है, अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों की खुशियों के लिए। उनका सबसे बड़ा त्याग तो यही था कि उन्होंने शादी नहीं की। देशभक्ति में सारा जीवन बिता दिया। जेल तक गए। जलियांवाला बाग कांड ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। उनके लिए देशप्रेम ही सब कुछ था। मेरे लिए तो भगत सिंह पूर्ण पुरुष हैं। जो दूसरों की खुशियों के बारे में सोचे वही पूर्ण पुरुष है।

मैं एक खिलाड़ी हूं। मैं भी अपने जीवन में एक ऐसा इंसान चाहूंगी जो कि सपोर्टिव हो। बड़े-बूढ़ों की इज्जत करे। मैं आगे खेलना चाहूं तो मेरी जरूरतों को समझे। इसके लिए एक-दूसरे में अच्छी समझ-बूझ का होना भी बहुत जरूरी है। समझ-समझ के समझ को समझे, समझ समझना भी एक समझ है। यह उक्ति एक पूर्ण पुरुष पर बिल्कुल सटीक बैठती है।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

भागवत: 57- ज्ञान के प्रतीक हैं कपिल मुनि

पूर्व मीमांसा के बाद इस उत्तर मींमासा का आरंभ किया गया है। उत्तर मीमांसा में ज्ञान प्रकरण है। मैत्रेयजी कहते हैं कपिल ब्रह्मज्ञान के स्वरूप हैं। कर्दम अर्थात इंद्रियों का दमन करने वाला, अर्थात जितेंद्रीय। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और भगवान ऋषि के घर पधारे।भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा- दो दिन बाद मनु महाराज तुम्हारे पास आएंगे, अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगें। भगवान ने कहा कि मैं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां आऊंगा। जगत को सांख्य शास्त्र का उपदेश करना है। ऐसा कहकर श्रीहरि वहां से विदा हुए।

मनु-शतरूपा अपनी पुत्री देवहुति को लेकर आए कर्दम से कहा विवाह कर लो। कर्दम ने विवाह स्वीकार किया। मनु महाराज ने विधि पूर्वक कन्यादान किया और देवहूति तथा कर्दम ऋषि का विवाह हो गया। पूर्व मीमांसा में वाराह नारायण की कथा कही गई है और उत्तर मीमांसा में कपिल नारायण का चरित्र है।हर माता-पिता को चिंता होती है कि अपनी पुत्री का विवाह करना है। तो मनु-शतरूपा को भी लगा कि हमारी तीन बेटियां हैं और तीनों को ठीक घर में दें। उनको मालूम था आकुति हर किसी से मिल जाती है तो आकुति का विवाह रूचि से कर दिया।
अब बचीं देवहुति। हुति मतलब बुद्धि, जिसकी बुद्धि देव भगवान में लगी हो तो उन्होंने उसे कर्दम को सौंप दिया। तीसरी बेटी थीं प्रसूति जो सती की मां थीं। प्रसूति को माता-पिता जानते थे कि इसका विवाह ऐसे घर में करना पड़ेगा जो युवक इसे प्रसन्न रख सके। माता-पिता सोच रहे हैं कि प्रसूति का विवाह किससे करें तो उन्होंने दक्ष से विवाह कर दिया। दक्ष मतलब जो बहुत ही टेलेंटेड हो, दक्ष मतलब सक्षम हो, वह संभाल लेगा हमारी बेटी को।

दाम्पत्य जीवन में संयम रखें
भागवत महापुराण की जब सात दिवसीय कथा की जाती है तो सप्ताह पारायण के सात विश्राम स्थल होते हैं। पहला विश्राम तीसरे स्कंध के 22वें अध्याय तक रहता है। हम कल वहां तक पढ़ चुके थे जहां मनु और शतरूपा के वंश की चर्चा आई है। कर्दम का विवाह मनु महाराज की पुत्री देवहुति से हुआ। अब इसके बाद भगवान कपिल का जन्म होगा। यहां कथा 22वें अध्याय पर आकर खत्म हो रही है।

हमने तृतीय स्कंध में पढ़ा था इसके दो भाग थे पूर्वनिमांसा, उत्तरनिमांसा। आगे भगवान कपिल का वर्णन होगा। अपनी स्मृति में दो-तीन बातें बनाए राखिएगा कि पहले दिन संयम की कथा की जाएगी। संयम चूक गए दिति और कश्यप और उनके घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु का जन्म हुआ। संयम बना हुआ था तो कर्दम और देवहुति के जीवन में तो कपिल भगवान का जन्म हुआ। आइए विश्राम स्थलों के अनुसार भागवतजी के इस अनुष्ठान के दूसरे दिन में प्रवेश करते हैं। आप लोग पुन: स्मरण कर लें सूतजी शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं। कथा सुना रहे हैं शुकदेवजी, परीक्षितजी को। पिछले प्रसंगों में मैत्रेयजी विदुरजी को कथा सुना रहे थे।
तो एक श्रोता एक वक्ता, एक श्रोता एक वक्ता। बहुत सारी कथा फ्लैशबैक में चल रही हैं लेकिन हमें स्मरण रखना है कि इसके मुख्य वक्ता शुकदेवजी हैं और मुख्य श्रोता राजा परीक्षित हैं। अब हम गीता से निश्कामता को जानते हुए प्रसंगों को पढ़ेंगे। दूसरी बात इसमें भगवान का वाड्मय स्वरूप है। भगवान अपने स्वरूप के साथ स्थापित हुए हैं। इसलिए इसका महत्व है। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक की जो कथा अब आएगी इसमें गीता कर्म करना सीखाती है।

जीवन में जरुरी है पारदर्शिता

हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे।

हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी।
भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में।

कर्म

कर्म से ही बनता है कॅरियर
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में कर्म ही अहम हो गया है, जो व्यक्ति अपने कार्य में जितना अधिक कुशल है, वह परिवार, समाज या अपने कार्यक्षेत्र में उतना ही महत्वपूर्ण और सफल होता है। आज का युवा मात्र किस्मत और भगवान पर निर्भर रहने के स्थान पर पुरुषार्थ यानि मेहनत और कर्म कर अपना कॅरियर बनाने में विश्वास रखता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी युगों पहले कर्म के इसी महत्व को बताकर युद्ध में अर्जुन को श्रीमद्भगवद् गीता का उपदेश दिया कि हर व्यक्ति को कर्म करने का अधिकार है। लेकिन कर्म के फल का वह अधिकारी नहीं है। तुम न तो कभी अपने आपको कर्मों के परिणामों का कारण मानो और न ही कर्म करने में आसक्ति हो। श्रीकृष्ण का कर्मयोग का सरल अर्थ है - कार्य को पूरी निष्ठा, ईमानदारी और बिना स्वार्थ से करना।
भगवान श्रीकृष्ण ने भागवद् धर्म स्थापित कर गीता का यही ज्ञान सारे जगत को दिया। भगवान श्रीकृष्ण का उत्तम चरित्र और गीता में बताया ज्ञान एवं दर्शन किसी भी क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति को अपने कार्यक्षेत्र में सफलता प्राप्ति के सूत्र सिखाता है। श्रीकृष्ण ने धार्मिक कर्म व जीवनोपयोगी कर्म के बीच का भेद दूर किया। इसीलिए भारतीय अध्यात्म में योगेश्वर कहलाए भगवान श्रीकृष्ण की जीवन लीलाओं में छिपा विज्ञान आज भी प्रासंगिक है।

