गुरुवार, 31 मार्च 2011

भागवत २१८ शांति चाहिए तो.....

भागवत में अब तक आपने पढ़ा.. कंस के मारे जाने पर सारे मथुरावासी तो सुखी है लेकिन कंस की पत्नियां दुखी थी। अपने पति की मौत से दुखी थी तब उनकी दोनों पत्नियों का दुख उनके पिता जरासंध से देखा नहीं गया। उन्होंने मथुरा को आक्रमण करने के लिए चारों तरफ से घेर लिया।
अब आगे... भगवान श्रीकृष्ण ने देखा-जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं।भगवान ने विचार किया कि अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत सी सेना लाएगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल्का कर दूं, साधु-सज्जनों की रक्षा करूं और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्मरक्षा के लिए और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिए मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूं।कृ्ष्ण दिग्दृष्टा थे वे दूर की सोचते थे। क्षणिक आवेश उनका स्वभाव ही नहीं था। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में शांति को सबसे ज्यादा महत्व दिया। शांति किसी भी मोल मिले, सस्ती ही है। हम जीवनभर जिस सुख की तलाश में भटकते हैं, वह खोज अंतत: शांति पर ही आकर टिकती है।
हर युद्ध के पहले कृष्ण ने किसी न किसी तरह से शांति का महत्व बताया है। शांति तभी मिलती है जब सारे विकार मिट जाएं। भगवान सारे विकारों को मिटाने के लिए जरासंध को हर बार जिन्दा छोड़ देते हैं, ताकि ये फिर अपने बचे-खुचे साथियों को जोड़कर लाए।उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिए हुए थे और छोटी सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हांक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांच्यजन्य शंख बजाया। उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों के हृदय डर के मारे थर्रा उठे।

समझें शब्दों के पीछे छुपे अर्थ का

संसार में कई महापुरुष हुए जिन्होंने दुनिया में सत्य का प्रकाश फैलाया। महापुरुषों की हर बात के पीछे एक उद्देश्य होता है। हमें उस बात पर न टिक कर उसके अर्थ को समझना चाहिए तथा उसका अनुसरण करना चाहिए।
गुरुनानकजी एक बार अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक गांव आया। किसी ने गुरुनानकदेव से कहा कि यह गांव बदमाशों का गांव है। गुरुदेव जब वहां रुके तो वहां के लोग उन्हें प्रणाम करने आए। गुरुनानकजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि यही बस जाओ। सबको अच्छा लगा। फिर गुरुनानकजी आगे चले तो एक दूसरा गांव आया तो किसी ने बताया कि यहां के लोग बड़े सज्जन व विद्वान है। वहां के लोग भी गुरुनानक के दर्शन करने आए तो गुरुनानक ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि उजड़ जाओ।
सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये कैसा आशीर्वाद दिया गुरुजी ने । थोड़ी देर बाद उनके एक शिष्य ने गुरुनानकदेवजी से पूछा कि आपने बुरे लोगों को तो कहा कि यही बस जाओ और भले लोगों को उजडऩे का आशीर्वाद क्यों दिया? तो गुरुनानकदेव बोले- बुरे लोग जहां भी जाएँगे बुराई ही फैलाएंगे और भले लोग जहां भी जाएंगे सत्य का प्रकाश ही फैलाएंगे इसलिए मैंने उन्हें यह आशीर्वाद दिया।

