मंगलवार, 30 नवंबर 2010

मोबाइल फोन

बाबू जी, मेरा काम कब तक हो जाएगा? विवेक ने प्रकाश से पूछा। एक सप्ताह लग जाएगा। प्रकाश ने बताया और अन्य लोगों से बातें करने लगा। सब चले गये तब प्रकाश ने विवेक की ओर देखा, जाओ भाई, एक सप्ताह बाद आना। काफी दूर से आया हूं। एक बार आने-जाने में काफी समय लग जाता है। विवेक धीरे से बोला। तो मैं क्या करूं? प्रकाश ने झल्लाते हुए कहा।
कोई फोन नम्बर मिल जाता तो अच्छा रहता। मैं वहां से पूछ लेता और जब आप कहते तब यहां आ जाता। विवेक ने अपनी परेशानी बतायी।
मेरे पास कोई फोन नहीं है। प्रकाश ने कहा, तभी मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी और वह जेब से फोन निकाल कर बातें करने लगा। बात खत्म होने पर उसने मोबाइल फोन को अपनी जेब में रख लिया। विवेक ने कहा, बाबू जी, इसी मोबाइल का नम्बर दे दीजिए।
इस पर प्रकाश ने बिगडते हुए विवेक से पूछा, यह मैंने अपने लिए लिया है या तुम लोगों के लिए? बाबू जी आप नाराज न होइये। परेशान हूं इसलिए नम्बर पूछ रहा हूं। अगर आप बता देंगे तो बडी कृपा होगी। विवेक बोला।
मेरे मोबाइल में पैसा नहीं है, इसलिए नंबर नहीं दे रहा हूं। अगर तुम्हें नम्बर चाहिए तो इसमें रीचार्ज-कूपन भरा दो, फिर जब मन हो तब मुझसे बात कर लेना, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। प्रकाश ने कहा।
यह सुनकर विवेक आश्चर्य से प्रकाश की ओर देखने लगा। फिर उसने कहा, बाबूजी, चलिए मैं रीचार्ज कूपन भरा दूं। प्रकाश विवेक के साथ बाहर की ओर चल दिया। [डॉ. विनय कुमार

तीन कहानियाँ

ईश्वर की खोज
एक सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, पर उसका मन हमेशा अशांत रहता था। एक बार उसके शहर में एक सिद्ध महात्मा आए। उन्
होंने अपने प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने पर ही सच्ची खुशी एवं पूर्ण शांति मिल सकती है। इसलिए ईश्वर की खोज करो और अपने जीवन को सार्थक करो। यह सुनकर सेठ ईश्वर की खोज में लग गया। वह इधर-उधर भटकने लगा। ऐसा करते हुए दो वर्ष बीत गए किंतु ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। वह निराश होकर घर की ओर लौट पड़ा। रास्ते में उसे एक चिर-परिचित आवाज सुनाई पड़ी। उसे कोई बुला रहा था। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि उसके पीछे वही सिद्ध महात्मा खड़े थे, जिन्होंने ईश्वर को ढूंढने की बात कही थी। सेठ उनके पैरों में गिरकर बोला, 'बाबा, मैं अनेक स्थानों पर भटका किंतु मुझे अभी तक ईश्वर नहीं मिले। आखिर मेरी खोज कहां पूरी होगी? आप ने ही कहा था कि सच्ची खुशी ईश्वर के साथ मिल सकती है।' उसकी बात पर महात्मा मुस्कराए और उन्होंने उसे उठाते हुए कहा, 'पुत्र, मैंने सही कहा था। यदि तुमने ठीक ढंग से ईश्वर की खोज की होती तो अब तक तुम उन्हें पा चुके होते।' यह सुनकर सेठ हैरान रह गया और बोला, 'कैसे बाबा?' महात्मा बोले, 'पुत्र, ईश्वर किसी दूर-दराज के क्षेत्र में नहीं तुम्हारे अपने भीतर ही है। तुम अच्छे कर्म करोगे और नेक राह पर चलोगे तो वह स्वयं तुम्हें मिल जाएगा। तुम्हें उसे कहीं खोजने नहीं जाना पड़ेगा। हां, उसे पाने के लिए ईश्वर का नेक बंदा अवश्य बनना होगा।' यह सुनकर सेठ महात्मा के प्रति नतमस्तक हो गया और वापस अपने घर चला आया। घर आने के बाद उसने पाठशालाएं खुलवाईं, लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराया, गरीब कन्याओं के विवाह कराए और अपने पास आने वाले हर जरूरतमंद की समस्या का समाधान किया। कुछ ही समय बाद उसके भीतर की अशांति जाती रही और उसने अपने भीतर नई स्फूर्ति महसूस की।

खुद की पहचान
प्रसिद्ध ऋषि के पास पढ़ने भेजा। श्वेतकेतु की दृष्टि में उसके पिता उद्दालक बहुत बड़े विद्वान थे। वह चाहता था कि वह अपने पिता से ही शिक्षा ग्रहण करे पर उद्दालक ने समझाया , ' गुरु पिता से ऊपर होता है , इसलिए तुम्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के पास ही जाना चाहिए। '
श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां बारह वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि अपने पिता उद्दालक से भी उसे बहुत अधिक ज्ञान हो गया है। उसके व्यवहार में अहं अधिक व नम्रता कम थी। विद्वान उद्दालक श्वेतकेतु की मनोवृत्ति भांप गए। उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा , ' श्वेतकेतु तुमने क्या - क्या पढ़ा ? हमको बताओ। ' श्वेतकेतु बताने लगा , ' मैंने व्याकरण पढ़ा , शास्त्र पढ़ा , उपनिषदों को पढ़ा। ' इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी। सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा , ' श्वेतकेतु क्या तुमने वह पढ़ा जिसको पढ़ने के बाद और कुछ पढ़ने के लिए शेष नहीं रहता ? क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए है ही नहीं ? क्या तुमने वह सुना जिसको सुनने के बाद और सुनने के लिए कुछ बचता नहीं ?' श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया। उसने कहा , ' क्या है वह ? मैं नहीं जानता हूं। मैंने वह पढ़ा नहीं। न सुना , न देखा न प्रयत्न किया। वह क्या है ?'
उद्दालक बोले , ' जाओ फिर से अपने गुरुजी के पास जाओ। उनसे कहो कि वह तुम्हें सिखाएं। जाओ वह पढ़कर आओ। ' श्वेतकेतु गुरु के पास गया। गुरु जी बोले , ' वह तुम्हारे पिता जी के पास ही है , उनसे ही वह ले लो। ' श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था। उसका अहं खत्म हो गया था। व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था। एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा , ' श्वेतकेतु वह तुम हो। ' श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता।


शायर की दावत
ईरान में एक बादशा ह था। उसकी एक शायर से बड़ी गहरी दोस्ती थी। बादशाह का दरबार लगता, दावतें होतीं तो शाय
र भी उसमें शामिल होता। दावत में तरह-तरह के पकवान परोसे जाते। शायर उनका मजा लेता। बादशाह पूछते, 'कहो, दावत कैसी रही?' शायर हमेशा जवाब देता, 'हुजूर दावत तो शानदार थी, पर दावते शिराज की बात कुछ और है।' बादशाह इस उत्तर को सुन परेशान होता। आखिर यह दावते शिराज क्या बला है? कहां होती है? एक दिन उसने यह प्रश्न शायर से पूछ ही लिया।
शायर ने कहा, 'हुजूर यह दावत मेरे शहर शिराज में होती है। कभी शिराज पधारें तो उसका लुत्फ उठाइए।' संयोग से कुछ दिनों के बाद ही बादशाह का शिराज शहर में जाना हुआ। बादशाह ने शायर को बुलाया और कहा, 'तैयारी करो, आज हो जाए- दावते शिराज।' शायर बोला, 'हुजूर, दावते शिराज तैयार है, आप मेरे साथ चलें।' शायर बादशाह को अपने घर ले गया। एक साधारण कुर्सी पर बिठाया, थाली में रोटी-सब्जी और चटनी रखी और बादशाह को पेश कर दी।
बादशाह ने पूछा, ' ये क्या है?' शायर ने कहा, 'हुजूर, यही दावते शिराज है। घर में आए मेहमान को जो कुछ घर में उपलब्ध है, उसे प्रेम और आदर से प्रस्तुत करना ही दावते शिराज है। इसका मजा ही कुछ और है। बादशाही दावतों में लंबे चौड़े आयोजन होते हैं। नौकर-चाकर दौड़ते- भागते हैं। दिखावा ही दिखावा होता है, उसमें यह प्रेम और सम्मान कहां। दावते- शिराज की बात ही कुछ और है।' बादशाह ने प्रेमपूर्वक भोजन किया। बोले, ' ठीक कहते हो। ऐसा शांत अपनत्व भरा भोजन हमारे भाग्य में कहां? दावते-शिराज के सुख का आज हमें पता चला।'

भागवत: १३१: इसलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्यमेध यज्ञ किया उस यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया। जब सगर के पुत्रों ने यज्ञ का अश्व कपिल मुनि के आश्रम में देखा तो उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि की आंख खोलते ही सगर के सभी पुत्र भस्म हो गए। बाद में सगर ने अपने दूसरे पुत्र अंशुमन को अश्व की खोज में भेजा तो उसे कपिल मुनि मिले और उन्होंने कहा यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजल से इनका तर्पण करना होगा। सगर के बाद अंशुमन राजा बना। राजा बनने के बाद अंशुमान ने बहुत यत्न किए लेकिन वह गंगा को धरती पर नहीं ला पाए।

अपने पुत्र दिलीप को राज सौंपकर वह भी वन में चले गए। दिलीप ने भी बहुत यत्न किए लेकिन वह भी गंगा को नहीं ला सके। किन्तु दिलीप के पुत्र भगीरथ की तपस्या से गंगाजी प्रसन्न हुईं और उनको दर्शन दिए। गंगा ने कहा कि मैं पृथ्वी पर आ तो जाऊंगी पर मेरे वेग को कोई न रोक सका तो मैं सीधे पाताल में चली जाऊंगी, फिर मेरा लौटना सम्भव नहीं है। तब भगीरथ ने भगवान शंकर की स्तुति की, उनसे निवेदन किया कि वे अपनी जटा में गंगा को धारण करें। गंगाजी का अवतरण हुआ और सगर पुत्रों को मुक्ति मिली। इसीलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं।
भगीरथ के कुल में सवदास नाम का राजा हुआ, जिसे श्राप रहा और वह नि:संतान रह गया। वशिष्ठ जी ने स्थिति देखी और उनकी पत्नी को अपने तेज से गर्भवती बना दिया। जब उसके यहां संतान पैदा हुई तो उनका नाम अषमग रखा गया। आगे चलकर इसी वंश में खटवांग नामक राजा हुआ। खटवांग के बाद दीर्घबाहु राजा हुआ उसके बाद रघु हुए। उन्हीं के नाम से सूर्यवंश का नाम रघुवंश हुआ। रघु राजा ने कई यज्ञ किए और रघु के घर अज का जन्म हुआ और अज के घर दशरथ का जन्म हुआ और राजा दशरथ के यहां भगवान राम का अवतरण हुआ।

जिनकी होती है छोटी हथेली...

जिनकी हथेली छोटी होती है उनके विषय में सामुद्रिक ज्योतिष कहता है ऐसे लोग स्वार्थी स्वभाव के होते हैं, बिना सोचे समझे कार्य करते हैं।वे हर चीज़ में अपना फायदा और नुकसान देखते हैं लेकिन दूसरों के लिए मुश्किल से ही भला सोचते हैं। लड़ाई-झगड़े से इन्हे बिल्कुल डर नहीं लगता है। इसलिए छोटे से फायदे के लिए भी दूसरों से झगड़ा कर बैठते है।
परोपकार और सामाज सेवा के प्रति इनमें उदासीनता देखी जाती है लेकिन इनमें तुरंत निर्णय लेने की क्षमता होती है। जिसके कारण ये लोग कई बार बहुत फायदे में तो कई बार नुकसान में रहते हैं। इनकी सोच निम्न स्तर की होती है और ये किसी पर भी भरोसा नही करते।

ये व्यक्ति ख्याली पुलाव पकाने वाले होते हैं,इनमें काफी गुण और क्षमता होती है परंतु ये अपनी क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पाते हैं। इस तरह की हथेली वाले व्यक्ति स्वभाव से आलसी होते हैं। अपने आलस के कारण अपने सपनो को साकार करने की दिशा में कदम नहीं बढ़ा पाते हैं। इन्हें डींगे मारने में भी काफी मज़ा आता है परन्तु छोटे हाथ वालों की यह विशेषता होती है कि वे किसी भी चीज को अगर पाने का लक्ष्य बना लेते हैं तो वो इसे प्राप्त करके ही दम लेते हैं।

बस यही बात हमें कमजोर बनाती है....

हम जितने अधीर होंगे उतने ही दीन होते जाएंगे। धैर्य की परीक्षा विपरीत समय पर होती है। अधीरता हमारी शक्ति को खा जाती है। यही शक्ति बल्कि इससे आधी ताकत भी हम समस्या को निपटाने में लगा दें तो परिणाम ज्यादा अच्छे मिल जाएंगे।
आदमी सर्वाधिक परेशान तीन तरह की स्थितियों से होता है। मृत्यु, वृद्धावस्था और विपत्ति। फकीरों ने कहा है इन सबको आना ही है, कोई नहीं बचेगा, लेकिन जो ज्ञानी होगा वो इन्हें ज्ञान के सहारे काट देगा और अज्ञानी ऐसे हालात में रोएगा, परेशान रहेगा। यहां ज्ञान का मतलब है कि हमें यह समझ होना चाहिए कि पूर्वजन्म के भोग तो भोगना ही पड़ते हैं। यह शरीर जाति, आयु और भोग के परिणाम पाता ही है। जिन्हें जीवन में धैर्य उतारना हो वे सबसे पहले समय के प्रति जागरुक हो जाएं। जब भी बुरा समय आए महसूस करें कि सुख में समय छोटा और दु:ख में बड़ा लगता है, जबकि समय होता उतना ही है। अध्यात्म ने एक नई स्थिति दी है। न दु:ख, न सुख इन दोनों से पार जाने की कोशिश करें। इसे महासुख कहा गया है। इस स्थिति में समय विलीन ही हो जाता है। यानी थोड़ा ध्यान में उतर जाएं।
जितना ध्यान में उतरेंगे उतना ही धैर्य के निकट जाएंगे। धैर्य यानी थोड़ा रूक जाना। हालात हिला रहे होंगे और धैर्य आपको थोड़ा स्थिर करेगा। फिर स्थितियों में समस्या स्पष्ट दिखने लगती है। उसके समाधान के उत्तर स्वयं से ही प्राप्त होने लगेंगे। जिनका अहंकार प्रबल है उन्हें धैर्य रखने में दिक्कत भी आएगी। ध्यान, अहंकार को गलाता है। अहंकार का एक स्वभाव यह भी होता है कि वह अपने ही सवाल उछालता रहता है। इस कारण सही उत्तर सामने होते हुए भी हम उन्हें पा नहीं पाते। इसलिए जब भी हालात विपरीत हो जीवन में धैर्य साधें और धैर्य पाने के लिए उस समय ध्यान में उतरने का अभ्यास बनाए रखें।

शव को मुखाग्नि पुत्र ही क्यों देता है?

मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसने जन्म मिला है उसे मृत्यु अवश्य प्राप्त होगी। हिंदू धर्म में मृत्यु के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं। जैसे सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि किसी की भी मृत्यु के बाद शव को मुखाग्नि पुत्र ही देता है। यदि मृत व्यक्ति का पुत्र है तो मुखाग्नि उसे ही देना है, ऐसा विधान है।
मृतक चाहे स्त्री हो या पुरुष अंतिम क्रिया पुत्र की संपन्न करता है। इस संबंध में हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि पुत्र पुत नामक नर्क से बचाता है अर्थात् पुत्र के हाथों से मुखाग्नि मिलने के बाद मृतक को स्वर्ग प्राप्त होता है। इसीलिए मान्यता के आधार पर पुत्र होना कई जन्मों के पुण्यों का फल बताया जाता है।पुत्र ही माता-पिता का अंश होता है। इसी वजह से पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता की मृत्यु उपरांत उन्हें मुखाग्नि दे। इसे पुत्र के लिए ऋण भी कहा गया है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

भागवत: १३०: कपिल मुनि ने राजा सगर के पुत्रों को भस्म किया

श्रीशुकदेवजी ने कहा कि- हे राजा परीक्षित। राजा अम्बरीष के कुल में आगे पुरंजय नाम का शक्तिशाली राजा हुआ। पूर्वकाल में दैत्यों और देवताओं का युद्ध हुआ। देवता पराजित होकर पुरंजय के पास सहायता के लिए आए। पुरंजय ने कहा कि इंद्र मेरा वाहन बनें तो मैं सहायता करूंगा। इन्द्र को स्वीकार करना पड़ा। इंद्र ने बैल का रूप धारण किया। राजा पुरंजय शस्त्र सज्जित होकर उस पर आरूढ़ हुए और देवताओं को विजय दिलाई। चूंकि दैत्यों का पुर जीतकर इन्द्र को दिया था, इसीलिए उनका नाम पुरंजय पड़ा। इन्द्र को वाहन बनाया, इसलिए उनका नाम इंद्रवाह पड़ा और बैल के कंधे पर बैठकर युद्ध किया, इसलिए नाम काकोस्थ पड़ा।

राजा पुरंजय के आगे जाकर पुत्र हुए उसमें सत्यव्रत भी हुआ। यही सत्यव्रत बाद में त्रिशंकु कहलाया। सत्यव्रत के यहां पुत्र हुआ हरिशचन्द्र। हरिशचन्द्र की संतान का नाम सगर पड़ा। सगर ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ के अश्व को इन्द्र ने चुराया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज में पाताल तक खोद डाला। कपिल मुनि के आश्रम में वो घोड़ा दिखा। उन्होंने कपिल मुनि को ढ़ोंगी समझा और ज्यों ही कपिलमुनि ने नेत्र खोला सगर के पुत्र वहीं भस्म हो गए । जब पुत्र नहीं लौटे तो उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से उत्पन्न अंशुमान को खोज के लिए भेजा।
अंशुमान ने वहां पहुंच कर कपिल मुनि को तपस्यारत देखा। उन्होंने मुनि की प्रशंसा की, तब मुनि ने उनको सारी घटना बताई। घोड़ा देते हुए कहा कि वे इससे अपने पिता का यज्ञ सम्पन्न करें और मृत पितरों का गंगाजल से उद्धार करें। गंगाजल के बिना मृत पितरों का उद्धार संभव नहीं है। अंशुमान घोड़ा लेकर वन में प्रस्थान कर गया।

आओ पता लगाएं जल में जीवन

क्या आप कल्पना कर सकते हो कि समुद्र में रहना कैसा लगता होगा? समुद्र में रहने वाले प्राणी हमेशा गतिशील रहते होंगे। तूफान आदि के दौरान जब समुद्र की लहरें बहुत तेज़ होती हैं, तब इन प्राणियों का या होता होगा? मछलियां और अन्य जीव किस तरह ज़िंदा रह पाते होंगे?

मोटे तौर पर यह माना जाता है कि एक समय (4 अरब, 5 करोड़ से भी •यादा साल पहले) जीवन सिर्फ समुद्र और ताज़े पानी में ही था। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पृथ्वी की अपेक्षा समुद्र में अभी भी अधिक जीव निवास करते हैं। समुद्र में जीव-जंतुओं की दो लाख से भी •यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। समुद्री जीव अधिकतर हल्के या उथले पानी में पाया जाता है, जहां कि प्रकाश पहुंच पाता है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हो पाती है।
फिर भी अधिकांश समुद्र में बहुत कम ही जीवन होता है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही भरपूर जीवन होता है और इन क्षेत्रों में मानव ने पहले से ही मत्स्य-क्षेत्र (मछली पकड़ने की जगह) बना रखे हैं। लहरों का उतार-चढ़ाव विश्व के कई हिस्सों में अलग-अलग होता है और संभवत: यही कारण है कि कई वर्ष मत्स्य उत्पादन अच्छा होता है, तो कई वर्ष कम।
समुद्री जीव और पौधे तरंगित जल में जीवित रहने के लिए विभिन्न तरीके अपनाते हैं। गहरे समुद्र में रहने वाले जीव अपना संपूर्ण जीवन पानी में गति करते हुए बिताते हैं। तैरते रहने से ही वे अंधेरी गहराई में धंसने से बचे रहते हैं।
यह ज्ञात हुआ है कि कई प्रजातियां प्रकाश की बदलती स्थिति के चलते कई सौ फुट ऊध्र्वाधर तैरती रहती हैं, जबकि कई अन्य प्रजातियां गहरे दिपावली के दिन कुश को आतिशबाज़ी करने में विशेष आनंद आ रहा था। अचानक ऊपर पेड़ से एक चिड़िया घायल होकर उसके पास आकर गिर गई, शायद पटाखों की किसी िचंगारी ने उसके पंख झुलसा दिए थे।
कुश ने आहिस्ता से चिड़िया को उठाकर अपने हथेली पर रखा और हौले-हौले सहलाने लगा। देखते ही देखते वह चिड़िया स्वस्थ होकर हाथ से फिसली और एक खूबसूरत परी के रूप में बदल गई। ‘तुमने मेरी जान बचाई है बोलो क्या चकहते हो!’- परी ने पूछा। इस अप्रत्याशित कृपा से कुश दुविधा में पड़ गया कि वह क्या मांगे? ‘चलो मैं तुम्हारी मदद करती हूं, बोलो क्या चाहिए... पटाखों का ढेर, मिठाई का पहाड़ या नए वस्त्रों का खज़ाना??’-परी ने पूछा। नहीं इनमें से कुछ नहीं’- कुश ने स्पष्ट इंकार किया।
परी अचरज में पड़ गई, ‘फिर?’ कुश ने सकुचाते हुए कह दिया, ‘मैं भूतों की दीपावली देखना चाहता हूं।’ परी के आश्चर्य में और वृद्धि हो गई। ‘यह कैसी मांग हुई कुश, तुम डरोगे नहीं??’ ‘नहीं.’- कुश बोला। ‘ठीक है, तुम्हारी मर्ज़ी।’- कहते हुए कुछ ही देर में परी ने उसे भूतलोक में पहुंचा दिया। वहां का अद्भुत नज़ारा देख कुश स्तध रह गया।
आशा के अनुरूप वहां पटाखों का जखीरा था। बड़े-बड़े ड्रम के बराबर बने हुए बम, भीमकाय रस्सीबम, विशालकाय फुलझड़ियां और फुटबॉल के समान अनार.. उनके आकार-प्रकार देखकर कुश की आंखें फटी की फटी रह गईं।
कुश जिस विशाल पीपल के पेड़ पर बैठकर यह दृश्य देख रहा था, उसके ठीक नीचे ही आतिशबाज़ी का कार्यक्रम संपन्न होना था। नीचे भूतराजा के नेतृत्व में अनेक भूतगण आतिशबाज़ी करने को उत्सुक दिखाई दे रहे थे। अचनाक कुश के हाथ की पकड़ ढीली हो गई और वह धड़धड़ाते हुए भूतराज के पैरों पर गिर पड़ा। उसे आसमान से गिरते देख सभी भूतगण चौंक गए।
भूतराज ने हंसते हुए कहा, ‘हम सबको डराते हैं और आज इस जीवित प्राणी ने हमें डरा दिया।’ कुश ने साहस जुटाकर कहा, ‘मैं आप सभी को दीपावली की बधाई देने और आपकी दिवाली देखने यहां आया था।’‘यह तो खुशी की बात है जीवित प्राणी, तुम सही समय पर आए। हमारा कार्यक्रम शुरू होने वाला है’- भूतराज बोले।
‘एक बात का डर लग रहा है भूत अंकल, आपके इतने बड़े-बड़े पटाखों की कानफोड़ू आवाज़ मेरे छोटे-छोटे कान कैसे सहन कर पाएंगे? कहीं कान के पर्दे फट तो नहीं जाएंगे।’- कुश ने आशंका व्यक्त की। ‘कानों में रुई ठूंस लो’- एक भूत ने सलाह दी।
कुश सोच में पड़ गया, तो भूतराज खिलखिलाते हुए बोला, ‘हम तो मज़ाक कर रहे थे।’ ‘मज़ाक!!! मैं कुछ समझा नहीं’- कुश ने पूछना चाहा। भूतराज फिर खिलखिला पड़े, ‘अरे बेटे, ये सारे पटाखे नकली हैं या यूं समझ लो कि पर्यावरण-मित्र हैं, केवल ऊपर से इतने बड़े और विकराल दिखाई दे रहे हैं लेकिन अंदर से खाली और फुसफुसे हैं।’कुश को समझ में नहीं आया,
‘पर्यावरण-मित्र पटाखे...किस प्रकार के?’ ‘ये पटाखे कागज़ के बने हैं और इनके अंदर बारूद के स्थान पर सूखी घासफूस और कचरा भरा हुआ है.. जलने पर उसमें सिर्फ रोशनी होगी, धमाके नहीं।’ कुश की आंखों में कौतूहल बढ़ता जा रहा था। ‘विश्वास नहीं हो रहा हो, तो जलाकर दिखाऊं?’- भूतराज ने कहा, तो कुश ने दोनों कानों में उंगलियां डाल लीं।
‘एक राज़ की बात बताऊं, हमें भी पटाखों की कर्कश आवाज़ अच्छी नहीं लगती, उनसे डर लगता है’- भूतराज ने कहा। कुश हैरान हो गया- ‘भूत होकर डर!!’‘यहां पर जितने भी भूत देख रहे हो ये सभी पटाखों से हुई दुर्घटना में मारे गए थे।’- भूतराज ने रहस्य उजागर किया।‘हैं..!!’ कुश का मुंह खुला रह गया।
‘हम सब या तो आतिशबाज़ी से हुई दुर्घटना में मारे गए हैं या पटाखों के कारखानों में काम करते हुए और उसी का फल भुगत रहे हैं.. साथ ही पर्यावरण की क्षति का ध्यान रख रहे हैं’- भूतराज ने भावुक स्वर में कहा। कुश को यकीन हो गया कि ये भूतगण सच बोल रहे हैं। उसका भय कम होने लगा।
वह सोचने लगा.. अब मैं भी अपने घर पर्यावरण के लिए अच्छे पटाखे छोडूंगा और दोस्तों को भी कहूंगा। क्या सोचने लगे, मिठाई खाओगे?’- भूतराज ने पूछा। ‘कहीं आपकी मिठाई भी पटाखों की तरह.!!’, कहते हुए कुश ने वाय अधूरा छोड़ दिया। ‘नहीं भाई हमारी मिठाई बिल्कुल अच्छी है। ठीक वैसी ही जैसी तुम लोग खाते हो’- कहते हुए भूतराज ने एक भूत को मिठाई लाने भेज दिया।

रास्ते की रुकावट

द्यार्थियों की एक टोली पढ़ने के लिए रोज़ाना अपने गांव से 6-7 मील दूर दूसरे गांव जाती थी। एक दिन जाते-जाते अचानक विद्यार्थियों को लगा कि उन में एक विद्यार्थी कम है। ढूंढने पर पता चला कि वह पीछे रह गया है। से एक विद्यार्थी ने पुकारा, ‘तुम वहां क्या कर रहे हो?’उस विद्यार्थी ने वहीं से उदर दिया, ‘ठहरो, मैं अभी आता हूं।’
यह कह कर उस ने धरती में गड़े एक खूटे को पकड़ा। ज़ोर से हिलाया, उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया फिर टोली में आ मिला।’उसके एक साथी ने पूछा, ‘तुम ने वह खूंटा क्यों उखाड़ा? इसे तो किसी ने खेत की हद जताने के लिए गाड़ा था।’
इस पर विद्यार्थी बोला, ‘लेकिन वह बीच रास्ते में गड़ा हुआ था। चलने में रुकावट डालता था। जो खूंटा रास्ते की रुकावट बने, उस खूंटे को उखाड़ फेंकना चाहिए।’वह विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।

हनुमानजी को सिंदूर का चोला क्यों चढ़ाते हैं?


श्रीराम के परमभक्त हनुमानजी आज सभी श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र हैं। हनुमानजी को माता सीता द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त है। ऐसा कहा जाता है कि जहां भी सुंदरकांड का पाठ विधि-विधान से किया जाता है वहां श्री हनुमान अवश्य पधारते हैं। वे जल्द ही अपने भक्तों की सभी परेशानियों का हरण कर लेते हैं। जब भक्त की परेशानियों दूर हो जाती है तब कई श्रद्धालु हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़वाते हैं।
हनुमानजी को सिंदूर का चोला चढ़ाने की परंपरा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। इस प्रथा के पीछे धार्मिक मान्यता यह है कि पवन पुत्र को सिंदूर अर्पित करने से वे अति प्रसन्न होते हैं। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है कि एक दिन हनुमानजी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते देखा। हनुमानजी ने माता सीता से पूछा कि वे मांग में सिंदूर क्यों लगाती हैं? इस पर देवी जानकी ने बताया कि इससे मेरे स्वामी श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है। यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि यदि इतने सिंदूर से श्रीराम की उम्र और सौभाग्य बढ़ता है ता मैं पूरे शरीर पर सिंदूर लगाऊंगा तो श्रीराम हमेशा के अमर हो जाएंगे और इनकी कृपा सदैव मुझ पर बनी रहेगी। इस विचार के बाद हनुमानजी अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगाने लगे।
हनुमानजी की प्रतिमा को सिंदूर का चोला चढ़ाने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। हनुमानजी को सिंदूर लगाने से प्रतिमा का संरक्षण होता है। इससे प्रतिमा किसी प्रकार से खंडित नहीं होती और लंबे समय तक सुरक्षित रहती है। साथ ही चोला चढ़ाने से प्रतिमा की सुंदरता बढ़ती है, हनुमानजी का प्रतिबिंब साफ-साफ दिखाई देता है। जिससे भक्तों की आस्था और अधिक बढ़ती है तथा हनुमानजी का ध्यान लगाने में किसी भी श्रद्धालु को परेशानी नहीं होती।

किस भगवान की कितनी परिक्रमा करें?

भगवान की भक्ति में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। पं. शर्मा के अनुसार सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है।
किस देवी-देवता की कितनी परिक्रमा:
- शिवजी की आधी परिक्रमा की जाती है।
- देवी मां की तीन परिक्रमा की जानी चाहिए।
- भगवान विष्णुजी एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए।
- श्रीगणेशजी और हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।
परिक्रमा के संबंध में नियम:
पं. शर्मा के अनुसार परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।

रविवार, 28 नवंबर 2010

भागवत: १२९: जब सुदर्शन चक्र से घबराकर भागे ऋषि दुर्वासा


मनु पुत्र नवभ के घर पर नाभाग हुए और भगवान शंकर की कृपा से नाभाग के घर भगवान अम्बरीष का जन्म हुआ। अम्बरीष मर्यादा भक्ति के आचार्य हैं। एक बार अम्बरीष ने संकल्प लिया। वर्ष भर एकादशी व्रत के लिए पूजा की और तब वहां दुर्वासा ऋषि पधार गए। अम्बरीष ने उन्हें यथोचित सत्कार कर भोजन के लिए आमंत्रित किया। दुर्वासा ने निमंत्रण स्वीकार किया और स्नान के लिए नदी तट पर चले गए। दुर्वासा को आने में विलम्ब हो गया और द्वादशी समाप्त होने को आई। राजा संशय में डूब गये क्योंकि ऋषि को भोजन कराए बिना भोजन करना सम्भव नहीं था, अतिथि दोष का भागी बनता और यदि भोजन नहीं करते तो सारा व्रत निष्फल जाता है।
पंडितों ने कहा कि जल ही भोजन है तो राजा ने जल पी लिया। जब दुर्वासा लौटे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि राजा ने जल पी लिया है। दुर्वासा ने अपनी जटा से एक बाल उखाड़कर क्रोध से जैसे ही पृथ्वी पर पटका तो एक कृत्या प्रकट हई उसके हाथ में एक तलवार थी और वह तलवार लेकर राजा पर झपटी। कृत्या को अपनी ओर आता देख राजा स्थान से विचलित नहीं हुआ तभी भक्त की सहायता के लिए भगवान ने अपना चक्र भेजा और उस चक्र ने कृत्या को वहीं भस्म कर दिया। फिर वह चक्र दुर्वासा ऋषि की ओर बढ़ा और दुर्वासा ऋषि सुदर्शन चक्र के प्रहार से बचने के लिए नदी, वन, कंद्रास समुद्र आदि-आदि स्थानों पर भागते रहे। कहीं भी उनको स्थान नहीं मिला। निराश होकर ब्रह्माजी की शरण में गए। शंकरजी की शरण में गए, उन्होनें भी यही कहा कि साक्षात भगवान विष्णु की शरण में जाओ।
ऋषि दुर्वासा भगवान विष्णु के पास गए और प्रार्थना करने लगे। भगवान ने उन्हें अपने भक्त को निरर्थक ही दु:ख देने के अपराध में बहुत कुछ कहा, बहुत समझाया और कहा कि वे अंबरीष से क्षमायाचना करें। दुर्वासा अंबरीष के पास आए और क्षमा याचना की। उन्हें प्रणाम करने लगे तो राजा ने कहा कि नहीं, महाराज आप वन्दन नहीं करें यह आपको शोभा नहीं देता। प्रणाम तो मुझे आपको करना चाहिए। राजा ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाइये। सुदर्शन शांत होकर वापस लौट गया।

मंगलवार को हनुमानजी की विशेष पूजा क्यों?