श्रीकृष्ण से सीखें कुशल प्रबंधन के गुर


भगवान श्री कृष्ण के जन्म से लेकर आज तक युगों का अन्तर है। किंतु श्रीकृष्ण के चरित्र और व्यवहार में जीवन को जीने के जो सूत्र छुपे हैं, वह आज भी उतने ही मायने रखते हैं, जितने कृष्ण के युग द्वापर में थे। इसलिए वह भगवान ही नहीं लोकनायक के रुप में भी भक्तों को प्रिय हैं।
श्रीकृष्ण के ब्रज में बीते बचपन से लेकर कुरुक्षेत्र के मैदान तक के जीवन पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करें तो यही पाते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण एक कुशल प्रबंधक और रणनीतिकार थे। आज भी जीवन के हर क्षेत्र में उनकी नीतियों का सही उपयोग सफलता का कारण बन सकता है।
श्रीकृष्ण की सफल रणनीति का सबसे बड़ा सूत्र है - कुशलता और सबलता। सफलता के लिए जरुरी है - किसी भी क्षेत्र या विषय का ज्ञान पाकर दक्ष और कुशल बने। इसके साथ व्यावहारिक सोच रखें। यही योग्यता आपकी सबसे बड़ी ताकत होगी, जो आपको जिंदगी की दौड़ में आगे तक ले जाएगी।
श्रीकृष्ण के जीवन में देखें तो पाते हैं कि वह विष्णु अवतार थे यानि वह सबल और कुशल तो थे ही किंतु बचपन में ही उन्होंने उन्होंने बृज में आए हर संकट को न केवल इस बल के सही उपयोग से टाला बल्कि इन संकटों से उबरने के लिए उन्होंने मानवीय रुप में व्यावहारिक संदेश भी ब्रजवासियों को दिए। चाहे वह कालिया दमन हो, इंद्र का अहं चूर करना हो या कंस द्वारा भेजी गई पूतना और दूसरे दानवों का वध।
श्रीकृष्ण ने न केवल हर विपत्ति से मुक्ति दिलाई बल्कि हर बार ब्रजवासियों को उनकी शक्ति, कुशलता और योग्यता का एहसास कराया और उनके आत्मविश्वास को जगाया। यही एक गुणी, सफल और कुशल प्रबंधक की पहचान है।

ऐसे मनाएं बालकृष्ण का बर्थ-डे
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (इस बार १ सितंबर) पर भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के लिए कृष्ण भक्त अपनी श्रद्धा और आस्था प्रगट करने के लिए घर और मंदिरों में सजावट, रोशनी के साथ पूजा और आरती करते हैं। जन्मोत्सव का हर्ष और उत्साह खासतौर पर भगवान के जन्म समय अर्द्धरात्रि में देखते ही बनता है। आप भी श्रीकृष्ण के जन्म की इस रात में भक्ति रस में डूब सकते हैं। यहां बताई जा रही है कि किस तरह होना चाहिए, श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की सुबह से लेकर रात तक की तैयारी और उत्सव -

- सुबह से ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और व्रत का संकल्प और पूजा के समय केले के पत्तों से खंभे और आम या अशोक के पत्तों से घर के दरवाजे सजाएं।
- रात्रि को बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक रुप में ककड़ी फोड़कर भगवान् श्री कृष्ण का जन्म कराएं और जन्मोत्सव मनायें।
- अर्द्धरात्रि में बालकृष्ण की मूर्ति या शालग्राम की प्रतिमा का विधि-विधान से पंचामृत स्नान करें।
- स्वयं या किसी योग्य ब्राह्मण से बालकृष्ण का षोडशोपचार पूजन करें।
- पूजा में श्रीकृष्ण को पोशाक और आभुषण पहनाएं। बालकृष्ण को झूले में बैठाएं।
- जन्मोत्सव के बाद धूप, दीप, कर्पूर जलाकर कर एक सुर में भगवान की आरती करें और नैवेद्य में मक्खन जरुर चढ़ाएं।
- भगवान के भोग में एक रोचक बात यह है कि इसमें भगवान श्री कृष्ण के साथ माता देवकी और यशोदा के लिए भी भोग लगाया जाता है। जिस तरह सामान्यत: प्रसूता को जो पदार्थ खिलाए जाते हैं, जिनमें अजवायन से बनी मिठाई, नारियल, खजूर, अनार, धनिये की पंजेरी, नारियल की मिठाई और तरह-तरह के मेवे के प्रसाद का भोग लगावें।
- जन्म के बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर भजन-कीर्तन कर जन्मोत्सव का आनंद मनाएं।
- प्रसाद बांटें। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन प्रसाद और चरणामृत ग्रहण करने से मात्र से ही सभी पापों से छुटकारा मिल जाता है।


यह है श्रीकृष्ण की 16 कलाओं का रहस्य

हम अक्सर सुनते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण 16 कलाओं से पूर्ण थे। किंतु इन कलाओं के पीछे क्या तथ्य हैं, यह बहुत कम लोगों को मालूम है। यहां हम आपको बता रहे हैं श्रीकृष्ण की इन्हीं 16 कलाओं का रहस्य-
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में रात को 12 बजे वृषभ लग्न में हुआ। अष्टमी के चंद्रमा को पूर्ण बली कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चंद्रमा की 16 कलाएं होती हैं जो प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक दिखाई देती है। रोहिणी चंद्रमा की सबसे प्रिय पत्नी है। इस काल में चंद्रमा उच्च पर होता है। ऐसे ही काल में चंद्रवंशी होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण चंद्रवंश के संपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में 16 कलाओं से युक्त कहलाएं।
(sabhar dainik bhaskar)

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते

गुरुजी ने भजन समाप्त किया और आवाज लगाई बेटा भोला - 'मैं पंडिताई करने चार-पाँच दिन के लिए पास के गाँव में जा रहा हूँ, तब तक तुम अपने 'बाल-गोपाल' का ध्यान रखना, अपने साथ उन्हें भी नहला देना और जो कुछ अपने लिए बनाओ, उसका भोग उन्हें भी लगा देना।'

भोला ने कहा - 'जी गुरुजी! भोला को ऐसा समझाकर गुरुजी दूसरे गाँव में पंडिताई करने चले गए। दूसरे दिन सुबह जब भोला, गुरुजी की गायों को चराने के लिए जंगल ले जाने लगा तो उसे याद आया कि गुरुजी ने कहा था - 'बाल-गोपाल को भी नहलाना और भोग लगाना।' उसने सोचा गायों को जंगल में छोड़कर गोपाल को नहलाने और भोजन कराना इतनी दूर फिर से कौन आएगा? फिर बाल-गोपाल भी यहाँ अकेले रह जाएँगे, चलो उन्हें भी साथ‍ लिए चलते हैं।

ऐसा सोचकर भोला ने एक पोटली में चार गक्कड़ (मोटी रोटी) का आटा स्वयं के लिए तथा दो गक्कड़ का आटा बाल-गोपाल के लिए लिया, साथ में थोड़ा सा गुड़ रखकर फिर उसी पोटली में बाल-गोपाल की मनोहर छवि वाली पीतल की मूर्ति भी रख ली और गौएं लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा।

भोला दस-बारह वर्ष का, नाम के अनुरूप भोला-भाला ग्रामीण बालक था। पंडितजी गाँव के मंदिर में पूजन करते और भोला उनकी गौएं चराता, मस्त रहता, यही उसका काम था। जंगल में पहुँचकर भोला ने पास ही बहने वाली नदी के किनारे गायों को चरने के लिए छोड़ दिया।

फिर पोटली से 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को निकालकर बोला - जब तक मैं गौएं चराता हूँ तब तक तुम अच्छी तरह नदी में स्नान कर लो। जब मैं भोजन तैयार कर लूँगा, तब तुम्हें भी आवाज लगा दूँगा, आकर भोजन कर लेना।'

ऐसा कहकर भोला ने 'बाल-गोपाल' की मूर्ति को नदी के किनारे रख दिया और गौएं चराने में मस्त हो गया। दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से नदी में दो-तीन डुबकी लगाई और अंगीठी जलाकर गक्कड़ बनाने में जुट गया। भोजन तैयार कर उसने एक पत्तल पर दो गक्कड़ तथा थोड़ा सा गुड़, 'बाल-गोपाल' के खाने के लिए रख दिया तथा चार गक्कड़ और थोड़ा सा गुड़ अपने लिए एक पत्तल पर रख लिया और फिर आवाज लगाई - 'बाल-गोपाल जल्दी आओ, बहुत नहा लिया, भोजन तैयार है।' मगर बाल-गोपाल नहीं आए, भोला ने फिर आवाज लगाई - 'भैया गोपाल... जल्दी आओ... मुझे बहुत जोर की भूख लग रही है।'

कई बार बुलाने पर भी जब बाल-गोपाल भोजन करने नहीं आए, तब भोला को गुस्सा आ गया, उसे जोर की भूख लगी थी और बाल-गोपाल आवाज लगाने पर भी भोजन करने के लिए नहीं आ रहे थे। इस बार भोला ने थोड़े गुस्से में आवाज लगाई - 'गोपाल आते हो या मैं डंडा लेकर आऊँ।' मगर गोपाल तब भी नहीं आए। अब तो भोला का भोला-सा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।