भगवान आपकी बात सुनेंगे, जरा ऐसे पुकारें

परमात्मा को पुकारने के लिए शोर से अधिक शून्य की जरूरत होती है। इस शून्य को मौन भी कहा गया है। ईसा मसीह ने ईश्वर के लिए एक बड़ा आश्वासन यह दिया है कि जैसे ही हम उसे पुकारेंगे वह चला आएगा। उसका द्वार खटखटाएंगे वह दरवाजा खोल देगा। उसे याद करेंगे वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह है कि भरोसा रखो, ईश्वर क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर करता है।
भक्तों के मामले में वह लापरवाह, निष्क्रिय और उदासीन बिल्कुल नहीं है। उसे बुलाने के लिए एक गहन आवाज लगाना पड़ती है। इसी का नाम संतों ने शक्ति कहा है। परमात्मा के सामने आप स्वयं को जितना निरीह, दीनहीन बनाएंगे आध्यात्मिक दुनिया में उतने ही शक्तिशाली माने जाएंगे। इसीलिए कहते हैं प्रार्थना करते समय यदि आंसू आ जाएं तो समझ लीजिए प्रार्थना शक्तिशाली हो गई।
तीन दरवाजे हैं जहां से शक्ति प्रवेश करती है-मन, वचन और शरीर। मन की चूंकि अनेक भागों में बंटने की रूचि होती है इसलिए वह शक्ति को भी तोड़ देता है। व्यर्थ और अनर्थ की बातचीत वचन की शक्ति को कमजोर करती है। और शरीर से तो हम स्वास्थ्य के मामले में लापरवाह होकर अपनी दैहिक शक्ति को खो बैठते हैं। यदि इन तीनों के मामले में सावधान रहा जाए और फिर परमात्मा को पुकारा जाए तो वह पुकार अपने परिणाम देगी। ज्यादातर लोग परमात्मा तक कैसे पहुंचे इसके तरीकों में उलझ जाते हैं और जीवन बीत जाता है।
सीधा सा तरीका है उसके सामने पहुंच जाओ और जैसे हम होते हैं वैसे ही हम बने रहें। उदाहरण के तौर पर कोई भीखारी हमारे सामने आकर खड़ा हो जाए और वह कुछ न कहे तो भी हम समझ जाएंगे ये क्यों खड़ा है? बस ऐसे ही परमात्मा के सामने अपने होने के साथ खड़े हो जाएं। बाकी जिम्मेदारी फिर उसकी है।

क्यों युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया?

शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा अब तक तुम बहुत सा धन हार चुके हो। अगर तुम्हारे पास कुछ बचा हो तो दांव पर रखो। युधिष्ठिर ने कहा शकुनि मेरे पास बहुत धन है। उसे मै जानता हूं। तुम पूछने वाले कौन? मेरे पास बहुत धन है। मैं सब का सब दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने पासा फेंकते हुए कहा यह लो जीत लिया मैंने। युधिष्ठिर ने कहा ब्राह्मण को दान की गई सम्पति को छोड़कर मैं सारी सम्पति दावं पर लगाता हूं।
शकुनि ने कहा लो यह दावं भी मेरा रहा। अब युधिष्ठिर ने कहा मेरे जिस भाई के कन्धे सिंह के समान है। जिनका रंग श्याम है और रूप बहुत सुन्दर है मैं अपने नकुल को दावं पर लगाता हूं। शकुनि ने कहा लो यह भी मेरा रहा। उसके बाद युधिष्ठिर ने सहदेव को दावं पर लगाया। शकुनि ने सहदेव को भी जीत लिया। युधिष्ठिर उसके बाद अर्जुन और भीम को भी दावं पर लगा दिया। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सबका प्यारा हूं।
मैं अपने आप को दांव लगता हूं। यदि मैं हार जाऊंगा तो तुम्हारा काम करूंगा। शकुनि ने कहा यह मारा और पासे फेंककर अपनी जीत घोषित कर दी। तुमने अपने को जूए में हराकर बड़ा अन्याय है क्योंकि अपने पास कोई चीज बाकि हो तब तक अपने आप को दावं पर लगाना ठीक नहीं। अभी तो तुम्हारे पास द्रोपदी है उसे दांव पर लगाकर अबकि बार दावं जीत लो। तब युधिष्ठिर ने द्रोपदी को दावं पर लगा दिया।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

पहली चपाती किसे और क्यों दे?

