रविवार, 31 अक्तूबर 2010

सबसे ऊँचा शिव‍ मंदिर

भारत का सबसे ऊँचा (करीब २५२ फुट) शिव मंदिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मध्य में स्थित श्री विश्वनाथ मंदिर है। मंदिर का शिखर दक्षिण भारत के तंजावुर स्थित वृहदेश्वर मंदिर की ऊँचाई से ज्यादा है। इसमें मुख्य शिखर के अलावा दो अन्य शिखर भी हैं। मंदिर की अंदर की दीवारों पर श्रीमद्भगवतगीता के श्लोक अंकित हैं। इसके अलावा दीवारों पर संतों के अनमोल वचन भी संगमरमर पर उकेरे गए हैं। मंदिर के दोनों तरफ खूबसूरत मूर्तियाँ बनी हैं।
मंदिर तथा आसपास का परिसर इतना सुंदर है कि फिल्म बनाने वाले भी यहाँ आकर्षित होते हैं। हरे-भरे आमों के पेड़ मंदिर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं। कई फिल्मों की यहाँ पर शूटिंग भी हो चुकी है। मंदिर की साफ-सफाई इतनी अच्छी है कि कहीं पर एक तिनका नजर नहीं आता। इस मंदिर को अगर हिंदू विश्वविद्यालय का आध्यात्मिक केंद्र कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहाँ बाबा भोलेनाथ की आरती में इलेक्ट्रॉनिक घंटा-घड़ियाल लयबद्ध ताल में गूँजते हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय की कल्पना की परिणति है यह भव्य और अलौकिक सौंदर्य से भरा मंदिर। मंदिर के चढ़ावे से विश्वविद्यालय के २२ छात्रों को "अन्नसुख" भी मिलता है। मदन मोहन मालवीय की मंशा के अनुरूप इसे आकार देने का श्रेय उद्योगपति युगल किशोर बिरला को जाता है। मंदिर का शिलान्यास ११ मार्च १९३१ को हुआ और १७ फरवरी १९५८ को महाशिवरात्रि पर मंदिर के गर्भगृह में भगवान विश्वनाथ प्रतिष्ठित हुए।
जीवन के अंतिम समय में बिस्तर पर पड़े मदनमोहन मालवीय की आँखें नम देख जाने-माने उद्योगपति युगल किशोर बिरला ने मंदिर के बारे में पूछा तो वे मौन रहे। मदन मोहन मालवीय को मौन देख बिरला बोले, आप मंदिर के बारे में चिंता न करें, मैं वचन देता हूँ कि पूरी तत्परता के साथ मंदिर के निर्माण कार्य में लगूँगा। तब मदन मोहन मालवीय निश्‍चिंत हुए और कुछ दिन बाद ही उनका देहांत हो गया। मंदिर की अन्नदान योजना के तहत अभी २२ छात्रों और कुलपति के विवेकाधीन कोष से १६ छात्रों को भोजन कराया जाता है। मंदिर के कोष से इसका रख-रखाव होता है। विश्वविद्यालय की ओर से यहाँ छह पुजारी, तीन चौकीदार, दो गायक, एक तबला वादक, एक अधिकारी समेत अन्य कर्मचारी मंदिर की देखरेख एवं सेवा में तैनात हैं।
वैसे तो मंदिर में बाबा का दर्शन करने वाले हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन आते हैं लेकिन सावन के महीने में भक्तों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है। मंदिर में लगी देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों का दर्शन कर लोग जहाँ अपने को कृतार्थ करते हैं वहीं मंदिर के आस-पास आम कुंजों की हरियाली एवं मोरों की "पीकों" की आवाज से भक्त भावविभोर हो जाते हैं।
पूरे सावन माह और माह के प्रत्येक सोमवार को देश-विदेश से श्रद्धालु यहाँ भक्तिभाव से जुटते हैं। मंदिर के मानद व्यवस्थापक ज्योतिषाचार्य पंडित चंद्रमौलि उपाध्याय के अनुसार इस भव्य मंदिर के शिखर की सर्वोच्चता के साथ ही यहाँ का आध्यात्मिक, धार्मिक, पर्यावरणीय माहौल दुनिया भर के आस्थावान श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। खासकर युवा पीढ़ी के लिए यह मंदिर विशेष आकर्षण का केंद्र बन चुका है, जहाँ उनके जीवन में सात्विक मूल्यों का बीजारोपण होता है।

चतुर कविराज

एक थे चतुर कविराज, उन्हें था अपनी अकल पर बड़ा नाज। वो थे भी होशियार, राजा भी उनकी हर बात मानने को हो जाते थे तैयार।
एक दिन कविराज ने एक कविता लिखी, सुनकर राजा की तबियत खिली। बोले-'बोलो क्या माँगते हो, क्या इनाम चाहते हो।' कविराज ने सोचा देखते हुए ऊपर, फिर दिया कुछ देर बाद उत्तर-'महाराज मुझे तो दे दीजिए एक शिकारी कुत्ता' सुनकर सारे दरबारी हुए हक्का-बक्का।
सब दरबारियों ने सोचा कविराज ने एक अवसर खो दिया, खनखनाते सिक्कों से हाथ धो लिया। राजा ने कहा-'जो तुमने माँगा है वह मिल जाएगा, शिकारी कुत्ता तुम्हें दे दिया जाएगा।'
कविराज ने कहा-'महाराज आप हैं बहुत दयावान, यदि घोड़ा भी होता मेरे पास तो मैं शिकार पर जाता श्रीमान।' राजा ने कहा-'घोड़ा भी दे देते हैं, तुम्हारी इच्छा पूरी कर देते हैं।'
कविराज ने आगे कहा-'जब भी शिकार मेरे साथ आए, तो चाहता हूँ कि कोई उसे पकाकर खिलाए।'
राजा ने उसे रसोइया भी दे दिया, पर आगे कविराज ने कहा-'आपकी उदारता का नहीं है जवाब, पर मैं इतने सारे उपहार कहाँ रखूँगा जनाब?' राजा ने उसे एक महल भी दे दिया, कविराज का मन अभी भी नहीं था भरा।
फिर उसने कहा-'मैं इतनी बड़ी व्यवस्था को संभालूँगा कैसे, यह सब काम होगा कैसे?' राजा ने कहा मैं दूँगा तुम्हें एक खजूर का बाग, उसमें जमा लेना अपना सारा काम। 'मैंने देखी नहीं ऐसी दयालुता, ऐसी उदारता। मैंने जो चाहा आपने दिया। आप हैं कविता के सही कदरदान, मेरा आभार स्वीकार करें श्रीमान।'

भागवत: १०७: ब्रह्माजी ने हिरण्यकषिपु को दिया अमरता का वरदान


हम आज भक्त प्रह्लाद की कथा पढ़ेंगे। भगवान नारायण ने देवताओं का पक्ष लेकर वाराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला। हिरण्यकषिपु क्रोध से आग बबूला हो गया। भगवान विष्णु से बदला लेने का सोचने लगा। नारदजी ने कहा कि युधिष्ठिर हिरण्यकषिपु के मन में यह आया कि मैं ऐसी तपस्या करूं कि अजर अमर हो जाऊं। मदरांचल पर्वत पर चला गया, कठोर तप किया। 'विष्णु हैं बलवान तो मुझे क्या करना चाहिए? उसने सोचा मैं तप से विष्णु से बदला लूंगा। तप करूंगा। तप किया जाता है भगवान को पाने के लिए और ये तप कर रहा है भगवान को पराजित करने के लिए ।
ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो हिरण्यकषिपु ने ब्रह्मा को देखकर कहा कि आपके द्वारा रचित प्राणियों द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मैं न भवन के बाहर मरूं और न भीतर मरूं । न पृथ्वी पर, न आकाश में। मानव, दानव व देवता, पशु, पक्षी, सर्प आदि मुझे कोई न मार सके। युद्ध में मैं अजय बनूं और संसार का ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हो। तप के पूर्व क्षेपक कथा संत सुनाते हैं। हिरण्यकषिपु के बारे में कहते हैं बड़ा अहंकारी व्यक्ति था। उसे अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय लगता था। उसने अपनी पत्नी कयाधु से कहा कि मैं तप करने जा रहा हूं और कब आऊंगा मुझे नहीं मालूम। पर कुछ ऐसा हांसिल करके आऊंगा कि विष्णु का नामो-निशान मिटा दूंगा।
जैसे ही तप करने गया तो देवता को पता लगा कि हिरण्यकषिपु तप कर लेगा तो उन्होंने अपने गुरु बृहस्पति से कहा गुरुदेव कोई तरीका निकालिए इसके तप में विघ्न डालिए। तो बृहस्पति उस पेड़ के नीचे जहां हिरण्यकषिपु बैठा था, के ऊपर बैठ गए और जैसे ही इसने ध्यान लगाया और आंख बंद की और तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्युकषिपु का ध्यान भंग हुआ कि ये नारायण-नारायण कौन बोल रहा है ? उसने इधर-उधर देखा फिर आंख बंद करके शुरू हुआ और जैसे ही उसने मंत्रोच्चार किया तो तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्यकषिपु को लगा ये तोता तप करने नहीं देगा। जिस शब्द से मुझे इतनी घृणा है ये बार-बार बोल रहा है तो संध्या को घर लौट आया।

अखंड सौभाग्य के लिए करें


कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की एकादशी को रमा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रत रख भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की जाती है। मान्यता के अनुसार इस व्रत के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, यहां तक कि ब्रह्महत्या जैसे महापाप भी दूर होते हैं। सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए यह व्रत सुख और सौभाग्यप्रद माना गया है।
पूजन विधि- यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। इस दिन उपवास रखकर प्रात:काल के नित्य कर्म स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान श्रीकृष्ण की विधि-विधानानुसार पूजा व आरती करें। नैवेद्य चढ़ाकर प्रसाद का वितरण भक्तों में करें। प्रसाद में माखन और मिश्री का उपयोग करें। दिन में एक बार फलाहार करें। अन्न का सेवन न करें।

धनतेरस: सेहत, दौलत व जिंदगी की कद्र का संदेश


कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इस दिन देव-दानवों ने समुद्र मंथन किया था, जिसमें आरोग्य के देवता धनवन्तरी अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसीलिए भगवान धनवन्तरी की जयंती हर साल दीपावली से पहले धनवन्तरी त्रयोदशी के रूप में मनाई जाती है। यह दिन धनतेरस के रुप में भी प्रसिद्ध है।
धनवन्तरी जयंती से जुड़ी पौराणिक मान्यता का संदेश है कि हर व्यक्ति अपनी अच्छाइयों-बुराइयों, गुण-दोषों का मंथन करता रहे। तभी आपकी खूबियां और गुण निखरेगें, जो आखिर में आपकी जिंदगी में सुख, शांति, धन, स्वास्थ्य, संतोष रुपी अमृत बरसाएगें।
भगवान धनवन्तरी को आयुर्वेद विद्या और आरोग्य का देवता माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि भगवान धनवन्तरी ने समुद्र मंथन से प्रकट होने के बाद देवताओं को अमृतरूपी औषधि को पिलाकर वृद्धावस्था, रोगों व मृत्यु से मुक्त किया। इसलिए धनवन्तरी त्रयोदशी को वैद्य समुदाय मुख्य रूप से मनाता है।
इस दिन वैदिक देवता यमराज का पूजन भी किया जाता है। पौराणिक मान्यताओं में यमराज ने अपनी बहन यमुना को वर दिया था कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन उनके निमित्त दीपदान करने से मनुष्य की अकाल मृत्यु नहीं होगी। इस दिन यम को दक्षिण दिशा में दीपदान करने की परंपरा है।
धनतेरस पर्व को धन अर्जित करने का शुभ दिन भी माना गया है। इस प्रकार यह धन की उपासना का पर्व है। इस दिन धन के देवता कुबेर की पूजा भी की जाती है। धन, संपत्ति, व्यवसाय की पूजा की जाती है।
दीपावली के पांच दिवसीय महापर्व का पहला पर्व धनतेरस रोग और भय रूपी अलक्ष्मी की विदाई की जाती है। साथ ही सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य, सद्बुद्धि व स्वास्थ्य रूपी कमला लक्ष्मी के स्वागत की तैयारी शुरू हो जाती है। इस प्रकार अलक्ष्मी के स्थान पर कमला लक्ष्मी का आगमन होने लगता है, इसीलिए यह धनतेरस कहलाती है। इस पर्व के एक दिन पहले द्वादशी की रात से महिलाएं कूड़ा-करकट समेट कर तेरस के दिन सूर्योदय के पहले घर से बाहर फेंककर उस पर दीप प्रज्जवलित करती हैं, इससे जाती हुई अलक्ष्मी का सम्मान व आती हुई कमला लक्ष्मी का स्वागत दोनों हो जाते हैं।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

प्रेरक प्रसंग: रास्ते की रुकावट

विद्यार्थियों की एक टोली पढ़ने के लिए रोज़ाना अपने गांव से 6-7 मील दूर दूसरे गांव जाती थी। एक दिन जाते-जाते अचानक विद्यार्थियों को लगा कि उन में एक विद्यार्थी कम है। ढूंढने पर पता चला कि वह पीछे रह गया है। से एक विद्यार्थी ने पुकारा, ‘तुम वहां क्या कर रहे हो?’उस विद्यार्थी ने वहीं से उदर दिया, ‘ठहरो, मैं अभी आता हूं।’

यह कह कर उस ने धरती में गड़े एक खूटे को पकड़ा। ज़ोर से हिलाया, उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया फिर टोली में आ मिला।’उसके एक साथी ने पूछा, ‘तुम ने वह खूंटा क्यों उखाड़ा? इसे तो किसी ने खेत की हद जताने के लिए गाड़ा था।’
इस पर विद्यार्थी बोला, ‘लेकिन वह बीच रास्ते में गड़ा हुआ था। चलने में रुकावट डालता था। जो खूंटा रास्ते की रुकावट बने, उस खूंटे को उखाड़ फेंकना चाहिए।’वह विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।

आओ पता लगाएं जल में जीवन

‘आइए दोस्तो, समुद्र की ओर चलें,
अरे! बड़ी भयानक ये लहरें!
यहां भी तो जीव-जंतु रहते हैं,
वे कैसे इनको सहते हैं?’
क्या आप कल्पना कर सकते हो कि समुद्र में रहना कैसा लगता होगा? समुद्र में रहने वाले प्राणी हमेशा गतिशील रहते होंगे। तूफान आदि के दौरान जब समुद्र की लहरें बहुत तेज़ होती हैं, तब इन प्राणियों का या होता होगा? मछलियां और अन्य जीव किस तरह ज़िंदा रह पाते होंगे?