वह डंडा लेकर जैसे ही नदी किनारे की ओर बढ़ा, बाल-गोपाल झट नदी से बाहर निकलते हुए बोले - भैया भोला, मारना नहीं, मैं आ गया, दरअसल मैं तैरते-तैरते नदी में काफी दूर तक निकल गया था। वापस लौटने में देर हो गई।' भोला का गुस्सा शांत हो गया,उसने कहा - 'ठीक है, अब कल से नदी में दूर तक नहीं जाना, बीच में पानी काफी गहरा है।'
फिर दोनों भोजन करने बैठ गए। बाल-गोपाल ने जल्दी से अपने हिस्से की दोनों गक्कड़ें और गुड़ खा लिया फिर भोला से बोले - 'भैया, और दो, बड़े जोर की भूख लगी है।' भोला ने दो गक्कड़ें और थोड़ा गुड़ बाल-गोपाल को और दे दिया। उसके हिस्से में केवल दो गक्कड़ें ही आई। भोला को आज आधे पेट भोजन से ही संतोष करना पड़ा। वह यह सोचकर छह गक्कड़ों का आटा लाया था कि बाल-गोपाल छोटे हैं, ‍अधिक से अधिक दो गक्कड़ें ही खाएँगे, चार उसके लिए हो जाएँगी। ठीक है कल से अधिक आटा ले आऊँगा।

खा-पीकर बाल-गोपाल बोले - 'भैया भोला, अब तुम आराम करो, गौएं मैं चराता हूँ। भोला ने कहा - 'नहीं, तुम छोटे हो, गाएँ तुमसे नहीं संभलेंगी, यहाँ-वहाँ भाग जाएँगी।'

बाल-गोपाल हँसकर बोले -भैया भोला, तुम निश्चिंत रहो, मुझे गायों को चराना आता है, मैं सब संभाल लूँगा।'

भोला ने कहा - 'फिर ठीक है, अगर न संभले तो मुझे आवाज लगा देना, मैं यहाँ लेटा हूँ।'
संध्या को बाल-गोपाल ने भोला को जगाया - 'भैया-भोला उठो, संध्या हो गई घर नहीं चलना?'

भोला हड़बड़ाकर उठ बैठा। अब तक वह बड़ी चैन और शांति की नींद सो रहा था। गायों को इकट्‍ठा कर वह गोपाल से बोला - 'तुम छोटे हो, पैदल चलने से थक जाओगे, मेरे कंधों पर बैठ जाओ, मैं लेता चलूँगा।'
गोपाल ने कहा - नहीं भैया, मैं पोटली में बैठकर ही चलूँगा। 'भोला ने कहा - फिर ठीक है।'
भोला कंधे पर पोटली लटकाए, गायों को हाँकता हुआ घर वापस आ गया।

बाल-गोपाल को मंदिर में बैठा, गायों को बाँधने, चरवन डालने में लग गया। भोला ने शाम का भोजन बनाया और बाल-गोपाल को आवाज लगाई, इस बार वे बड़े जल्दी भोजन करने आ गए। इस बार भोला ने गोपाल और अपने लिए चार-चार गक्कड़ें बनाई किंतु बाल-गोपाल जब भोजन करने बैठे तो चार की जगह छह गक्कड़ें खा गए, बोले - भोला भैया, तुम्हारे गुरुजी मुझे बालक समझकर बहुत थोड़ा सा भोजन खाने के लिए देते हैं जिससे मैं भूखा रह जाता हूँ। भोला को शेष बची दो गक्कड़ें खाकर फिर आधे पेट भोजन करके उठा था। दूसरे दिन सुबह भोला ने कुछ अधिक ही आटा और गुड़ अपनी पोटली में रख लिया परंतु दोपहर में वह फिर भूखा रह गया।

दोपहर तक बाल-गोपाल नदी में नहाते रहे, बुलाने पर जल्दी से आए और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सब गक्कड़ें खा गए। भोला को फिर दो ही गक्कड़ों से संतोष करना पड़ा

भोला भोजन कर सो गया और बाल-गोपाल दिन भर गौएं चराते रहे। शाम को उन्होंने भोला को जगाया, तब भोला गायों को लेकर घर आया। फिर तो यह प्रतिदिन का नियम बन गया। भोला जंगल जाता, बाल-गोपाल दोपहर तक नदी में नहाते, बुलाने पर दोपहर में नदी से निकलकर आते और दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी गक्कड़ें खा जाते, भोला को वही दो की दो गक्कड़ें खाने को मिलती।

वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो ही गक्कड़ें खाने को मिलती। वह प्रतिदिन अधिक आटा लाता, गक्कड़ें भी अधिक बनाता परंतु फिर भी उसे खाने में दो गक्कड़ें ही मिल पातीं, बाकी सब बाल-गोपाल खा जाते, बस एक आराम भोला को मिला, दोपहर वह चैन की नींद सोता और बाल-गोपाल गौएं चराते। भोला को बाल-गोपाल के साथ बड़ा आनंद और सुख मिलता।

इस प्रकार पाँच दिन व्यतीत हो गए। छठवें दिन गुरुजी आ गए। आते ही उन्होंने भोला से पूछा - 'क्यों भोला सब कुछ ठीक तो है न? मेरे बाल-गोपाल को ठीक से नहलाया-खिलाया कि नहीं?'

भोला ने कहा - गुरुजी मैं तो तुम्हारे बाल-गोपाल से तंग आ गया। मैं अपने साथ उन्हें जंगल क्या ले गया, वे वहाँ नदी में मना करने के बाद भी दोपहर तक नहाते और दोपहर में आकर दो गक्कड़ें छोड़कर बाकी सारी की सारी गक्कड़ें खा जाते, मुझे केवल दो ही गक्कड़ें खाने को मिलतीं, शाम को भी यही हाल रहता। मैं तो पाँच दिन से आधे पेट ही भोजन कर रहा हूँ।'

भोला की बात सुनकर गुरुजी को विश्वास ही नहीं हुआ। बोले - भोला क्या कह रहे हो, कहीं ऐसा भी होता है?'
भोला ने कहा - 'गुरुजी पाँच दिनों से ऐसा ही हो रहा है। आपका दिया सारा आटा और गुड़ समाप्त हो गया है। यदि आप आज न आते तब गाँव वालों से सुबह के लिए आटा-गुड़ माँगकर लाना पड़ता।'

गुरुजी बोले मुझे तो विश्वास ही नहीं होता।' भोला ने कहा - आप सुबह मेरे साथ जंगल चलना, मैं आपको सब कुछ आपकी आँखों से दिखा दूँगा।'

अगले दिन भोला गठरी में आटा-गुड़ रखकर तथा बाल-गोपाल को पोटली में‍ बिठाकर फिर जंगल में गौएं चराने गया। पीछे-पीछे गुरुजी भी उसके साथ गए। भोला ने प्रतिदिन की तरह बाल-गोपाल को नहाने के लिए नदी में छोडा तथा गुरुजी के पास आकर बोला - आप दोपहर होने का इंतजार कीजिए। जब मैं भोजन बना लूँगा तब गोपाल को भोजन के लिए टेर लगाऊँगा, आप इस पेड़ के पीछे छिपकर सब कुछ अपनी आँखों से देख लेना।

दोपहर होने पर भोला ने जल्दी से स्नान कर, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, गक्कड़ बनाना शुरू कर दिया, जब गक्कड़ बनकर तैयार हो गई तब उसने प्रतिदिन की तरह आवाज लगाई। बाल-गोपाल जल्दी आओ, भोजन तैयार है। गोपाल झट से गक्कड़ और गुड़ का भोजन करने आ बैठे।

उन्होंने आज भी दो गक्कड़ें भोला के लिए छोड़ी और बाकी सब वे खा गए। बाल-गोपाल भोला के साथ बैठे भोजन कर रहे थे, वे भोला को तो दिखाई दे रहे थे परंतु पेड़ के पीछे छिपे गुरु जी को दिखाई नहीं दे रहे थे। गुरुजी व्याकुलता से उन्हें चारों ओर नजर घुमाकर ढूँढ़ रहे थे। परंतु बाल-गोपाल कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे थे। जब गुरु जी का धैर्य जवाब दे गया तब वे भोला के पास आकर बोले - 'बेटा भोला, मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रहे तुम्हारे बाल-गोपाल।'