दान को हमारे धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार हमारे यहां गौसेवा को धर्म के साथ ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं। इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। गाय के धार्मिक महत्व को ध्यान में रखते हुए कई घरों में यह परंपरा होती है कि जब भी खाना बनता है पहली रोटी गाय को खिलाई जाती है। यह पुण्य कर्म बिल्कुल वैसा ही जैसे भगवान को भोग लगाना। गाय को पहली रोटी खिला देने से सभी देवी-देवताओं को भोग लग जाता है।
सभी जीवों के भोजन का ध्यान रखना भी हमारा ही कर्तव्य बताया गया है। इसी वजह से यह परंपरा शुरू की गई है। पुराने समय में गाय को घास खिलाई जाती थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी है। जंगलों कटाई करके वहां हमारे रहने के लिए शहर बसा दिए गए हैं। जिससे गौमाता के लिए घास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती है और आम आदमी के लिए गाय के लिए हरी घास लेकर आना काफी मुश्किल कार्य हो गया है। इसी कारण के चलते गाय को रोटी खिलाई जाने लगी है।
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पूजा में तांबे के बर्तन ही क्यों

भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है।
सोना, चांदी, तांबा इन तीनों धातुओं को पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में ऐसा माना गया है कि ये धातुएं कभी अपवित्र नहीं होती है। पूजा में इन्ही धातुओं के यंत्र भी उपयोग में लाए जाते हैं क्योंकि इन से यंत्र को सिद्धि प्राप्त होती है।
लेकिन सोना, चांदी धातुएं महंगी है जबकि तांबा इन दोनों की तुलना में सस्ता होने के साथ ही मंगल की धातु मानी गई। माना जाता है कि तांबे के बर्तन का पानी पीने से खून साफ होता है।
इसलिए जब पूजा में आचमन किया जाता है तो अचमनी तांबे की ही रखी जानी चाहिए क्योंकि पूजा के पहले पवित्र क्रिया के अंर्तगत हम जब तीन बार आचमन करते हैं तो उस जल से कई तरह के रोग दूर होते हैं और रक्त प्रवाह बढ़ता है। इससे पूजा में मन लगता है और एकाग्रता बढ़ती है।
क्योंकि लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है।
एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए।


पूजा में तांबे के बर्तन ही क्यों

भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है।
सोना, चांदी, तांबा इन तीनों धातुओं को पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में ऐसा माना गया है कि ये धातुएं कभी अपवित्र नहीं होती है। पूजा में इन्ही धातुओं के यंत्र भी उपयोग में लाए जाते हैं क्योंकि इन से यंत्र को सिद्धि प्राप्त होती है।
लेकिन सोना, चांदी धातुएं महंगी है जबकि तांबा इन दोनों की तुलना में सस्ता होने के साथ ही मंगल की धातु मानी गई। माना जाता है कि तांबे के बर्तन का पानी पीने से खून साफ होता है।
इसलिए जब पूजा में आचमन किया जाता है तो अचमनी तांबे की ही रखी जानी चाहिए क्योंकि पूजा के पहले पवित्र क्रिया के अंर्तगत हम जब तीन बार आचमन करते हैं तो उस जल से कई तरह के रोग दूर होते हैं और रक्त प्रवाह बढ़ता है। इससे पूजा में मन लगता है और एकाग्रता बढ़ती है।
क्योंकि लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है।
एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए।

भागवत २१८ : शांति चाहिए तो.....