मोटे तौर पर यह माना जाता है कि एक समय (4 अरब, 5 करोड़ से भी •यादा साल पहले) जीवन सिर्फ समुद्र और ताज़े पानी में ही था। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पृथ्वी की अपेक्षा समुद्र में अभी भी अधिक जीव निवास करते हैं। समुद्र में जीव-जंतुओं की दो लाख से भी •यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। समुद्री जीव अधिकतर हल्के या उथले पानी में पाया जाता है, जहां कि प्रकाश पहुंच पाता है और प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हो पाती है।
फिर भी अधिकांश समुद्र में बहुत कम ही जीवन होता है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही भरपूर जीवन होता है और इन क्षेत्रों में मानव ने पहले से ही मत्स्य-क्षेत्र (मछली पकड़ने की जगह) बना रखे हैं। लहरों का उतार-चढ़ाव विश्व के कई हिस्सों में अलग-अलग होता है और संभवत: यही कारण है कि कई वर्ष मत्स्य उत्पादन अच्छा होता है, तो कई वर्ष कम।
समुद्री जीव और पौधे तरंगित जल में जीवित रहने के लिए विभिन्न तरीके अपनाते हैं। गहरे समुद्र में रहने वाले जीव अपना संपूर्ण जीवन पानी में गति करते हुए बिताते हैं। तैरते रहने से ही वे अंधेरी गहराई में धंसने से बचे रहते हैं।
यह ज्ञात हुआ है कि कई प्रजातियां प्रकाश की बदलती स्थिति के चलते कई सौ फुट ऊध्र्वाधर तैरती रहती हैं, जबकि कई अन्य प्रजातियां गहरे दिपावली के दिन कुश को आतिशबाज़ी करने में विशेष आनंद आ रहा था। अचानक ऊपर पेड़ से एक चिड़िया घायल होकर उसके पास आकर गिर गई, शायद पटाखों की किसी िचंगारी ने उसके पंख झुलसा दिए थे।
कुश ने आहिस्ता से चिड़िया को उठाकर अपने हथेली पर रखा और हौले-हौले सहलाने लगा। देखते ही देखते वह चिड़िया स्वस्थ होकर हाथ से फिसली और एक खूबसूरत परी के रूप में बदल गई। ‘तुमने मेरी जान बचाई है बोलो क्या चकहते हो!’- परी ने पूछा। इस अप्रत्याशित कृपा से कुश दुविधा में पड़ गया कि वह क्या मांगे? ‘चलो मैं तुम्हारी मदद करती हूं, बोलो क्या चाहिए... पटाखों का ढेर, मिठाई का पहाड़ या नए वस्त्रों का खज़ाना??’-परी ने पूछा। नहीं इनमें से कुछ नहीं’- कुश ने स्पष्ट इंकार किया।
परी अचरज में पड़ गई, ‘फिर?’ कुश ने सकुचाते हुए कह दिया, ‘मैं भूतों की दीपावली देखना चाहता हूं।’ परी के आश्चर्य में और वृद्धि हो गई। ‘यह कैसी मांग हुई कुश, तुम डरोगे नहीं??’ ‘नहीं.’- कुश बोला। ‘ठीक है, तुम्हारी मर्ज़ी।’- कहते हुए कुछ ही देर में परी ने उसे भूतलोक में पहुंचा दिया। वहां का अद्भुत नज़ारा देख कुश स्तध रह गया।
आशा के अनुरूप वहां पटाखों का जखीरा था। बड़े-बड़े ड्रम के बराबर बने हुए बम, भीमकाय रस्सीबम, विशालकाय फुलझड़ियां और फुटबॉल के समान अनार.. उनके आकार-प्रकार देखकर कुश की आंखें फटी की फटी रह गईं।
कुश जिस विशाल पीपल के पेड़ पर बैठकर यह दृश्य देख रहा था, उसके ठीक नीचे ही आतिशबाज़ी का कार्यक्रम संपन्न होना था। नीचे भूतराजा के नेतृत्व में अनेक भूतगण आतिशबाज़ी करने को उत्सुक दिखाई दे रहे थे। अचनाक कुश के हाथ की पकड़ ढीली हो गई और वह धड़धड़ाते हुए भूतराज के पैरों पर गिर पड़ा। उसे आसमान से गिरते देख सभी भूतगण चौंक गए।
भूतराज ने हंसते हुए कहा, ‘हम सबको डराते हैं और आज इस जीवित प्राणी ने हमें डरा दिया।’ कुश ने साहस जुटाकर कहा, ‘मैं आप सभी को दीपावली की बधाई देने और आपकी दिवाली देखने यहां आया था।’‘यह तो खुशी की बात है जीवित प्राणी, तुम सही समय पर आए। हमारा कार्यक्रम शुरू होने वाला है’- भूतराज बोले।
‘एक बात का डर लग रहा है भूत अंकल, आपके इतने बड़े-बड़े पटाखों की कानफोड़ू आवाज़ मेरे छोटे-छोटे कान कैसे सहन कर पाएंगे? कहीं कान के पर्दे फट तो नहीं जाएंगे।’- कुश ने आशंका व्यक्त की। ‘कानों में रुई ठूंस लो’- एक भूत ने सलाह दी।
कुश सोच में पड़ गया, तो भूतराज खिलखिलाते हुए बोला, ‘हम तो मज़ाक कर रहे थे।’ ‘मज़ाक!!! मैं कुछ समझा नहीं’- कुश ने पूछना चाहा। भूतराज फिर खिलखिला पड़े, ‘अरे बेटे, ये सारे पटाखे नकली हैं या यूं समझ लो कि पर्यावरण-मित्र हैं, केवल ऊपर से इतने बड़े और विकराल दिखाई दे रहे हैं लेकिन अंदर से खाली और फुसफुसे हैं।’कुश को समझ में नहीं आया,
‘पर्यावरण-मित्र पटाखे...किस प्रकार के?’ ‘ये पटाखे कागज़ के बने हैं और इनके अंदर बारूद के स्थान पर सूखी घासफूस और कचरा भरा हुआ है.. जलने पर उसमें सिर्फ रोशनी होगी, धमाके नहीं।’ कुश की आंखों में कौतूहल बढ़ता जा रहा था। ‘विश्वास नहीं हो रहा हो, तो जलाकर दिखाऊं?’- भूतराज ने कहा, तो कुश ने दोनों कानों में उंगलियां डाल लीं।
‘एक राज़ की बात बताऊं, हमें भी पटाखों की कर्कश आवाज़ अच्छी नहीं लगती, उनसे डर लगता है’- भूतराज ने कहा। कुश हैरान हो गया- ‘भूत होकर डर!!’‘यहां पर जितने भी भूत देख रहे हो ये सभी पटाखों से हुई दुर्घटना में मारे गए थे।’- भूतराज ने रहस्य उजागर किया।‘हैं..!!’ कुश का मुंह खुला रह गया।
‘हम सब या तो आतिशबाज़ी से हुई दुर्घटना में मारे गए हैं या पटाखों के कारखानों में काम करते हुए और उसी का फल भुगत रहे हैं.. साथ ही पर्यावरण की क्षति का ध्यान रख रहे हैं’- भूतराज ने भावुक स्वर में कहा। कुश को यकीन हो गया कि ये भूतगण सच बोल रहे हैं। उसका भय कम होने लगा।
वह सोचने लगा.. अब मैं भी अपने घर पर्यावरण के लिए अच्छे पटाखे छोडूंगा और दोस्तों को भी कहूंगा। क्या सोचने लगे, मिठाई खाओगे?’- भूतराज ने पूछा। ‘कहीं आपकी मिठाई भी पटाखों की तरह.!!’, कहते हुए कुश ने वाय अधूरा छोड़ दिया। ‘नहीं भाई हमारी मिठाई बिल्कुल अच्छी है। ठीक वैसी ही जैसी तुम लोग खाते हो’- कहते हुए भूतराज ने एक भूत को मिठाई लाने भेज दिया।

भागवत: १०६: क्या भगवान भी पक्षपात करते हैं?

अब सातवां स्कंध आरंभ होता है। छठवें स्कंध में हमने भगवान की पुष्टि लीला देखी। पुष्टि मतलब दया कृपा। अब सातवां स्कंध जब आरंभ हो रहा है तो इसमें तीन तरह की वासनाएं बताई गई हैं। परीक्षित प्रश्न पूछ रहे हैं - शुकदेवजी एक बात बताइए भगवान पक्षपात क्यों करते हैं? किसी को बहुत ऊंचा खड़ा कर देते हैं और किसी को नीचे गिरा देते हैं। किसी को मुक्त कर देते हैं, किसी को नर्क, किसी को स्वर्ग तो भगवान ऐसा पक्षपात क्यों करते हैं?
शिशुपाल को तो मुक्त कर दिया और वेन नाम के राजा को नर्क में पटक दिया। (वेन की कथा हम पहले पढ़ चुके हैं)। शिशुपाल ने भगवान को इतनी गालियां दी कि भगवान ने उसको सुदर्शन से मारा और मुक्त कर दिया। उसको मुक्ति प्रदान की जो भगवान को गाली दे रहा है। अब शुकदेवजी परीक्षितजी को कह रहे हैं कि परीक्षित आपने जो प्रश्न पूछा ऐसा ही एक प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से भी पूछा था। शुकदेवजी समझा रहे हैं। देखो एक बात समझ लो भगवान सिर्फ भाव के भूखे हैं। भगवान से यदि संबंध रखना है तो जिस भाव से आप रख रहे हैं उस भाव से आपको परिणाम मिलेगा। शिशुपाल ने शत्रु भाव रखा लेकिन वेन ने भगवान के प्रति कोई भाव ही नहीं रखा तो फिर भगवान ने कहा मैं इसे कैसे मुक्त करूं?
ये बहुत महत्वपूर्ण है किस भाव से भगवान को पूज रहे हैं। अब प्रह्लाद प्रसंग आ रहा है। हिरण्यकषिपु अहंकार का रूप है। और दूसरे जन्म में ये ही हिरण्यकष्यपु तथा असुर हिरण्याक्ष, विश्रवा पत्नी के उदर से रावण और कुंभकरण के रूप में उत्पन्न हुए और तृतीय जन्म में शिशुपाल और दंतवक्र बने। इस प्रकार इनके ये तीन जन्म थे और भगवान ने इनका वध किया। युधिष्ठिर ने पूछा कि हिरण्यकषिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद से द्वेष क्यों किया और राक्षस कुल में उत्पन्न होने पर भी प्रह्लाद का मन भगवान में किस प्रकार लग गया? इसके आगे की कथा हम कल पढेंग़े।

...तो शाप भी वरदान बन जाते हैं



दु:ख क्यों आते हैं, सुख कैसे मिलते हैं? ये सवाल हर इंसान के लिए पहेली है। कई बार अच्छा काम करते-करते भी परिणाम बुरा हो जाता है, कई बार हमारे साथ बुरा होने पर भी परिणाम सुखद होता है। हम परिणाम कैसा चाहते हैं, ये हमारे ऊपर ही निर्भर होता है। अगर सत्य से न डिगें, अपना नैतिक पतन न होने दें तो परिणाम कभी हमारे विरुद्ध नहीं होंगे।
अगर कोई निर्णय हमारे खिलाफ भी हो तो उससे अंत में भला हमारा ही होगा। बुराई के आगे न झुकने, थोड़ा सा या क्षणिक लाभ देख कर गलत काम करने से बचना ही नैतिक बल कहलाता है। महाभारत की एक कहानी हमें नैतिक बल का सबक सिखाती है। अगर हम अपने धर्म पर, कर्तव्य और सत्य पर टिके रहें तो शाप भी वरदान बन जाता है।
बात पांडवों के वनवास की है। जुए में हारने के बाद पांडवों को बारह वर्ष का वनवास और एक साल का अज्ञातवास गुजारना था। वनवास के दौरान अर्जुन ने दानवों से युद्ध में देवताओं की मदद की। इंद्र उन्हें पांच साल के लिए स्वर्ग ले गए। वहां अर्जुन ने सभी तरह के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हासिल की। गंधर्वों से नृत्य-संगीत की शिक्षा ली। अर्जुन का प्रभाव और रूप देखकर स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित हो गई। स्वर्ग के स्वच्छंद रिश्तों और परंपरा का लोभ दिखाकर उर्वशी ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की। लेकिन उर्वशी अर्जुन के पिता इंद्र की सहचरी भी थी, सो अप्सरा होने के बावजूद भी अर्जुन उर्वशी को माता ही मानते थे। अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकरा दिया। खुद का नैतिक पतन नहीं होने दिया लेकिन उर्वशी इससे क्रोधित हो गई।
उर्वशी ने अर्जुन से कहा तुम स्वर्ग के नियमों से परिचित नहीं हो। तुम मेरे प्रस्ताव पर नपुंसकों की तरह ही बात कर रहे हो, सो अब से तुम नपुंसक हो जाओ। उर्वशी शाप देकर चली गई। जब इंद्र को इस बात का पता चला तो अर्जुन के धर्म पालन से वे प्रसन्न हो गए। उन्होंने उर्वशी से शाप वापस लेने को कहा तो उर्वशी ने कहा शाप वापस नहीं हो सकता लेकिन मैं इसे सीमित कर सकती हूं। उर्वशी ने शाप सीमित कर दिया कि अर्जुन जब चाहेंगे तभी यह शाप प्रभाव दिखाएगा और केवल एक वर्ष तक ही उसे नपुंसक होना पड़ेगा। यह शाप अर्जुन के लिए वरदान जैसा हो गया। अज्ञात वास के दौरान अर्जुन ने विराट नरेश के महल में किन्नर वृहन्नलला बनकर एक साल का समय गुजारा, जिससे उसे कोई पहचान ही नहीं सका।

रामायण क्या-क्या सिखाती है?


रामायण पौराणिक ग्रंथों में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है। रामायण को केवल एक कथा के रूप में देखना गलत है, यह केवल किसी अवतार या कालखंड की कथा नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का रास्ता बताने वाली सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है। रामायण में सारे रिश्तों पर लिखा गया है, हर रिश्ते की आदर्श स्थितियां, किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करें, विपरित परिस्थिति में कैसे व्यवहार करेंं, ऐसी सारी बातें हैं।
जो आज हम अपने जीवन में अपनाकर उसे बेहतर बना सकते हैं।
- दशरथ ने अपनी दाढ़ी में सफेद बाल देखकर तत्काल राम को युवराज घोषितकर उन्हें राजा बनाने की घोषणा भी कर दी। हम जीवन में अपनी परिस्थिति, क्षमता और भविष्य को देखकर निर्णय लें। कई लोग अपने पद से इतने मोह में रहते हैं कि क्षमता न होने पर भी उसे छोडऩा नहीं चाहते।
- राजा बनने जा रहे राम ने वनवास भी सहर्ष स्वीकार किया। जीवन में जो भी मिले उसे नियति का निर्णय मानकर स्वीकार कर लें। विपरित परिस्थितियों के परे उनमें अपने विकास की संभावनाएं भी तलाशें। परिस्थितियों से घबराएं नहीं।
- सीता और लक्ष्मण राम के साथ वनवास में भी रहे, जबकि उनका जाना जरूरी नहीं था। ये हमें सिखाता है कि किसी की परिस्थितियां बदलने से हमारी उसके प्रति निष्ठा नहीं बदलनी चाहिए। हमारी निष्ठा और प्रेम ही हमें ऊंचा पद दिलाते हैं।
- भरत ने निष्कंटक राज्य भी स्वीकार नहीं किया, राम की चरण पादुकाएं लेकर राज्य किया। हमारा धर्म अडिग होना चाहिए। अधिकार उसी चीज पर जमाएं जिस पर नैतिक रूप से आपका अधिकार हो और आप उसके योग्य हों। भरत ने खुद को हमेशा राम के अधीन समझा, इसलिए जो राजा पद राम को मिलना था, उसे भरत ने स्वीकार नहीं किया।
- राम ने सुग्रीव से मित्रता की, सुग्रीव को उसका राज्य और पत्नी दोनों दिलवाई। आप भी जीवन में मित्रता ऐसे व्यक्ति से करें, जो आपकी परेशानी, आपके दु:ख को समझ सके।
- राम हमेशा भरत की प्रशंसा करते, उसे ही अपना सबसे प्रिय भाई बताते, जबकि राम के साथ सारे दु:ख लक्ष्मण ने झेले, इसके बावजूद भी लक्ष्मण ने कभी इसका विरोध नहीं किया। आप कोई भी काम करें तो उसे कर्तव्य भाव से करें, प्रशंसा की अपेक्षा न रखें, प्रशंसा की इच्छा हमेशा काम से विचलित करती है।

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

दीपों की बातें

एक बार की बात है, दीपावली की शाम थी, मैं दिये सजा ही रहा था कि एक ओर से दीपों के बात करने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने ध्यान लगा कर सुना। चार दीपक आपस में बात कर रहे थे। कुछ अपनी सुना रहे थे, कुछ दूसरों की सुन रहे थे।
पहला दीपक बोला, ‘मैं हमेशा बड़ा बनना चाहता था, सुंदर, आकर्षक और चिकना घड़ा बनना चाहता था पर क्या करूं ज़रा-सा दिया बन गया।’ दूसरा दीपक बोला, ‘मैं भी अच्छी भव्य मूर्ति बन कर किसी अमीर के घर जाना चाहता था। उनके सुंदर, सुसज्जित आलीशान घर की शोभा बढ़ाना चाहता था। पर क्या करूं मुझे कुम्हार ने छोटा-सा दिया बना दिया।’
तीसरा दीपक बोला, ‘मुझे बचपन से ही पैसों से बहुत प्यार है काश मैं गुल्लक बनता तो हर समय पैसों में रहता।’ चौथा दीपक चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था। अपनी बारी आने पर मुस्करा कर अत्यंत विनम्र स्वर में कहने लगा, ‘एक राज़ की बात मैं आपको बताता हूं, कुछ उद्देश्य रख कर आगे पूर्ण मेहनत से उसे हासिल करने के लिए प्रयास करना सही है, लेकिन यदि हम असफल हुए, तो भाग्य को कोसने में कहीं भी समझदारी नहीं हैं।
यदि हम एक जगह असफल हो भी जाते हैं, तो और द्वार खुलेंगे। जीवन में अवसरों की कमी नहीं हैं, एक गया तो आगे अनेक मिलेंगे। अब यही सोचो, दीपों का पर्व-दीपावली आ रहा है, हमें सब लोग खरीद लेंगे, हमें पूजा घर में जगह मिलेगी, कितने घरों की हम शोभा बढ़ाएंगे। इसलिए दोस्तों, जहां भी रहो, जैसे भी रहो, हर हाल में खुश रहो, द्वेष मिटाओ। खुद जलकर भी दूसरों में प्रकाश फैलाओ, नाचो गाओ, और खुशी-खुशी दीपावली मनाओ।’

दीवानों की दीवानी दीपावली!