भोला ने कहा - 'गुरुजी, बाल-गोपाल तो यहीं बैठे हुए हैं।' मगर बेटा मुझे तो दिखाई नहीं दे रहे।' गुरुजी ने कहा।

अब तो भोला को गुस्सा आ गया। उसने कहा 'क्यों बाल-गोपाल, यह आँख-मिचौली का खेल छोड़कर गुरुजी के सामने आते हो या मैं डंडा उठाऊँ।' तब बाल-गोपाल कहने लगे - अरे! नहीं भोला भैया, मारना नहीं, मैं पानी पीकर अभी आता हूँ।' भोला ने कहा 'ठीक है, जल्दी आओ।'

गोपाल जब नदी से पानी पीकर लौटे तब उनके रूप को देखकर भोला भी चक्कर में पड़ गया। सिर पर मोर मुकुट, हाथ में बाँसुरी, तन पर पीताम्बर अधरों पर मधुर मुस्कान।

गुरुजी झट से दौड़कर अपने प्रभु के चरणों में गिर पड़े, नेत्रों से अश्रुओं की ‍अविरल धारा प्रवाहित होने लगी। कंठ अवरुद्ध हो गया, चेहरे पर अपूर्व हर्ष। गुरुजी चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे और बाल-गोपाल खड़े-खड़े मंद-मंद मधुर मुस्कान बिखेर रहे थे। अंत में गुरुजी के अवरुद्ध कंठ से बोल फूटे -
'मोहन प्रेम बिना नहीं मिलते,
चाहे कर लो कोटि उपाय।'

भोला दूर खड़ा सोच रहा था ये तो प्रतिदिन वाले बाल-गोपाल नहीं हैं, बाल-गोपाल ने आज यह कौनसा नया रूप धारण कर लिया है?

जगत के आधार, परमपिता परमेश्वर, परब्रह्म जो बड़े-बड़े ज्ञानियों और ध्यानियों तथा भक्तों को भी स्वप्न में एक झलक नहीं दिखाते वे आज भोला के भोलेपन पर रीझकर, प्रेमवश उसके समक्ष साक्षात् खड़े थे। धन्य है भोले बालक का यह निश्छल प्रेम।
साभार : देवपुत्र

बहुपति प्रथा

आज से कोई 36-37 साल पहले जब मैंने पत्रकारिता शुरू ही की थी, मेरी नजरों में एक ऐसा लेख आया जिसे पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया। यह लेख हिमालय के सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाली एक ऐसी जाति के बारे में था, जिसमें एक ही औरत के तीन-चार पति तक हो सकते थे। लेख में बताया गया था कि इस जाति या कबीले में शताब्दियों से यह रिवाज रहा है कि बड़ा भाई शादी करता है और उसकी पत्नी उसके सारे भाइयों की भी पत्नी बन जाती है।

तब तक मैंने महाभारत में द्रौपदी की कथा ही पढ़ी थी, जिसे अर्जुन ने स्वयंवर में जीता था और वह पाँचों पांडवों की पत्नी बनी थी। मुझे कुंती का यह फैसला बेहद गलत लगा था कि द्रौपदी पाँचों पांडवों की पत्नी होगी। मुझे इस बात से भी धक्का लगा कि द्रौपदी ने अपनी सास कुंती के इस फैसले को चुपचाप कैसे मंजूर कर लिया। उसकी ऐसी क्या मजबूरी थी? वह तो सौंदर्य की देवी थी। एक शक्तिशाली राज्य की राजकुमारी। मुझे यह भी काफी विचित्र लगा कि अर्जुन और उसके सखा कृष्ण ने भी यह अन्याय होने दिया। फिर यह सोचकर की महाभारत सिर्फ कथा ही तो है, मैंने इस प्रश्न पर सोचना बंद कर दिया।
लेकिन 36-37 साल पहले पढ़ा गया लेख तो एक जीती-जागती स्त्री के बारे में था, जिसके शायद तीन पति थे। तीनों सगे भाई थे और तीनों से उसके चार या पाँच बच्चे थे। लेख में बताया गया था कि बड़ा भाई ही सब बच्चों का पिता कहलाता है और भरा पूरा परिवार प्रेम से रहता है। लेख में इसे एक रिवाज-एक परंपरा बताकर बिना किसी निष्कर्ष के ऐसे ही छोड़ दिया गया था। बात आई-गई हो गई। हाल ही में मैंने 'न्यूयॉर्क टाइम्स' में छपी एक रिपोर्ट देखी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि हिमालय के एक दूरस्थ इलाके में एक ही स्त्री के कई पतियों के साथ रहने की परंपरा विलुप्त हो रही है।
यह रिपोर्ट ७० साल की एक वृद्धा बुद्धि देवी के बारे में थी, जिसने 14 साल की उम्र में अपने से छोटे उसी गाँव के एक किशोर से शादी की और जब उस किशोर का भाई बड़ा हो गया तो वह भी उसका पति बन गया। यह स्त्री आज विधवा भी है और सधवा भी। बड़ा भाई मर चुका है, मगर छोटा भाई जिंदा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि हिमालय की दूरस्थ घाटियों में बहुपति प्रथा शताब्दियों पुरानी है और इसे भौगोलिक, आर्थिक और मौसम से संबंधित जटिल समस्याओं के समाधान के रूप में देखा जाता रहा है।
इन लोगों के पास पहाड़ की ऊँचाइयों पर बहुत कम जमीन होती है जिस पर खेती करने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है। परिवार में यदि बँटवारा होने लगे तो भाइयों के बच्चों के हिस्से में इतनी सी जमीन आएगी कि उस पर खेती करना मुश्किल होगा। इसलिए साझा जमीन ने भाइयों के बीच स्त्री को साझा करने का तर्क दिया होगा।

बुद्धि देवी ने संवाददाता को बताया कि हम काम करते थे और खाते थे, और बातों के लिए हमारे पास वक्त नहीं होता था। उसने कहा कि जब तीन भाइयों की एक ही पत्नी होगी तो तीनों शाम को एक ही घर में वापस आएँगे। वे घर की हर चीज में बराबर के हिस्सेदार हैं और सिर्फ उस स्त्री को ही यह पता होता है कि किस बच्चे का बाप कौन है लेकिन पिता सबसे बड़ा भाई ही कहलाता है। बाकी सब भाई चाचा ही कहलाते हैं, हालाँकि बच्चों को भी यह पता होता है कि उनका असली बाप कौन है। इस मामले में स्त्री ने जो कह दिया वही अंतिम होता है। कोई उसके फैसले पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। उसके कारण सब बंध कर रहते हैं।
रिपोर्ट कहती है कि बहुपति की यह प्रथा आज खत्म हो रही है और लाहुल स्पीति के संबद्ध लोगों को इसका जरा भी मलाल नहीं है। वहाँ सड़कें बन गई हैं, स्कूल खुल गए हैं और आर्थिक सुधारों की बदौलत विकास का काम हुआ है। लोगों को रोजगार मिला है। आज की पीढ़ी इस बारे में सोचना तक नहीं चाहती है। और परिवार का हरेक भाई विवाह करता है और फिर औरों जैसा वैवाहिक जीवन जीता है।
इस परंपरा के पक्ष में कुछ भी कारण गिनाए जाते रहे हों, मगर यह परंपरा स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझने का ही एक भयावह रूप है। यह स्त्री विरोधी तो है ही। भारत भर में कहीं भी सामान्य तौर पर बहुपति प्रथा नहीं है और आज यह संतोष की बात है कि हिमालय में शताब्दियों तक अपवाद स्वरूप जो होता रहा, वह भी खत्म हो रहा है।