आज हनुमानजी सभी की आस्था का प्रमुख केंद्र हैं। सभी श्रद्धालु हनुमानजी की पूजा करना काफी पसंद हैं। इनकी पूजा करना जितनी सहज है उतना ही सुखद अहसास और जीवन में सफलता देने वाली होती है। वैसे तो इनकी पूजा किसी भी वार या समय पर की जा सकती है लेकिन ऐसा माना जाता है कि मंगलवार को की गई हनुमानजी पूजा विशेष फल देने वाली है। कुछ भक्त प्रतिदिन हनुमान चालिसा, सुंदरकांड का पाठ करते हैं लेकिन मंगलवार के दिन अधिकांश श्रद्धालु हनुमान चालिसा और सुंदरकांड का पाठ करते हैं।

मंगलवार को हनुमानजी की विशेष पूजा क्यों की जाती है? धर्म शास्त्रों में इस संबंध में बताया गया है कि मंगलवार पवन पुत्र के जन्म का वार है। मंगलवार को हनुमानजी का जन्म माना गया है। हनुमानजी को माता सीता ने अमरता का वरदान दिया है अत: वे हर युग में भगवान श्रीराम के भक्तों की रक्षा करते हैं। कलयुग में हनुमानजी की आराधना तुरंत ही शुभ फल देने वाली है। वे जल्द ही श्रद्धालु की भक्ति से प्रसन्न हो जाते हैं और मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। मंगलवार भी हमारे जीवन में मंगल करने वाला गया है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगलवार मंगलदेव का भी दिन माना जाता है। जिस व्यक्ति की कुंडली में मंगल अशुभ फल देने वाला हो वे इस दिन मंगल ग्रह की भी पूजा करते हैं। इस दिन हनुमानजी की पूजा से मंगल ग्रह के कुप्रभाव भी कम होते हैं।

समय का उपयोग

एक दिन एक व्यक्ति किसी महात्मा के पास पहुंचा और कहने लगा, 'जीवन अल्पकाल का है। इस थोड़े समय में क्या-क
्या करूं? बचपन में ज्ञान नहीं होता। युवावस्था में गृहस्थी का बोझ होता है। बुढ़ापा रोगग्रस्त और पीड़ादायक होता है। तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक सेवा कब की जाए?' यह कहकर वह रोने लगा। उस रोते देख महात्मा जी भी रोने लगे।
उस आदमी ने पूछा, 'आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा, 'क्या करूं, खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन गुण है। गुणों के एक अंश में आकाश है। आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत आग है। आग के एक भाग में पानी है। पानी का शतांश पृथ्वी है। पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है। जमीन पर जहां देखो नदियां बिखरी पड़ी हैं। मेरे लिए भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा। थोड़ी सी जमीन थी उस पर भी दूसरे लोगों ने अधिकार जमा लिया। तब बताओ, मैं भूखा नहीं मरूंगा।'
उस व्यक्ति ने कहा, 'यह सब होते हुए भी आप जीवित तो हैं न। फिर रोते क्यों हैं?' महात्मा ने तुरंत उत्तर दिया, 'तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर समय न मिलने की बात कहकर क्यों हाय-हाय करते हो। अब आगे से समयाभाव का बहाना न करना। जो कुछ भी है, उसका उपयोग करो, उसी में संतोष पाओ। संसार में हर किसी ने सीमित समय का सदुपयोग करके ही सब कुछ हासिल किया है।'

सेवा की भावना
जर्मनी का महान समाजसेवी ओबरलीन एक बार अपनी यात्रा के दौरान मुसीबतों से घिर गया। तेज आंधी-तूफान और ओलों ने उसे
बुरी तरह परेशान कर दिया। वह मदद के लिए चिल्लाता रहा, लेकिन सबको अपनी जान बचाने की पड़ी थी, सो उसकी पुकार कौन सुनता? वह बेहोशी की हालत में नीचे गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे अहसास हुआ कि किसी व्यक्ति ने उसे थामा हुआ है और उसे सुरक्षित जगह पर ले जाने की कोशिश कर रहा है। होश में आने पर ओबरलीन ने देखा कि एक गरीब किसान उसकी सेवा में जुटा हुआ है।
ओबरलीन ने किसान से कहा कि वह उसकी सेवा करने के एवज में उसे इनाम देगा। फिर उसने किसान से उसका नाम जानना चाहा। यह सुनकर किसान मुस्कराया और बोला, 'मित्र! बताओ, बाइबिल में कहीं किसी परोपकारी का नाम लिखा है। नहीं न। तो फिर मुझे भी अनाम ही रहने दो। आप भी तो नि:स्वार्थ सेवा में विश्वास रखते हो। फिर मुझे इनाम का लालच क्यों दे रहे हो? वैसे भी पुरस्कार का लालच किसी को भी नि:स्वार्थ सेवा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। सेवा की भावना तो हमारे अंदर से उत्पन्न होती है। इसे न ही पैदा किया जा सकता है और न ही मिटाया जा सकता है।'
ओबरलीन उस निर्धन किसान की बातें सुनकर दंग रह गया। वह मन ही मन सोचने लगा कि आज उसे इस किसान ने एक पाठ पढ़ाया है। सेवा जैसा भाव तो अनमोल है। उसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और सेवा के लिए कोई भी पुरस्कार अधूरा है। यह किसान कितना महान है जो बिना किसी स्वार्थ के परोपकार करने में विश्वास करता है। आज कितने ऐसे लोग हैं जो इस निर्धन किसान की परोपकार की भावना का मुकाबला कर सकते हैं। ओबरलीन को इस बात के लिए अफसोस हुआ कि उसने किसान को इनाम देने की बात कही। ओबरलीन ने किसान से कहा, 'अगर आपके जैसे इंसान हर जगह हों तो कहीं पर दुराचार शेष नहीं रहेगा।'

शनिवार, 27 नवंबर 2010

ईश्वर की खोज

एक सेठ के पास अपार धन-संपत्ति थी, पर उसका मन हमेशा अशांत रहता था। एक बार उसके शहर में एक सिद्ध महात्मा आए। उन्
होंने अपने प्रवचन में कहा कि परमात्मा को पाने पर ही सच्ची खुशी एवं पूर्ण शांति मिल सकती है। इसलिए ईश्वर की खोज करो और अपने जीवन को सार्थक करो। यह सुनकर सेठ ईश्वर की खोज में लग गया। वह इधर-उधर भटकने लगा। ऐसा करते हुए दो वर्ष बीत गए किंतु ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई। वह निराश होकर घर की ओर लौट पड़ा। रास्ते में उसे एक चिर-परिचित आवाज सुनाई पड़ी। उसे कोई बुला रहा था। उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि उसके पीछे वही सिद्ध महात्मा खड़े थे, जिन्होंने ईश्वर को ढूंढने की बात कही थी। सेठ उनके पैरों में गिरकर बोला, 'बाबा, मैं अनेक स्थानों पर भटका किंतु मुझे अभी तक ईश्वर नहीं मिले। आखिर मेरी खोज कहां पूरी होगी? आप ने ही कहा था कि सच्ची खुशी ईश्वर के साथ मिल सकती है।' उसकी बात पर महात्मा मुस्कराए और उन्होंने उसे उठाते हुए कहा, 'पुत्र, मैंने सही कहा था। यदि तुमने ठीक ढंग से ईश्वर की खोज की होती तो अब तक तुम उन्हें पा चुके होते।' यह सुनकर सेठ हैरान रह गया और बोला, 'कैसे बाबा?' महात्मा बोले, 'पुत्र, ईश्वर किसी दूर-दराज के क्षेत्र में नहीं तुम्हारे अपने भीतर ही है। तुम अच्छे कर्म करोगे और नेक राह पर चलोगे तो वह स्वयं तुम्हें मिल जाएगा। तुम्हें उसे कहीं खोजने नहीं जाना पड़ेगा। हां, उसे पाने के लिए ईश्वर का नेक बंदा अवश्य बनना होगा।' यह सुनकर सेठ महात्मा के प्रति नतमस्तक हो गया और वापस अपने घर चला आया। घर आने के बाद उसने पाठशालाएं खुलवाईं, लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराया, गरीब कन्याओं के विवाह कराए और अपने पास आने वाले हर जरूरतमंद की समस्या का समाधान किया। कुछ ही समय बाद उसके भीतर की अशांति जाती रही और उसने अपने भीतर नई स्फूर्ति महसूस की।

संघर्ष की राह
बालक ईश्वरचंद्र के पिता को तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था। परिवार बड़ा था इसलिए घर का खर्च चलना मुश्किल
था। ऐसी स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे होता। ईश्वरचंद्र ने अपने पिता की विवशता को देख कर अपनी पढ़ाई के लिए रास्ता खुद ही निकाल लिया। उसने गांव के उन लड़कों को अपना मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे। उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक दिन कोयले से जमीन पर लिख कर उसने अपने पिता को दिखाया। पिता ने ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गांव की पाठशाला में भर्ती करा दिया। स्कूल की सभी परीक्षाओं में ईश्वरचंद्र ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की पढ़ाई के लिए फिर आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी। ईश्वरचंद्र ने फिर स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर मांगा।
उसने कहा, 'आप मुझे किसी विद्यालय में भर्ती करा दें। फिर मैं आप से किसी प्रकार का खर्च नहीं मांगूंगा।' ईश्वरचंद्र का कोलकाता के एक संस्कृत विद्यालय में दाखिला करा दिया गया। विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने अपनी लगन और प्रतिभा से शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया। उसकी फीस माफ हो गई। ईश्वरचंद्र के मित्रों ने किताबें उपलब्ध करा दीं। फिर उसने अपना खर्च पूरा करने के लिए मजदूरी शुरू कर दी। ऐसी स्थिति में भी उसने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते वह व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुण हो गया। जिसके लिए पढ़ना ही कठिन था वह एक बड़ा विद्वान बन गया। आगे चल कर यही बालक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।

भागवत: १२८ : इंद्र ने क्यों बाधा डाली राजा मरूत के यज्ञ में?

राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से कहा कि मुझे सत्यव्रत मनु के वंश की कथा सुनाइये। शुकदेवजी ने वर्णन करते हुए बताया कि इस कल्प में राजेश्वरी श्री सत्यव्रत वैवस्वत मनु बने। मनु वैवस्वत सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक हैं और उनका विवाह श्रद्धा नामक स्त्री से हुआ। उनके वंश में अनेक सन्तानें हुईं। दिष्टी के वंश में मरूत नाम के चक्रवर्ती राजा हुए और मरूत के गुरु थे बृहस्पति और यही बृहस्पति इन्द्र के भी गुरु थे। मरूत राजा को यज्ञ कराना था और बृहस्पति ने मना कर दिया क्योंकि उन्हें इन्द्र के यहां उसी समय यज्ञ कराने जाना था।

मरूत को नारदजी मार्ग में मिल गए। उन्होंने अपनी कठिनाई बताया तो नारदजी ने कहा कि बृहस्पति के छोटे भाई सम्वर्त को बुला लीजिए। वे भी गुरु समान हैं। तब मरुत ने सम्वर्त से संपर्क किया। सम्वर्त ने कहा - मैं यज्ञ तो करा दूं किन्तु मेरा ऐश्वर्य देखकर बृहस्पति तुम्हें कहेंगे कि वे तुम्हारा यज्ञ कराने को तैयार है और फिर तुम्हारे गुरु बनना चाहेंगे। यदि वैसा समय आया और तुमने मेरा त्याग किया तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा।राजा मरूत ने सम्वर्त की शर्त को स्वीकार कर लिया। सम्वर्त ने राजा को मन्त्र दीक्षा दी, यज्ञ आरंभ होने लगा।
यज्ञ के सभी पात्र स्वर्ण के थे। राजा के वैभव और यज्ञ की भव्य तैयारी को देखकर बृहस्पतिजी लालयित हो गए और उन्होंने इन्द्र से कहा। इन्द्र ने अग्नि के द्वारा सन्देश भेजा कि इस यज्ञ में बृहस्पति को ही गुरु बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इंद्र इस यज्ञ में बाधा डालेंगे। बृहस्पति और सम्वर्त में इस बात को लेकर विवाद हो गया। गुरु-गुरु में युद्ध हो गया। जिस देव को सम्वर्त योगी आज्ञा करते वह वहां उपस्थित होता और वह देव प्रत्यक्ष अहिरभात यज्ञ का ग्रहण करता। यज्ञ चल रहा है। मरूत के इस यज्ञ का वर्णन ऋग्वेद में भी है। भागवत में तो यह संक्षिप्त में ही वर्णित है।

क्या आपको जानवर पसंद हैं?

जंगल में घूमता शेर हो, घर में आकर दूध पीती बिल्ली हो, पेड़ों पर कूदते बंदर हों या घर की मुंडेर पर बैठी चिड़िया हो, सारे जानवर हमें अपनी ओर आकर्षित करते हैं। दोस्तो आपको जानवर कितने पसंद हैं? अच्छा, अच्छा मत बताइए। हम खुद ही जान जाएंगे। बस आप इस पिटारे में दिए गए सवालों के जवाब बता दीजिए।

1.लकी की दादी ने उसके सातवें जन्मदिन पर उसे दो गोल्डफिश उपहार में दीं। लकी बहुत खुश हुआ और उसने उन्हें अपने एक्वेरियम में डाल दिया। साथ ही उसने उस एक्वेरियम में पानी के अंदर उगने वाला एक पौधा भी डाल दिया। क्या आप बता सकते हैं कि उसने ऐसा क्यों किया?
क. ये पौधे गोल्डफिश को सांस लेने में मदद करेंगे।
ख. ये पौधे गोल्डफिश का भोजन हैं।
ग. ये पौधे एक्वेरियम को सुंदरता प्रदान करेंगे।
2.शाम के नाश्ते का समय हो चुका है और रौमित अपने प्यारे कछुए के खाने के लिए कुछ लेने बाहर आया है। उसे क्या ले जाना चाहिए?
क.पालक और पत्तेदार सलाद
ख.कच्चा हैमबर्गर
ग.ऊपर लिखी सारी चीज़ें।
3.घर के आंगन में खेलते हुए आपकी बहन को आपके लिए एक नया पालतू जानवर मिला है। यह जानवर मेंढक है या टोड, आप कैसे पहचानेंगे।
क.मेंढक टर्राता है, जबकि टोड नहीं।
ख.मेंढकों की त्वचा नरम और गीली होती है, जबकि टोड की त्वचा सूखी और खुरदुरी होती है।
ग. इन दोनों में कोई अंतर नहीं होता।
4. रात के दो बजे वंश की नींद खुली। वह पानी पीने के लिए रसोई की ओर जा रहा था, तो उसने देखा कि एक्वेरियम की सारी मछलियां उसे घूर रही हैं। ऐसा क्यों?
क.मछलियों की पलकें नहीं होतीं, जिन्हें बंद कर वो सो सकें।
ख.मछलियां कभी नहीं सोतीं।
ग.वंश की आहट से मछलियां डर गईं और उठ गईं।
5. आपने देखा होगा कि बिल्ली के चेहर पर बाल होते हैं। शायद आप इन्हें उसकी दाढ़ी या मूंछ कहते होंगे। ये बाल बिल्ली को चीज़ें महसूस करने में सहायक होते हैं। नीचे लिखी बातों में क्या सही है, बताइए।
क.ये बाल बिल्ली को अंधेरे में चलने में सहायता करते हैं।
ख. ये बाल बताते हैं कि मौसम गर्म है या ठंडा?
ग. ये बाल बिल्ली को छोटी जगहों में फिट रखने में सहायक होते हैं।

शब्दों की जरूरत न पड़े, रिश्ते ऐसे हों

आजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं।

दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे।
सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु खोज रहे हैं। सीता ने राम की मनोदशा को समझते हुए अपने हाथ से एक अंगुठी निकालकर केवट को दे दी। इस पूरे प्रसंग में न तो राम ने सीता से कुछ कहा और न ही सीता ने राम से कुछ पूछा लेकिन दोनों की ही भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया।