सेंट्रल जेल हज़ारीबाद की ऊंची-ऊंची दीवारें और लोहे के सीखचों से जड़े बैरक अपनी मज़बूती की घोषणा करते दिखाई देते थे। जेल के कठोर कानून-कायदे और अंग्रेज़ों का राज्य। अंग्रेज़ों के कड़क जेलर अपनी दण्ड नीति के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें विश्वास था कि चाहे जैसी परिस्थिति हो, वे जेल के अंदर निपट लेंगे। दीपावली का उत्सव निकट था।
कैदियों में दीपावली का उत्सव मनाने की उमंग जागी। उत्साह से भरे कैदी जेलर के पास गए, हाथ जोड़ निवेदन किया, ‘श्रीमान! दीपावली के दिन दीपक जलाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे, नाटक खेलेंगे। यदि आप स्वीकृति दें।’जेलर ने दो क्षण सोचा, अपने सहायक जेलर की ओर देखा। और पूछा, ‘कैदियों को उत्सव मनाने देने में हर्ज़ क्या है? इन कैदियों के पास आनंद मनाने के क्षण यही तो है। क्या राय है आपकी?’
सहायक जेलर ने कहा, ‘श्रीमान आप कहते तो सच हैं। दीपावली का उत्सव मनना चाहिए किन्तु देश के हालात नाज़ुक हैं। गांधी बाबा ने करो या मरो का नारा दिया है। सारे देश में सत्याग्रह आंदोलन की आग लगी है। रोज़ सत्याग्रह के कैदी जेल में आ रहे हैं। जेल में भीड़ बढ़ रही है। ऐसे में कोई गड़बड़ तो नहीं होगी, यह सोच का विषय है।’
अंग्रेज़ जेलर हंसा, बोला, ‘यह आपने खूब कही, अरे गांधी के सत्याग्रही कितने ही आएं, उनसे क्या डर। वे तो सत्य अहिंसा के पुजारी हैं। उनसे विवाद होने से रहा। •यादा से •यादा वे ज़ोर-ज़ोर से आज़ादी के गीत गाएंगे, नाचेंगे और क्या कर सकते हैं। यह सेंट्रल जेल है। यहां चिड़िया भी पर नहीं मार सकती।’सहायक जेलर सहमत हुआ। और बोला, ‘कहते तो आप सच हैं। आप दे दीजिए इजाज़त। इस बहाने हम भी देख लेंगे इनके नाच-गाना, हमारा भी मनोरंजन होगा। हमें ऐसा अवसर कब मिलता है। रोज़ तो बंधे-बंधे रहते हैं।’
जेलर हंसते हुए बोला, ‘भई ये तो ठीक है पर आप भी इनके साथ नाचने गाने मत लगना। अंग्रेज़ सरकार को मालूम पड़ गया, तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी।’सब हंसने लगे। कैदियों को दीपोत्सव मनाने की छूट मिल गई। सब कैदी प्रसन्न थे। गीत-भजन तैयार होने लगे। नाटक बनने लगे।
रिहर्सल होने लगी। दीपावली के कुछ ही दिन बचे थे। तैयारी पूरी नहीं हो रही थी। रिहर्सल के लिए समय कम मिलता था। कुछ वृद्ध और पढ़े-लिखे कैदियों ने जेलर से निवेदन किया, ‘साहब, इन छोकरों में बड़ा उत्साह है। इन कैदियों को रात में थोड़ी और छूट मिले, तो कार्यक्रम बहुत अच्छा हो जाएगा।’ जेलर प्रतिदिन तैयारी देख रहा था। उसे खबर भी बराबर मिल रही थी। उसे अच्छा लगा। उसने रात बारह बजे तक की छूट दे दी। कैदी प्रसन्न हो गए। नाच-गाने और नाटक की तैयारियां ज़ोर-शोर से होने लगीं।
जेल में युवा समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) भी थे। वे बीमारी से उठे थे। उन्हें इन नाच-गानों में आनंद न था। वे बैडमिंटन खेलते थे। उनके साथी थे कृष्णवल्लभ सहाय। दोनों बैडमिंटन खेलकर अपना समय व्यतीत करते थे। कभी ताश भी खेलने बैठ जाते।
युवा जेपी के साथी रामवृक्ष बेनीपुरी, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, शालिग्राम सिंह, रामनन्दन मिश्र, सूर्यनारायण सिंह, गुलाब चंद्र आदि थे। इनके बीच आज़ादी की लड़ाई को लेकर तरह-तरह के विषयों पर बहस होती और ये जेल के बाहर चल ही गतिविधियों की टोह लेते रहते।
एक दिन जेपी ने कहा, ‘गांधी जी ने 9 अगस्त को खुले विद्रोह का बिगुल बजाया था, ‘करो या मरो’ खूब तेज़ी से यह आंदोलन चला, पर मैं देख रहा हूं कि यह आंदोलन सुस्त पड़ता जा रहा है। जेल में कैदी कम आ रहे हैं। अंग्रेज़ों ने तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया है।
बिना नेता के कोई आंदोलन चला है क्या? इसके दो परिणाम हो सकते हैं- एक आंदोलन बिना नेता के ठंडा पड़ जाए, दूसरा बिना उचित मार्गदर्शन के भटक जाए। गलत राह पकड़ ले। दोनों हालात में हमारा नुकसान है। हमें कुछ करना चाहिए।’
साथियों ने कहा, ‘हम सब तो जेल में हैं। हम क्या कर सकते हैं। हमारे हाथ में क्या है?’जेपी ने धीरे से कहा, ‘हम योजना बनाकर जेल से भाग सकते हैं। आज़ादी के लिए कुछ भी किया जा सकता है। अभी मौका भी अच्छा है।’
रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा, ‘आप ठीक कहते हो पर आपका स्वास्थ्य? आपकी शारीरिक कमज़ोरी को देखते हुए यह संभव कैसे होगा?’ जेपी मुस्कुराए और धीमे से फुसफुसाकर कहा, ‘देश के लिए कुछ भी करूंगा। मुझे स्वास्थ्य की कोई चिंता नहीं।’अत्यंत गोपनीय ढंग से योजना बनी। तय हुआ कि दीपावली के राग रंग के बीच जेल की दीवार कूद कर छह स्वतंत्रता सेनानी आज़ाद होंगे।
सब योजना व्यवस्थित चली। जेपी दिन में कृष्ण वल्लभ सहाय के साथ बैडमिंटन खेलते रहे। जेल में ताश के पो चलते रहे। युवा कैदी दीपावली के समारोह में नाच-गाने की तैयारी में लगे रहे और रात ढलना शुरू हो गई।
अंधकार से प्रकाश की ओर चलो का नारा बुलंद करती दीपावली आ धमकी और इसी समय चुपचाप एक टेबल जेल की दीवार के पास घने वृक्ष के नीचे लग गई एक जवान उस पर खड़ा हुआ। दूसरा चढ़ा और दीवार पर लगी खूंटी पकड़कर बैठ गया। उसने कमर से रस्सी निकाली और खूंटी से बांधी। वह रस्सी निकाली और खूंटी से बांधी। वह रस्सी के सहारे जेल के बाहर था। कुछ ही समय में निर्धारित छहो कैदी आज़ाद थे।
जेल में जश्न मन रहा था। उत्साह उमड़ रहा था, संगीत के स्वर के साथ-साथ थाप चल रही थी। भीड़ गायन दोहरा रही थी और दीपकों की लौ जगमगा रही थी। जेपी अपने साथियों के साथ आज़ाद थे। वस्तुत: जेल से उतरते समय गिर पड़े थे। फिर भी लंगड़ाते हुए चलते रहे, चलते रहे, रात भर चलते रहे।
उनके साथी शालिग्राम सिंह ने अपने परिचित दुबेजी के घर तक छहों को पहुंचा दिया। वहां सबने स्नान-ध्यान किया। भोजन किया और ग्रामीण वस्त्र पहन बैल-गाडी पर जेपी लेट गए। उनके पैर में चोट थी। उन्होंने सिर मुंडवा लिया था, दाढ़ी बड़ी हुई थी। सर पर पगड़ी थी और वे भरी ठंड में ठंडी पड़ती आज़ादी की मशाल जलाने के लिए चल पड़े थे। उनके साथी भी वेशबदल कर उनके पीछे लाठी और कुल्हाड़ी लिए चल रहे थे।
आज़ादी के दीवानों ने जेल में रहकर अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी। कहते हैं वह दीपावली का राग रंग रात भर चला और जेल अधिकारियों को दूसरे दिन दोपहर को यह बात पता चली। वे दंग रह गए। घबराहट छा गई। सेंट्रल जेल की कठोर व्यवस्था और ऊंची-ऊंची दीवारों को आज़ादी के दीवानों के अपने साहस से चुनौती दी थी और दीपावली के पर्व को इतिहास के पन्ने से जोड़ दिया था।

भूतों की दीपावली!

पानी में स्थाई रूप में धुंधला प्रकाश पसंद करती हैं। तट के निकट गहरा अंधेरा नहीं होता क्योंकि वहां तल तक सूर्य की रोशनी पहुंचती रहती है। इसीलिए तट के निकटवर्ती तल में ऐसे जीव •यादा पाए जाते हैं, जो तैरने के बजाय बैठे रहना अधिक पसंद करते हैं।
कुछ विशेष समुद्री पुष्प, दरारों में छिपे रहते हैं, ताकि उन पर सूर्य का प्रकाश सीधा न पड़े। इस तरह से ये सूख नहीं पाते और अपनी नमी बनाए रखते हैं। अन्य प्रजातियां समूह के रूप में एकत्र रहती हैं, जिससे इनका खोल और कचरा आदि इनके शरीर पर चिपका रहे और नमी ग्रहण करता रहे। ऐसे समूह घंटों सूर्य के संपर्क में रहने पर भी जीवित बने रहते हैं।

फिर भी अन्य जीवों के खोल कड़े और रक्षा करने वाले होते हैं, और बाहर आने के दौरान इनकी अच्छी तरह से रक्षा करते हैं। कुछ कीचड़ वाले क्षेत्र भी होते हैं, जहां तुलनात्मक रूप से कम जीव रहते हैं। सिर्फ घोंघा और सूक्ष्म पौधे ही यहां पाए जाते हैं।
अधिकतर समुद्री जीव-जंतु खारे पानी में रहने के अभ्यस्त होते हैं और तापमान की अधिकता और यांत्रिक प्रघात का सामना कर सकते हैं। कई जीव इन प्रघातों से बचने और अपने-आपको बह जाने से बचाने के लिए चट्टानों से कसकर चिपक जाते हैं। समुद्री शैवाल बहुत कठोर होता है योंकि यह सिर्फ उथले पानी में ही पाया जाता है, जहां लहरें इधर-उधर होती रहती हैं।
यही कारण है कि भूमि की तुलना में समुद्र में पौधों की कम किस्में पाई जाती हैं क्योंकि दु:साध्य समुद्र में •यादा किस्में जीवित नहीं रह वे प्राणी जो अपने आपको बदल नहीं सकते, सबसे अच्छा तरीका अपनाते हैं। वे अपना घर ही बदल लेते हैं।
वे ऐसे स्थानों पर चले जाते हैं, जहां तापमान, प्रकाश, खारापन और लहरों इत्यादि में •यादा परिवर्तन नहीं होता। वैज्ञानिक इन्हें जीव-संकेतक कहते हैं, योंकि इनकी उपस्थिति से यह पता चल जाता है कि उस क्षेत्र विशेष में ये लक्षण मौज़ूद होंगे।
नीचे गहराई में लहरें असर नहीं करतीं और पानी शांत रहता है। यहां, समुद्र तल ऐसे जीवों से भरा रहता है, जो उन छोटे जीवों को आहार बनाते हैं जो सतह से सरककर नीचे आ जाते हैं। इनमें से कुछ तो अपने पैरों पर रेंगते रहते हैं और कुछ समुद्र तल पर स्थाई रूप से चिपके रहते हैं। समुद्री लहरों के बीच ज़िन्दा रहने के लिए तुम्हें कितनी अल दौड़ानी पड़ेगी! तुम्हें धरती पर रहने को मिला, यह तुम्हारा सौभाग्य ही है न! - डॉ.सेवा नंदवाल इंदौर, मध्यप्रदेश

भागवत: १०५: जब इंद्र ने अपने गुरु विश्वरूप का सिर काटा


अभी तक हमने पढ़ा देवगुरु बृहस्पति के विलुप्त होने पर विश्वरूप को देवताओं ने अपना गुरु बनाया। विश्वरूप के तीन सिर थे। एक बार कोई ऐसा अवसर आया कि इंद्र में और विश्वरूप में विवाद हो गया। इंद्र उस पर क्रुद्ध हो गए और उसका सिर काट डाला। तब जो सोमरस पीने वाला उसका सिर था वह पपीहा, सुरा पीने वाला गोरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया।इंद्र को ब्रह्महत्या का दोष लग गया। उसने कुछ समय तक तो इस दोष को स्वीकार किया किंतु संवत्सर के अंत में उसने पृथ्वी पर वृक्ष और स्त्रियों, जल में इस ब्रह्म दोष को बांट दिया।
भूमि ने यह मांग की, उसके ऊपर के गड्ढे स्वयं भर जाएं। हत्या का चतुर्थ अंश उसने अपने ऊपर ले लिया । यही कारण है कि ऊसर भूमि पर पूजा आदि निषेध है। काटने पर फिर अंकुर निकल आए यह वर मांगकर वृक्षों ने हत्या का दूसरा भाग अपने सिर ले लिया। वह हत्या उनमें गोंद के रूप में विद्यमान है। इसलिए गोंद खाना निषेध बताया गया है। गर्भ की पीड़ा न हो और प्रसूतिकाल के पश्चात भी स्त्री-पुरूष मिलन कामना बनी रहे। यह वर मांगा स्त्रियों ने और इसी के साथ हत्या का तीसरा भाग उन्होंने लिया। वह स्त्रियों में मासिक धर्म के रूप में आज भी विद्यमान है। दूध आदि में जल को मिलाने पर भी उन पदार्थों की वृद्धि हो यह मांगकर जल ने शेष दोष स्वीकार कर लिया जो बुलबुले के रूप में है इसीलिए बुलबुले वाले जल में स्थान करना वर्जित बताया गया है।
तब शुकदेव बोलते हैं- देखो उस इंद्र को इतने बड़े सिंहासन पर बैठने के बाद भी दुर्गुण छोडऩे की इच्छा नहीं होती, इसलिए परीक्षित मैं बार-बार तुम्हारी प्रशंसा भी कर रहा हूं। तुम बहुत अच्छे व्यक्ति हो। राजगादी पर, राजमद से तुमसे यदि भूल हुई तो तुमने भगवान का नाम लेने का प्रयास किया। अब तुम अपने भीतर बैठे परमात्मा को पहचानते हो। यही परमात्मा तुम्हारा उद्धार करेंगे। यहां छटा स्कंद समाप्त होता है। अब हम कल से भागवत का सातवां स्कंध प्रारंभ करेंगे।