यह एक प्रगतिशील घटनाक्रम है। इसी तरह हमारे यहाँ बहुपत्नी प्रथा भी सामान्य बात नहीं रही है। मुसलमानों को चार बीवियाँ रखने का हक जरूर है, मगर आमतौर पर ज्यादातर मुसलमान एक बीवी ही रखते हैं। अगर एक से ज्यादा बीवी रखने का अनुपात निकाला जाए तो हिंदुओं और मुसलमानों में शायद ही कोई अंतर मिले। दरअसल जितनी बुरी बहुपति-प्रथा है, उतनी ही बुरी बहुपत्नी प्रथा भी है। अतीत में राजाओं की अनेक रानियाँ जरूर होती थीं, मगर प्रजा की नहीं।
भारत आनेवाले विदेशी यात्रियों ने भारतीय परिवारों का जो चित्र खींचा है उसमें प्रायः एक ही पति और एक ही पत्नी वाले परिवार की उपस्थिति दिखाई देती है। ऐसा माना जाता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाले भारत में पुत्र की चाह का ही बोलबाला रहा है। वंश चले इसलिए बेटा जरूरी है। वह न रहे तो उसके विकल्प के लिए दूसरा, तीसरा और चौथा बेटा जरूरी है, फिर चाहे दो या तीन विवाह भी करने पड़ें। खेतिहर समाजों में भी बेटों की जरूरत सबसे ज्यादा होती है तो व्यापार में भी। इसलिए औद्योगिकीकरण से पहले परिवारों को तभी पूर्ण समझा जाता था, जब बेटा पैदा हो जाए।
धन और यश के साथ पुत्रेषणा भी जुड़ गई। आज जब हर क्षेत्र में लड़कियाँ लड़कों को चुनौती दे रही हैं तब भी बेटी पर बेटे को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में कम नहीं हो पा रही है। हर साल हजारों-लाखों बच्चियाँ तो पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं। हो सकता है विकास के साथ बेटी को बेटा समझने की मति विकसित हो जाए और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो। पर अभी तो बेटे की चाह कम नहीं हुई है।
पर इस सवाल का तार्किक जवाब आज भी नहीं मिलता कि द्रोपदी को पाँच पतियों का अभिशाप क्यों झेलना पड़ा? द्रोपदी ने खुन पांडवों का वरण नहीं किया बल्कि यह कुंती की गहरी योजना का परिणाम था। आजकल ऐसे इतिहासकार भी हैं जो प्राचीन भारत को समझने के लिए महाभारत को भी एक सूत्र के रूप में देखते हैं। वे तर्क देते हैं कि जहाँ रामायण एक आदर्शवादी काव्यग्रंथ है, वहीं महाभारत में हमारा यथार्थवादी इतिहास झलकता है। मनुष्य जाति की ऐसी कौन सी प्रवृत्ति है जिसकी झलक महाभारत में नहीं मिलती? इसलिए यह संभव है कि जिसे हम एक विराट काव्यमय कथा के रूप में देखते-सुनते आएँ हो, उसमें सचमुच का इतिहास भी रहा हो।
बहरहाल, कोई भी सांसारिक पुरुष या कोई भी स्त्री कई पुरुषों से या कई स्त्रियों से एक साथ प्रेम नहीं कर सकती। यानी एक स्त्री एक से अधिक पतियों से समान प्रेम कर ही नहीं सकती। यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। इसीलए बहु पत्नी या बहु पति वाली व्यवस्था विवाह संस्था की एक विसंगति नहीं बल्कि विकृति के रूप में ही देखी जाएगी। आज के आधुनिक समाज में इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसीलिए न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट स्त्री जाति के लिए एक शुभ संकेत है।

फलों से पाएँ ब्यूटीफुल स्कीन

सेहत और सौन्दर्य के लिए
* शरीर में खून की कमी को दूर करने के लिए एवं एनीमिया जैसी बीमारी पर काबू पाने के लिए काले अंगूर, केला, प्याज, गाजर, टमाटर जैसे फल और सब्जियाँ खानी चाहिए। जिनमें लौह तत्वों की मात्रा ज्यादा हो उनका सेवन ज्यादा करना चाहिए। ऐसा करने से शरीर में रक्त की कमी दूर होकर हीमोग्लोबिन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है।
* तनाव से मुक्ति के लिए दही, सीडस्‌ और अंकुरित धान्य का इस्तेमाल ज्यादा करना चाहिए। इन सब में ज्यादा मात्रा में विटामिन होते हैं। इसी के साथ ही कैल्शियम, मैग्नीशियम और अन्य खनिज क्षार युक्त सब्जियों का भी भरपूर मात्रा में सेवन करना चाहिए।

* खूनी बवासीर से छुटकारा पाने के लिए नील के बीज को पानी में उबाल लें। इसको मक्खन के साथ इस्तेमाल करें। ऐसा करने से रोग में आराम मिलता है।
* एलर्जी से छुटकारा पाना हो तो एक प्याला गर्म पानी में थोड़ा सा नींबू का रस और शहद मिलाकर रोजाना सुबह-शाम लें।
* स्वस्थ शरीर और सुंदर त्वचा के लिए गाजर, बीट रूट, पालक, थोड़ी काली मिर्च और नमक मिला जूस रोजाना पीएँ। दिन में कम से कम आठ-दस गिलास पानी जरूर पीएँ और ताजे फल और सब्जियों का इस्तेमाल भरपूर मात्रा में करें।
* एंफ्लूएंजा यानि फ्लू में रोगी को प्याज के रस में शहद मिलाकर देने से रोग में फायदा होता है।
(sabhar webdunia.com)
* दुबलेपन की समस्या से छुटकारा पाकर अगर मोटा होना चाहते हैं तो आम और दूध का शेक बनाकर दिन में तीन बार पीना चाहिए।

तीज का त्योहार

सुहागिनों का प्रिय त्योहार है तीज
भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीया को कजरी-तीज का त्योहार मनाया जाता है। इस अवसर पर सुहागिनें कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को रतजगा किया जाता है। महिलाएं रात भर कजरी खेलती तथा गाती हैं। कजरी खेलना और कजरी गाना दोनों अलग चीजें हैं। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता है। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दु:ख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।
कैसा है स्वरूप

इस दिन महिलाएं नदी-तालाब आदि से मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बो देती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियां अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को जरई खोंसना कहते हैं। कजरी का यह स्वरुप केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित है। यह खेल गायन करते हुए किया जाता है, जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता है। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। सूरदास, प्रेमधन आदि कवियों ने भी कजरी के मनोहर गीत रचे थे, जो आज भी गाए जाते हैं।
कजरी तीज को सतवा तीज भी कहते हैं। यह माहेश्वरी समाज का विशेष पर्व है जिसमें जौ, गेहूं, चावल और चने के सत्तू में घी, मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनाते हैं और चंद्रोदय होने पर उसी का भोजन करते हैं। इसे सातुड़ी तीज भी कहते हैं।

रमजान में बरसती है अल्लाह की रहमत

ईस्लाम धर्म का रमजान महिना बहुत पवित्र माना जाता है। इस्लामी मान्यताओं में रमजान के पवित्र महीने के दौरान ही अल्लाह के पवित्र संदेश देवदूत जिब्राइल के माध्यम से पैगम्बर मुहम्मद को प्राप्त हुए, जो कुरान के रूप में लिखे गए। इसी की याद में पूरी दुनिया में रमजान माह खास त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।

इस पूरे माह इस्लाम धर्म परंपराओं में आस्था रखने वाला हर जन पूरी तरह से भोजन और सुख-सुविधाओं से दूर होकर अल्लाह को समर्पित हो जाते है। यह भी माना जाता है कि इस महीने में जन्नत यानि स्वर्ग के द्वार खुले होते है और जहन्नुम अर्थात् नरक के द्वार बंद रहते हैं।
रमजान मुसलमानों के लिए मात्र धार्मिक प्रथा ही नहीं बल्कि अच्छा जीवन जीने के सूत्र देता है। इस माह में रोजा रखना संयम, आत्म-अनुशासन और सहनशीलता की सीख देता है, जो जीवन के लिए बहुत महत्व रखते है। मुसलमानों के लिए यह माह अल्ल्लाह से निकटता का एक मौका माना जाता है। क्योंकि इस्लाम का दर्शन है कि अल्लाह को वह शख्स ही प्यारा है, जो नेक होता है। इस माह में पैगंबर की तरह इंसानियत की रक्षा के लिए पवित्र आचरण और व्यवहार करने वाले ही अल्लाह की रहमत का हकदार बनते हैं।
इस माह की पावन और नेक संदेश से भरे होने के कारण ही इस माह में मुसलमान के साथ अन्य धर्म के लोग भी इस्लाम धर्म की पंरपराओं में शामिल होते हैं। इस माह में नमाज, इबादत, रोजा रखकर हर कोई अल्लाह से रहमत और बरकत की कामना करता है। ताकि तमाम परेशानियों और तकलीफों से बचकर खुशहाल जीवन जी सके।