चखे जीभ, पहचाने नाक

सुनने में बिल्कुल असम्भव बात लगती है कि खाएं कुछ और स्वाद आए किसी और चीज़ का!! भला ऐसा भी हो सकता है क्या? पर ऐसा होता है और यह आपको मानना ही पड़ेगा। अरे भई, हम कोई ज़िद नहीं कर रहे, हम तो बता रहे हैं। इसे साबित करने के लिए एक प्रयोग भी किया जा सकता है। अगर प्रयोग सफल रहा और आपकी ज़बान स्वाद चखकर भी सही चीज़ के बारे में नहीं बता पाई, तो आपको हमारी बात माननी पड़ेगी।
इस प्रयोग को आप ही करेंगे। हम आपको बताएंगे कि क्या और कैसे करना है, आप तो बस करते जाइए। तो आइए शुरू करते हैं...
ऐसा कीजिए कि एक सेब और एक नाशपाती का इंतज़ाम कीजिए। इन दोनों फलों की पतली-पतली फांकें काट लीजिए। फिर अपने किसी एक दोस्त को बुलाइए। एक ऐसा दोस्त, जिसे इन फलों या इस प्रयोग के बारे में आपने न बताया हो।
इस दोस्त की आंखों पर पट्टी बांध दीजिए। अब उसे अपने हाथों से सेब का एक टुकड़ा खिलाइए। जब आप उसके मुंह में सेब का टुकड़ा डाल रहे हों, तो बड़ी ही सावधानी के साथ नाशपाती के एक टुकड़े को उसकी नाक के ठीक नीचे ले जाइए। ध्यान रखिएगा कि उसे नाशपाती की उपस्थिति का बिल्कुल भी पता न चले। इसके लिए ज़रूरी है कि उसके नाक से नाशपति की कुछ न कुछ दूरी ज़रूर बनी रहे। अब उससे पूछिए कि आपने उसे कौन-सा फल खिलाया है? क्या जवाब दिया उसने?? हम बताते हैं, उसका जवाब होगा नाशपाती, न कि सेब। देखा!!
हमने शुरू में ही कहा था कि ऐसा ही होगा। आपको पता है कि ऐसा क्यों हुआ?? दरअसल, हम जो भी चीज़ खाते हैं, वह खट्टी है, मीठी है या उसका स्वाद कैसा है, इस बारे में हमारी स्वाद ग्रंथियां हमें बताती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भोजन के स्वाद में सिर्फ स्वाद ग्रंथियों का ही महत्व होता है।
इन स्वाद ग्रंथियों को धोखा भी दिया जा सकता है और हमने इस प्रयोग में वही किया है। हमारे मुंह के ठीक ऊपर नाक होने के कारण बहुत-सी चीजों को खाते वक्त हम उनका मज़ा सिर्फ उनसे उठने वाली महक की वजह से ले पाते हैं। नाक न होती तो उनका मज़ा अधूरा ही रह जाता। आपने ध्यान भी दिया होगा कि सर्दी-जुकाम के कारण नाक बंद होने के कारण खाने में उतना स्वाद नहीं आ पाता।
तो अब को मान गए न आप हमारी बात। ध्यान देकर देखिएगा, आप भी समझ जाएंगे कि आपकी जीभ बहुत से खाद्य पदाथों का आनंद तो सिर्फ इस कारण से ले पाती है कि आपकी नाक उसे अपना पूरा सहयोग देती

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

भागवत: १२७: भगवान को पाना है तो मर्यादा व प्रेम को जीवन में उतारें


भागवत में अब श्रीराम व श्रीकृष्ण की कथा आएगी। सूर्यवंश में श्री रघुनाथजी और चंद्रवंश में श्रीकृष्ण अवतरित हुए। वासना के विनाश हेतु सन्त धर्म बताने पर भी शुकदेवजी को लगा कि परीक्षित के मन में अब भी सूक्ष्म वासना बाकी रह गई है। जब तक बुद्धि में काम वासना है श्रीकृष्ण के दर्शन उसे नहीं होंगे। अत: राजा के मन में शेष रही काम-वासना का पूर्णत: नाश करने के लिए शुकदेवजी ने सूर्यवंश और चन्द्रवंश की कथा सुनाई।
यदि रामजी को मन में बसाओगे, मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करोगे तो भगवान मिलेंगे। उनकी लीला का अनुकरण नहीं कर सकते। श्रवण करना चाहिए। उनका चरित्र चिंतनीय है। श्रीकृष्ण की लीला चिंतन करने के लिए और चिंतन करके तन्मय होने के लिए साधक का बर्ताव कैसा होना चाहिए? वह रामचन्द्रजी ने बताया। सिद्ध पुरूष का बर्ताव श्रीकृष्ण जैसा होना चाहिए। रामचन्द्र की लीला सरल है जबकि श्रीकृष्ण की सारी लीला गहन है।
राम दिन के 12 बजे आए और कृष्ण रात्रि को 12 बजे आए। एक मध्यान्ह में आए दूसरे मध्यरात्रि में आए। एक तो राजा दशरथ के भव्य राजप्रसाद में अवतरित हुए और दूसरे कंस के कारागृह में। रामचन्द्र मर्यादा में हैं तो श्रीकृष्ण प्रेम में हैं। मर्यादा और प्रेम को जीवन में उतारेंगे तो सुखी हो जाएंगे। नृसिंह अवतार की कथा में क्रोध नाश की, वामन अवतार की कथा में लोभ के नाश की बात कही गई है। काम का जब नाश होता है तब श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं। राम और कृष्ण हमारे जीवन का हिस्सा हैं। हमारी सांस-सांस में बसते हैं। राम सीधा-सीधा शब्द है। राम शब्द में ही कोई तोडफ़ोड़ नहीं है। र, आ और म। श्रीकृष्ण नाम में ही बांके हैं।

नहाकर ही क्यों जाते हैं मंदिर?

जब भी हम किसी मुसीबत में फंस जाते हैं तब अवश्य ही सभी को भगवान याद आते हैं। ऐसे में ईश्वर की भक्ति के लिए मंदिर जाते हैं। सामान्यत: यह बात सभी जानते हैं कि बिना नहाए मंदिर नहीं जाना चाहिए लेकिन ऐसा क्यों अनिवार्य किया गया है?
नहाकर ही मंदिर जाना चाहिए, इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है तन और मन से पूरी तरह पवित्र होकर ही भगवान (मंदिर में) के सामने जाना चाहिए। मन की सफाई के लिए तो हमें बुरे विचारों और दुर्भावनाओं को त्यागना होता है। वहीं तन की सफाई के लिए नहाना आवश्यक है।
शास्त्रों के अनुसार भगवान के पास जाने से पहले हमें आंतरिक और बाहरी शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। बाहरी शुद्धता तो नहाने से हो जाती है, परंतु आंतरिक शुद्धता के लिए हमें लोभ, काम, मद, मोह जैसी बुराइयों को छोडना चाहिए।
मंदिर का वातावरण होता है प्रदूषित...
सभी जानते हैं यदि हम रोज नहीं नहाते तो हमारे शरीर से दुर्गंध आने लगती है। ऐसे में जो भी व्यक्ति संपर्क में आता है वह हमारे साथ खुद को बहुत असहज महसूस करता है। ऐसे में बिना नहाए मंदिर जाने से शरीर की दुर्गंध भी मंदिर में फैलती है। जिससे वहां आने वाले अन्य श्रद्धालुओं को भगवान का ध्यान करने में परेशानी महसूस होती है। बिना नहाए शरीर के आसपास कई बीमारियों के कीटाणु रहते हैं। जिससे अन्य भक्तों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और भगवान का भी अनादर होता है। अत: बिना नहाए कभी मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।

क्यों विष्णु करते हैं शेषनाग पर शयन?

हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को जगत का पालन करने वाले देवता माना जाता है। भगवान विष्णु का स्वरूप शांत, आनंदमयी, कोमल, सुंदर यानि सात्विक बताया गया है। वहीं दूसरी ओर भगवान विष्णु के भयानक और कालस्वरूप शेषनाग पर आनंद मुद्रा में शयन करते हुए भी दर्शन किए जा सकते हैं।
भगवान विष्णु के इसी स्वरूप के लिए शास्त्रों में लिखा गया है -
शान्ताकारं भुजगशयनं
यानि शांतिस्वरूप और भुजंग यानि शेषनाग पर शयन करने वाले देवता भगवान विष्णु।

साधारण नजरिए से यह अनूठा देव स्वरूप अचंभित करता है कि काल के साये में रहकर भी देवता बिना किसी बैचेनी के शयन करते हैं। किंतु भगवान विष्णु के इस रूप में मानव जीवन से जुड़ा छुपा संदेश है -
जिंदगी का हर पल कर्तव्य और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक दायित्व अहम होते हैं। किंतु इन दायित्वों को पूरा करने के साथ ही अनेक समस्याओं, परेशानियों, कष्ट, मुसीबतों का सिलसिला भी चलता रहता है, जो कालरूपी नाग की तरह भय, बेचैनी और चिन्ताएं पैदा करता है। जिनसे कईं मौकों पर व्यक्ति टूटकर बिखर भी जाता है।
भगवान विष्णु का शांत स्वरूप यही कहता है कि ऐसे बुरे वक्त में संयम, धीरज के साथ मजबूत दिल और ठंडा दिमाग रखकर जिंदगी की तमाम मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता है। तभी विपरीत समय भी आपके अनुकूल हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति सही मायनों में पुरूषार्थी कहलाएगा।
इस तरह विपरीत हालातों में भी शांत, स्थिर, निर्भय व निश्चिंत मन और मस्तिष्क के साथ अपने धर्म का पालन यानि जिम्मेदारियों को पूरा करना ही विष्णु के भुजंग या शेषनाग पर शयन का प्रतीक है।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बातूनी चिंगी

चिंगी एक चुलबुली लड़की थी। बातूनी इतनी थी कि सभी उससे बचकर निकल जाते थे। गर्मी की छुट्टियाँ लगी तो चिंगी अपनी माँ के साथ रेल से मामा के यहाँ चली। माँ और चिंगी रेल की महिला बोगी में चढ़े। रेल की इस बोगी में महिलाएँ छोटे बच्चों के साथ यात्रा कर सकती हैं। इस बोगी में पुरूषों को बैठने की अनुमति नहीं रहती है। महिला बोगी में ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। ट्रेन जब चली तो चिंगी ने बोगी में बैठी एक आंटी से बातचीत शुरू की। माँ ने चिंगी को कहा कि बेटा आंटी को परेशान नहीं करते पर चिंगी की तरह ही आंटी भी बातूनी थी और दोनों की जोड़ी खूब जमी। बातों ही बातों में इटारसी जंक्शन आ गया।

इटारसी से एक औरत बुर्का पहने ट्रेन में चढ़ी। औरत बिना किसी से कुछ बोले धप्प से थोड़ी जगह करके बैठ गई। चिंगी और आंटी की बातचीत चल रही थी। चिंगी और आंटी में बातों की टक्कर चल रही थी पर आंटी थक गई और उन्हें नींद आने लगी। चिंगी की माँ को बातों में ज्यादा रूचि रहती नहीं थी उन्होंने एक पुरानी मैगजीन निकाली और पढ़ने लगी। अब जब चिंगी की सहेली बनी आंटी सो गई तो चिंगी बात किससे करे। उसने देखा कि अब कौन नहीं सो रहा है।
बोगी में बाकी सभी कुछ न कुछ काम कर रहे थे बस वह बुर्का पहने चढ़ी महिला ही चुप बैठी थी। चिंगी ने सोचा क्यों न इससे ही बातचीत की जाए। आखिर किसी से तो बातचीत करना ही थी। चिंगी ने उन्हें नमस्ते करके बात शुरू की। पर बुर्के वाली महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। चिंगी ने आगे बात बढ़ाई पर कोई जवाब नहीं। पर बातूनी चिंगी इतनी जल्दी कहाँ मानने वाली थी। उसने फिर से बात शुरू की। पर इस बार भी कोई जवाब नहीं। चिंगी को लगा कि यह तो चुनौती है। उसने बात आगे बढ़ाई पर फिर कोई जवाब नहीं।
इसी बीच चिंगी ने महिला के हाथ पर बँधी घड़ी देखी और खुद ही चुप हो गई। थोड़ी देर बाद जब अगला स्टॉप आया तो चिंगी ने माँ को कान में कुछ बताया। माँ और चिंगी स्टॉप पर उतरे और थोड़ी देर में वापस लौट आए। दोनों बोगी में आकर बैठे ही थे कि जीआरपी पुलिस पीछे आई और उसने महिला को पकड़ लिया। बुर्का उठाते ही मालूम हुआ कि वह तो एक खतरनाक बदमाश था जो बुर्का पहनकर ट्रेन से सफर कर रहा था। चिंगी को महिला की कलाई पर जेन्ट्स घड़ी देखकर शक हुआ था।
पुलिस ने चिंगी को धन्यवाद दिया। माँ को अपनी बातूनी चिंगी पर गर्व हुआ। फिर तो ट्रेन में सभी को चिंगी ने अपनी बहादुरी के और भी किस्से सुनाए और कुछ घंटे बाद उनका स्टेशन आ गया। महीना भर बाद बदमाश को पकड़वाने के लिए चिंगी को इनाम भी ला।

भागवत: १२६ : भगवान विष्णु ने क्यों लिया मत्स्यावतार ?

भागवत में अब मत्स्यावतार की कथा आ रही है। राजा सत्यव्रत था। राजा सत्यव्रत एक दिन जलांजलि दे रहा था नदी में। अचानक उसकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उसने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन उस मछली ने बोला-आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तो उसने अपने कमंडल में रखा। मछली और बड़ी हो गई तो उसने अपने सरोवर में रखा, तब मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की।

साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा-सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तुम एक नाव में सप्त ऋषि के साथ बैठ जाना, वासुकी नाग को रस्सी बना लेना और मैं तुम्हें उस समय ज्ञान दूंगा। ऐसा कहते हैं कि उसको मत्स्यसंहिता का नाम दिया गया। यहां आकर आठवां स्कंध समाप्त हो रहा है।आठवें स्कन्ध में भगवान की लीला देखी, समुद्र मंथन देखा, वामन अवतार देखा, मत्स्यावतार देखा और अब नवम स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं।
यह स्कंध भगवान का स्कंध है। नवां स्कंध रामायण का स्कंध है। रामायण सीखाती है जीना। राजा परीक्षित की बुद्धि को स्थिर करने के लिए, शुद्ध करने के लिए नवें स्कंध में सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की कथा कही गई है। सूर्य हैं बुद्धि के स्वामी और चंद्र हैं मन के स्वामी। बुद्धि की शुुद्धि के लिए सूर्यवंशी रामचन्द्रजी का चरित्र कहा गया और मन की शुद्धि के लिए चन्द्रवंशी श्रीकृष्ण का चरित्र कहा गया। रामचन्द्रजी मर्यादा का पालन करेंगे तो हमारे मन का रावण मरेगा। हमारे मन का काम मरेगा तो परमात्मा कृष्ण पधारेंगे।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

‘मेरी दुनिया भी बदली है’