यहां प्रतिष्ठित हैं परशुरामजी की मां

परशुरामजी को विष्णुजी का अंशावतार कहा जाता है। उनका क्रोध बड़ा भयंकर था। कहते हैं कि वे क्रोध में किसी से नहीं संभलते थे।

वे बड़े पितृभक्त थे। पिता की आज्ञा मानना वे अपना परम कर्तव्य समझते थे। पिता की आज्ञा में ही तो इन्होंने अपनी माता को मार डाला था।
हालांकि बाद में पिता के ही आशीर्वाद से ही इन्होंने माता को जीवित करने का वरदान भी मांग लिया था। इनकी माता का मंदिर तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित है।
यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता से भी परिपूर्ण है।
तुंगभद्रा नदी के एक तट पर देवी के मस्तक की और दूसरे तट पर धड़ की पूजा होती है। इन्हें लोग श्रीरामचण्डीश्वरी भी कहते हैं। जब इन्होंने माता को मारा और पुन: जीवित करवाया तो उसी समय के स्मारक के रूप में मस्तक और धड़ की अलग-अलग स्थानों पर पूजा होती है।
यह क्षेत्र किष्किन्धा क्षेत्र में सबसे प्राचीन माना जाता है। यहां वैशाख-शुक्ल पंचमी से नवमी तक मेला लगता है। इन्हें लोग व्याघ्रेश्वरी देवी भी कहते हैं। इधर के लोगों में इनका बड़ा सम्मान है।
कैसे पहुंचे- दक्षिण रेलवे की मसुलीपट्टम-बैजवाड़ा हुबली लाइन पर हासपेट स्टेशन से 5 किलोमीटर और उससे आगे के मुनीराबाद स्टेशन से यह स्थान 2 किलोमीटर दूर है।
मुनीराबाद से तुंगभद्रा बांध लगभग 5 किलोमीटर दूर है।

वैभवलक्ष्मी पूजा में न भूलें ये जरूरी बातें

शुक्रवार के दिन धन और भौतिक सुखों की कामना पूर्ति के लिए वैभव लक्ष्मी की पूजा और व्रत का विधान है। किंतु हर धर्म परंपराओं का सुफल तभी संभव है। जबकि उनका पालन शास्त्रोक्त नियम और विधान से किया जाए। वैभव लक्ष्मी व्रत के लिए भी हर स्त्री या पुरुष को इन नियमों का पालन जरूर करें -

- यह व्रत विवाहित स्त्री, कुंवारी कन्या, पुरुष कर सकते हैं। सुहागन स्त्रियों को इस व्रत का विशेष फल प्राप्त होता है।
- शुक्रवार को व्रत का विधान है। 11 या 21 शुक्रवार पर व्रत और मनोकामना पूर्ति का संकल्प लें। व्रत की नियत संख्या पूरी होने पर शास्त्रोक्त रीति से उद्यापन करें। धार्मिक मान्यता में ऐसा न करने पर व्रत निष्फल हो जाता है।
- व्रत के दिन उपवास करें और पूजा कर सिर्फ प्रसाद ग्रहण करें। इतना संभव न हो तो बार भोजन या फलाहार व्रत पालन करें। अधिक शारीरिक शक्ति न होने पर दो बार भी भोजन कर सकते है। हर स्थिति में व्रती पूरी आस्था से माता लक्ष्मी की पूजा करे और कामनापूर्ति की विनती करे।
- नियत संख्या में व्रत संकल्प के दौरान अचानक यात्रा या गृहनगर से बाहर होने पर उस शुक्रवार पर व्रत पालन न कर अगले शुक्रवार को करें। क्योंकि इस व्रत का पालन अपने निवास पर ही करना सुफल देता है।
- व्रत के दिन अगर कोई महिला को मासिक चक्र आ जाए या शिशु जन्म से स्पर्श दोष लगा हो, तो उस शुक्रवार को छोड़ कर उसके बाद वाले शुक्रवार पर व्रत करें। किंतु संकल्प के बाद व्रत संख्या का संकल्प पूरा करें।
- व्रत आस्था और श्रद्धा से करें। किसी भी तरह से मलीन विचार या व्यवहार न करें।
- व्रत के दिन मां लक्ष्मी का ध्यान करते रहें और पूजा में श्रीयंत्र पूजन अवश्य करें। क्योंकि वैभवलक्ष्मी, धनलक्ष्मी का ही रुप है।
- पूजा में सोने, चांदी के सिक्के, गहने रखना चाहिए। यह उपलब्ध न होने पर बाजार में चलने वाली मुद्रा या सिक्के रखें।
- पूजा विधि के आरंभ में लक्ष्मी स्तवन का पाठ अवश्य करें।
- संकल्प लिये हुए व्रत की संख्या पूरी होने पर व्रत का उद्यापन कम से कम सात सुहागनों और सामर्थ्य होने पर 11, 21, 51, 101 स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक कुमकुम का तिलक कर भेंट करें।
- एक बार व्रत संकल्प पूरा होने के बाद फिर से व्रत कर सकते हैं।

पूजा के लिए दीपक कैसे तैयार करें?

देवी-देवताओं की पूजा में आरती सबसे महत्वपूर्ण कर्म है। आरती के साथ ही पूजा-अर्चना पूर्ण होती है। पूजा में आरती के महत्व को देखते हुए दीपक तैयार करते समय कई सावधानियां रखनी अनिवार्य है। विधि-विधान से तैयार किए गए दीपक से देवी-देवताओं की कृपा जल्दी ही

- देवताओं को घी का दीपक अपनी बायीं ओर तथा तेल का दीपक दायीं ओर लगाना चाहिए।
- देवी-देवताओं को लगाया गया दीपक पूजन कार्य के बीच बुझना नहीं चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखें।
- दीपक हमेशा भगवान के सामने ही लगाएं।
- घी के दीपक के लिए सफेद रुई की बत्ती लगाएं।
- तेल के दीपक के लिए लाल बत्ती का उपयोग किया जाना चाहिए।
- दीपक कहीं से खंडित या टूटा नहीं होना चाहिए।

शनिवारः महायोग शनि पुष्य नक्षत्र

30 अक्टूबर 2010 का दिन ज्योतिष शास्त्र के अनुसार काफी महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन तीस वर्षों बाद शनिवार को पुष्य नक्षत्र योग आ रहा है। वैसे तो हमेशा पुष्य नक्षत्र योग लगभग 8 घंटों तक ही रहता है परंतु इस वर्ष शनि पुष्य नक्षत्र योग पूरे दिन रहेगा, इसी वजह से ज्योतिष के अनुसार यह महायोग है।

शनिवार के दिन पुष्य नक्षत्र योग होने से इस दिन शनि ग्रह के अशुभ प्रभाव से त्रस्त लोगों का शनि आराधना का विशेष फल प्राप्त होगा। साथ ही इस किए गए धर्म-कर्म से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी। वैसे तो हर 27 दिन में पुष्य नक्षत्र का योग बनता है परंतु दीपावली पूर्व आने वाला पुष्य नक्षत्र सबसे अधिक शुभ माना जाता है। यह योग जिस वार को आता है, उसके अनुसार फल प्रदान करता है।
कब बनेगा महायोग
29 अक्टूबर की मध्यरात्रि पश्चात रात में एक बजकर 31 मिनट पर पुष्य नक्षत्र की शुरुआत होगी, जो 30 अक्टूबर को मध्यरात्रि में 12 बजकर 37 मिनट तक शनि पुष्य नक्षत्र महायोग रहेगा। ज्योतिषियों का मानना है कि पुष्य नक्षत्र पर किसी दूसरे ग्रह का बुरा प्रभाव नहीं रहता।
साढ़ेसाती और ढैय्या में फायदेमंद
शनि ग्रह को न्याय का देवता माना जाता है। शनि एक क्रूर ग्रह है, साढ़ेसाती और ढैय्या में प्रभावित व्यक्ति को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस वर्ष शनि पुष्य नक्षत्र योग बन रहा है। यह शनि की कृपा दिलाने वाला योग है। इस दिन शनि के निमित्त दान-पुण्य और धर्म-कर्म करने से विशेष लाभ मिलेगा।
स्थाई संपत्ति खरीदने के लिए सर्वश्रेष्ठ योग
ऐसा माना जाता है कि पुष्य नक्षत्र में खरीदी गई सामग्री कभी नष्ट नहीं होती। पुष्य नक्षत्र के देवता भगवान श्री गणेश को माना गया है। इसी वजह से गणेशजी की भी कृपा भक्तों पर बनी रहती है। शनि देव को स्थाई संपत्ति के लिए कारक ग्रह माना जाता है। इसी कारण शनिवार स्थिर कार्यो के लिए श्रेष्ठ है। इसदिन स्थाई संपत्ति खरीदने से स्थाई लाभ प्राप्त होगा।
इस दिन क्या धर्म-कर्म करें-
जो व्यक्ति टेक्नोलॉजी या आइटी क्षेत्र, वाहन, लौहा, मशीनरी, न्याय क्षेत्र से जुड़े हैं उन्हें शनि के विशेष आराधना करनी चाहिए। इस दिन शनि देव को तेल चढ़ाएं और हनुमान चालिसा का पाठ करें। ऐसा करने पर सभी राशि वालों को शनि की कृपा प्राप्त होगी। इस दिन भूमि-भवन के नए सौदे विशेष फायदा देने वाले होंगे।

दौलत और खुशियों से जिंदगी रोशन करे लक्ष्मी स्तुति

मातृ शक्ति के तीन रूपों में एक महालक्ष्मी की पूजा-उपासना लोक पंरपराओं में प्राय: धन-दौलत की परेशानियों को दूर करने का एक धार्मिक उपाय अधिक दिखाई देता है। जबकि माता लक्ष्मी प्रकाश की ही प्रतीक है और प्रकाश ज्ञान का यानि मां लक्ष्मी जागरण का संदेश देती है। दीपावली पर की जाने वाली रोशनी भी जागकर उठ खड़े होने को ही प्रेरित करती है। सरल शब्दों में जब आप विचार, व्यवहार, दृष्टि की मलीनता दूर कर सद्गुणों को अपनाने की शुरुआत करते हैं, तब खुशहाली के दरवाजे खुल जाते हैं। जिंदगी खुशियों की रोशनी से जगमगा जाती है। धार्मिक आस्था भी यही है कि खुले दरवाजों में माता लक्ष्मी प्रवेश करती है।

माता लक्ष्मी के आवाहन, ध्यान और प्रसन्नता के लिए धर्म शास्त्रों में तरह-तरह के सूक्त, स्त्रोत और मंत्र बताए गए हैं। इनमें से ही एक है लक्ष्मी स्तवन। इस लक्ष्मी स्तवन का पाठ हर लक्ष्मी पूजा, शुक्रवार को वैभव लक्ष्मी पूजा, दीपावली, धनतेरस या अन्य किसी भी विशेष लक्ष्मी पूजा की आरंभ में करने पर वैभव, ऐश्वर्य के साथ मनोरथ पूर्ति करता है। संस्कृत भाषा या व्याकरण की जानकारी के अभाव में आप इसकी हिन्दी अर्थ का भी पाठ कर लक्ष्मी की प्रसन्नता से दरिद्रता दूर कर सकते हैं।
लक्ष्मी स्तवन -
या रक्ताम्बुजवासिनी विलासिनी चण्डांशु तेजस्विनी ।
या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी ॥
या रत्नाकरमन्थनात्प्रगटिता विष्णोस्वया गेहिनी ।
सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्च पद्मावती ॥




इस लक्ष्मी स्तवन का सरल अर्थ है - लाल कमल पर रहने वाली, अद्भुत आभा और कांतिवाली, असह्य तेजवाली, रक्त की भाति लाल रंग वस्त्र धारण करने वाली, मन को आनंदित करने वाली, समुद्रमंथन से प्रकट हुईं विष्णु भगवान की पत्नी, भगवान विष्णु को अति प्रिय, कमल से जन्मी है और अतिशय पूज्य मां लक्ष्मी आप मेरी रक्षा करें और मनोरथ पूरे कर जीवन वैभव और ऐश्वर्य से भर दे।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

भगवान को फूल चढ़ाने से पहले ध्यान रखें...

भगवान की पूजा-अर्चना में फूल अर्पित करना अति आवश्यक माना गया है। पुष्प के बिना कोई भी पूजन कर्म पूर्ण नहीं हो सकता। ऐसी मान्यता है कि भगवान के प्रिय पुष्प अर्पित करने से वे जल्दी प्रसन्न होते हैं और भक्तों को मनावांछित फल प्रदान करते हैं।

सभी मांगलिक कार्य और पूजन कर्म में फूलों का विशेष स्थान होता है। सभी देवी-देवताओं को अलग-अलग फूल प्रिय हैं। साथ ही इन्हें कुछ फूल नहीं चढ़ाएं जाते। इसी वजह से बड़ी सावधानी से पूजा आदि के लिए फूलों का चयन करना चाहिए।
- शिवजी की पूजा में मालती, कुंद, चमेली, केवड़ा के फूल वर्जित किए गए हैं।
- सूर्य उपासना में अगस्त्य के फूलों का उपयोग नहीं करना चाहिए।
- सूर्य और श्रीगणेश के अतिरिक्त सभी देवी-देवताओं को बिल्व पत्र चढ़ाएं जा सकते हैं। सूर्य और श्री गणेश को बिल्व पत्र न चढ़ाएं।
- प्रात: काल स्नानादि के बाद भी देवताओं पर चढ़ाने के लिए पुष्प तोड़ें या चयन करें। ऐसा करने पर भगवान प्रसन्न होते हैं।
- बिना नहाए पूजा के लिए फूल कभी ना तोड़े।

शाही जिंदगी और वैभव देती है वैभव लक्ष्मी पूजा

धर्म की दृष्टि से जीवन में चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को पाना हर मानव का लक्ष्य होना चाहिए। इससे साफ जाहिर है कि अर्थ यानि धन सफल जिंदगी के लिए कितना अहम है। व्यावहारिक जीवन में हर व्यक्ति कदम-कदम पर धन की जरूरत और अहमियत को महसूस करता है। यही कारण है कि अमीर और गरीब दोनों ही समान रुप से धन पाने की कोशिश करते देखे जाते हैं। दोनों के मन में वैभवशाली जीवन की कामना होती है।