कंस के मारे जाने पर सारे मथुरावासी तो सुखी है लेकिन कंस की पत्नियां दुखी थी। अपने पति की मौत से दुखी थी तब उनकी दोनों पत्नियों का दुख उनके पिता जरासंध से देखा नहीं गया। उन्होंने मथुरा को आक्रमण करने के लिए चारों तरफ से घेर लिया।
अब आगे... भगवान श्रीकृष्ण ने देखा-जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं।
भगवान ने विचार किया कि अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत सी सेना लाएगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल्का कर दूं, साधु-सज्जनों की रक्षा करूं और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्मरक्षा के लिए और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिए मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूं।कृ्ष्ण दिग्दृष्टा थे वे दूर की सोचते थे। क्षणिक आवेश उनका स्वभाव ही नहीं था। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में शांति को सबसे ज्यादा महत्व दिया। शांति किसी भी मोल मिले, सस्ती ही है। हम जीवनभर जिस सुख की तलाश में भटकते हैं, वह खोज अंतत: शांति पर ही आकर टिकती है।
हर युद्ध के पहले कृष्ण ने किसी न किसी तरह से शांति का महत्व बताया है। शांति तभी मिलती है जब सारे विकार मिट जाएं। भगवान सारे विकारों को मिटाने के लिए जरासंध को हर बार जिन्दा छोड़ देते हैं, ताकि ये फिर अपने बचे-खुचे साथियों को जोड़कर लाए।उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिए हुए थे और छोटी सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हांक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांच्यजन्य शंख बजाया। उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों के हृदय डर के मारे थर्रा उठे।

इसीलिए कहते हैं लालच बुरी बला है

वे धृतराष्ट्र से कहते हैं ये पापी दुर्योधन जब अपनी माता के गर्भ से बाहर आया था। तब यह गीदड़ के समान चिल्लाने लगा था। यही कुरुवंश के नाश के कारण बनेगा। यह आपके घर में ही रहता है। आप अपने मोह के कारण उसकी गलतियों को देख नहीं पा रहे हैं। मैं आपको नीति की बात बताता हूं। जब शराबी शराब के नशे में रहता है तो उसे यह भी नहीं ध्यान रहता है कि वह कितनी पी रहा है।
नशा होने पर वह पानी में डूब मरता है या धरती पर गिर जाता है। वैसे ही दुर्योधन जूए के नशे में द्युत हो रहा है। पाण्डवों के साथ इस तरह छल करने का फल अच्छा नहीं होगा। आप अर्जुन को आज्ञा दें ताकि वह दुर्योधन को दंड दे सके। इसे दंड देने पर कुरूवंशी हजारों सालों तक सुखी रह सकता है। आपको किसी तरह का दुख ना हो उसका यही तरीका है। शास्त्रों में सपष्ट रूप से कहा गया है कि कुल की रक्षा के लिए एक पुरुष को, गांव की रक्षा के लिए कुल को, देश की रक्षा के लिए एक गांव को और आत्मा की रक्षा के लिए देश भी छोड़ दें।
सर्वज्ञ महर्षि शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य के परित्याग के समय असुरों को एक बहुत अच्छी कहानी सुनाई। उसे में आपको सुनाता हूं। एक जंगल में बहुत से पक्षी रहा करते थे। वे सब के सब सोना उगलते थे। उस देश का राजा बहुत लालची और मुर्ख था। उसने लालच के कारण बहुत सा सोना पाने के लिए उन पक्षियों को मरवा डाला, जबकि वे अपने घोसलों में बैठे हुए थे। इस पाप का फल क्या हुआ? यही कि उसे ना तो सोना नहीं मिला, आगे का रास्ता भी बंद हो गया मैं सपष्ट रूप से कह देता हूं कि पांडवों का धन पाने के लालच में आप उनके साथ धोखा ना करें।

सोमवार, 28 मार्च 2011

छेंगा की चतुराई..

छेंगा और नौगांग दो भाई थे। दोनों एक सराय में रहते थे। सराय के मालिक ने ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था। दोनों भाई मालिक को पिता समान मानते और उसके काम में हाथ बंटाते थे। एक दिन अचानक सराय का मालिक बीमार हो गया। तबीयत •यादा बिगड़ने की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। पिता समान मालिक को खोने का गम दोनों भाइयों को था। उस समय दोनों की उम्र दस-बारह साल थी। छेंगा क्योंकि उम्र में बड़ा था इसलिए, उसने ही सराय का काम सम्भालना शुरू कर दिया। छेंगा अब रोज़ सुबह उठता, आग जलाता, चाय बनाकर यात्रियों को पिलाता, साफ-सफाई करता।