सब यही कहते हैं कि लड़की की ज़िंदगी में शादी एक बहुत बड़ा बदलाव ला देती है। लेकिन कभी लड़के से कोई पूछता है कि उसे क्या महसूस होता है? चूंकि उसका घर नहीं बदला, नाम नहीं बदला, परिवेश वही रहा, उसके रहन-सहन में कोई नज़र आने वाला परिवर्तन नहीं दिखा, तो क्या कुछ नहीं बदला? या सिर्फ सिंदूर लगाने से ही परिवर्तन देखे और समझे जा सकते हैं? चलिए, दूल्हे के मन में झांककर देखते हैं कि वहां क्या खलबली मची है। उसका एक अलिखा खत पढ़ते हैं, जिसमें सदियों से अबोली बातों का अच्छा-खासा सिलसिला दिख रहा है। यह बातें लड़की के देखे जाने वाले दिन से ही शुरू हो गई थीं-
‘पिछले हफ्ते जिस लड़की को हमने देखा, उसकी उम्र तो बहुत कम थी। पर सबने मुझे चुप करा दिया, यह कहके कि तुमको यह सब नहीं देखना। जो पूछना हो, वो पूछ लो। मुझे फर्क पड़ता है। हमारी उम्र में बहुत फासला होगा, तो सोच-समझ में भी अंतर आएगा। तब निबाह करने को भी मुझसे ही कहेंगे। खुद के किए का दोष तब मेरे सिर मढ़ दिया जाएगा। लड़की की पढ़ाई का भी ऐसा ही असर है। पर अभी इनकी नज़र सिर्फ खूबसूरती पर जा रही है। खैर, आज जिसे मिला, वह मुझे बातचीत से ठीक लगी। लेकिन उसे ज्यादा सवाल नहीं पूछने दिए गए। क्यों?
वह पूछती, तो हमारे बीच ऐतबार बनता। मुझे लगता कि मेरी खूबियां या कमियां उसके लिए मायने रखती हैं। और अब तो शादी की तारीख भी पक्की हो गई है। मैं अपनी होने वाली पत्नी से बातें करता हूं। उसे जानने लगा हूं, पर हर पल एक अनजानी असुरक्षा बनी रहती है। क्या मैं उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊंगा? वह तो बताती है कि उसके लिए काफी तैयारियां शुरू हो गई हैं, कभी-कभी हिचकते हुए पूछ लेती है कि हमारे घर में उसके लिए क्या कुछ किया जा रहा है। दबी ज़ुबान से पसंद-नापसंद भी बता जाती है, मुझे अच्छा ही लगता है। पर मेरे लिए कहां कुछ हो रहा है, नहीं समझ पाता। उल्टे मैं तो कहूंगा कि एक सांस्कृतिक अंतर्विरोध की स्थिति है। मेरे भाई-बहन, माता-पिता, दोस्त तक यही मानकर चल रहे हैं कि मैं बस कुछ ही दिनों में बदल जाऊंगा। उन्हें समय नहीं दूंगा, पैसे नहीं दूंगा, उनका ध्यान नहीं रखूंगा, यहां तक कि उनकी तरफ नज़र डालना भी कम हो जाएगा।
वहीं उसका फोन आता है, तो कहती है ‘शाम तो हमारी होगी न। हफ्ते में एक दिन तो हम साथ में घूमने जा सकते हैं न!!’ संतुलन तो अभी से गड़बड़ाने लगा है। एकाएक मैं महत्वपूर्ण हो उठा हूं या यह परिवर्तन सबको असुरक्षित बना रहा है? मेरे परिवार में तो वंशावली साफ है, पिता-मां बड़े, भाई-बहन छोटे। इनके लिए मेरे दायित्व और स्नेह की अपनी डोरियां हैं। अब एक रिश्ता समानता का बनने वाला है, उससे निबाह का तरीका क्या चुनूं कि इन वंशानुगत रिश्तों पर फर्क न पड़े? अपनी उलझनें किसे बताऊं?
शादी के समय अजीब स्थितियां हुईं। मैं काम करूं, तो कहते कि बड़ा बढ़-चढ़कर अपनी शादी में काम कर रहा है। न करूं, तो कहते, ज़िम्मेदारी कब सीखोगे। घर में रहता, तो कहते कि घर में रहना सीख रहे हो? बाहर जाऊं, तो कहते आज देख लो इन्हें, कल से तो दिखाई ही कम देंगे।
घर से विरासत से जुड़ा हूं और पत्नी से वचनों से। टूटन का डर, दरकने का खतरा मेरे हर कदम को डिगाने पर आमादा है। और मैं अपनी शादी की खुशी में नाच रहा हूं। नाचने को कहा गया है। शादी की रस्मों में भी डर साफ झलक रहा था। ‘जीजाजी को आज घेर लो, बाद में पैसे नहीं देंगे’- जैसी बातें साफ सुनाई देती रहीं। अब घर में आ गए हैं। मुझे खुद झिझक होती है अपने ही कमरे में जाने में। मैं सजग रहता हूं। नापा-तौला जो जा रहा है मुझे। क्या बदल गया मुझमें, सब यही समझने में लगे रहते हैं। पगफेरे के बाद पत्नी को लेने गया, तो भी इसी फिक्र में रहा। वहां सारे लोग मेरे खाने की थाली में क्या है, कितना है, क्या खाया, कैसे खाया, इस सब की नापजोख तक में लगे रहे।
‘क्या मिला, कितना मिला’- यह सवाल भी लाज़िमी से हैं। इनकी प्रतिक्रिया बड़ी आरोपों भरी है। ‘बस, इतना ही दिया नेग में?’ ‘अरे वाह, बहुत सारा मिल गया तुझे तो।’ मानो, किसी और की जेब कतर ली हो मैंने।घर से बाहर कदम निकालता हूं, तो कहा जाता है ‘पत्नी का ख्याल नहीं है क्या?’ न जाऊं, तो कहते हैं कि ‘औरतों की तरह घर में ही घुसा रहता है।’ पत्नी से बातें करना या घरवालों को समय देना, मैं बाज़ीगर की तरह बहुत नाजुक-सी रस्सी पर झूलता रहता हूं।



पत्नी की निगाह में खुद को एक सक्षम, व्यवहारकुशल और अच्छा इंसान साबित करना मेरी फिक्र है। वहीं घरवालों की अपेक्षाओं पर खरे न उतर पाने की आशंका भी पीछा नहीं छोड़ती। मैं क्या चाहता हूं, बताऊं? पैदाइशी रिश्तों से उम्मीद करता हूं कि मेरा साथ देंगे, मुझे समझेंगे। कहीं संतुलन न बना पाऊं, तो सम्बल देंगे। मुझे आशंका नहीं, आशाओं से बांधेंगे। नए रिश्ते से धैर्य चाहता हूं। जहां मैं पुल बनाने में नाकाम होता दिखूं, वहां वो हाथ बढ़ा दे। मैं टूटना नहीं चाहता, इसलिए सबसे जुड़े और जोड़े रखने की दरख्वास्त करता हूं।’

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

भागवत: १२५: जब भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल बने

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दो पग में धरती और आकाश नाप लिए। इसके बाद तीसरा पग उन्होंने बलि के सिर पर रखा जिसके कारण बलि पाताल में चला गया। भगवान ने बलि से प्रसन्न होकर उसे पाताल का राजा बना दिया। बलि भी बहुत समझदार था। उसने कहा- भगवान आप मुझसे अगर प्रसन्न है तो मुझे एक वर दीजिए। भगवान ने कहा-मांग, क्या मांगता है। बलि ने कहा आप मेरे यहां द्वारपाल बनकर रहिए। बलि के द्वार पर विष्णु पहरेदार बनकर खड़े हैं और बलि पाताल पर राज कर रहा है।
कई दिन हो गए भगवान वैकुण्ठ नहीं पहुंचे। लक्ष्मीजी ने नारदजी को याद किया। कहा-प्रभु आए ही नहीं हैं बहुत दिन हो गए। नारदजी ने कहा- वहां खड़े हैं डंडा लेकर, चलो बताता हूं। पहरेदार की नौकरी कर रहे हैं। पाताल में लेकर आए देखो ये खड़े हैं। लक्ष्मीजी ने कहा ये पहरेदार कहां से बन गये। देखिए, भगवान् की लीला भी कैसी विचित्र है? लक्ष्मीजी ने विचार किया, मैं बलि से इनको मांग लूं। वो बलि के पास गईं। भगवान पहरेदार थे तो सीधे-सीधे मांग भी नहीं सकती थीं। लक्ष्मीजी गईं बलि के पास और कहा राजा बलि मुझे अपनी बहन बना लो। बलि ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद राखी का त्योहार आया। लक्ष्मी ने कहा लाओ मैं आपको राखी बांध दूं।
बलि ने कहा-बांध दो। जैसे ही लक्ष्मीजी ने बलि के हाथ में राखी बांधी, बलिराज ने कहा-बोल बहन मैं तुझे क्या दे सकता हूं? तुरंत लक्ष्मीजी ने कहा- ये द्वारपाल मुझे दे दो। बलि ने कहा ये कैसी बहन है? द्वारपाल ले जाकर क्या करेगी? क्या बात है, आप कौन हैं, बलि ने पूछा। तब उन्होंने बताया- मैं लक्ष्मी हूं। बलि ने कहा मैं तो धन्य हो गया। पहले बाप मांगने आया आज मां मांग रही है। वाह क्या मेरा भाग्य है। आप इन्हें ले जाओ मां। इस तरह लक्ष्मी भगवान को बलि की पहरेदारी से छुड़ाकर लाईं।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

भागवत: १२४ : राहू-केतु क्यों हैं सूर्य-चंद्र के दुश्मन?

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर छलपूर्वक देवताओं को अमृत पीला दिया। यह बात राहू नामक दैत्य ने जान ली और वह रूप बदलकर देवताओं के बीच जा बैठा। जैसे ही राहु ने अमृत पीया वैसे ही सूर्य और चंद्र ने भगवान से कहा यह तो राक्षस है। तत्काल भगवान ने सुदर्शन चक्र निकाला और उसका वध किया। राहू के दो टुकड़े हो गए। एक बना राहू दूसरा बना केतु। लेकिन उसने दुश्मनी पाल ली चंद्र और सूर्य से। इसीलिए ग्रहण लगता है। इस तरह भगवान ने देवताओं को अमर कर दिया और दैत्य अपनी ही मूर्खता से ठगा गए। यहां समुंद्र मंथन की कथा पूरी हुई।

अब हम वामन अवतार में प्रवेश करते हैं। वामन अवतार में भगवान ने बिना युद्ध के ही सारा काम कर लिया। भगवान वामन छोटे से बालक, बड़े सुन्दर से अदिति और कश्यप के यहां पैदा हुए। उस समय दैत्यों का राजा बलि हुआ करता था। बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसकी शक्ति के घबराकर सभी देवता भगवान वामन के पास पहुंचे । सभी की बात सुनकर भगवान वामन बलि के सामने गए। उस समय बलि यज्ञ कर रहा था। बलि से उन्होंने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा-मांग लीजिए। वामन ने कहा तीन पग मुझे आपसे धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया।
लेकिन बलि ने कहा - गुरुजी ये क्या बात कर रहे हैं आप। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। बलि ने संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा- -मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बना दिया।

इसलिए सुंदर दिखती हैं महिलाएँ

515 रसायन रोजाना लगाती हैं
पुरुषों को यह बात हमेशा खलती है कि महिलाएँ उनकी तुलना में ज्यादा सुंदर क्यों दिखती है। अब उनके इस सवाल का जवाब एक अध्ययन ने ढूँढ निकाला है, जिसके मुताबिक महिलाएँ सुंदर दिखने के लिए रोजाना विभिन्न सौंदर्य प्रसाधनों के रूप में 500 से अधिक केमिकल अपने चेहरे और बदन पर लगाती हैं।
डियोड्रेंट बनाने वाली कंपनी बियोनसेन द्वारा कराए गए अध्ययन में बताया गया है कि सुंदरता की ललक रखने वाली महिलाएँ सौंदर्य प्रसाधन के तौर पर 13 उत्पादों तक का इस्तेमाल करती हैं। इनमें से अधिकतर में 20 से अधिक रसायन सामग्री होती है, जो कैंसर और त्वचा संबंधी अनेक समस्याओं का कारण बन सकते हैं।
‘द सन’ ने बियोनसेन के शेरलोट स्मिथ के हवाले से बताया, सुंदरता के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तौर-तरीकों में नाटकीय बदलाव आया है। पहले कहीं जाने से पहले अपने चेहरे को धोना ही काफी होता था, लेकिन आजकल इसकी जगह रोजाना चेहरे और बदन को नकली रंग दिया जाता है। नियमित तौर पर नाखून प्रसाधन किया जाता है और बालों को अलग-अलग रूप दिया जाता है।'
अध्ययन में बताया गया है कि सर्वाधिक इस्तेमाल किए जाने वाले सौंदर्य प्रसाधन लिपस्टिक में औसतन 33 केमिकल होते हैं, बॉडी लोशन में 32, मस्कारा में 29 और हैंड मॉइश्चराइजर में 11 केमिकल होते हैं।

अगले जनम...बिटिया न कीजौ

उत्तरी राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में एक दलित ने अपनी पत्नी और चार बेटियों के साथ मौत को गले लगा लिया। स्थानीय पुलिस के एक अधिकारी को लगता है कि चौथी बेटी घर में आने के बाद घर का मुखिया ओमप्रकाश अवसाद में था।

हनुमानगढ़ जिले के रोडावाली गाँव में एक साथ गमगीन माहौल में छह लोगों का अंतिम संस्कार किया गया। उधर राज्य के शेखावाटी अंचल में पिछले तीन माह में नवजात बच्चियों को लावारिस छोड़ने के चौदह मामले सामने आए हैं।
महिला संगठनों को लगता है ये बेटियों के लिए खतरे की घंटी है। रोडावाली गाँव में रविवार को उस समय रुलाई फूट पड़ी जबएक के बाद एक छह शव गिने गए।
पुलिस ने जब 33 वर्षीय ओमप्रकाश नायक के घर का दरवाजा खोला तो वो ओमप्रकाश, उसकी 30 वर्षीय पत्नी चुकली, आठ साल की बेटी पूजा, छह साल की अर्चना, चार साल की नंदिनी एक माह पहले दुनिया में आई मुन्नी मरे हुए पाए गए।
हनुमानगढ़ के पुलिस अधीक्षक का कहना था, ‘इन लोगों ने जहर खा कर अपनी जान दे दी। ऐसा लगता है कि वो चौथी बेटी पैदा होने के बाद से अवसाद में था। परिवार की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं थी।’
पुलिस को ओमप्रकाश के भाई ने तब सूचित किया जब दिन निकलने के बाद भी ओमप्रकाश के घर का दरवाजा नहीं खुला और कोई हरकत नहीं दिखाई दी। ये खबर ऐसे समय आई जब राजस्थान की एक बेटी कृष्णा पुनिया कॉमनवेल्थ खेलो में तमगा लेकर आई और लोग बेटियों पर नाज कर रहे थे।
लावारिस बेटियाँ : सामाजिक कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव कहती है, ‘समाज में बेटों को तरजीह देने का रुझान खतरनाक तरीके से उभरा है। इसमें बेटियों की बेकद्री हो रही है। हमें लगता है जनगणना के आँकड़े आएँगे तो हालात की बहुत ही चिंताजनक तस्वीर सामने होगी। बेटियों की चाहत बुरी तरह घटी है।’
शेखावाटी में सीकर के पुलिस अधीक्षक विकास कुमार ने बीबीसी से कहा, ‘हाँ पिछले कुछ माह में सीकर और झूंझुनु जिलों में नवजात पुत्रियों को लावारिस छोड़ने के एक दर्ज़न मामले सामने आए हैं।’
नू के सामाजिक कार्यकर्ता राजन चौधरी ने पुत्रियों को लावारिस छोड़े जाने की घटनाओं को दर्ज किया है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, 'सितंबर माह से लेकर अब तक दो ज़िलों में चौदह नवजात कन्याओं को कहीं कुएँ में फेंका गया, कहीं सड़क पर लावारिस छोड़ा गया। सीकर में रविवार को भी एक नवजात कन्या ने अपनी किलकारी से लावारिस छोड़े जाने की सूचना दी।'
इन चौदह में से चार नवजात बालिकाएँ जिन्दा रह गई। एक नन्ही जान तो इतनी बलवान निकली कि एक सौ पाँच फुट गहरे कुएँ में गिराए जाने के बाद भी जीवित रह गई। लेकिन उसका हाथ टूट गया।
चौधरी कहते हैं, ‘विडम्बना ये है कि अजन्मी और नवजात बालिकाओं को मारे जाने की घटनाएँ उन परिवारों मे ज्यादा हो रही है जो शिक्षित है। झुंझुनू शिक्षा में बहुत आगे है। हमें लगता है इन तीन जिलों में लड़का-लड़की अनुपात बहुत ही खतरनाक मुकाम पर पहुँच रहा है।ये एक हजार लड़कों के मुकाबिले सात सौ से आठ सौ लड़कियों की इत्तिला दे रहा है।’
नवजात बेटियों को निर्जन स्थान पर बिसरा देने की घटनाएँ ऐसे मौसम और माहौल में आई है जब वो कहीं तमगे ला रही है, अन्तरिक्ष में जा रही है और फलक पर सितारों की मानिंद चमक रही है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

छोटी मदद

कुछ कथाओं के पीछे सच होता है तो कुछ के पीछे गप। पर जो भी हो कुछ कथाएँ इसी कारण मजेदार बन पड़ती है। 'सच और गप वाली कहानी' में प्रस्तुत है तीसरी कहानी। यह कहानी बर्मा में सुनी-सुनाई जाती है।
एक बार जंगल के राजा शेर ने जंगल में सूचना करवाई कि सभी जानवर आकर उसे सलाम करें। बस फिर क्या था एक-एक करके हाथी, चीता, साँप, छिपकली, भालू, घोड़ा और यहाँ तक कि खरगोश और हिरण भी आए और शेर के सामने सर झुकाकर उसे सलाम किया। जब चींटियोंको इस बात का पता चला तो वे भी शेर को सलाम करने के लिए एक कतार बनाकर निकल पड़ीं। उनकी रफ्तार धीमी थी और उन्हें लंबी दूरी तय करनी थी तो वे देर से पहुँची। तब तक सारा कार्यक्रम पूरा हो चुका था।
जब चींटियों का दल पहुँचा तो सारे जानवर वापस लौटने को थे। चींटियों के पहुँचते ही सभी ने उनकी हँसी उड़ाई कि कितनी तेज चाल है। थोड़ी और देर से पहुँचते तो सारा कार्यक्रम ही पूरा हो जाता। शेर भी गुर्राया और चींटियों का मजाक बनाते हुए बोला- कभी तो जल्दी पहुँचा करो। हमेशा लेटलतीफ ही रहती हो। चींटियों के दल को बहुत दुख हुआ। दल वापस लौट आया। चींटियों के दल में शामिल सदस्यों ने सारी बात चींटियों की रानी को सुनाई। रानी ने जब यह बात सुुनी तो उसे बहुत गुस्सा आया। चींटियों की रानी ने तुरंत अपने मित्र कानखजूरे को बुला भेजा। कानखजूरे को चींटी ने कान में कुछ कहा और फिर दोनों मुस्कुरा दिए।
इधर शेर दिनभर का थका हुआ था तो वह अपनी गुफा में लेट गया। कुछ ही देर में उसे नींद भी लग गई। नींद अभी लगी ही थी कि उसे कान में कुछ सरकता हुआ महसूस हुआ। वह बहुत परेशान हो गया और चिल्लाने लगा। कुछ ही देर में बहुत से जानवर जमा हो गए। शेर ने कान में हो रहे दर्द के मारे जमीन पर लौट लगाना शुरू कर दिया पर दर्द बढ़ता ही जा रहा था।
सारे जानवर कुछ भी मदद नहीं कर सकते थे क्योंकि उनके हाथ में कुछ भी नहीं था। आखिरकर शेर को लगा कि केवल चींटी ही उसकी मदद कर सकती है। शेर ने चींटियों की रानी के पास मदद का संदेश भेजा। चींटियों की रानी ने सोचा कि अब शेर बहुत परेशान हो लिया। बेहतर होगा कि उसे अब कुछ राहत दे दी जाए। यह सोचकर चींटियों की रानी अपने दल के साथ शेर की गुफा पहुँच गई।
चार चींटियों का समूह शेर के कान पर चढ़ा और उन्होंने अपने मित्र कानखजूरे को आवाज दी - मदद के लिए शुक्रिया दोस्त, अब बाहर आ जाओ। कानखजूरा झटपट बाहर आ गया और शेर को दर्द से राहत व तुरंत आराम मिल गया। वह चींटियों की रानी के पास जाकर बोला-आज तुमने मेरी जान बचा ली। मैं अपने कहे पर शर्मिंदा हूँ।
मैं आज यह घोषणा करता हूँ कि अब से तुम जहाँ चाहो वहाँ रह सकती हो। और दोस्तो, यही वजह है कि चींटियाँ कहीं भी रह सकती हैं। क्या रेगिस्तान, क्या जंगल और क्या हमारा घर। उन्हें कोई रोक नहीं सकता।

भागवत: १२३ : भगवान विष्णु ने क्यों लिया मोहिनी अवतार?

समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।

इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से।
फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

नोनू भटका मेले में

कुछ महीनों पहले एक मेला देखने नोनू अपने माता- 1पिता के साथ गया। मेले जाने के पहले माँ ने उसे समझाया,'देखो उँगली पकड़कर चलना। मेले में बहुत भीड़ होती है।
यदि उँगली छोड़ी और भटक गए तो फिर परेशानी होगी और देखो यदि साथ छूट ही जाए तो रोना मत। तुम्हारे जेब में घर का पता, मोबाइल नंबर लिखकर रख दिया है। किसी भी पुलिसवाले भैया से कहोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा।'
नोनू को मजा आ गया। उसे तो मेले में जाने की जल्दी थी। मेले में भीड़ ही भीड़ थी। बड़े-बड़े लोगों में बच्चे तो बेचारे दिखते ही नहीं थे।

कोई बच्चा गोद में था तो कोई कंधे पर। नोनू माँ के पीछे ऐसे चल रहा था, जैसे रस्सी से बँधा हो। उसे कष्ट हो रहा था। यह भी कोई चलना है। यह भी कोई आनंद है। वह सोच ही रहा था कि खुला मैदान आ गया।
मैदान में दुकानें थीं। फुग्गेवाले थे। खिलौने की दुकानें थीं। उसने फुग्गे के लिए हठ की। पापा ने फुग्गा खरीद दिया। फिर सीटी खरीदी और चाट खाने के लिए बैठ गए।
इधर-उधर देखते, उछलते-कूदते, गुनगुनाते नोनूजी चल रहे थे कि भीड़ का रेला आया और जिसका डर था, वही हुआ।
उनकी माँ की उँगली छूट गई और उन्होंने भीड़ के बीच अपने को अकेला पाया। पहले तो नोनू रूआँसा हुआ, मगर घबराया नहीं। माँ ने उसकी जेब में घर का पता और मोबाइल नंबर जो रखा था।
वह मैदान में एकतरफ खड़ा सोच ही रहा था कि एक दीदी उसको उसकी ओर मुस्कुराते दिखी। वह भी मुस्कुराया। वह दीदी पास आई पूछा- 'क्या भटक गए हो?'
नोनू ने भोलेपन से कहा- 'मेरे माता-पिता खो गए हैं। उन्हें खोजना है।' दीदी ने पूछा- 'तुम्हारे पास पता है?' नोनू ने जेब से पता निकालकर बताया।
दीदी बोली- 'ठीक है, हम तुम्हें घर तक पहुँचा देंगे।'
नोनू ने कहा- 'क्या आपके पास मोटर गाड़ी है? मेरा घर तो बहुत दूर है।' दीदी हँसी। बोली- 'मैं परी हूँ। मैं तुम्हें गाड़ी से भी जल्दी पहुँचा दूँगी।'
नोनू ने कहा- 'आप कैसी परी हैं? परी तो सफेद वस्त्र पहनती है। आप तो यूनिफॉर्म पहने हुए हो।'
परी ने कहा- 'हम मेले की परी हैं। खोए हुए बच्चों की परी। हम भी मेला घूमने-फिरने, मजा करने आई हैं। जो बच्चे दूसरों के साथ मित्रता और प्रेम से रहते हैं, हम उनसे दोस्ती करती हैं और उनकी मदद करती हैं।'
परी ने नोनू को ऑटो रिक्शा में बिठाया और नोनू अपने माता के पास आ गया। माँ ने पूछा- 'कहाँ भटक गए थे? कौन लाया तुम्हें?' नोनू ने कहा- 'हमें परी लाई है। बड़ी प्यारी सहेली है हमारी, आप भी मिल लो।'
नोनू पलटा तो वहाँ न तो परी थी और न ऑटो रिक्शा। वे जा चुके थे। माँ ने कहा- 'देखो नोनू यदि मेले में भटक जाओ तो चाहे जिसके साथ चल देना ठीक नहीं। पुलिस या स्काउट की मदद ही लेना चाहिए। ऐसे अपरिचितों के साथ चल देने में खतरे भी हैं। इस तरह नहीं आना चाहिए था।'
नोनू के आगे उस परी का भोलाभाला चेहरा दिखाई दिया। उसके पंख नहीं थे और वह यूनिफॉर्म पहने थी और चल भी रही थी ऑटो रिक्शा में। फिर भी वह साफ दिल की परी थी।
उसने तो साफ कहा कि जो बच्चे दूसरे बच्चों से प्रेम करते हैं, वे उनसे दोस्ती करती है। वह मन ही मन मुस्कुराया। दूसरे बच्चों के साथ सच्ची मित्रता व सहयोग करने वाली दीदियाँ परियाँ ही तो होती हैं, भले ही वे स्वप्न में न आई हों। नोनू फिर से अपने खेलने में लग गया।

भागवत: १२२: इसलिए विष्णु का वरण किया लक्ष्मी ने

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मी निकली तो उन्हें कहा गया कि आप जिसे चाहें उसका वरण कर सकती हैं। लक्ष्मी बोलीं कि मैं उसके पास नहीं जाती जो मेरा निवेश करना नहीं जानता। मैं उसके पास जाती हूं जो मेरा निवेश करना जानता हो। जिसको इनवेस्टमेंट का ज्ञान हो। मेरी सुरक्षा करना जानता हो। फिर लक्ष्मीजी ने इधर-उधर देखा तो एक ऐसा भी है जो मेरी तरफ देख ही नहीं रहा है बाकी सब लाइन लगाकर खड़े हैं तो उनके पास गई।

लक्ष्मी ने जाकर देखा तो मुंह ओढ़कर लेटे हुए थे भगवान विष्णु। लक्ष्मी ने पैर पकड़े, चरण हिलाए। विष्णु बोले क्या बात है? वह बोलीं मैं आपको वरना चाहती हूं। विष्णु ने कहा-स्वागत है। लक्ष्मी जानती थीं कि यही मेरी रक्षा करेंगे। तब से लक्ष्मी-नारायण एक हो गए। लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है तो आदमी अहंकार में चौड़ा हो जाता है और जाती हैं तो एक लात पीठ पर मारती करती हैं तो आदमी औंधा हो जाता है। लक्ष्मी की रक्षा कीजिए। उसके सम्मान की रक्षा कीजिए। वो आपके लिए सतत उपलब्ध है।
अब नवें नंबर पर वारूणी निकली। मदिरा जैसे ही निकली तो दैत्य लाइन में लग गए। भगवान ने कहा-ले जाओ। देवताओं को तो लेना भी नहीं था। इसके बाद और मंथन किया तो पारिजात निकला। पारिजात को अपनी जगह भेज दिया। चंद्रमा निकले तो चंद्रमा को अपनी जगह भेज दिया। 12वें नंबर पर सारंगधनु निकला, विष्णुजी सारंगपाणि हैं, अपने धनुष को लेकर चले गए। अब सबसे अंत में निकला अमृत। इतनी देर बाद जीवन में अमृत मिलता है। तेरह सीढ़ी पार करेंगे तब मिलता है ऐसे ही नहीं मिल जाता।
लोग कहते हैं यह 14 का आंकड़ा क्या है? ये है पांच कमेन्द्रियां, पांच जनेन्द्रियां तथा अन्य चार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ये चौदह पार करने के बाद ही परमात्मा प्राप्त होते हैं।

बच्चे की बात में ख़ुशी का राज

एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।

बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’

कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान क्यों?

कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बड़ी संख्या में देश की सभी प्रमुख नदियों पर श्रद्धालु स्नान के लिए पहुंचते हैं। प्राचीन काल से ही यह प्रथा चली आ रही है।
इस दिन नदी स्नान क्यों किया जाता है? इसके कई कारण हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास को बहुत पवित्र और पूजा-अर्चना के लिए श्रेष्ठ माना गया है। पुण्य प्राप्त करने के कई उपायों में कार्तिक स्नान भी एक है। पुराणों के अनुसार इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में किसी पवित्र नदी में स्नानकर भगवान विष्णु या अपने इष्ट की आराधना करनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कलियुग में कार्तिक पूर्णिमा पर विधि-विधान से नदी स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सत्ययुग के समान कोई युग नही, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।
कार्तिक महीने में नदी स्नान का धार्मिक महत्व तो है साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। वर्षा ऋतु के बाद मौसम बदलता है और हमारा शरीर नए वातावरण में एकदम ढल नहीं पाता। ऐसे में कार्तिक मास में सुबह-सुबह नदी स्नान करने से हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है जो कि पूरा दिन साथ रहती है। जिससे जल्दी थकावट नहीं होती और हमारा मन कहीं ओर नहीं भटकता। साथ ही जल्दी उठने से हमें ताजी हवा से प्राप्त होती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही फायदेमंद होती है। ऐसे में ताजी और पवित्र नदी स्नान से कई शारीरिक बीमारियां भी समाप्त हो जाती है।

अनोखी खबर

करोड़ों के भालू
कहते हैं कि अगर ग़लत कामों से लक्ष्मी आती है, तो वह जाती भी बेकार के कामों में ही है। ताÊा मामला अमेरिका के हेÊा फंड मैनजर पॉल ग्रीनवुड का है, जिसने निवेशकों के फंड से 40 अरब रुपयों के बराबर राशि का गबन कर दिया था। लेकिन उसे गिऱफ्तार कर उसकी सारी संपत्तियां Êाब्त कर ली गईं। दिलचस्प बात यह है कि उसकी संपत्ति में टैडी बियर्स का एक बड़ा कलेक्शन भी था।
उसका यह संग्रह (585 खिलौना भालू), क्रिस्टीÊा की साढ़े नौ घंटे तक चली मैराथन नीलामी में 75 करोड़ रुपए से Êयादा क़ीमत में बिका। इसका स्टार रहा 1920 में निर्मित हर्लेक्वीन बियर, जो 33 लाख रुपए में बिका। 1953 निर्मित ब्लैक टैडी की क़ीमत लगाई गई 21 लाख रुपए!

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

ज़रा हंस लो

लतीफ़े
मरीज- डॉक्टर साहब, मुझे भूलने की बीमारी है।
डॉक्टर- आपको यह बीमारी कब से है?
मरीज- कौन सी बीमारी..


एक बार एक चोर ने अपनी मंगेतर को सोने का सेट दिया।
मंगेतर ने खुश होकर पूछा इस सेट की कीमत क्या है?
चोर ने जवाब दिया..
तीन साल कैद...!!!


पति (पत्नी से)- डार्लिग! यह सच है न कि एक बार देखा हुआ चेहरा तुम कभी नही भूलती ?
पत्नी (पति से)- हां, मगर क्यों?
पति- वो दरअसल तुम्हारे ड्रेसिंग टेबल का महंगा आईना अभी-अभी टूट गया है और नए आईने का जुगाड़ होने तक तुम्हे अपनी याददाश्त से काम चलाना पडे़गा।


संता (बंता से)- मैं नालायक को भी लायक बना सकता हूं!
बंता (संता से)- वो कैसे?
संता- नालायक से ना हटाके!


राहुल क्लास में बैठकर अखरोट खा रहा था। टीचर गुस्सा होते हुए बोलीं- अभी मैथ बनाने का समय है तो तुम अखरोट खा रहे हो?
राहुल- मैथ बनाना है इसीलिए तो अखरोट खा रहा हूं मैम।
टीचर- मतलब?
राहुल- आप कहती हैं थोड़ा दिमाग लगाकर मैथ बनाओ, अंग्रेजी वाली मैम कहती हैं तेरे पास दिमाग है ही नहीं और विज्ञान वाली मैम कहती हैं कि अखरोट खाने से दिमाग बढ़ता है। इसलिए मैं मैथ बनाने के पहले अखरोट खा रहा हूं।

भागवत: १२१: जब रावण ने वरदान में पार्वती को ही मांग लिया

अभी तक हमने पढ़ा कि समुद्रमंथन के दौरान जब लक्ष्मी निकली तो सभी उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। शंकरजी ने कहा सभी इसको मांग रहे हैं तो हम भी लाइन में लग जाएं। लक्ष्मीजी ने शंकरजी को देखा बोलीं आपकी तो नहीं होऊंगी मैं! चाहे जिसको चाहे जब टिका देते हो तो पता नहीं मुझे किसके पल्ले बांध दो? क्योंकि शिवजी का इतिहास तो आप भी जानते होंगे कि रावण ने जब शिवजी की स्तुति की तो शिवजी इतने प्रसन्न हुए कि रावण को अपना भक्त बनाकर जो भी मांगा वो सब दे दिया और जैसे ही प्रणाम करके रावण उठा तो दुष्ट रावण ने देखा कि शिवजी के पास पार्वती खड़ी थी और सुंदर थी पार्वती।

सौंदर्य रावण की सबसे बड़ी कमजोरी थी। रावण ने कहा आपने सब दे तो दिया भोलेनाथ एक चीज और चाहिए। उन्होंने कहा मांग-मांग क्या मांगता है। रावण ने पार्वती मांग ली। अच्छा मांग ली, तो वो भी ठीक है ले जा। ऐसा कहते हैं कि रावण पार्वतीजी को लेकर चल भी दिया। अब भोलेनाथ बड़े परेशान कि मैंने क्या कर दिया। इतने में नारदजी आए। नारदजी ने मार्ग में रावण को रोका और बोले इन्हें कहां ले जा रहा हो? रावण ने कहा-वरदान में भोलेनाथ ने दिया है।
नारद ने कहा तुझे पता है ये पार्वती नहीं है। ये तो पार्वती की प्रतिछाया है । पार्वती को तो पहले ही शिवजी ने पाताल में मय दानव के यहां छिपा रखा है। असली पार्वती चाहता है तो वहां जा।रावण भागा पाताल में और वहां ढूंढऩे लगा। एक सुंदर स्त्री आती हुई दिखी तो रावण वहीं रूक गया। रावण बोला-आपका परिचय, तो वो बोली मैं मंदोदरी हूं मय दानव की बेटी। रावण ने कहा चल तू ही चलेगी। पार्वती को भूलकर मंदोदरी से ही विवाह कर लिया। इसका नाम रावण है जो सिर्फ स्त्रियों पर टिकता है रिश्तों पर नहीं टिकता।

दीपक भी दूर करता है वास्तुदोष...