धर्म के नजरिए से दरिद्रता का अंत आलस्य छोड़कर कर्म यानि मेहनत से ही संभव है। जब भी आप साफ मन और मजबूत इच्छाशक्ति से धन अर्जन के लिए कुछ काम करते हैं, उसका सुफल धन के रूप में जरुर मिलता है। सुख-समृद्धि और लक्ष्मी का वास भी वहीं माना जाता है, जहां तन, मन की मलीनता नदारद होती है या परिश्रम होता है। इसलिए मेहनत को सफल बनाने और सुफल पाने के लिए धार्मिक उपाय भी किए जाते हैं। ऐसे ही शुभ फल देने वाले उपायों में एक है - वैभव लक्ष्मी पूजा।
शुक्रवार का दिन देवी पूजा का विशेष महत्व है। देवी का महालक्ष्मी रुप वैभव और ऐश्वर्य देने वाला माना गया है। इसके लिए शुक्रवार के दिन वैभव लक्ष्मी पूजा और व्रत का विधान है। वैभव लक्ष्मी पूजा और व्रत से न केवल हर स्त्री और पुरुष शाही जीवन के सपनों को पूरा कर सकता है। बल्कि इसके साथ ही संतान कामनापूर्ति, संकटमोचन, अखण्ड सौभाग्य और मनचाहा जीवनसाथी भी मिल जाता है। जानते हैं इस व्रत पूजा की आसान विधि -
- शुक्रवार को व्रत का आरंभ करें। स्वयं या किसी विद्वान ब्राह्मण से ग्यारह या इक्कीस वैभव लक्ष्मी व्रत का संकल्प लें। वैभव लक्ष्मी पूजा प्रदोष काल या यानि शाम के समय करने का महत्व है। किंतु इस व्रत में सुबह से ही तन, मन से पूरी तरह पवित्रता के भाव के साथ माता लक्ष्मी का स्मरण करें।
- शाम को स्नान कर पूर्व दिशा में मुंह रखकर आसन पर बैठें।
- एक चौकी पर लाल वस्त्र बिछाएं। जिस पर चावल की ढेरी पर जल से भरा तांबे का कलश रखें। कलश पर एक पात्र या कटोरी में सोने या चांदी का सिक्का या कोई गहना रखें। सामर्थ्य न होने पर पैसे का सिक्का भी रख सकते हैं।
- कलश के साथ ही श्रीयंत्र भी रखें। यह वैभव लक्ष्मी को प्रिय माना जाता है।
- घी का दीप जलाएं। धूपबत्ती लगाएं।
- पूजा की शुरुआत में माता लक्ष्मी के इन स्वरूपों का स्मरण करें - धन या वैभवलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, अधिलक्ष्मी, विजयालक्ष्मी, ऐश्वर्यलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, संतान लक्ष्मी।
- इसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करें।
- कलश पर पात्र में रखे हुए सिक्कों या गहने पर कुमकुम और हल्दी, अक्षत , गुलाब या लाल रंग के फूल चढाएं।
- मिठाई का भोग लगाएं। गुड़-चीनी भी चढ़ा सकते हैं।
- माता लक्ष्मी की आरती करें। ग्यारह बार श्रद्धा से मन ही मन किसी लक्ष्मी मंत्र का ध्यान करें या लक्ष्मी नाम ही जप लें।
- अंत में क्षमा और मनोकामना पूरी करने की विनती माता लक्ष्मी से करें। प्रसाद बांटे व थोड़ा प्रसाद स्वयं के लिए रखें।
- वैभव लक्ष्मी उपासना में यथासंभव उपवास रखना चाहिए और मात्र प्रसाद खाएं। ऐसा संभव न हो तो एक बार शाम को प्रसाद लेकर भोजन करें।
- बाद मे कटोरी में रखा गहना या सिक्का तिजोरी या देवालय में रखें। कलश का जल तुलसी के पौधों में डालें। अक्षत पंछियों को चुगने के लिए डालें।

स्वस्तिक क्यों: शुभ-लाभ लिखने से बढ़ता है धन

दीपावली पर लक्ष्मी पूजा के बाद घरों के बाहर मुख्य द्वार के दोनों ओर शुभ और लाभ लिखा जाता है। हर मांगलिक कार्य में स्वस्तिक बनाया जाता है, इसी के साथ शुभ-लाभ भी लिखा जाता है। सिंदूर या कुमकुम से शुभ और लाभ लिखने के पीछे ऐसी मान्यता है कि इससे महालक्ष्मी सहित श्री गणेश भी प्रसन्न होते हैं।

शास्त्रों अनुसार गणेशजी के दो पुत्र माने गए हैं, एक क्षेम अर्थात शुभ और दूसरे पुत्र का नाम है लाभ। घर के बाहर शुभ-लाभ लिखने का मतलब यही है कि हमारे घर में सुख और समृद्धि सदैव बनी रहे। ऐसी प्रार्थना ईश्वर से की जाती है। शुभ (क्षेम) लिखने का का अर्थ है कि हम प्रार्थना करते हैं कि जिन साधनों, कला या ज्ञान से धन और यश प्राप्त हो रहा है वह सदैव बना रहे।
लाभ लिखने का अर्थ है कि भगवान से हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे घर की आय अथवा धन हमेशा बढ़ता रहे। श्री गणेश की कृपा से हमारा व्यवसाय या आय प्राप्ति स्रोत सदैव बढ़ते रहे।

रंगोली क्यों बनाई जाती है?

प्राचीन काल से ही घर के बाहर रंगोली बनाने की प्रथा चली आ रही है। इसके प्रथा के पीछे कई कारण धार्मिक कारण हैं। ऐसी मान्यता है कि देवी-देवताओं के स्वागत लिए रंगोली बनाई जाती है।

रंगोली अर्थात विभिन्न रंगों द्वारा उकेरी गई आकृति। घरों के बाहर हर मांगलिक कार्य पर विभिन्न रंगों से सुंदर आकृतियां बनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि दीपावली के समय देवी महालक्ष्मी पृथ्वी का भ्रमण करती हैं और जिस घर के बाहर उनके स्वागत के लिए सुंदर रंगोली बनी होती है वे वहां अवश्य ही जाती हैं।
साथ ही रंगोली बनाने से हमारे घर के आसपास सक्रिय नकारात्मक ऊर्जा अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती है और सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। विभिन्न रंगों के संयोग से हमारे घरों की सुंदरता भी बढ़ती है और ऐसे घरों पर सभी देवी-देवताओं की विशेष कृपा होती है।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

भागवत: १०४: जब देवताओं ने विश्वरूप को बनाया गुरु



पिछले अंकों में हमने पढ़ा इंद्र द्वारा अपमान करने पर बृहस्पतिजी अपने स्थान से विलुप्त हो गए। तब सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उन्हें एक उपाय बताया कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाकर उसको गुरु बनाने का निवेदन किया जाए। देवतागण विश्वरूप के पास गए। विश्वरूप ने कहा कि वह तो उनसे आयु में बहुत छोटा है देवताओं का गुरु किस प्रकार बन सकता है। तब इंद्र ने समझाया बड़प्पन केवल आयु से नहीं होता आप देवज्ञ हैं अत: पुरोहित बनकर हमारा मार्गदर्शन कीजिए।
जब विश्वरूप ने देवताओं का पुरोहित बनना स्वीकार किया तो उसने अपनी वैष्णवी विद्या के बल पर असुरों से नारायण कवच आदि छीनकर इंद्र को प्रदान कर दिया। इंद्र ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली। यहां एक कथा और आती है। ये जो विश्वरूप है इसके तीन मुख थे एक मुख से वह सोमपान करता था, दूसरे से सुरापान व तीसरे से भोजन करता था। देवता उसके पिता के पक्ष के थे और दैत्य माता के पक्ष के थे। इसीलिए देवता विश्वरूप में विश्वास थोड़ा कम करते थे। सतर्क रहते थे।यहां एक बात और विचारणीय है वह यह कि जीवन में गुरु का बड़ा महत्व है। देवताओं के जीवन से गुरु लुप्त हो गए तो देवताओं की पराजय हो गई। जिसके जीवन में गुरु आ जाए वो सौभाग्यशाली है।
जब भी अवसर आए गुरु बना लीजिएगा ये अवसर जीवन में दोबारा नहीं आते। आपके जीवन में कब, कौन आएगा आपको मालूम नहीं पड़ेगा। अचानक आएंगे गुरु, आएंगे जरूर। गुरु आपको तीन बात देते हैं मंत्र देंगे, माला देंगे और मन देंगे। गुरु का मंत्र जिस क्षण आपके जीवन में उतरता है, जिस क्षण आप दीक्षित होते हैं। जिस क्षण आप पर शक्तिपात किया जाता है गुरु द्वारा। आप उस क्षण दिव्य हो जाते हैं। कई लोग ऐसे हैं कि जीवन में एक बार दीक्षा के समय गुरु से मिले और जीवनभर नहीं मिले क्योंकि उसके बाद आपकी पूंजी गुरु नहीं है वो तो गुरु मंत्र ही पूंजी है। जो उस मंत्र पर टिक गया वो गुरु होने का आनंद उठा लेगा।

उदयपुर: यहां आज भी राजसी वैभव दिखता है

भारत में राज सिंहासन का काल यहां के अद्भुत वैभव को प्रकट करता है। आज भी इस काल के अवशेष इतिहास और पौराणिक महत्व को दुनिया के समक्ष पेश करते हैं।
ऐसा ही एक स्थान है- उदयपुर।

उदयपुर महाराणा प्रताप की निवास-भूमि रही है। यहां महाराणा प्रताप का खड्ग कवच, भाला तथा अन्य शस्त्रास्त्र सुरक्षित हैं। महाराणा के प्रिय अश्व चेतक की जीन यहां हैं और इन सबसे महत्वपूर्ण है बाप्पा रावल का खड्ग, जो भगवान एकलिंग से प्राप्त हुआ था।
उदयपुर राजस्थान का प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक नगर है तथा मेवाड़ के राजाओं की राजधानी रह चुका है। यह वीर तीर्थ है, सती-तीर्थ है और भगवत-तीर्थ भी है।
उदयपुर से कुछ ही दूर हल्दीघाटी की प्रसिद्ध युद्ध-स्थली है। उस वीर-रक्तरंजित भूमि के नाम से तो इतिहास का प्रत्येक जानकार परिचित है। उदयपुर से पश्चिम झील के किनारे महासती स्थान है, यहां सती हुई महारानियों की छतरियां हैं।
उदयपुर के राजप्रसाद के रनिवास की ड्योढ़ी में श्रीपीताम्बररायजी के मंदिर में मीराबाई के उपास्य श्रीगिरिधरलालजी की मूर्ति विराजित है। निम्बार्क-वैष्णवसम्प्रदाय का उदयपुर में मुख्य स्थान है।
यहां श्रीबाईजीराज-कुण्ड पर श्रीनवनीतरायजी का मंदिर है। शहर में श्रीजगन्नाथजी का सुंदर और विशाल मंदिर है। उसके समीप ही वल्लभ-संप्रदाय के तीन और मंदिर हैं।
कैसे पहुंचे- पश्चिम-रेलवे की अजमेर-खण्डवा लाइन पर चित्तौडग़ढ़ से एक लाइन उदयपुर गयी है। यहां सभी गाडिय़ां रुकती हैं।
राजस्थान के लगभग हर शहर से उदयपुर के लिए आसानी से बसें मिल जाती हैं।

हमेशा स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन यह करें...

हमेशा स्वस्थ और जवां रहना कौन नहीं चाहता, सभी अच्छा स्वास्थ्य और सुंदर शरीर पाना चाहते हैं। जो लोग स्वास्थ्य को लेकर सावधान हैं वे योगा की सहारा अवश्य लेते हैं जिससे उनका शरीर फीट रहता है। कुछ सामान्य टिप्स जिससे आप भी हमेशा स्वस्थ रह सकते हैं-
- प्रतिदिन सुबह उठने के बाद ज्यादा से ज्यादा 2 घंटे नाश्ता अवश्य करें। नाश्ता में कुछ भी ले सकते हैं जो आपके स्वास्थ्य के ठीक है।
- खाने में रोटी और चावल अलग-अलग समय पर खाएं।
- प्रतिदिन एक केला, सेब और फ्रूट ज्यूस अवश्य लें। दिनभर थोड़ी-थोड़ी देर में फ्रूट आदि खाते रहें।
- ज्यादा मिठाई ना खाएं।
- लंच और डीनर प्रतिदिन समय पर लें।
- तली हुई चीजों से भी दूर रहें।
- प्रतिदिन सुबह उठकर हल्की एक्सरसाइज या व्यायाम अवश्य करें।
- कम से कम 15-20 मिनिट प्रतिदिन ध्यान लगाएं। आंख बंद करके शांत बैठें और मस्तिष्क को आराम दें।
- प्रतिदिन सुबह या शाम को लॉन्ग वॉक पर जाएं।
- चटपटे खाने और मैदे से बनी खाने की चीजों से दूर रहें।
- खाने पहले सलाद अवश्य खाएं।
- खाने के बाद छाछ पीएं।
- रात का खाना सोने से कम से कम 2 घंटे पहले खा लें।
- खाने के तुरंत बाद कभी न सोएं।
- कुछ ना कुछ शारीरिक कार्य अवश्य करते रहें। जैसे डांस, वॉक, एक्सरसाइज आदि।

शाम के समय क्यों नहीं सोना चाहिए?

आदमी का शरीर चौबीसों घण्टे मशीन की तरह काम करता है। जाहिर सी बात कि उसे भी आराम चाहिए होता है। तभी तो कई बार दिन में लोग कुछ देर के लिए आराम करते हैं।
कई लोग समय की कमी के कारण शाम के वक्त आराम करते हैं। यहां आराम करने से हमारा मतलब है-सोने से।
पर शाम को सोना शास्त्रों की दृष्टि से अनुचित माना जाता है।
क्या कारण है कि शाम को सोना वर्जित माना जाता है?
वैसे देखा जाए तो सोने के रात्रि को ही श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार तो दिन भी नहीं सोना चाहिए। दिन में सोने से आयु घटती है, शरीर पर अनावश्यक चर्बी बढ़ती है, आलस्य बढ़ता है आदि।
इसलिए दिन में सोना प्रतिबन्धित है। सिर्फ वृद्ध, बालक एवं रोगियों के मामले में यहां स्वीकृति है।
इस प्रकार जब शास्त्रों में दिन में सोने पर पाबंदी है तो शाम का समय तो वैसे भी संध्या-आचमन का होता है। शाम का समय देवताओं की आराधना एवं संध्या का होता है।
इस समय सोने से शरीर में शिथिलता आती है और नकारात्मक विचारों का आगमन होता है। इस समय तो पूरे भक्तिभाव से भगवान की पूजा-अर्चना एवं संध्या करनी चाहिए।
शाम को सोने के साथ ही खाना खाना, पढ़ाई करना एवं मैथुन कर्म करना भी वर्जित है। कहते हैं इन कर्मों को शाम को करने से आयु तो घटती ही है, साथ ही यश, लक्ष्मी, विद्या आदि सभी का नाश हो जाता है।
इसलिए शाम को सोना शास्त्रोक्त विधान के अनुसार अनुचित माना गया है।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

बेहतर पढ़ाई का तरीका

भई, हर कोई तो पढ़ाई में नंबर वन नहीं हो सकता। जिसका दिमाग पढ़ाई में नहीं लगता, उसका दिमाग कहीं और चलता है- खेल में, गाने-बजाने या नौटंकी में। अल्बर्ट आइंस्टीन और मोहनदास भी मामूली छात्र ही थे। बड़े होकर दोनों ही अपनी शताब्दी के सबसे अधिक बुद्धिमान माने गए।
अल्बर्ट ने थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी दी तो मोहनदास गाँधी अहिंसा के चैंपियन बने। पढ़ाई एक तरीका है लेकिन समझदार बनने की गारंटी इसमें नहीं है। परीक्षा में ऊँचे अंक लाना तब तक किसी काम का नहीं, जब तक तुम एक अच्छे इंसान नहीं बनते।
जिसका दिमाग पढ़ाई में नहीं लगता, उसका दिमाग कहीं और चलता है- खेल में, गाने-बजाने या नौटंकी में। अल्बर्ट आइंस्टीन और मोहनदास भी मामूली छात्र ही थे। बड़े होकर दोनों ही अपनी शताब्दी के सबसे अधिक बुद्धिमान माने गए।
बायो में 99 मार्क लाओ और आगे जाकर एक स्वार्थी डॉक्टर बनो तो वह पढ़ाई दूसरों के किसी काम की नहीं। बात समझ में आ गई हो तो अगले वर्ष अच्छे अंक लाओ और कक्षा-कॉलोनी में सबके चहेते भी बनो।