बस किसी तरह दिन गुज़र रहे थे। गर्मी और सर्दी के मौसम में तो यात्रियों का आना-जाना लगा रहता, पर बरसात के मौसम में यात्री बिलकुल नहीं आते थे। बरसात के दिनों में गुज़ारा करना दोनों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता। बरसात के मौसम में एक दिन दोनों भाई भूखे बैठे सोच रहे थे, ‘हमें इन दिनों के लिए कुछ धन बचाकर रखना चाहिए था, पर बचाने के लिए काम क्या करें?’ छेंगा ने नौगांग से कहा, ‘क्यों न हम सराय में ठहरने वालों के लिए खाना बना दिया करें। ऐसा करने से हमारे पास •यादा पैसा आएगा, जिसमें से कुछ पैसे हम बरसात के दिनों के लिए बचा सकते हैं।’
छेंगा की तरकीब नौगांग को पसंद आई। मौसम बदलते ही, उन्होंने व्यापारियों व अन्य यात्रियों के लिए खाने की व्यवस्था भी कर ली। छेंगा सराय का सब काम करता और नौगांग नदी से मछलियां पकड़ लाता। छेंगा के हाथ का भात और माछेर झोल यात्री शौक से खाते। अब सराय आराम पहुंचाने वाले घर की तरह हो गई थी। यात्री वहां कई-कई दिन रुकने लगे। दोनों भाई मन लगाकर लोगों की सेवा करते। इस तरह उनके पास खूब पैसा जमा होने लगा। एक दिन सराय में एक गरीब बुज़ुर्ग महिला आई। उसने छेंगा से कुछ खाने को मांगा। छेंगा दयालू तो था ही, उसने बिना किसी टालमटोल के बुज़ुर्ग महिला को भरपेट खाने को दे दिया। खा-पीकर बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया।
बुज़र्ग महिला की आंखों में आंसू देख छेंगा ने पूछा, ‘क्या बात है अम्मा? क्यों रो रही हो?’ बुज़र्ग महिला ने बताया कि उसका एक बेटा था, जो उसका बहुत ध्यान रखता था। कुछ साल पहले वह कहीं खो गया। वह उसी को ढ़ूंढती फिर रही है। छेंगा को देखकर उसे अपने बेटे की याद आ गई थी। छेंगा और नौगांग, दोनों भाई उसकी बातें सुनकर दुखी हो गए। उन्होंने बुज़र्ग महिला को कहा, ‘अम्मा, तुम चाहो तो हमारे साथ रहो, मन करे तो कभी-कभी हमारे काम में हाथ बंटा देना।’
बस अब बुज़र्ग महिला भी उन्हीं के साथ सराय में रहने लगी। वह कभी-कभी साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम कर लेती। दोनों भाइयों ने भी अम्मा का खूब ध्यान रखा। समय पर पेटभर भोजन मिलने से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया था। बुज़ुर्ग महिला के दिन आराम से कटने लगे। अब उसकी नीयत में खोट आने लगा। वह सराय के रख-रखाव और अन्य कामों में दखल देने लगी। वह छेंगा को सिखाती कि जब व्यापारी खा-पीकर सो जाते हैं, तो उनका कुछ न कुछ सामान चोरी कर लिया करो या मछली के टुकड़े और छोटे कर दिया करो।
उसकी ये बातें न छेंगा को पसंद आतीं, न नौगांग को। दोनों भाई उससे परेशान भी होते, पर उसे जाने के लिए भी तो नहीं कह सकते थे न। बुज़ुर्ग महिला चाहती थी कि किसी तरह सराय और उससे होने वाली आय पर उसका कब्ज़ा हो जाए। पर दोनों भाइयों के आपसी प्यार के आगे उसकी एक न चलती। अब उसने उन दोनों भाइयों के बीच फूट डालने की योजना बनाई।