हमारा शरीर पंच तत्व से बना है। मिट्टी भी उन पंच तत्वों में से एक है। मिट्टी से दीपक बनाने का रिवाज हमारे यहां काफी पुराने समय से चला आ रहा है। मिट्टी को बहुत शुद्ध माना जाता है। इसलिए मिट्टी से बने दीपक आज भी पूजन में भगवान के सामने प्रज्वलित किए जाते हैं। साथ ही मिट्टी का दीपक जलाने से घर से कई तरह के वास्तुदोष भी दूर हो जाते हैं।

वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में यदी अखंड रूप से मिट्टी के दीपक जलाएं तो कई तरह के वास्तुदोष में कमी आती है।शाम के समय घर के परंडे पर दीपक जलाने से पितृदोष के साथ ही वास्तुदोष भी शांत होता है।
दक्षिण-पूर्व दिशा में मिट्टी का दीपक लगाने पर घर में किसी तरह का अभाव नहीं रहता।
घर में कभी भी उत्तर-पूर्व कोने में दीपक ना लगाएं। इस कोने में दीपक लगाना वास्तु के अनुसार उचित नहीं माना जाता है।
श्री रामचरित मानस का पाठ अखंड दीपक के सामने करने से घर का वास्तुदोष खत्म हो जाता है।

अब बस भी करो

सीन 1 : ऑल राउंडर होना जरूरी
जैक एंड जिल..वाली पोयम सुनाओ...
जॉनी-जॉनी यस पापा..
गिटार पर अरेबियन धुन तो सुनाओ
शाहरुख के डायलॉग्स बोलकर सुनाओ..
रॉक एंड रॉल..पर डांस करो..
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सीन 2 : ऑल इज नॉट वेल
80 परसेंट मा‌र्क्स? अब क्या होगा..!
कितनी बार कहा कम से कम 8 घंटे पढो..कंपिटीशन बहुत टफ है। ऑल इज नॉट वेल बेटा, समझे न!
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सीन 3 : टाइम मैनेजमेंट
सुबह छह बजे : वेक अप टाइम
आठ बजे : स्कूल टाइम
दोपहर दो बजे : छुट्टी
तीन बजे : लंच
चार से छह बजे : होमवर्क
छह से सात बजे : हॉबी क्लासेज
सात से आठ बजे : ट्यूशन टाइम
साढे आठ बजे : डिनर टाइम
दस से साढे दस : गुड नाइट
(गिव मी सम सनशाइन..गिव मी सम रेन...लेकिन टाइम-टेबल में ऐसा कोई समय नहीं)
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सीन 4 : पापा कहते हैं
आर्ट, म्यूजिक, स्पो‌र्ट्स ठीक है, लेकिन एम.बी.ए. तो करना होगा..।
पापा, मुझे इसमें इंटरेस्ट नहीं है।
मैंने कहा कि वही करना है..
लेकिन मुझे ग्राफिक अच्छा लगता है..
मैंने कहा न, जो कह रहा हूं-वही करो...।
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कल्पना ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है। ज्ञान की तो सीमा है, लेकिन कल्पना दुनिया के किसी भी छोर तक पहुंच सकती है।
-अल्बर्ट आइंस्टाइन
महान वैज्ञानिक का कथन जो भी हो, लेकिन टाइम-टेबल में बंधे बचपन के पास आज कल्पना का समय कहां है! होमवर्क से समय बचे तो टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट, विडियो गेम्स की दुनिया है। हाइटेक हैं ये बच्चे, सूचनाओं से लबालब हैं। हाथ से चम्मच पकडना ठीक से आए न आए, पेंसिल-पेन और माउस ठीक से पकडना आना चाहिए। साबित करो खुद को..। ढाई वर्ष की उम्र से यही तो सिखाया जाने लगता है।

अपेक्षाएं बडी-बडी

अधिकतर छात्र मानते हैं कि अब पढाई बहुत मुश्किल होती जा रही है।उन्हें यह डर है कि माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरे न उतरे तो क्या होगा। सी.बी.एस.ई. में सी.सी.ई. (कंटिन्युअस एंड कॉम्प्रिहेंसिव इवैल्यूएशन) सिस्टम लागू होने पर नवीं-दसवींकक्षा के ज्यादातर छात्र नाखुश दिखते हैं। डी.पी.एस. (दिल्ली) में नवीं कक्षा में पढने वाले शिवम कहते हैं, इस सिस्टम में एक हफ्ते में तीन-चार असाइनमेंट्स, क्लास टेस्ट, एक्स्ट्रा एक्टिविटीज जैसे तमाम काम करने होते हैं। इस वर्ष कभी बारिश तो कभी कॉमनवेल्थ के कारण छुट्टियां ज्यादा हुई। स्कूल खुलते ही सुपर फास्ट ट्रेन की तरह कोर्स पूरा कराया जाने लगता है। एक चैप्टर के कंसेप्ट स्पष्ट नहीं होते कि दूसरा शुरू हो जाता है। मॉम-डैड को लगता है हम ध्यान नहीं दे रहे हैं। ट्यूटर को समझ नहीं आता..।

मा‌र्क्स कम आने पर अभिभावकों का क्रोध भी छात्रों का स्ट्रेस बढाता है। बारहवीं के छात्र करियर का दबाव महसूस करते हैं। उन्हें मीडिया व कोचिंग सेंटर्स से भी शिकायत है जो टॉपर्स की खूबियों को बढा-चढाकर पेश करते हैं। इससे एवरेज मा‌र्क्स या ग्रेड वाले स्टूडेंट्स व उनके पेरेंट्स हीन-भावना से ग्रस्त होते हैं।

सी.सी.ई.सिस्टम

सी.बी.एस.ई.ने बच्चों के मन से बोर्ड परीक्षा का भय कम करने के लिए अभी नवीं-दसवीं कक्षा में सी.सी.ई. सिस्टम लागू किया है। यह एक ग्रेडिंग प्रणाली है, जिसमें साल भर के परफॉर्र्मेस के आधार पर छात्रों को ग्रेड दिए जाते हैं। हालांकि कुछ छात्र चाहें तो बोर्ड परीक्षा भी दे सकते हैं। इनमें अधिकतर वे हैं, जो स्कूल या बोर्ड बदलने वाले हों।

दिल्ली स्थित जंप संस्था के डायरेक्टर व करियर काउंसलर जितिन चावला कहते हैं, इस सिस्टम को समझने में अभी छात्रों को समय लगेगा। कुछ दिन पहले मैं नवीं कक्षा के छात्रों के साथ था तो उन्होंने कहा कि ग्रेडिंग सिस्टम से उन पर दबाव बढ गया है। लगता है जैसे हमेशा परीक्षाएं चल रही हैं। अच्छी बात यह है कि इसमें प्रतिभाशाली बच्चों को अवसर मिल सकते हैं।

एक बात यह भी है कि जिस रफ्तार से करियर के नए विकल्प आए हैं, उस तेजी से माता-पिता का माइंडसेट नहीं बदल पा रहा है। उन्हें भी नई पीढी के हिसाब से खुद को अपडेट करना चाहिए। एक लडकी हमारे पास आई थी, जिसने डी.पी.एस. फरीदाबाद से इंटरमीडिएट की परीक्षा 96.4 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण की थी। पेरेंट्स की सलाह से उसने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा दी। कई जगह चयन भी हुआ। हमारे पास आई तो उसे पता चला कि उसकी रुचि अर्थशास्त्र विषय में है। अब उसने इकोनॉमिक्स में ऑनर्स करने का मन बनाया है। इसमें कई करियर विकल्प भी खुले हैं।

दूसरी ओर नोएडा (उत्तर प्रदेश) में रहने वाली सीमा कहती हैं, सी.सी.ई. से दबाव तो बढा है, लेकिन पढाई में एक निरंतरता भी आई है। मेरा बेटा सिद्धार्थ दसवींकक्षा में है। पहले बोर्ड परीक्षा से कुछ समय पहले ही छात्र पढना शुरू करते थे, लेकिन अब हर हफ्ते क्लास टेस्ट व असाइनमेंट्स से उनकी पढाई की आदत बनी रहती है। हालांकि एकाएक इस बदलाव को वे अभी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।

दबाव और सेहत

गगनदीप कौर (क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट सेंटर फॉर चाइल्ड डेवलपमेंट एंड एडोलोसेंट हेल्थ, मूलचंद मेडिसिटी, नई दिल्ली) का कहना है, बच्चों पर दबाव बहुत ज्यादा है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। इससे हाइपरटेंशन, एनॉरोक्सिया, ओबेसिटी, डिप्रेशन, ईटिंग डिसॉर्डर, एनेक्जाइटी, बेड-वेटिंग, नेल-बाइटिंग, लो सेल्फ-इस्टीम, स्लीपिंग डिस्टर्बेस और सुसाइडल टेंडेंसी बढ रही है।

दूसरी ओर वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पी.के. सिंघल (इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल) कहते हैं, पढाई के दबाव से बच्चे कभी बीमार नहीं होते। आजकल बच्चों का अधिकतर समय टीवी-इंटरनेट के आगे गुजरता है। माता-पिता व्यस्त हैं और बच्चे जंक फूड खाते हैं। उन्हें पर्याप्त प्रोटीन, कैल्शियम नहीं मिलता, जिससे वे हाइपरटेंशन से ग्रस्त हो जाते हैं। यदि दिनचर्या नियमित हो, बच्चा सही डाइट ले, बाहर खेले तो वह बीमार नहीं होगा। प्रोटीन की कमी से अवसाद होता है, सुस्ती रहती है और गुस्सा आता है। इसलिए पौष्टिक आहार, व्यायाम, योग, बाहर खेलना जरूरी है।

पेरेंट्स-टीचर्स की जिम्मेदारी

गगनदीप कौर फिर कहती हैं, सी.सी.ई. सिस्टम की दिक्कत यह है कि इसमें बेसिक होमवर्क कम किया गया, जिससे छात्रों पर प्रेशर बढ गया। बोर्ड परीक्षाओं का भय तो कम हुआ, लेकिन दूसरे कई दबाव बढ गए। पहले वे जिन अतिरिक्त गतिविधियों को मजे के लिए करते थे, अब वे मजबूरी बन गए। इस सिस्टम के साथ स्कूलों की व्यवस्था में सुधार भी करने चाहिए। एक टीचर अकेले 40-50 बच्चों पर ध्यान नहीं दे सकता। दूसरे विषयों के टीचर्स को भी यह जिम्मेदारी बांटनी चाहिए।

छात्रों की परेशानियों को सुलझाने के लिए एक अलग पीरियड हो, जिसमें काउंसलर उनकी समस्याएं सुने और उनका निदान करे। इसके अलावा कुछ तेज-समझदार छात्रों के नेतृत्व में ग्रुप्स बनाए जाएं। उनके बीच विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद कराया जाए, ताकि छात्रों में अपनी बात कहने-सुनने की योग्यता पनपे।

यह बात सही है कि कंपिटीशन टफ है। नंबर वन ही सही है, मान लिया जाता है। नंबर दो पर रहने की बात न पेरेंट्स को भाती है, न टीचर्स को। लगातार जीत मिले तो अचानक हुई हार को छात्र बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसलिए उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि जीत-हार से अधिक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता में भाग लेना है।

टेक्नोलॉजी का ज्ञान हाईटेक युग में जरूरी है, लेकिन यह छात्रों में तनाव भी पैदा कर रहा है। इसकी सीमा तय करना पेरेंट्स का काम है। आज के दौर में करियर ऑप्शंस बढे हैं, लेकिन कंपिटीशन भी बढा है। अभिभावक इंजीनियर बनाना चाहते हैं, बेटा-बेटी रेडियो जॉकी बनना चाहते हैं। दो छोरों के बीच तालमेल नहीं होगा तो स्ट्रेस होगा। इसलिए माता-पिता और बच्चों के बीच निरंतर-सार्थक संवाद भी जरूरी है।

स्नेह एवं सहयोग जरूरी

देहरादून (उत्तराखंड) स्थित इंडियन पब्लिक स्कूल की आर्ट एंड क्राफ्ट टीचर मौशमी कविराज कहती हैं, मैं रेजिडेंशियल स्कूल में टीचर हूं। यहां छात्रों पर बहुत अधिक दबाव होता है। रात के दस बजे तक किसी न किसी एक्टिविटी में उन्हें लगे रहना होता है। हमारे यहां आई.सी.एस.ई. है। बोर्ड परीक्षा देने वाले बच्चों को स्कूल की अन्य गतिविधियों में भाग लेने से रोक दिया जाता है, ताकि पढाई बाधित न हो। यह बात सही है कि कोर्स टफ है, पढाई के तौर-तरीके भी बदले हैं। करियर ऑप्शंस के साथ कंपिटीशन भी बढा है। पेरेंट्स-टीचर्स की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को पूरा सहयोग दें। बडों के स्नेह व मार्गदर्शन पर बच्चों का हक है और यह उन्हें मिलना ही चाहिए।

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खेल-खिलौने कई हैं मगर समय नहीं

करिश्मा कपूर (अभिनेत्री)

मां बनने के बाद बच्चों की परेशानियां समझ में आने लगी हैं। मेरी बेटी समायरा सात साल की है और सीनियर के.जी. में पढ रही है। बेटा आठ महीने का है। मां होने के नाते कह सकती हूं कि भले ही बच्चों को एक समय का खाना न मिले, लेकिन माता-पिता अवश्य मिलें। बढती उम्र में माता-पिता जितना मार्गदर्शन दे सकते हैं, उतना कोई और नहीं।

आज के दौर में बच्चों पर बहुत दबाव है। मेरी बेटी तो अभी छोटी है, मैं उसे पूरा समय भी देती हूं, लेकिन उसे भी कई बार तनाव हो जाता है। ऐसे में अकेले रहने वाले बच्चों के बारे में सोचकर देखें। माता-पिता घर से बाहर काम करते हैं। बच्चा क्या करे-किसके साथ खेले और पढाई में कोई दिक्कत हो तो किससे पूछे। वह धीरे-धीरे सारे प्रेशर खुद पर लेने लगता है और तनावग्रस्त हो जाता है। इस पर उन्हें बाहर खेलने, माता-पिता से खुलकर बात करने का समय न मिले तो उनका तनाव बढता चला जाता है। हमारे समय में पढाई का दबाव थोडा कम था, अब बहुत ज्यादा है। लेकिन इससे भी बडी समस्या है बच्चों का अकेलापन और घंटों कंप्यूटर-नेट के आगे बैठे रहना। आउटडोर गेम्स में दिलचस्पी पैदा करना पेरेंट्स की जिम्मेदारी है। बच्चों में इतनी ऊर्जा होती है कि खाली बैठ ही नहीं सकते। उन्हें हमेशा व्यस्त रखने की जरूरत होती है। अगर पेरेंट्स साथ नहीं हैं तो जाहिर है वे टीवी-कंप्यूटर के आगे बैठेंगे और उनका स्ट्रेस बढेगा। टीवी ज्यादा देखने से उनमें आक्रामकता आ रही है। वे टीवी देखते हुए कुछ न कुछ खाते रहते हैं, जिस कारण उनका वजन भी बढ रहा है। पिछले 5-6 वर्षो में बच्चों में ओबेसिटी की समस्या जितनी बढी है, उतनी कभी नहीं देखी गई। बच्चों के साथ स्पेशल बॉन्डिंग तभी हो सकती है, जब पेरेंट्स पढाई, अनुशासन के अलावा भी अपने बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेलें। व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय पूरी तरह बच्चों को दें।

शिक्षा व्यवस्था में खामियां तो हैं। पूरा एजुकेशन सिस्टम बदल चुका है। मैं और बेबो (करीना) छोटे थे तो पढाई का ऐसा दबाव कभी महसूस नहीं किया। हमें माता-पिता, दादा-दादी का साथ मिला। हमारे समय में खेलने के साधन आज की तुलना में कम थे। अकसर मैं मां का दुपट्टा ओढकर टीचर बनती और बेबो स्टूडेंट। आज के बच्चों के पास खेलने के कई साधन हैं लेकिन समय ही नहीं है। कोर्स इतना मुश्किल है कि लगभग सभी विषय ट्यूटर को पढाने होते हैं। पढाई से भागा तो नहीं जा सकता।

अपनी बात करूं तो बच्चों को अनुशासन में अवश्य रखती हूं, लेकिन बहुत कठोर नहीं हूं। बडे होकर वे जो भी बनना चाहें, मैं व मेरे पति संजय उन्हें अपना पूरा सहयोग देंगे। अभी तो सिर्फ इतना ही कह सकती हूं।

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माता-पिता का साथ सबसे जरूरी

ट्विंकल खन्ना भाटिया (अभिनेत्री)

पारिवारिक जीवन को मैं बहुत महत्व देती हूं। मेरे माता-पिता लंबे समय तक अलग-अलग रहे हैं। मैंने व रिंकी ने यह पीडा महसूस की है। लेकिन मां ने हम दोनों बहनों की परवरिश बहुत प्यार से की है। मेरा मानना है कि बच्चे को बनाने में पेरेंट्स का सबसे बडा हाथ होता है। हमारी मां ने कभी हमें कोई कमी नहीं होने दी। हमारे बडे होने के बाद ही उन्होंने दोबारा काम शुरू किया। मैं मां की तरह परफेक्ट मॉम नहीं हूं। लेकिन बेटे आरव की खुशी का मैं और मेरे पति अक्की (अक्षय कुमार) पूरा खयाल रखते हैं।