भागवत: 56 ;लोभ ही सभी पापों की जड़ है

हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु प्रतिदिन चार-चार हाथ बढ़ते थे। लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति और हिरण्यकषिपु का अर्थ है भोगवृत्ति। भगवान श्रीराम ने क्रोध यानि रावण को मारने के लिए तथा शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही अवतार लिया था। किंतु लोभ को मारने के लिए भगवान को दो अवतार लेना पड़े हिरण्याक्ष के लिए वाराह और हिरण्यकषिपु के लिए नृसिंह अवतार।

हिरण्याक्ष की इच्छा हुई कि स्वर्ग में से सम्पत्ति ले आऊं। दिन-प्रतिदिन उसका लोभ बढ़ता गया। एक बार वह पाताल में गया। वहां उसने वरूण से लडऩा चाहा। वरूण ने कहा युद्ध करना है तो वाराह नारायण से युद्ध करो। हिरण्याक्ष ने वाराह भगवान को युद्ध के लिए ललकारा। मुष्ठि प्रहार करके भगवान ने हिरण्याक्ष का संहार किया और पृथ्वी का राज मनु महाराज को सौंप दिया।
मनु से उन्होंने कहा कि धर्म से पालन करना और वे बद्रीनारायण के स्वरूप में लीन हो गए। तृतीय स्कंध में दो प्रकरण हैं पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। हम पढ़ चुके हैं स्वयंभू मनु की रानी का नाम शतरूपा था। मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद। उनकी तीन कन्याएं थी आकुति, देवहूति और प्रसूति। आकुति का रूचि से, देवहूति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष से विवाह हुआ था। कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान आए थे।

रुह को नेक बनाता है रोजा

मुस्लिम समाज की एक धार्मिक प्रथा है - रमजान में रोजा रखना। रोजा रखना इस्लाम धर्म में बताए गए पांच जरूरी कर्तव्यों में से एक है। 12 वर्ष की उम्र के ऊपर हर मुसलमान रमजान में रोजा रखता है। रमजान के महीने के दौरान मुसलमान रोजा यानि उपवास रखते हैं जिसमें वे भोजन नहीं करते, पानी नहीं पीते, धूम्रपान और अनेक प्रकार की सुख-सुविधाओं का त्याग करते हैं।

रोजों के धार्मिक अहमियत पर विचार करें तो यही बात साफ है कि रोजे के दौरान हर व्यक्ति अल्लाह की इबादत में डूबा होता है। हर कोई अल्लाह के आगे सजदा कर उनकी रहमत चाहता है। अल्लाह के खयालात ही उसे बुरी सोच और कामों से दूर रखते हैं। इस तरह रोजा रोजेदार को हर वक्त नेक बनने का ही सबक देता है। पूरे रमजान माह यही अभ्यास रुह और आदतों को पवित्र बना देता है। इस्लामी मान्यता भी यही है कि अल्लाह ही जानता है कि कौन सच्चा रोजेदार है और उसी पर वह रहमत करता है। इसलिए न केवल रमजान में बल्कि जिंदगीभर नेक दिल से जीना और रहना सीखें।

रमजान के रोजों को न केवल धार्मिक महत्व है, बल्कि इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। एक ओर रोजा किसी भी व्यक्ति को शारीरिक लाभ देता है, बल्कि मानसिक रुप से भी मजबूत बनाता है। क्योंकि सालभर के दौरान दैनिक जीवन की आपाधापी में हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक परेशानियों से गुजरता है। इससे जहां उसका मन अशांत रहता है, वहीं तरह-तरह के खान-पान से भी उसके शरीर के अंग और क्रियाएं प्रभावित होती है। जिसे शरीर में हरारत आना भी कहा जाता है।

किंतु रमजान के नियमित रोजे रखने से व्यक्ति के जेहन में एक ओर अल्लाह का ख्याल रहता है और वह धर्म और अध्यात्म से जुड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर रोजे के नियम और संयम से खान-पान शरीर की क्रियाओं को आराम देकर थकान और दोषों को दूर करते हैं। इस प्रकार रमजान के पूरे माह रोजेदार पवित्र विचारों और व्यवहार के बीच रहने से मानसिक शांति और नई शारीरिक ऊर्जा से भर जाता है, जिससे वह न केवल पूरे साल बल्कि जीवन को संतुलित बनाए रखने में सहज हो जाता है।
(साभार दैनिक भास्कर)

सोमवार, 23 अगस्त 2010

दादी की कहानी

जब मैं और छोटा था तब मेरी दादी यह कहानी सुनाया करती थी। एक बार की बात है। सात बहनें थी। छः बहनें पूजा-पाठ करती थीं लेकिन सातवीं बहन नहीं। एक बार गणेशजी ने सोचा मैं इन सात बहनों की परीक्षा करता हूँ। वे साधु के रूप में आए और दरवाजा खटखटाया। पहली बहन से गणेशजी ने कहा- मेरे लिए खीर बना दो, मैं बड़ी दूर से आया हूँ। उसने मना कर दिया। ऐसे छः बहनों ने मना कर दिया लेकिन सातवीं बहन ने हाँ कह दी। उसने चावल बीनना शुरू किए और फिर खीर बनाना शुरू की।
अधपकी खीर उसने चख भी ली फिर साधु महाराज को खीर दी। साधु ने कहा- तुम भी खीर खा लो। सातवीं बहन ने कहा मैंने तो खीर बनाते-बनाते ही खा ली है। गणेशजी अपने पहले वाले रूप में आए और कहा मैं तुम्हें स्वर्ग ले जाऊँगा। बहन ने कहा कि मैं अकेले स्वर्ग नहीं जाऊँगी। मेरी छः बहनों को ले चलिए। गणेशजी खुश हुए और सबको स्वर्ग ले गए। स्वर्ग में मजे से घूमने के बाद सभी वापस आ गए। कहानी खतम।
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कस्बाई संगीतकार

एक था गधा जिसका नाम था ग्रुफेर्ड। वह बहुत बूढ़ा हो गया था। एक दिन वह थकाहारा और उदास होकर घास पर पड़ा हुआ था। तभी वहाँ एक कुत्ता आया। कुत्ते का नाम था पैकेन। हलो ग्रुफेर्ड, तुम कैसे हो' कुत्ते ने पूछा। बिल्कुल खराब। देख मैं बूढ़ा हो गया हूँ और ज्यादा काम नहीं कर सकता, इसलिए मेरा मालिक मुझसे नाराज रहने लगा है। कल वह मुझे मेरे चमड़े और कुत्तों के भोजन के‍ लिए बेच देगा। अत: मैं हार छोड़कर जा रहा हूँ।

तुम कहाँ जा रहे हो, मेरे दोस्त। कुत्ते ने पूछा। ब्रेमेन। बड़े कस्बे में। वहाँ मेरा भाई रहता है जो कस्बे के एक संगीतकार के यहाँ रहकर तुरही बजाता है। मैं वहाँ जाकर वीणा बजाऊँगा। पर मेरे दोस्त तुम क्यों दुखी हो।' गधे ने कुत्ते से पूछा।

मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ। मेरा मालिक ज्यादातर शिकार पर जाता है पर मैं पीछे रह जाता हूँ इसलिए उसने मुझे खाना देना बंद कर दिया है और कल वह मुझे मार डालेगा।' पैकेन ने दुखी स्वर में कहा। 'मार डालेगा तो ऐसा करो कि तुम भी मेरे साथ ब्रेमेन चलो। मैं वीणा बजाऊँगा और तुम तबला।'

बहुत अच्छा। मुझे तबला बजाना भी अच्छी तरह आता है। मैं तुम्हारे साथ ब्रेमेन चलूँगा। खुश होकर पैकेन ने कहा। गधा और कुत्ता चलते-चलते जंगल में सड़क किनारे उन्हें एक बिल्ली मिली जो लगातार दुख से रो रही थी। दोनों ने बिल्ली से पूछा 'क्या बात है बहन, तुम इतनी दुखी क्यों हो?

मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मेरे दाँत भी नहीं हैं। अत: मैं चूहे नहीं पकड़ सकती हूँ। मेरी मा‍लकिन ने मुझे खाना देना बंद कर पानी में फेंक दिया। अब मैं बचकर तो आ गई हूँ पर क्या करूँ? कैसे जिऊँ बची जिंदगी? बार्टपुट्‍जर नामक बिल्ला ने दुखी आवाज में कहा।
'क्या तुम गा सकती हो।' गधे ने पूछा।
'क्यों नहीं मैं बहुत ऊँची आवाज में गा सकती हूँ।'
'तो मेरे साथ ब्रेमेन चलो। ग्रुफेर्ड गधे ने कहा।
हाँ, ग्रुफेर्ड वीणा बजाएगा और मैं तबला और तुम गाना।' खुश होकर पैकेन कुत्ते ने कहा।
तीनों इकट्‍ठा होकर चलने लगे। दोपहर में तीनों एक गाँव में पहुँचे जहाँ एक फार्म हाउस की दीवार पर एक मुर्गा कराह रहा था।
'तुम क्यों कराह रहे हो?' गधे ने मुर्गे से पूछा।
मेरा नाम रोटकोफ है। कल रविवार है इसलिए कोई व्यक्ति आकर मुझे खरीदेगा और काटकर मेरा भोजन बनाएगा। इसलिए मैं रो रहा हूँ।'
तुम्हारी आवाज बहुत अच्छी है। अत: तुम मेरे साथ ब्रेमेन चलो। वहाँ पैकेन कुत्ता तबला बजाएगा। मैं वीणा बजाऊँगा। बिल्ली गाएगी और तुम ऊँची आवाज में उसका साथ देना।

हाँ यह अच्छा रहेगा। मैं तुम्हारे साथ ब्रेमेन चलूँगा। मुर्गे ने कहा।
चारों एकत्र होकर आगे बढ़ने लगे। चारों थके हुए थे, पर दुखी नहीं। सबको मालूम था कि दुनिया में साथ देने के लिए तीन दोस्त भी हैं।

शाम हो गई थी। चारों भूखे भी थे। चलत-चलते गधे ने कहा 'हम कहाँ सोएँगे?'
झाड़ के नीचे। कुत्ते ने कहा 'पर बाहर बहुत ठंड है और सोना बहुत मुश्किल होगा।
बिल्ली बोली।
पास ही में मुझे घर का प्रकाश दिख रहा है। मुर्गा बोला।
तो चलो हम वहाँ चलें। शायद मुझे एकाध हड्‍डी मिल जाए। कुत्ता बोला, और मुझे थोड़ा सा दूध। बिल्ली ने बात पूरी की।
चारों धीरे-धीरे चलकर घर तक पहुँचे। सबसे आगे चलकर गधा खिड़की तक पहुँचा।
'क्या है अंदर।'
'एक बड़ी सी टेबल जिस पर खाने का ढेर सारा सामान। कुछ डाकू चारों ओर बैठे हुए हैं और खा-पी रहे हैं।
'क्या करें, कैसे जाएँ अंदर? बिल्ली ने दुखी होकर पूछा।
हम गीत गाएँगे। बहुत ऊँचा और सुरीला गीत।
गधा खिड़की के पास खड़ा हो गया। उसके ऊपर कुत्ता चढ़ गया। कुत्ते के ऊपर बिल्ली और बिल्ली के ऊपर मुर्गा।
सबने मिलकर गाना शुरू किया।
एक....दो.... तीन
म्याऊँ.....
भौ.....भौ....
कूकड़ू...कूं

एक साथ अलग-अलग आवाजों को सुनकर डाकू घबरा गए और जंगल में भाग गए। चारों ने अंदर जाकर बिखरा हुआ खाना छककर खाया और एक-दूसरे से 'शुभ रात्रि' कहकर सोने के लिए चले गए।

गधा बरामदे में, कुत्ता दरवाजे के पीछे बिल्ली अलाव के पास और मुर्गा बालकनी में सो गए।
आधी रात हो गई। डाकू भूखे जंगल में सो नहीं पा रहे थे। डाकुओं के मुखिया ने अपने शागिर्द से कहा 'घर में प्रकाश दिख रहा है। शायद कोई भी नहीं है। जाओ और देखकर आओ जिससे हम आराम से खाना खाकर सो सकें।
जी मुखिया, शागिर्द बोला।
शागिर्द घर में पहुँचा। घर में घुप्प अँधेरा था।
वह मोमबत्ती जलाने के लिए अलाव के पास पहुँचा तो बिल्ली ने उसके मुँह को बुरी तरह से नोंच डाला। वह बाहर जाने के लिए दरवाजे की तरफ भागा तो पैकेन कुत्ते ने उसके पाँव में काट लिया। वह चीखता-चिल्लाता बरामदे में भागा तो गधे ने अपने पाँव का कमाल दिखाकर उसे और ज्यादा लहूलुहान कर दिया। वह बालकनी की तरफ दौड़ा तो मुर्गे की आवाज ने उसे और ज्यादा डरा दिया।

जैसे-तैसे वह ‍गिरता-पड़ता अपने मुखिया के पास पहुँचा और बोला वहाँ अलाव के पास जादूगरनी रहती है जो मुँह नोंचती है। दरवाजे के पीछे एक आदमी रहता है जिसके हाथ में चाकू है और पाँव काटता है। बरामदे में राक्षस रहता है जो पिटाई करता है और बालकनी में कवि जो गाता भी है और डराता भी है। इसके बाद डाकू उस घर में नहीं गए और चारों दोस्त उसी मकान में आराम से रहने लगे।

गणेश को राखी भेजती हैं मुस्लिम बहनें

जहां मुस्लिम बहनें भाई गणेश को राखी भेजती हैं
राखी का त्यौहार भाई-बहन के रिश्तों को एक नई ऊंचाई देता है। भारत में सर्वधर्म सम्भाव के कारण सभी समुदाय इस पर्व को बड़े उत्साह से मनाते हैं। हर बहन इस दिन का बेस्रबी से इंतजार करती है।

पर जिनके भाई नहीं होते उनके दिल पर क्या बीतती होगी? इसी कारण कुछ मुस्लिम युवतियों ने एक नई परिपाटी को जन्म दे दिया। उन्होंने गणेश जी को ही राखी भेजना शुरू कर दिया। यह कोरी कल्पना नहीं बल्कि हकीकत है।
ऐसा होता है उज्जैन स्थित गणेश मंदिर में। यह गणेश मंदिर, महाकाल मंदिर के पास ही स्थित है। यह प्रदेश का शायद ऐसा एकमात्र मंदिर है, जहां मुस्लिम बहनें, हर साल, बड़ी श्रद्धा से भाई गणपति को राखी भेजती हैं।
यहां विदेशों से भी काफी मात्रा में हर साल राखियां आती हैं। भगवान गणेश व उनके मूषक के लिए कपड़े, फल तथा मिठाईयां तक भेजी जाती हैं। बहनें अपनी सुविधानुसार राखी और अन्य सामग्री भेज देती हैं।
हर साल की तरह इस साल भी रक्षाबंधन का पर्व यहां बड़े उत्साह से मनाया जाएगा।