एक दिन सराय में कुछ नए व्यापारी आए। इस व्यापारी दल को बहुत ज़्यादा फायदा हुआ था। खा-पीकर उन सभी ने अपना-अपना धन खोलकर हिसाब लगाना शुरू किया। छेंगा जो उनकी सेवा में लगा था, उसने इतने सारे चांदी के सिक्के पहले कभी नहीं देखे थे। बस, बाहर खड़े-खड़े उनकी खन-खन की आवाज़ ही सुनी थी। यह यात्री दल कई दिन सराय में रुका। छेंगा और नौगांग ने उनकी बहुत सेवा की। जाते समय दल के प्रमुख ने छेंगा को पांच चांदी के सिक्के दिए। छेंगा खुशी से फूला न समाया। नौगांग जब बाहर से लौटा, तो उसने सिक्के उसके हाथ में रख दिए। छोटा भाई भी उन चमचमाते सिक्कों को देखकर खुश हो गया। बुज़ुर्ग महिला ने भी सिक्कों को हाथ में लेकर देखा।
एक दिन जब छेंगा रसोई के काम में लगा था, अम्मा नौगांग के पास आई। कुछ देर इधर-उधर की बात कर बोली, ‘मज़े तो छेंगा के हैं। दिन भर घर में आराम करता है और सिक्के भी पाता है।’
‘सराय में भी तो बहुत काम है, वह सब भी तो वही करता है’ नौगांग ने अम्मा की बात काटते हुए कहा।
‘फिर भी बेटा तेरा काम तो बाहर का है। चाहे धूप हो या बरखा, देख तो चेहरा कैसे मुरझा गया है’ कहते हुए अम्मा ने नौगांग की पीठ पर हाथ फेरा।
नौगांग धीरे-धीरे बुढ़िया की चुलबुली बातों में आने लगा। उसे लगने लगा कि भाई ने वाकई उसके साथ बुरा व्यवहार किया है। रात को खाना खाते समय नौगांग ने छेंगा से कहा, ‘भाई, मैं रोज़ मछली पकड़ने के काम से ऊब गया हूं, अब कुछ दिन सराय का काम मैं करता हूं, तुम मछलियां पकड़ लाना।’
छेंगा ने कहा, ‘सराय का काम तो बहुत •यादा है, तुझसे सम्भलेगा नहीं। ऐसा कर, तू कुछ दिन आराम कर ले। हम यात्रियों को साग-भाजी ही खिला देंगे।’
‘नहीं भैया, तबीयत तो ठीक है, मैं तो सराय में काम करना चाहता हूं।’
कुछ देर मना करने के बाद छेंगा तैयार हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह छेंगा मछली पकड़ने का सामान लेकर नदी की ओर चल दिया। उधर नौगांग ने आग जलाई और चाय का पानी चढ़ा दिया। नौगांग ने इससे पहले इतनी •यादा चाय कभी नहीं बनाई थी। इसलिए चाय काली और बेस्वाद बनी थी। यात्रियों ने चाय पीने के बजाय फेंक दी। उदास नौगांग रसोई में चला आया। उसने बड़े बर्तन में चावल डाले और आंच पर चढ़ा दिए। इधर सराय के यात्रियों में कोई किसी चीज़ की फरमाइश करता, तो कोई कुछ मांगता। दौड़ने-भागने के बाद जब ज़रा-सी राहत हुई, तो नौगांग को रसोई में पक रहे भात की याद आई। अभी तो माछेर झोल व कई अन्य चीज़ें भी बनानी थीं। वह दौड़ा हुआ रसोई में आया तो देखा कि सारा भात जलकर काला हो गया था।
वह अपना सिर पकड़कर बैठ गया। अब वह भी क्या कर सकता था। तभी सब यात्रियों ने अपने-अपने असबाब बांध लिए और भोजन मांगने लगे। जब उन्हें रसोई में जले भात की गंध आई, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा। उन्होंने पहले तो नौगांग को अच्छी चपत लगाई और फिर उसके हाथ बांधकर अपने साथ ले गए। बुज़ुर्ग महिला तो बस देखती ही रह गई।