दादी की चतुराई

आज के चकाचौंध और आँय-फाँय अँगरेजी के जमाने में कौन बच्चा अपना नाम गणेश बताना पसंद करेगा? शानदार स्कूल में पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला गणेश पटवर्द्धन अपने इस पुराने से नाम से बड़ा खुश था। इसका कारण यह था कि गणेश मार्र्ग उसके छोटे शहर की सबसे ज्यादा रौनक वाली सड़क थी। फैशनेबल मॉल उसी सड़क पर।
आधुनिक सिनेमाघर उसी सड़क पर। जूते, कपड़े, विदेशी खाने की महँगी दुकानें सब उसी सड़क पर। और उसी सड़क पर था गणेश का घर-गणेश विला। वह घर सबसे अलग, सबसे न्यारा था। छत पर लाल कवेलू, सामने लकड़ी की बालकनी और बड़े से अहाते में नारियल के ऊँचे-ऊँचे पेड़।
गणेश को लेने के लिए सुबह जब स्कूल बस आती तो वह उसके घर के दरवाजे के पास रुकती। दोपहर बाद जब वह स्कूल से लौटता तो बस उसे गणेश मार्ग की दूसरी ओर उतारती। उस समय तक चहल-पहल इतनी बढ़ जाती कि सड़क पार करना कठिन हो जाता। गणेश काफी देर तक दूर खड़े अपने घर को देखता रहता। उसे अपना घर सुंदर लगता लेकिन उसे यह समझ में नहीं आता कि उसका घर सबसे अलग क्यों है?
आजी (दादी) उसे बताती कि अभी कुछ वर्ष पहले इस रास्ते के सारे घर ऐसे ही थे। जब से इस शहर में जमीन के भाव बढ़ने लगे, उनके पड़ोसियों ने अपने-अपने घर बेच दिए। उन घरों को तोड़कर वहाँ नई दुकानें-दफ्तर और बाजार बने। पेड़ कट गए और रास्ते का हुलिया बदल गया। बस, एक पटवर्द्धनों का बंगला ही पुरानी शान के साथ खड़ा है।
गणेश और आजी की दोस्ती थी। पूरे परिवार में गणेश सबसे छोटा था, तो आजी सबसे बड़ी। घर भी आजी का ही था। आजी उसे कहानियों के साथ पुराने जमाने के किस्से सुनाती। आजी ने उसे बताया था कि बिल्डर लोग उनका घर भी खरीदना चाहते हैं। रुपयों का लालच देते हैं। इतना रुपया जो राजा की कहानी में ही सुनने को मिलता है। हम इतने रुपए लेकर क्या करेंगे? फिर आजी की आँखें दूर कहीं देखने लगतीं। तेरे परदादा बड़े वकील थे। उनसे मिलने के लिए तिलक आए थे, तब ऊपर के कोने वाले कमरे में ठहरे थे। इस घर में आए मेहमानों के नाम जब आजी गिनाती तो गणेश को लगता कि वह उसकी सोशल स्टडीज की पुस्तक में से देखकर बोल रही हैं।
घर बेचने और रुपयों वाली बात गणेश की समझ में नहीं आती। परंतु पूरे पटवर्र्द्धन परिवार में, यानी गणेश के तात्या, अप्पा काका, अण्णा काका और काकियों में घर बेचने को लेकर खासी ऊहापोह थी। पुराना बंगला सबको पसंद था परंतु रुपयों से खरीदी जा सकने वाली मोटरकार, होटलों का खाना, महाबलेश्वर में छुट्टियाँ ललचा रही थीं। आजी से सब डरते थे।
उनकी जुबान की तलवारबाजी से परिवार के लोग तो क्या, बिल्डर-मवाली-सिपहिये सब खिसकते नजर आते थे। एक जान्हवी ताई थी जो अधिक उकसाने पर वैसी जुबान चला सकती थी। जान्हवी की माँ जब बेटी की चिकिर-चिकिर से आजिज आ जाती तो रुँआसी होकर कहती- बाई, तू ठहरी दुर्गादादी की पोती, मेरा तुझसे क्या मुकाबला। तू उन्हीं के पास जा।
दादी ने जान्हवी को अच्छा साध रखा था। जान्हवी के खूब लंबे और रेशमी बाल थे। बचपन से अब तक दादी ही उन्हें तेल लगाकर चोटी गूँथती। जब सब जान्हवी के बालों की प्रशंसा करते, दादी यों मुस्कुराती जैसे उनके बालों की ही बात हो रही हो। जान्हवी कॉलेज में क्या जाने लगी, बाल कटवाने की जिद करने लगी। दादी ने उसे पुचकारा, समझाया, डाँटा... और आज तो उन दोनों ने खूब तलवारें भाँजी। सारे घर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। दादी गुस्से से तमतमाकर घर से बाहर निकल गई और जाकर नारियल के बगीचे में बैठ गई।
बचपन से उन्हें यह जगह बहुत प्रिय थी। जब उनकी शादी हुई तब वे चौदह वर्ष की ही तो थीं। यहीं पर वे घरकुल खेलती थीं। लेकिन आज की गृहस्थी उन्हें समझ में नहीं आती, ऐसा वे बड़बड़ा रही थीं। गुस्साने से ज्यादा वे बौखला गई थीं। घर क्यों बेचना है? बाल क्यों काटना है? घर में सिनेमा क्यों चाहिए? घर का खाना छोड़ बाजार का क्यों चाहिए? दादी को शोरगुल बिलकुल नापसंद था। दोपहर हो गई और गणेश मार्ग पर शोर बढ़ गया। दादी को सिरदर्द होने लगा। वे उठने के लिए झुकी ही थीं कि ऊपर लटके नारियलों को पता नहीं क्या हो गया। एक नारियल आकर उनके सिर पर गिरा।
सच कहो तो टल्ले से ज्यादा वह कुछ नहीं था लेकिन बुढ़िया को बेहोश करने के लिए वह काफी था। हो सकता है ऐसा भूख लगने के कारण हुआ हो। दादी ने जब आँखें खोलीं तब एक दर्जन चेहरे उन पर झुके हुए थे। उनमें से सबसे छोटे, प्यारे चेहरे से उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो? उसने शीश नवाकर कहा- मैं गणेश हूँ। दादी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया। फिर एक मोटी-सी महिला से पूछा- तुम कौन हो? उत्तर मिला मैं शुभांगी, आपकी बड़ी बहू। इस हालत में भी दादी का चौकस स्वभाव कम नहीं हुआ था।
सबके नाम जानने के बाद उन्होंने पूछा कि पीछे छुपती फिर रही बालकटी लड़की कौन है? लड़की सहमते हुए बोली- मैं जान्हवी हूँ। दादी बोली- छुपती क्यों हो? तुम तो सबसे सुंदर लग रही हो। सब लोग चौंक पड़े। पहले तो दादी बगीचे में बेहोश पड़ी मिली। पूरे चार घंटे बाद उन्हें होश आया। फिर उनकी याददाश्त खो गई। अब वे लंबे बाल कटाने पर जान्हवी को सुंदर कह रही थीं। तभी दूर से सुनाई देते वाहियात गीतों की धुन पर दादी पैर हिलाने लगीं। यह तो वाकई में डरा देने वाली बात थी। डॉक्टर काका ने कहा कि इन्हें आईसीयू में रखकर देखते हैं।
तीन दिन अस्पताल में रहने के बाद दादी घर लौट आईं। अब वे पहले की तरह ही अच्छी-भली चल-फिर-बोल रही थीं, लेकिन सबकुछ भूल गई थीं। अब वे किसी को दादू, किसी को मोटी, किसी को चष्मिश जैसे नामों से पुकारने लगीं। दादी दिनभर जोर से टीवी चलाकर रखतीं। अब वे घर का खाना छोड़ पिज्जा-बर्गर की जिद करने लगीं। पहले तो सबको इसमें फायदा दिखा परंतु जब टीवी से सिरदर्द और बाहर के खाने से पेट गड़बड़ाने लगा तो सब बड़े परेशान हो उठे। घर बेचने की बात सब भूल गए।
महीना खत्म होने के बाद दूधवाला हिसाब लेकर आया। चालाक ने सोचा कि डोकरी की हालत का फायदा उठाकर सौ-पाँच सौ रुपए झटक लूँ। सबकी आँख बचाकर उसने बगीचे में फूल चुन रही दादी को पकड़ा और बोला कि आजी, पिछले माह के मेरे पाँच सौ रुपए बाकी हैं। आप अप्पा से कहकर दिलवा दो। दादी चमकी और आँखें तरेरकर बोलीं- महेश्या, झूठ बोलेगा तो कौवा काटेगा। छुट्टे पैसे नहीं थे इसलिए तूने ही बत्तीस रुपए लौटाए नहीं मेरे। अब बोल? महेश्या दादी के पैर छूने लगा।
दूधवाले के जाते ही पीछे से निकलकर गणेश सामने आया और आँखें नचाने लगा। दादी यह क्या शरारत है? दादी ने आँखें मिचकाकर फुसफुसाया कि तेरा गणेश विला बचाए रखना है तो वेड़ा (पागल) बनकर पेड़ा खाओ।

दीपावली के इन टोटको से होगी लक्ष्मी कृपा


दीपावली की रात लक्ष्मी की अगवानी की रात होती है। इस दिन जुआं खेलने का भी विशेष प्रचलन है। कहीं कहीं दांव कौडिय़ों से जीते हारे जाते हैं। प्राचीनकाल से ही कौड़ी का अपना विशेष महत्व है इसे लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। लक्ष्मी को समुद्रवासिनी माना गया है इसलिए समुद्र से उत्पन्न जितनी भी चीजे हैं वो किसी ना किसी रूप में लक्ष्मी के पूजन में उपयोग में लाई जाती हैं। लक्ष्मीकारक कौडिय़ों से जुड़े इन टोटको से आप भी लक्ष्मी कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
- दीपावली के दिन सात लक्ष्मीकरक कौडिय़ा रात्रि में अपने पूजन स्थान पर लक्ष्मी जी के चरणों में रखें। पूजन के बाद आधी रात को इन कौडिय़ों को घर के किसी कौने में गाड़ दें । इस प्रयोग से शीघ्र ही आर्थिक उन्नति होने लगेगी।
- दीपावली के पूजन में पीली कौडिय़ा रखकर पूरे विधि- विधान से पूजा करने के बाद गल्ले में रखने से लक्ष्मी आकर्षित होती है।
- पुराने चांदी के सिक्के और रुपयों के साथ कौड़ी रखकर उनका लक्ष्मी पूजन के समय केसर और हल्दी से पूजन करें। पूजा के बाद इन्हे तिजोरी में रख दें।
- लक्ष्मी पूजा के दिन लक्ष्मी मंदिर में लक्ष्मीकारक कौडिय़ा चढ़ाएं।

यमराज को धर्मराज क्यों कहते हैं?

यमराज का नाम जेहन में आते ही एक भयानक और खुंखार तस्वीर सामने आती है जिसे बड़ा ही निर्दयी और कष्ट देने वाला देवता कहा गया है।

यमराज को मृत्यु का देवता भी कहते हैं। साथ ही यमराज को धर्मराज भी कहा जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जिस देवता को हम धर्मराज की उपमा देकर पूजते हैं, उन्हीं को मृत्यु का देव कहते हुए उनकी चर्चा तक करना भी पसंद नहीं करते?
और यदि यमराज सचमुच इतने ही निर्दयी देव हैं तो उन्हें धर्मराज क्यों कहा जाता है?
एक ही देवता के साथ दो अलग-अलग विसंगतियां क्यों?
यमराज को कठोर हृदय का देवता कहा जाता है। कहते हैं कि ये लोगों के मरने के बाद उनके कर्मों के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। ये सब बातें इसी दुनिया के लोग आपस में करते हैं जिससे यमराज के नाम का हौव्वा खड़ा हो गया है।
वे तो बस लोगों को उनके अच्छे-बुरे को देखते हुए दण्ड देते हैं। यही कारण है कि इन्हें धर्मराज कहा जाता है क्योंकि ये धर्मानुसार ही बिना किसी भेदभाव के लोगों को उनके कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नरक का अधिकारी बनाते हैं अथवा किसी नई योनि में दोबारा अपने पाप भोगने के लिए नया जन्म देते हैं।
चूंकि ये कर्मों का उचित लेखा-जोखा करके ही कर्म दण्ड देते हैं अर्थात धर्मपूर्वक जीव के साथ न्याय करते हैं। ये परलोक के जज हैं इसलिए यमराज को धर्मराज कहा जाता है।

पत्नी वामांग क्यों

पति के बायीं ओर ही क्यों बैठती है पत्नी?
पति-पत्नी का रिश्ता बड़ा ही कोमल और पवित्र होता है। यह विश्वास की डोर से बंधा होता है।
कहते हैं पत्नी, पति का आधा अंग होती है। दोनों में कोई भेद नहीं होता। पर जहां तक धार्मिक अनुष्ठानों का सवाल है, पत्नी को हमेशा पति के बायीं ओर ही बिठाया जाता है।
क्या इसके पीछे कोई मान्यता है या पुराने रीति-रिवाज?
हमारे धर्म-ग्रथों में पत्नी को पति का आधा अंग कहा जाता है। उसमें भी उसे वामांगी कहा जाता है अर्थात पति का बायां भाग। शरीर विज्ञान और ज्योतिष ने पुरुष के दाएं और महिलाओं के बाएं हिस्से को शुभ माना है।
हस्त ज्योतिष में भी महिलाओं का बायां हाथ ही देखा जाता है। मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा खास तौर पर मस्तिष्क रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। दायां हिस्सा कर्म प्रधान होता है।
हमारा मस्तिष्क भी दो हिस्सों में बंटा होता है दायां हिस्सा कर्म प्रधान और बायां कला प्रधान। महिलाओं को पुरुषों के बायीं ओर बैठाने के पीछे भी यही कारण है।
स्त्री का स्वभाव सामान्यत: वात्सल्य का होता है और किसी भी कार्य में रचनात्मकता तभी आ सकती है जब उसमें स्नेह का भाव हो। दायीं ओर पुरुष होता है जो किसी शुभ कर्म या पूजा में कर्म के प्रति दृढ़ता के लिए होता है, बायीं ओर पत्नी होती है जो रचनात्मकता देती है, स्नेह लाती है।
जब कोई कर्म दृढ़ता और रचनात्मकता के साथ किया जाए तो उसमें सफलता मिलनी तय है।

क्यों होती है शादी के पहले सगाई?