यहां आज भी अभिमन्यु की वीरता के निशान मिलते हैं

महाभारत के युद्ध में कई योद्धाओं ने अपनी अद्वितीय वीरता से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवा लिया था। ऐसा ही एक वीर योद्धा था अर्जुन पुत्र अभिमन्यु। जिस स्थान पर वह वीरगति को प्राप्त हुआ था वहां आज भी उसकी वीरता के निशान मौजूद हैं। उस स्थान का नाम है- अमीन या चक्रव्यूह।
कथा- ऐसा कहा जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध में कौरव सेना की ओर से यहीं पर चक्रव्यूह की रचना की थी। इसमें अर्जुन पुत्र अभिमन्यु प्रवेश तो कर गया था पर कौरव सेना के प्रमुख वीरों द्वारा छल से मारा गया था। माना जाता है कि पहले इस जगह का नाम अभिमन्यु के नाम पर ही था पर बाद में अमीन हो गया।
यहां की परिक्रमा करने का विधान है। कहते हैं कि इससे व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है।
अन्य दर्शनीय स्थल- अमीन के पास ही कर्ण-वध नामक स्थान है। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में जब कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया था तब अर्जुन ने उसे यहीं मारा था। वर्तमान में यहां एक गहरी खाई है।
अमीन से ड़ेढ किलीमीटर दूर जयधर नामक जगह है। कहते हैं कि चक्रव्यूह में अभिमन्यु की मौत का बदला अर्जुन ने जयद्रथ को यहीं मारकर लिया था।
अमीन में ही एक कुण्ड है जिसे वामन कुण्ड कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहीं भगवान ने वामन रूप में जन्म लिया था।
कैसे पहुचें- अमीन एक छोटा सा गांव है जो ऊंचे टीले पर बसा हुआ है। यहां आने के लिए थानेसर, कुरूक्षेत्र, दिल्ली आदि जगहों से आसानी से सवारी वाहन मिल जाते हैं।
दिल्ली-अंबाला रेल लाइन पर भी अमीन स्टेशन है पर छोटी जगह होने के कारण गाडिय़ों के रुकने का समय पहले से पता लगाना अच्छा होगा।

भागवत: ५५ ; ज्ञानी पुरुषों का पतन क्रोध से होता है

जब दिति ने जाना कि उसके गर्भ से राक्षस उत्पन्न होंगे तो वह घबरा गई। तब कश्यप ने कहा कि उनका संहार करने के लिए भगवान नारायण स्वयं आएंगे। जब वे दोनों राक्षस दिति के गर्भ में आए तो उसने विचार किया कि यदि मैं इनको पैदा करूंगी तो ये देवताओं का नाश करेंगे अत: दोनों को 100 वर्ष तक दिति ने गर्भ में रखा। ब्रह्माजी ने दिति के गर्भ में जो दो राक्षस थे उनकी कथा देवताओं को सुनाई।
ब्रह्माजी बोले एक बार मेरे चार मानस पुत्र सनकादि ऋषि बैकुण्ठ लोक गए। सनदकुमार बैकुण्ठ के छ: द्वार पार कर सप्तम द्वार में जब पहुंचे तो वहां द्वारपाल जय-विजय खड़े थे। सनदकुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें रोका। द्वारपालों ने सनदकुमार से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर ही हम आपको प्रवेश करने देंगे तब तक आप यहीं रूकिए। सनदकुमार यह सुनकर क्रोधित हुए। ज्ञानी पुरूष का पतन क्रोध के द्वारा होता है। सनदकुमार क्रोधित हुए अत: उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार पर पहुंचकर उन्हें वापस लौटना पड़ा।
तब सनदकुमारों ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि राक्षसों में विषमता होती है, तुम दोनों के मन में विषमता है अत: तुम राक्षस हो जाओगे। सनकादि ऋषियों के शाप के कारण जय-विजय को दैत्य रूप में तीन बार जन्म लेना पड़ा। सनकादि ऋषियों ने बैकुण्ठ के द्वार पर क्रोध किया था। अत: उन्हें बैकुण्ठ में प्रवेश नहीं मिला, भगवान बाहर ही आ गए थे दर्शन देने।

शिव अराधना

सावन में शिव भक्ति के परिणाम
सावन माह में शिवालयों में शिव भक्ति के लिए भक्त जन उमड़े। हर एक ने भगवान शिव के सामने अपनी तकलीफों और परेशानियों को बांटा और उनको दूर करने के लिए अपनी इच्छाओं, कामनाओं को बताया। शिव को मनाने के लिए अपनी शक्तियों के अनुसार सभी ने तरह-तरह से उपाय किए।

यह सभी जानते हैं कि शिव आशुतोष यानि शीघ्र प्रसन्न होने वाली देवता हैं। इसलिए यह भी निश्चित है कि हर एक को जल्दी ही अपनी इच्छा के फल मिलने वाले हैं। क्योंकि यहां बताए जा रहे हैं शिव भक्ति के सुखद फल। आप स्वयं जान सकते हैं अपनी शिव भक्ति का परिणाम -
भगवान शिव वैद्यनाथ हैं। इसलिए सावन में की भक्ति आपको निरोग कर देगी।
- भगवान शिव महादेव है और शिवलिंग अध्यात्मिक ऊर्जा का भंडार होता है। इसलिए आपके द्वारा की गई शिवलिंग पूजा से आपकी हर कमजोरी और बाधाओं का अंत होगा और आपको अब नया विश्वास, साहस और शक्ति मिलेगी।
- सावन में की गई शिव उपासना आपकी काल और रोग से रक्षा करेगी। क्योंकि शिव महामृत्युंजय है। वह आपको भय से छुटकारा देंगे।
- शिव पूजा से संतान सुख मिलता है। इसलिए सावन में की गई शिव भक्ति हर स्त्री को संतान खास तौर पर पुत्र की कामना पूरी करेगी।
- भगवान शिव कुबेर के स्वामी माने गए हैं। इसलिए आपके द्वारा की गई शिव भक्ति आपको धन कुबेर बना देगी।
- भगवान शिव गृहस्थ जीवन के आदर्श माने गए हैं। इसलिए उनकी शिव उपासना अब आपके परिवार में खुशियां बरसाएगी।
- भगवान शिव की आराधना से कुंवारी कन्याओं को मनोवांछित वर मिलेगा।
- भगवान शिव बुरे कर्म और दुष्टों का नाश करने वाले रहे हैं। इसलिए आपके द्वारा की गई शिवभक्ति आपके विरोधियों के बुरे इरादों पर पानी फेर देगी।
- शिव आराधना जनम-मरण के बंधन से मुक्त करेगी। - भगवान शिव की पूजा से सौभाग्य मिलेगा।
- सावन माह में की गई शिव पूजा से हर मनोकामना पूरी होगी।

(bhaskar se sabhar)

सोनागिरि : सिद्ध क्षेत्र जहां मोक्ष की प्राप्ति होती है

आज के इस तनाव भरे दौर में हर कोई झल्ला जाता है। तब ख्याल आता है कि काश अगली बार मेरा जन्म ही न हो और मुझे मोक्ष मिल जाए। सभी मोक्ष को लेकर गंभीर और चकित हैं कि इस घोर कलयुग में भी क्या मोक्ष की धारणा सच होती है? पर एक ऐसा सिद्ध क्षेत्र भी मौजूद है जो इस मोक्ष की धारणा को सच साबित कर रहा है। वह है- सोनागिरि।

कथा- सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र है। यह दिगंबर जैन संप्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि यहां नंग-अनंग कुमार साढ़े पांच करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए थे। यह क्षेत्र सिद्ध योगियों के बीच बड़ा प्रसिद्ध है।
मंदिरों का गढ़- सोनागिरि में इतने मंदिर हैं कि लोग इसे मंदिरों का गढ़ भी कहने लगे हैं। यहां के मंदिरों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन सभी पर क्रमवार संख्या लिखी हुई है ताकि दर्शनों में असुविधा न हो। यहां छोटे-बड़े कुल 77 जैन मंदिर हैं।
प्रमुख मंदिर- मंदिर संख्या 57 जो पहाड़ी पर स्थित है यहां का मुख्य मंदिर है। यहां भगवान चंद्रप्रभु जी की 11 फीट ऊंची प्रतिमा है। इसी मंदिर में शीतलनाथ और पाश्र्वनाथ जी की भी प्रतिमाएं बड़ी सुंदर हैं।
पहाड़ी को यहां बड़ा पवित्र माना जाता है। इसे यहां लघु सम्मेत शिखर के नाम से जाना जाता है।
कै से पहुचें- सोनागिरि दतिया से 15 किलोमीटर, झांसी से 45 किलोमीटर और ग्वालियर से 64 किलोमीटर दूर है। यह दूरी रेल और बस मार्ग में लगभग समान ही है। यहां आने के लिए आसानी से बसें उपलब्ध हो जाती हैं। छोटा स्टेशन होने के कारण यहां सभी गाडिय़ां नहीं रुकतीं। इसलिए पहले से पता करना अच्छा होगा।
कहां रुकें- यहां रुकने के लिए कई धर्मशालाएं बनी हुई हैं। सभी यात्री प्राय धर्मशालाओं में ही रुकते हैं।