नौगांग चलता जाता और भाई को पुकारता जाता। छेंगा नदी किनारे बैठा मछलियां पकड़ रहा था। उसने अपने भाई की आवाज़ सुनी तो दौड़ पड़ा। कुछ दूर आकर उसने मछलियां एक चादर में बांध दीं और घने पेड़ की ऊंची डाल पर लटका दी। दूर से ही उसने देखा कि यात्रियों ने नौगांग के हाथ बांध रखे हैं। रोता-रोता वहा भाई को पुकार रहा है। जल्दी-जल्दी चलकर वह यात्रियों के दल तक पहुंचा। मुखिया ने उसे सारी बात कह सुनाई। मुखिया की बत सुनकर छेंगा बोला, ‘आपके पास चावल हों तो दीजिए, मैं कुछ देर में सबको पकाकर खिला दूंगा।’
मुखिया ने तुरंत घोड़े पर से चावल का बोरा और बर्तन उतरवा दिए। छेंगा ने पत्थर जोड़कर चूल्हा बनाया और भात पकाने रख दिया। जैसे-जैसे भात की खुशबू फैलने लगी यात्रियों की भूख और भड़कने लगी। तभी छेंगा ने मुखिया से कहा, ‘यहां से कुछ ही दूर जाने पर एक मछली का पेड़ है। उस पर ताज़ी मछलियां लगी होंगी।
‘मछली का भी कोई पेड़ होता है?’ मुखिया उसकी बेवकूफी वाली बात पर हंस पड़ा। सब उसका मज़ाक उड़ाने लगे। छेंगा ने कहा, ‘आप में से कुछ लोग मेरे साथ चलें। मैं अभी ताज़ी मछलियां तोड़ लाता हूं। मुखिया को उसकी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं हो रहा था। वह बोला, ‘अगर तुम पेड़ से मछलियां उतारकर दिखाओ तो जो तुम चाहोगे, तुम्हें दूंगा।’ ‘मुझे ज़्यादा कुछ नहीं, मेरा भाई वापिस चाहिए और हो सके तो दो थैलियां चांदी के सिक्के भी दे देना’ छेंगा ने कहा। अब सभी यात्री उसके साथ चल दिए। पेड़ के पास पहुंचे तो देखा कि पेड़ बहुत ऊंचा था। उस पर चढ़ने का साहस किसी को न हुआ। इसलिए बाद में छेंगा ही पेड़ पर चढ़ा। पत्तों के झुरमुट में छिपी पोटली निकालकर वह एक-एक मछली को इधर-उधर गिराने लगा। यात्री दौड़-दौड़ कर मछलियां उठाते।
छेंगा पेड़ से ही बड़बड़ा रहा था, ‘जब दादाजी जीवित थे, तब यह पेड़ खूब फला करता था। अब तो सिर्फ ऊंची टहनियों पर ही मछलियां मिल पाती हैं।’
जब वह नीचे उतरा तो सभी ने उसकी पीठ थपथपाई। उसके बाद छेंगा ने माछेर-झोल भात पकाया। सभी के साथ भूख से बेहाल नौगांग ने भी भरपेट खाया।
जाते समय मुखिया ने शर्त के अनुसार उसे दो थैली सिक्के और उसका प्यारा भाई सौंप दिया।
दोनों भाई खुशी-खुशी घर आ गए। बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को साथ देखकर अपनी भूल स्वीकर कर ली। छेंगा और नौगांग ने उसे क्षमा कर दिया।