शादी दो विपरीत लिंगों को न केवल शारीरिक रूप से बल्कि भावनात्मक रूप से भी जोड़ती है। इसमें न केवल दो व्यक्ति बल्कि दो समाज मिलते हैं। शायद इसलिए शादी को सामाजिक रूप दिया गया है।

शादी के पवित्र बंधन में बंधने के बाद दो जुदा लोग एक साथ अपनी जिंदगी की शुरुआत करते हैं। जाहिर सी बात है कि बिना जान-पहचान के जिंदगी की गाड़ी पटरी पर चलाना आसान काम नहीं है।
जब दो समाज या समुदाय शादी के पवित्र बंधन के कारण एक होते हैं तो उनमें बहुत से वैचारिक या सैद्धान्तिक मतभेद होते हैं। दोनों के रीति-रिवाज काफी अलग होते हैं। दोनों की धार्मिक मान्यताओं में अंतर होता है।
अगर उन्हें एक-दूसरे को समझने का पर्याप्त समय न मिले तो यह अंतर या मतभेद और गहरे हो सकते हैं। ऐसे में तो शादी की सामाजिक मान्यता पर ही प्रश्रचिन्ह लग सकते हैं।
इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए ही शादी के पहले सगाई करवाने की प्रथा है। सगाई से शादी होने तक का समय एक-दूसरे को समझने तथा उनकी मान्यताओं को स्वीकार करने का होता है।
यही वह समय होता है जब भावी दम्पत्ति आपस में सामन्जस्य स्थापित कर भावी जीवन की शुरुआत के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से ढ़ृढ़ होते हैं।
सगाई के पीछे एक और मान्यता है कि इससे भावी दम्पत्ति एक-दूसरे को जान सकते हैं, आपस में संवाद स्थापित कर भावी जीवन की बेहतरी के लिए प्रेरणा ले सकते हैं। इसलिए शादी से पहले सगाई करवाने की प्रथा है।

कल्याण का संदेश

सुभाषचंद्र बोस ने दिया कल्याण का संदेश
एक शहर में हैजे का प्रकोप हो गया। रोग इस हद तक अपने पैर पसार चुका था कि दवाएं और चिकित्सक कम पड़ गए। चारों ओर मृत्यु का तांडव हो रहा था।
ऐसी विकट स्थिति में शहर के कुछ कर्मठ एवं सेवाभावी युवकों ने एक दल का गठन किया। यह दल शहर की निर्धन बस्तियों में जाकर रोगियों की सेवा करने लगा।
एक बार ये लोग उस हैजाग्रस्त बस्ती में गए, जहां का एक कुख्यात बदमाश हैदर खां उनका घोर विरोधी था। हैजे के प्रकोप से हैदर खां का परिवार भी नहीं बच सका। कोई भी चिकित्सक उसके घर आने के लिए तैयार नहीं था। वह बेहद परेशान था। सेवाभावी पुरुषों की टोली उसके टूटे-फूटे मकान में भी पहुंची और बीमार लोगों की सेवा में लग गई। उन युवकों ने हैदर खां के अस्वस्थ मकान की सफाई की, रोगियों को दवा दी और उनकी हर प्रकार से सेवा की। धीरे-धीरे हैदर खां के सभी परिजन भले-चंगे हो गए।
हैदर खां को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने हाथ जोड़कर उन युवकों से क्षमा मांगते हुए कहा मैं बहुत बड़ा पानी हूं। मैंन आप लोगों का बहुत विरोध किया, किंतु आपने मेरे परिवार को जीवनदान दिया। सेवादल के मुखिया ने उसे अत्यंत स्नेह से समझाया आप इतना क्यों दुखी हो रहे हैं? आपका घर गंदा था, इस कारण रोग घर में आ गया और आपको इतनी परेशानी उठानी पड़ी। हमने तो बस घर की गंदगी ही साफ की है। तब हैदर खां बोला केवल घर ही नहीं अपितु मेरा मन भी गंदा था आपकी सेवा ने दोनों का मेल साफ कर दिया है।
इस सेवादल के ऊर्जावान नेता थे सुभाषचंद्र बोस। जिन्होंने सेवा की नई इबारत लिखकर समाज को यह महान संदेश दिया कि मानव जीवन तभी सार्थक होता है, जब वह दूसरों के कल्याण हेतु काम आए। वही सही मायनों में मनुष्य कसौटी पर खरा उतरता है।

पितृभक्ति देख निर्दयी जेलर पिघला

हारूं रशीद बगदाद का बहुत नामचीन बादशाह था। एक बार किसी कारण से वह अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने वजीर और उसके लड़के फजल को जेल में डलवा दिया।
वजीर को ऐसी बीमारी थी कि ठंडा पानी उसे हानि पहुंचाता था। उसे सुबह हाथ-मुंह धोने को गर्म पानी आवश्यक था। किंतु जेल में गर्म पानी कौन लाए? वहां तो कैदियों को ठंडा पानी ही दिया जाता था।
फजल रोज शाम लौटे में पानी भरकर लालटेन के ऊपर रख दिया करता था। रातभर लालटेन की गर्मी से पानी गर्म हो जाता था। उसी से उसके पिता सुबह हाथ-मुंह धोते थे। उस जेल का जेलर बड़ा निर्दयी था। जब उसे ज्ञात हुआ कि फजल अपने पिता के लिए लालटेन पर पानी गर्म करता है, तो उसने लालटेन वहां से हटवा दी।
फजल के पिता को ठंडा पानी मिलने लगा। इससे उनकी बीमारी बढऩे लगी। फजल से पिता का कष्ट नहीं देखा गया। उसने एक उपाय किया। शाम को वह लौटे में पानी भरकर अपने पेट से लोटा लगा लेता था। रात भर उसके शरीर की गर्मी से लौटे का पानी थोड़ा बहुत गर्म हो जाता था। उसी पानी से वह सुबह अपने पिता का हाथ-मुंह धुलाता था। किंतु रातभर पानी भरा लोटा पेट पर लगाए रहने के कारण फजल सो नहीं सकता था। क्योंकि नींद आने पर लोटा गिर जाने का भय था। कई राते उसने बिना सोये ही गुजार दी। इससे वह अति दुर्बल हो गया। किंतु पितृभक्त फजल ने उफ तक नहीं की।
जब जेलर को फजल की इस पितृभक्ति का पता चला तो उसका निर्दयी हृदय भी दया से पिघल गया और उसने फजल के पिता के गर्म पानी का प्रबंध करा दिया। पिता के लिए फजल की यह त्याग भावना सिखाती है कि अपने जनक के प्रति हमारे मन में वैसा ही समर्पण होना चाहिए। जैसा उनका हमारे लिए होता है। पितृ ऋण चुकाने का यही सही तरीका है।
- प्रस्तुति: प्रज्ञा पाठक

भागवत: १०३: गुरु ही जीवन को सफल बनाता है

अब आगे राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि देवताओं के किस अपराध के कारण बृहस्पति ने अपना पुरोहित पद छोड़ा। तब शुकदेवजी ने बताया कि त्रिलोक की संपदा प्राप्त कर इंद्र को प्रमाद हो गया था। एक बार इंद्र अपनी सभा में इंद्राणी के साथ उच्चासन पर विराजमान थे। उनका यशोगान हो रहा था और उसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी सभा में पधारे।किंतु इंद्र ने उनका उचित आदर-सत्कार नहीं किया। बृहस्पतिजी ने इस अपमान का अनुभव किया और वे चुपचाप वहां से चले गए।

इंद्र को जब अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो वे बृहस्पतिजी से क्षमायाचना की योजना बनाने लगे लेकिन बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए। दैत्यों को जब यह सूचना मिली कि देवगुरु बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए हैं तो उन्होंने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की अनुमति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित कर दिया। इंद्र ने बृहस्पति का अपमान किया यह तो अनुचित हुआ लेकिन बृहस्पति उस बात को हृदय में रखकर अपना स्थान छोड़ गए, विलुप्त हो गए। उनके जाने से देवताओं पर आक्रमण हो गया। क्या बृहस्पति जी ने यह उचित किया ?
बृहस्पतिजी का यह सोचना कि इंद्र ने मुझे प्रणाम नहीं किया। इंद्र और देवता मुझे गुरु मानते हैं, तो उन्होंने अपने सम्मान की अपनी स्थिति की जैसी तुलना की ऐसी हम न कर बैठें। वो युग देवताओं का था। वह तो दुनिया उनकी निराली है लेकिन उनकी कथा से हम अपने लिए कुछ समझ हासिल कर सकते हैं। इंद्र की दृष्टि से बृहस्पति ने अपने को देखा। बृहस्पति गुरू हैं वो लीला कर रहे हैं, लेकिन कम से कम हम को यह संकेत मिले। सभी देवगण इंद्र के नेतृत्व में ब्रह्माजी के पास पहुंचे क्योंकि बृहस्पतिजी लुप्त हो गए थे और दैत्यों ने आक्रमण कर दिया था। तब ब्रह्माजी ने समझाया कि गुरु का अपमान किया है तो फल तो भुगतना होगा।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

लतीफ़े

लतीफ़े
पुलिस (राकेश से)- खबर है कि आपके घर में विस्फोटक सामग्री है।
राकेश - सर खबर तो एक दम पक्की है पर वो अभी मायके गयी हुई है।


एक बच्चे से एक आदमी ने पूछा- बेटे आपके पापा का क्या नाम है?
बच्चा- अंकल अभी उनका नाम नहीं रखा, बस प्यार से पापा-पापा कहता हूं।


संता (बंता से)- आज मैंने एक जान बचाई!
बंता (संता से)- वो कैसे?
संता- मैंने एक भिखारी को पूछा 1000 का नोट दूं, तो क्या करोगे? उसने कहा ख़ुशी से मर जाऊंगा, तो मैंने उसे नोट नहीं दिया और उसे बचा लिया!


पत्नी (पति से)- अगर मैं माऊंट एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं तो आप मुझे क्या दोगे?
पति (पत्नी से)- इसमें पूछने वाली क्या बात है.. धक्का!


रामू- डॉक्टर साहब प्लास्टिक सर्जरी में कितना खर्चा आयेगा?
डॉक्टर- 50 हजार..
रामू- अगर प्लास्टिक हम दें तो।
डॉक्टर (गुस्से से)- तो फिर पिघलाकर चिपका भी लेना..

ममता

सुबह जब मैं टहलने निकली तो एक सुअरी पर निगाह टिक गई। पता नहीं वह क्यों मिट्टी उछाल रही थी। पास जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। दो घंटे बाद फिर उत्सुकतावश मैं वहां गई तो देखा कि वह अपने बच्चे के साथ जा रही थी।
वहीं खडे कुछ बच्चे आपस में बातें कर रहे थे। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि आंटी, रात को सुअरी का बच्चा इस गहरी नाली में गिर गया था और ऊपर नहीं आ पा रहा था। पहले तो इसकी मां बहुत चिल्लाई, फिर अचानक इसने पैरों से मिट्टी खोद-खोदकर नाले में डालनी शुरू कर दी। सुबह तक मिट्टी काफी ऊपर आ गई तो उसका बच्चा मिट्टी के ढेर पर चढकर ऊपर आ गया। मैं अवाक् खडी सोचने लगी कि अपने बच्चे को मुसीबत में पाकर जानवर ने भी उसी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया जो इंसान दे पाता। मां तो मां ही होती है।

स्नेह-संबंध

हमारी बिट्टू बडी सुन्दर होने की वजह से वह हर किसी की नजर अपनी ओर आकर्षित कर ही लेती है, लेकिन जो बात सबका मनमोह लेती है, वह है उसकी मुस्कान। किसी को अपनी ओर देखते पाकर एकटक उसकी ओर देखेगी, फिर अपनी बडी-बडी पलकों को अधमुंदी कर ऐसे थिरक कर मुस्करा देगी कि सामने वाला बस ठगा सा रह जाए। अभी तीन साल की भी पूरी नहीं हुई है, पर अपनी बालसुलभ विलक्षण बुद्धि का प्रयोग वह लोगों को प्रसन्न करने में बडी सफलता से करती है।
एक दिन सुबह बिट्टू एक कांच का प्याला तोडने पर मां से पिटाई खा कर रो रही थी। बहलाने के लिए मैं उसे पास के मंदिर में ले गया। बस उस दिन के बाद यह क्रम बन गया। उस दिन भगवान को नमस्कार कर जो आंख खोली तो बगल में एक महिला को खडा पाया। मैंने देखा कि वह हाथ जोडे खडी थी, पर निहार रही थी एकटक बिट्टू को जो भगवान की देहली पर जलती अगरबत्ती के लहराते धुएं को अपनी मुट्ठी में पकडने की कोशिश कर रही थी। अद्भुत लावण्यमयी थी वह महिला। मुझे तो अचानक ऐसा लगा, जैसे बिट्टू ही हठात बडी हो कर बगल में आ खडी हुई है।
मैं उसकी तरफ देख रहा था, इसका उसे कतई ख्याल नहीं था। एकटक वह बिट्टू को देखे जा रही थी। भगवान को दोनों हाथ जोड बिट्टू जब पलटी तो महिला को अपनी ओर इस मुद्रा में देखते पाकर क्षण भर ठिठकी, मुस्करा दी और फिर हाथ जोडकर उसे जय जय कर दी। प्रत्युत्तर में वह महिला भी मुस्करा दी। बिट्टू बढकर उसके सामने खडी हो गई और उसने उसे गोद में उठा लिया। बिट्टू ने अपनी दोनों हथेलियां उसके गालों पर जमाई और उसका चेहरा अपनी ओर घुमा उसकी आंखों में देखने लगी। महिला ने उसे गले से लगा लिया और उसने अपनी दोनों बांहें उसके गले में डाल अपना गाल उसके गाल से सटा दिया। महिला कुछ बोली नहीं, बिट्टू को गोदी में लिये लिये परिक्रमा करने लगी।
कुछ दिनों में तो मंदिर पहुंचते ही बिट्टू छिटककर गोद से उतर जाती, भगवान से पहले आंटी को जय जय करती और फिर उसकी गोद में या उस की उंगली पकडे पकडे परिक्रमा करती, हाथ जोडती, टीका लगाती और प्रसाद लेती। जितनी देर उसके साथ रहती, चहकती रहती। मैंने उस महिला को कभी बोलते नहीं सुना। बिट्टू जैसे उसकी आंखों की भाषा से ही सब समझ जाती थी। मैं चप्पल पहन चुकने पर जब आवाज लगाता, आओ, बिट्टू तो वह आंखों से कुछ कहती और बिट्टू टाटा करके चली आती।
दो दिनों के लिए मैं बाहर गया हुआ था, लौटा तो मालूम हुआ कि बिट्टू मंदिर जाने के लिए खूब रोई थी। मैं बिट्टू को लेकर जल्दी ही मंदिर चला गया। जाते ही वहां के पुजारी ने पूछा, दुई दिन से आए नहीं, बाबूजी? काम से बाहर गया था, मैंने बताया। पुजारी बोला, तभी कहूं, नहीं तो जरूर आवते। वो बहन जी रोज आके यहां घंटों बैठी रहती हैं। मुझे सुनकर आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा, रोज मिलती है तो बिट्टू को प्यार कर लेती है, बिट्टू है भी तो प्यार करने लायक, लेकिन वह इस प्रकार बिट्टू से बंध गई है, मुझे विश्वास नहीं था।
पुजारी ने बताया कि उसके यहां भगवान का दिया सब कुछ है, बस संतान नहीं है। सात साल शादी को हो गए हैं।
रक्षाबंधन के दिन पुजारी जी घर पर राखी बांधने आए, तब मैं बिट्टू को अस्पताल ले जा रहा था। उसकी तबियत अचानक खराब हो गई थी। उधर पत्नी पहले से ही बीमार पडी थी। दूसरे दिन बिट्टू की तबियत और खराब हो गई। दस्तों में खून आता था। खून की जरूरत थी। डाक्टर कह गए थे, किसी से खून दिलवाने का इंतजाम करूं। उसकी आंखें मुंदी तो नर्स से उसे देखते रहने को कह कर मैं ब्लड बैंक में गया, और बेड नंबर बता कर मैंने खून देने के लिए कहा।
वहां के डाक्टर ने बडे आश्चर्य से कहा, चिल्ड्रन वार्ड में ग्यारह नंबर के लिए? उसके लिए तो बच्चे की मां कब का खून दे गई है। मैच भी हो गया है, उसी ग्रुप का है। आप कौन हैं? मैंने कहा, आपको गलतफहमी हुई है, बच्चे की मां तो घर पर बीमार पडी है। डाक्टर ने रजिस्टर खोला और पूछा, बेड नंबर ग्यारह, चिल्ड्रन-वार्ड?
मैंने कहा, हां
डाक्टर कुछ देर मेरी ओर देखता रहा। फिर बोला, आप कौन हैं? आप ने बताया नहीं।
बिट्टू मेरी बेटी है, मैंने जवाब दिया।
डाक्टर कहने लगा, कमाल है! आप कह रहे हैं कि आपकी पत्नी बीमार हैं और अभी जो खून देकर गई हैं वह तो खूब भली चंगी थीं। हां, रो बहुत रही थीं। जाइए, उन्हें संभालिये, खून दे कर उन्होंने आराम भी नहीं किया है। मेरा माथा ठनका। वापस पहुंचा तो वही महिला बिट्टू के पलंग के पास की खिडकी के सामने बरामदे में खडी थी। उसके साथ एक सज्जन भी थे।
मैंने, हाथ जोडकर उन्हें नमस्कार किया और कहा, आपने बडी मेबरबानी की, मैं तो आप को जानता भी नहीं। मैंने पहली बार महिला की आवाज सुनी, कांपती आवाज में उन्होंने पूछा, मैं बिट्टू को देख आऊं?
क्यों नहीं? इसमें पूछने की क्या बात है? मैंने कहा। आंखों में उमडते आंसुओं के साथ वह बोली, कहीं आप सोचें, मुझ अभागिन.. छि:, ऐसा मत सोचिए, मैंने उनकी बात काट दी, और उसके बाद जो वह जाकर बिट्टू की बगल में बैठी तो उठी ही नहीं। उसके पति मुझे अक्सर घर पर अपनी पत्नी की देखभाल के लिए भेज देते। उन्होंने बिट्टू की देखभाल मां-बाप की तरह की।
एक दिन बाद जब वार्ड में पहुंचकर मैंने बिस्तर खाली देख सिस्टर से मरीज के बारे में पूछा तो उसका जवाब था, उसके मां बाप उसे जरा टहलाने ले गए हैं।