बच्चों पर पढाई का प्रेशर बढ रहा है, लेकिन यह प्रेशर तनाव में तभी बदलता है, जब माता-पिता बच्चों को वक्त नहीं दे पाते। अकेले रहने वाले बच्चे टीवी-कंप्यूटर देखकर समय बिताते हैं और ज्यादा एडिक्शन होने पर वे प्रॉब्लम चाइल्ड भी बन सकते हैं।

मेरा मानना है कि आज छात्रों पर करियर का दबाव बढा है। हमारे समय में यह इतना नहींथा। मां ने कभी हम पर यह दबाव नहीं बनाया कि कोई खास करियर ही चुनें या खास विषय की पढाई करें। मैंने आर्किटेक्चर-इंटीरियर डिजाइनिंग की पढाई की। मुझे याद नहीं आता कि पढाई या करियर को लेकर कभी मां के साथ हमारी बहस हुई हो या उन्होंने अपनी इच्छाएं हम पर थोपने की कोशिश की हो। उन्होंने भरसक हमें सहयोग ही दिया।

मेरे बेटे आरव को पढाई के साथ ही मार्शल आर्ट और एक्टिंग में दिलचस्पी है। अभी तो वह छोटा है और उसकी इच्छाएं बदलती रहती हैं। कभी वह पायलट बनना चाहता है तो कभी एक्टिंग करने में उसे मजा आता है। बडा होकर वह क्या करेगा, यह उसे ही तय करना है, लेकिन माता-पिता होने के नाते हर कला के प्रति उसे प्रेरित करना हमारी जिम्मेदारी है।

शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणियां करना मैं उचित नहीं समझती। मेरा मानना है कि बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं। उन्हें बनाना माता-पिता की ही जिम्मेदारी है। स्कूल और टीचर्स तो बाद में आते हैं। आज इतना जबर्दस्त कंपिटीशन है। ऐसे में पढाई का दबाव बढेगा ही। पेरेंट्स का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को गाइड करें, ताकि पढाई उन्हें बोझ न लगे। उन्हें खेलने और अन्य गतिविधियों के लिए भी अवश्य प्रेरित किया जाना चाहिए। साथ ही यदि बचपन से ही उन्हें थोडा अनुशासित और व्यवस्थित होने की सीख दे दी जाए, तो आगे परेशानी नहीं होगी।

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प्रतिभा को उभरने का मौका मिले

साजिद खान (फिल्म निर्माता)

हर इंसान के भीतर एक बच्चा होता है। बडे होने पर भी लगता है, काश पंख होते तो उड जाते, बौछारों में भीगते, पानी में खेलते, रेत के घर बनाते...। लेकिन बडे होने की अपनी दिक्कतें हैं। जब हमारे मन में ये बातें आती हैं तो बच्चों को तो पूरा हक है कि जो उनका दिल कहे, उसी पर चलें। मैं उन पर बहुत अनुशासन रखने के पक्ष में नहीं हूं। ज्यादा अंकुश से बचपन मुरझा सकता है। मेरे बचपन में हमारे परिवार की माली हालत कुछ खास नहीं थी, लेकिन हमारा बचपन बहुत समृद्ध था। बहन फराह खान का पूरा सपोर्ट था। इंडियाज गॉट टैलेंट रिअलिटी शो में जज बनने के बाद मुझे एहसास हुआ कि बच्चों के साथ हम अन्याय करते हैं। हमने दो दूनी चार सीखा है, वही बच्चों को भी सिखाना चाहते हैं। दो दूनी पांच भी हो सकता है, यह दरअसल बच्चे ही हमें सिखाते हैं।

अगर अपनी बात करूं तो बचपन में पढाई मुझे बोझ लगती थी। लेकिन यह बात भी सच है कि न्यूनतम पढाई के बिना जिंदगी में आगे नहींबढा जा सकता। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हम यह कह नहीं सकते कि शिक्षा व्यवस्था में खामियां हैं। पढाई का प्रेशर तो रहेगा ही, सोचना यह पडेगा कि बच्चों का यह दबाव कम कैसे करें। पढाई जरूरी है, बाकी ज्ञान भी हासिल करना है। लेकिन पढाई बोझ न लगे, बचपन इन सबके बीच खो न जाए, इस पर अगर काम किया जा सके तो बेहतर होगा।

मैंने महसूस किया कि भारतीय बच्चे वाकई बहुत टैलेंटेड हैं। बुरी से बुरी स्थितियों में रहने वाले बच्चों में भी कई कलाएं जन्म ले रही होती हैं। पढाई, भारी बस्तों, होमवर्क, प्रोजेक्ट्स, ट्यूशंस के बीच उनका सारा टैलेंट कहीं दबकर रह जाता है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं कि किसी बच्चे में यदि संगीत की क्षमता है तो स्कूल में ही उसे पूरी तरह निखरने का मौका मिल सके! उसे पढाई को लेकर बहुत न सोचना पडे!

बच्चे देश का भविष्य हैं। उनका वर्तमान कैसा है, इसी पर देश का आने वाला कल निर्भर करता है। हमारे समाज में यह अच्छी बात है कि हम बच्चों को भरसक पारिवारिक माहौल देते हैं। शादी के बाद भी जब तक बेटा-बेटी अलग होने की बात न करें, उन्हें अलग नहीं होने देते। यह दृष्टिकोण एक तरह से फायदेमंद भी है, क्योंकि उन्हें माता-पिता सहित दादा-दादी या नाना-नानी का साथ मिलता है।

हालांकि आज अभिभावक बच्चों को लेकर पहले की तुलना में ज्यादा सोच रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं कि बच्चों की प्रतिभा निखर कर आए। हमारे बच्चे मानसिक व शारीरिक रूप से दुनिया के किसी भी अन्य बच्चों से बेहतर हैं। यू.एस. और विदेशों में रहने वाले बच्चों की कई दूसरी समस्याएं हैं, जो हमारे यहां नहीं हैं। अगर हमारे यहां थोडी सुविधाएं बढाई जाएं तो यहां के बच्चे बहुत बेहतर रिजल्ट दे सकते हैं।

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बचपन को थोडा बेफिक्र बनाना होगा

स्वाति पोपट वैट्स (अध्यक्ष, पोद्दार एजुकेशन नेटवर्क और एजुकेशनल एडवाइजर, टाटा स्काई)

बच्चों की जिंदगी जितनी हसीन लगती है, उतनी है नहीं। यह यूटोपिया की तरह है, दूर से सुहानी दिखती है। वे होमवर्क, पेरेंट्स और स्कूल के दबाव में दबे रहते हैं। बच्चों का भविष्य काफी हद तक पेरेंट्स पर निर्भर होता है। उन्हें पंद्रह वर्ष की उम्र तक सबसे ज्यादा अटेंशन की जरूरत होती है। यह न मिलने पर वे अकेले समस्याओं से जूझते हैं और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। कामकाजी माता-पिता, संयुक्त परिवारों का बिखरना, सिंगल पेरेंटिंग से मिले अकेलेपन ने उन्हें टीवी-इंटरनेट की दुनिया की ओर धकेल दिया है। बच्चों के ब्रेन को हमेशा एक्साइटमेंट चाहिए। उनकी खुशी-उनके इमोशंस हमेशा जाग्रत अवस्था में रहते हैं। दुर्भाग्य से व्यस्त पेरेंट्स बच्चों को पैसे देते हैं, हर जरूरत पूरी करते हैं, लेकिन समय नहीं दे पाते। अतिरिक्त व्यस्तता उनमें अपराध-बोध को जन्म देती है और इसकी भरपाई के लिए वे दूसरी गलती यह करते हैं कि बच्चों की नाजायज मांगें पूरी करते हैं। पहले समझौते करते हैं, बाद में पछताते हैं।

दूसरी ओर स्कूल में होमवर्क, परीक्षाओं, प्रोजेक्ट वर्क का इतना दबाव है कि उनके पास आउटडोर गेम्स के लिए समय ही नहीं। जो एकाध घंटे बचते हैं, टीवी की भेंट चढ जाते हैं। मेरे एक संबंधी का इकलौता नौ वर्षीय बेटा अवसादग्रस्त हो गया। माता-पिता नौकरी के सिलसिले में भारत से गल्फ चले गए तो बच्चा वहां एडजस्ट नहीं कर सका। बच्चों को स्नेह से सींचने की जरूरत होती है। उनमें अपार क्षमताएं हैं। माता-पिता समय नहीं देंगे तो वे कहीं और अपनी जिज्ञासाओं को शांत करेंगे। उनके पास लेटेस्ट टेक्नोलॉजी है। दुनिया उन्हें माउस के एक क्लिक पर मुहैया है। मैं लंबे समय से गुजरात सरकार के लिए किड्स ग्रासरूट एजुकेशन पर काम कर रही हूं। हमें फिर से ट्रडिशनल पेरेंटिंग को अपनाना होगा। पेरेंट्स को बच्चों का सम्मान करना चाहिए, साथ ही यह भी पता रहे कि कहां उन्हें ढीला छोडना है, कहां सख्ती करनी है। अभिभावकों व बच्चों के बीच एक बेहतर व नियमित संवाद दुर्भाग्य से आज के समय में कम हो चुका है।

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अपनी इच्छाएं बच्चों पर न थोपें पेरेंट्स

डॉ. श्वेता मिश्रा, हेड ऑफ स्पेशल नीड डिपार्टमेंट फॉर कंगारू किड्स एजुकेशन ट्रस्ट

इस जेनरेशन के बच्चों को कई समस्याएं झेलनी पड रही हैं। कुछ पेरेंट्स को तो बच्चों के रूप में ऑल राउंडर चाहिए। ईश्वर ने हर मनुष्य को किसी न किसी कला में माहिर बनाया है। सचिन तेंदुलकर क्रिकेट में बेस्ट हैं, जरूरी नहीं कि वह हॉकी या फुटबॉल में भी बेस्ट हों। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर गायकी में अव्वल हैं, जरूरी नहीं कि वह कुकिंग में भी आगे रहें। दिक्कत यह है कि अभिभावक अपनी इच्छाएं-आकांक्षाएं बच्चों पर थोपते हैं। अपनी जिंदगी में जिन ख्वाबों को पूरा नहीं कर पाते, चाहते हैं कि बच्चों के जरिये उन्हें पूरा करें। क्या यह जरूरी है कि बच्चा पढाई में तो टॉप रहे ही, ड्राइंग-पेंटिंग, खेलकूद या अन्य तमाम गतिविधियों में भी अव्वल रहे? अकसर माता-पिता गर्व से बताते हैं कि उनके बच्चे को अच्छे मा‌र्क्स मिले हैं। इस पर यदि दोस्तों के नंबर अधिक आ जाएं तो बच्चे की शामत आ जाती है। कई बार टीचर्स भी बच्चों की परफॉर्र्मेस को अपनी खुद की परफॉर्र्मेस से जोड लेते हैं। अगर किसी क्लास में बच्चे 80 प्रतिशत मा‌र्क्स लाते हैं तो क्रेडिट क्लास-टीचर को जाता है। जो छात्र कम मा‌र्क्स लाता है, उसे टीचर अपने अपराध-बोध के कारण प्रताडित करती है। यानी कम मा‌र्क्स लाने पर उसे दोहरी यातना झेलनी पडती है, घर में भी और स्कूल में भी। टॉपर बच्चे चाहे जैसे हों, सबके लाडले होते हैं। ऐसे में पढाई में कमजोर बच्चे डिप्रेशन में चले जाते हैं। समाज के रवैये से वे कुंठित भी हो जाते हैं और कंप्यूटर, टीवी या विडियो गेम ही उनके दोस्त बन जाते हैं, जो उनसे कोई सवाल नहीं करते, जो उन्हें किसी कसौटी पर नहीं कसते। मेरा सुझाव यह है कि बच्चों में तनाव कम करने के लिए स्कूल में विशेष पैनल बनाया जाए। उनके पास खेलने के लिए वक्त हो। उनका आई क्यू केवल लिखित परीक्षा तक न हो, इसे हर क्षेत्र में परखा जाए। बच्चों को बौद्धिक खुराक चाहिए, प्यार-स्नेह-खानपान के बाद उन्हें ऐसा साझीदार चाहिए, जो उनसे हर विषय पर बात कर सके। यह माता-पिता ही कर सकते हैं, इसलिए 24 घंटे में केवल एक घंटा पूरी तरह बच्चों के लिए सुरक्षित रखें।

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हेल्थ मीटर
शहरी बच्चों के पास अच्छे कपडे, खिलौने, लेटेस्ट टेक्नोलॉजी व अन्य सामान हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी सेहत भी अच्छी है।
1. 12 फीसदी छात्र नियमित अस्पताल जाते हैं। जबकि 3 फीसदी वयस्क ही लगातार हॉस्पिटल जाते हैं।
2. 62 फीसदी का खानपान ठीक नहीं है। 32 प्रतिशत हफ्ते में कम से कम तीन बार जंक फूड खाते हैं।
3. 34 प्रतिशत रोगग्रस्त हैं तो 37 फीसदी शारीरिक तौर पर फिट नहीं हैं।
4. 43 पर्र्सेट नियमित सब्जियां व फल नहीं खाते, जबकि 31 प्रतिशत रोज दो कप दूध भी नहींपीते।
5. 49 प्रतिशत बच्चों को प्रोटीन कम मात्रा में मिलता है।
6. 19 फीसदी पढाई में कमजोर हैं।
7. 33 प्रतिशत बच्चों की आंखें और 30 प्रतिशत के दांत कमजोर हैं।
8. 40 प्रतिशत बच्चे ओवरवेट हैं तो 30 फीसदी की मांसपेशियां कमजोर हैं।
9. सीढियां चढते हुए 63 प्रतिशत बच्चों की सांस फूलने लगती है।
10. 54 प्रतिशत स्कूल खत्म होने के बाद कोचिंग क्लासेज में जाते हैं।
11. 30 फीसदी छात्रों के पास आउटडोर गेम्स के लिए वक्त नहीं है।
12. 65 प्रतिशत बच्चे निजी, शैक्षिक व घरेलू समस्याएं झेल रहे हैं और 16 फीसदी बच्चे प्यार-स्नेह से वंचित हैं।
(अपोलो हॉस्पिटल्स की ओर से हैदराबाद, मुंबई, बैंगलोर, चेन्नई, पुणे, कोच्चि, इलाहाबाद, लखनऊ में 50 स्कूलों के करीब 40 हजार बच्चों पर कराए गए सर्वे के नतीजे। ये सभी छठी से बारहवींकक्षा के छात्र थे।)
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पीठ पर लदे भारी बस्ते बच्चों की सेहत बिगाड रहे हैं। एक शोध के अनुसार यदि बस्ते का वजन बच्चे के कुल वजन का पांच फीसदी है तो उसके धड वाले हिस्से को हानि पहुंच सकती है। यदि बस्ते का वजन बच्चे के कुल वजन का 15 प्रतिशत है तो उसके सिर, कंधे, धड सहित पूरे शरीर पर असर पडता है।
(मैंगलोर के एक फिजियोथेरेपी सेंटर व मेडिकल कॉलेज द्वारा कराया गया सर्वे)
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छात्रों के लिए कुछ व्यावहारिक टिप्स
. सोच को सकारात्मक बनाएं। पढाई में दिक्कत है तो उसे चुनौती मानकर उसका सामना करें। ये सोचें कि आपको सब-कुछ आता है और आप बिना दबाव के काम कर सकते हैं।
2. खुद को कम करके न आंकें । हर विषय में आप एक्सलेंट नहीं हैं तो कोई बात नहीं। यह जरूरी नहीं है कि हर विषय में रुचि हो। जिनमें रुचि है, उनमें एक्सलेंट बनकर दिखाएं।
3. मा‌र्क्स कम आए, इसे लेकर अपराध-बोध पालने के बजाय वास्तविक समस्या पर सोचें। पढाई में क्या कठिनाई आ रही है, कंसंट्रेट कर पा रहे हैं या नहीं। हो सकता है आप परीक्षा के लिहाज से न पढ रहे हों। पढाई के सही तरीके को लेकर माता-पिता व टीचर्स से बात करें। कई बार कठिन मेहनत के बावजूद परीक्षाएं अच्छी नहीं होतीं। इसका कारण होता है पढाई का तरीका सही न होना। कारण ढूंढें और उसके निदान में बडों की मदद लें।
4. यदि लगातार तनाव, बेचैनी या कंसंट्रेशन प्रॉब्लम हो रही हो और किसी भी तरह उससे बाहर नहींआ पा रहे हैं तो किसी काउंसलर की मदद लें।
5. घंटों पढने के बजाय कम समय में अधिक कंसंट्रेशन के साथ पढने का अभ्यास करें। रोज एक घंटा बाहर खेलें। मौज-मस्ती, आउटडोर गेम्स, एक्स्ट्रा एक्टिविटीज न छोडें।