[डॉ. श्रीगोपाल काबरा]
15, विजयनगर, डी-ब्लॉक, मालवीयनगर, जयपुर- 302017

यहां भगवान पीते हैं शराब

भगवान की महिमा अपरम्पार है। उनके बारे में इतनी बातें प्रचालित हैं कि साधारणत: लोगों को विश्वास ही नहीं होता खासकर विज्ञान तो ऐसी बातों को सिरे से ही नकार देता है।
पर मामला जब आस्था से जुड़ा होता है तो विश्वास करना ही पड़ता है। ऐसा ही स्थान जहां आस्था विज्ञान पर भारी पड़ती है- उज्जैन स्थित काल भैरव का है।

यहां की विशेषता है कि यहां भगवान यानि काल भैरव शराब पीते हैं और उन्हें बाकायदा शराब का ही प्रसाद चढ़ाया जाता है।
काल भैरव को उज्जैन का क्षेत्रपाल कहा जाता है। यह स्थान भैरवगढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। भैरव महाराज का मंदिर एक ऊंचे टीले पर बना हुआ है जिसके चारों ओर परकोटा बना हुआ है।
कहते हैं प्राचीन समय में यहां प्रवेश द्वार के ऊपर चौघडिय़े बजा करते थे। मंदिर में काल भैरव की मूर्ति बहुत भव्य एवं प्रभावोत्पादक है। कहा जाता है कि यह मंदिर राजा भद्रसेन द्वारा निर्मित है।
मंदिर की शोभा देखते ही बनती है। मंदिर पर भैरव अष्टमी को यात्रा होती है जिसमें सवारी भी निकलती है। पुराणों में जिन अष्टभैरव का वर्णन है, उनमें ये प्रमुख हैं।
यहां की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यहां काल भैरव की प्रतिमा को शराब का प्रसाद चढ़ाया जाता है और बाकायदा मूर्ति शराब पीती भी है। पूरे देश में शराब का खुलेआम विक्रय करना अपराध है पर यहां मंदिर में चढ़ाने के लिए शराब खुले आम बेची जाती है।
कई बार विज्ञान ने इस आश्चर्य पर अविश्वास प्रकट किया पर काफी छान-बीन के बाद अब विज्ञान भी इस चमत्कार को मानने के लिए बाध्य है। अपनी इस विशेषता के कारण आज यह मंदिर विश्व प्रसिद्ध हो गया है।
भगवान का अनूठा चमत्कार देखने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालु यहां आते हैं।
कैसे पहुंचे- भोपाल-अहमदाबाद रेलवे लाइन पर स्थित उज्जैन एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यहां हर गाड़ी रुकती है।
मध्य-प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर से उज्जैन मात्र 60 किलोमीटर दूर है। यह दूरी बसों से आसानी से पूरी की जा सकती है।

भागवत: १०२: नारदजी के चरित्र को जीवन में उतारें

शुकदेवजी राजा परीक्षित से बोले- हे राजन। दक्ष की दशा पर चिंतित होकर ब्रह्माजी ने उसको बहुत समझाया और कहा कि वह पुन: सृष्टि की उत्पत्ति करे। इस बार आसिन्की से दक्ष की साठ कन्याएं उत्पन्न हुई। उसने दस धर्मराज को, तेरह कश्यप को, 27 चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृषाश्व को और शेष बची ताक्ष्र्यनाम धारी कश्यप को ब्याह दी। इन कन्याओं की इतनी संतति हुई की उनसे सारी त्रिलोकी भर गई।

आइए एक बार पुन: नारदजी को याद कर लें। शाप लगा तो नारदजी का अपना कोई घर ही नहीं रहा। जब जो जैसी भी स्थिति हो परमात्मा का प्रसाद मानकर ऐसा काम करिए कि उसमें भी आदर्श स्थापित हो जाए। नारद चल दिए और नारद सबको समझाते रहे, सुनाते रहे। नारदजी यही काम करते थे। नारदजी का काम यही था तो नारदजी के पास संभावना थी। उन्होंने अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया। हम भी नारदजी से ये सीखें कि उनके पास भगवान की कृपा थी।
नारदजी तीन काम करते हैं कंधे पर रखते हैं वीणा, बजाते रहते हैं। मुंह से बोलते हैं नारायण-नारायण। वीणा के तार यदि ठीक से न कसे हुए हों तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा और हमारा ये शरीर वीणा है। ढीला छोड़ देंगे तो भी सुर नहीं निकलेगा और ज्यादा कस देंगे तो भी सुर बिगड़ जाएगा। संतुलन बनाए रखिए फिर देखिए क्या बढिय़ा संगीत आएगा अपनी देह से। तो नारदजी तीन काम कर रहे हैं पहला वीणा बजा रहे हैं संयम के साथ, दूसरा नारायण-नारायण बोल रहे हैं और तीसरा नारद वो काम करते हैं जो हमें हमेशा करते रहना चाहिए। जरा मुस्कुराइए।

लक्ष्मी कमल के फूल पर क्यों विराजित हैं?


महालक्ष्मी के चित्रों और प्रतिमाओं में उन्हें कमल के पुष्प पर विराजित दर्शाया गया है। इसके पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही कमल के पुष्प पर विराजित लक्ष्मी जीवन प्रबंधन का महत्वपूर्ण संदेश भी देती हैं।
महालक्ष्मी धन की देवी हैं। धन के संबंध में कहा जाता है कि इसका नशा सबसे अधिक दुष्प्रभाव देने वाला होता है। धन मोह-माया में डालने वाला है और जब धन किसी व्यक्ति पर हावी हो जाता है तो अधिकांश परिस्थितियों में वह व्यक्ति बुराई के रास्ते पर चल देता है। इसके जाल में फंसने वाले व्यक्ति का पतन होना निश्चित है।
वहीं कमल का फूल अपनी सुंदरता, निर्मलता और गुणों के लिए जाना जाता है। कमल कीचड़ में ही खिलता है परंतु वह उस की गंदगी से परे है, उस पर गंदगी हावी नहीं हो पाती।
कमल पर विराजित लक्ष्मी यही संदेश देती हैं कि वे उसी व्यक्ति पर कृपा बरसाती हैं जो कीचड़ जैसे बुरे समाज में भी कमल की तरह निष्पाप रहे और खुद पर बुराइयों को हावी ना होने दें। जिस व्यक्ति के पास अधिक धन है उसे कमल के फूल की तरह अधार्मिक कृत्यों से दूरी बनाए रखना चाहिए। साथ ही कमल पर स्वयं लक्ष्मी के विराजित होने के बाद भी उसे घमंड नहीं होता, वह सहज ही रहता है। इसी तरह धनवान व्यक्ति को भी सहज रखना चाहिए। जिससे उस पर लक्ष्मी सदैव प्रसन्न रहे।

घर में क्यों लगाएं हंसते हुए बुद्धा की मूर्ति?

जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते है।शांति, समृद्धि आज के मानव की पहली प्राथमिकता है। बुद्धा की मुर्ति सुख का पर्याय मानी जाती है। इस मुर्ति को मुख्यत: घर के मुख्य द्वार के सामने रखी जाती है इसके अलावा लॉबी या बैठक कक्ष में रखी जा सकती है। मूर्ति का मुंह हमेशा मुख्य द्वार के सम्मुख होना चाहिए।

अगर स्थापित करना मुश्किल हो तो टेबल, शाेकेस आदि के ऊपर इसे इस प्रकार स्थापित करें कि यह घर में प्रवेश करते समय दिखाई दे। यह सकारात्मक उर्जा का प्रतीक होता है। उसका हंसता हुआ चेहरा उर्जा को अधिक क्रियाशील व गतीशील बनाता है। इससे पूरे घर में सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता है।
इस मूर्ति को शयन कक्ष, रसोई घर, बाथरुम और शौचघर आदि स्थान नहीं रखा जाता। हंसते हुए बुद्धा के विषय में मान्यता है कि इसे खरीदना नहीं चाहिए, उपहार में ही मिले तो ही अच्छा है लेकिन यह धारणा सही नहीं है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

मनोरंजन

लतीफे
पहला, ‘एक जमाना था जब मैं सिर्फ दस रुपए में ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर के लायक सामान ले आता था। लेकिन अब कितनी महंगाई हो गई है।’ दूसरा, ‘ये बात नहीं है, दरअसल अब सभी दुकानों पर सीसीटीवी कैमरे लग गए हैं।’
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एक दर्जी अपनी दुकान बंद कर के भाग गया। उसके सभी ग्राहक दुकान के बाहर खड़े एक दूसरे से बातें कर रहे थे। कोई कहता कि वो उसकी पेंट का कपड़ा ले गया तो कोई कहता कि शर्ट का कपड़ा। एक आदमी कुछ दूर खड़ा रो रहा था। जब उससे रोने का कारण पूछा गया तो वो बोला, ‘वो मेरा नाप ले गया।’
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एक आदमी रेस्तरां में बैठा था। उसने देखा कि कुछ दूर खड़ा वेटर बार-बार खुजली कर रहा है। उसने वेटर को बुलाया और पूछा, ‘खुजली है क्या?’ वेटर, ‘साहब, मेन्यु में लिखी होगी तो जरूर मिलेगी।’
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एक चूहे ने हाथी से कहा, ‘यार अपनी शर्ट दो दिनों के लिए देना।’ हाथी हंसकर बोला, ‘हा.हा.हा. पहनेगा क्या ?’ चूहा, ‘नहीं, घर में शादी है, तंबू लगवाना है।’
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एक आदमी अपनी पत्नी के साथ रात का खाना खाकर टहलने निकलता है। पान की दुकान के पास जाकर एक मीठा पान पत्नी के लिए खरीदता है, यह देखकर पत्नी कहती है, ‘एक पान अपने लिए भी खरीद लो?’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘तुम ही खाओ, मैं पान के बिना भी चुप रह सकता हूं।’
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दो मेढ़क साथ-साथ बैठे थे। पहला बोला, ‘टरर्र..’ दूसरा, ‘टरर्र..’ पहला, ‘टरर्र..’ दूसरा, ‘टरर्र..’ पहला, ‘टरररर्र..’ दूसरा, ‘यार टॉपिक चेंज न कर।’
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टीचर ने बच्चों की कॉपी पर नोट लिखकर भेजा - कृपया बच्चों को नहला कर भेजा करें। बच्चों की माँ ने नोट जवाब में लिखा - कृपया बच्चों को पढ़ाया करें, सूंघा न करें।
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नया कर्मचारी, ‘तुम इस दफ्तर में कब से काम कर रहे हो?’ पुराना कर्मचारी, ‘जब से बॉस ने मुङो निकालने की धमकी दी है।’
अन्य फोटो गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010 को मुंबई में ब्रेस्ट कैंसर के प्रमोशन का हिस्सा बनने पहुचे बॉलीवुड अभिनेता राहुल खन्ना और अभिनेत्री लीसा रे।
टीचर, ‘तुमने पाठ याद किया ?’ स्टूडेंट, ‘मैडम मैं कल पढ़ने बैठा तो लाइट चली गई। बाद में मैं इस डर से पढ़ने नहीं बैठा कि लाइट फिर न चली जाए।’
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वकील, ‘तलाक करवाने के पांच हजार रुपए लगेंगे।’ मुवक्किल, ‘कैसी बात कर रहे हैं वकील साहब, पंडित जी ने शादी तो 51 रुपए में करवा दी थी!’ वकील, ‘सस्ते काम का नतीजा देख लिया न?’
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पति, ‘कल तुम्हारे मायके जाने के बाद चोर घर में घुस आए थे और उन्होंने मुझे खूब मारा।’ पत्नी, ‘तो तुमने शोर क्यों नहीं मचाया ?’ पति, ‘मैं कोई डरपोक हूं जो शोर मचाऊंगा!’
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एक आदमी मंडी में सब्जी लेने गया। सब्जीवाला सब्जियों पर पानी छिड़क रहा था। काफी देर तक वो पानी ही छिड़कता रहा। जब वह रुका तो खरीदारी करने आया आदमी बोला, ‘अगर इन्हें होश आ गया हो तो एक किलो आलू दे दो।’
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एक आदमी ने अपना मोबाइल फोन समंदर में फेंक दिया और बोला, ‘आ..आ.. ऊपर आ।’ दूसरा, ‘फोन अपने आप कैसे ऊपर आएगा?’ पहला, ‘डॉल्फिन जो है।’
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लड़का, ‘चल शादी कर के भाग जाते हैं या भाग कर शादी कर लेते हैं?’ लड़की, ‘फटे हुए चप्पल से मार खाएगा या चप्पल फटने तक मार खाएगा?’
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पति, ‘तुम्हारी गर्दन पर यह कितनी अजीब सी चीज है जिसे देखकर डर लगता है।’ पत्नी, ‘वो क्या ?’ पति, ‘तुम्हारा मुंह।’

भागवत: १०१: जब दक्ष ने श्राप दिया नारदजी को


पिछले अंक में हमने पढ़ा भगवान के आदेशानुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया और उनसे दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। दक्ष ने उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।जब नारदजी को यह विदित हुआ तो उन्होंने उन पुत्रों से कहा कि बिना पृथ्वी का अंत देखे वो लोग किस प्रकार सृष्टि कर पाएंगे। ये सुनकर दक्ष पुत्र सोच में पड़ गए और उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति का विचार त्याग दिया और वे आत्मकल्याणर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए तप करने लगे। जब यह दक्ष को विदित हुआ तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ।
दक्ष ने पुन: पुत्र उत्पन्न किए और आज्ञा दी कि वे सृष्टि का सृजन करें। नारदजी को फिर विदित हुआ तो उन्होंने उनको फिर वही ज्ञान दिया और फिर वो पुत्र अपने पूर्वजों के अनुसार वापस तपरत हो गए और स्वर्गलोक में चले गए। यह समाचार दक्ष को मिला तो इससे उनका नारदजी के प्रति क्रोध बढ़ गया। दक्ष ने क्रोध में नारदजी को अपनी वंश परंपरा उच्छेद के अपराध में लोकलोकांतर में निरंतर भ्रमण करते रहने का शाप दे दिया। नारदजी को यह श्राप मिला और नारदजी ने ऐसा क्यों किया?
यह कथा बड़े संकेत की है। हम मनुष्य को दो प्रकार में बांट सकते हैं एक तो वे जो समाधि चाहते हैं, समाधान चाहते हैं और दूसरे वे जो सम्मान चाहते हैं समादर चाहते हैं।जो समाधि चाहता है, उसे भीतर की यात्रा पर जाना पड़ेगा और जो सम्मान और समादर चाहते हैं उसे दूसरों की आंखों के इशारों को समझना होगा। जो व्यक्ति चाहता है कि मेरे भीतर एक अपूर्व शांति हो, आनंद की वर्षा हो वह व्यक्ति यात्रा करता है समाधि, समाधान की। ऐसा व्यक्ति धार्मिक होता है। नारदजी का संतत्व ऐसा ही है। हम इसको अच्छी तरह समझ लें। नारदजी किसी से कोई सम्मान कोई समादर नहीं चाहते। उनकी यात्रा भीतर की थी।
sabhar-dainik bhaskar