नई गाड़ी की पूजा क्यों करते हैं?

हमारे देश में हर कार्य से जुड़ी अनेकों परंपराएं हैं ऐसी ही एक परंपरा है। घर में नए वाहन को लाने पर उसकी पूजा करने की। कुछ लोगों के वाहन, बाइक, कार या कोई हैवी व्हीकल हमेशा खराब रहता है। वे उसे बार बार ठीक करवाते हैं, उस पर पैसे खर्च करते हैं फिर भी उनका वाहन आपका साथ नहीं देता। ज्योतिष के नजरिए से देखें तो निश्चित ही कुंडली में शनि और मंगल अशुभ प्रभाव दे रहे हैं। शनि और मंगल के अशुभ प्रभाव से ही आपका वाहन हमेशा खराब रहता है।
इसीलिए अशुभ ग्रह भी शुभ प्रभाव देने लगे इस भावना के साथ घर में वाहन लेकर आते वक्त मुहूर्त का ध्यान तो रखा ही जाता है। साथ ही उसका विधि-विधान से पूजन कर मिठाई भी बांटी जाती है। लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इसके पीछे कारण क्या है? दरअसल हमारे शास्त्रों के अनुसार वाहन को भगवान गरूड़ का स्वरूप माना जाता है। गरूड़ का रूप मानकर जब शुभ मुहूर्त में कोई वाहन घर में लाया जाता है और विधि से उसका पूजन किया जाता है तो ऐसा माना जाता है कि वाहन से किसी तरह की कोई दुर्घटना नहीं होती और वाहन सुरक्षित रहता है। इसीलिए हमारे यहां घर में लाए जाने वाले नए वाहन का पूजन जरुरी माना गया है।

क्यों और कब नहीं लेना चाहिए लोन!

कर्ज से अधिकतर लोग आजकल परेशान रहते हैं। लोन लेना इस महंगाई के जमाने में सभी वर्ग के लोगों के लिए एक जरूरत बन गया है। आज लोग लोन लेकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं।
अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए दूसरों से कर्जा लेते हैं, बैंक से लोन लेते हैं। लोन तो आसानी से मिल जाता है परंतु कई बार इसे चुकाने में कई परेशानियां से जुझना पड़ता है। इन्हीं परेशानियां से बचने के लिए हमारे धर्म शास्त्रों और ज्योतिष द्वारा कुछ नियम बनाए गए हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल देव को कर्ज का कारक ग्रह माना गया है। कोई भी व्यक्ति कर्ज लेता है तो यह मंगल ग्रह का ही प्रभाव होता है। मंगल का ग्रहों का सेनापति माना गया है। मंगल को क्रूर ग्रह माना जाता है यह अधिकांश स्थितियों में बुरा ही देने वाला है। इसी वजह से शास्त्रों द्वारा मंगल के दिन मंगलवार को कर्ज लेना वर्जित किया गया है। इस दिन लोन पर बहुत कम परिस्थितियों में कोई व्यक्ति इसे चुका पाता है।
मंगलवार को लोन लेने से यह चुका पाना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन कर्ज लेने पर व्यक्ति के बच्चों तक को इस लोन से मुसीबतें उठाना पड़ती हैं। मंगलवार को लोन लेने वाले व्यक्ति पर मंगल की कुदृष्टि रहती है। इसी वजह से ज्योतिष शास्त्र द्वारा मंगलवार के दिन लोन लेना वर्जित किया गया है।

... और तब जूए का खेल शुरू हुआ

सुबह धृतराष्ट्र और सभी पांडव नई सभा को देखने गए। जूए में खिलाडिय़ों ने वहां सबका स्वागत किया। पांडवों ने सभा में पहुंचकर सभी से मिले। इसके बाद सभी लोग अपनी उम्र के हिसाब से अपने-अपने आसनों पर बैठे। मामा शकुनि ने सभी के सामने प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उसने कहा धर्मराज यह सभा आपका ही इंतजार कर रही थी। अब पासे डालकर खेल शुरू करना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा राजन् जूआ खेलना पाप है। इसमें न तो वीरता के प्रदर्शन का अवसर है और न तो इसकी कोई निश्चित नीति है। संसार का कोई भी व्यक्ति जुआंरियों की तारिफ नहीं करता है।आप जूए के लिए क्यों उतावले हो रहे हैं?
आपको बुरे रास्ते पर चलाकर हमें हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। शकुनि ने कहा युधिष्ठिर देखो बलवान और शस्त्र चलाने वाले पुरुष कमजोर और शस्त्रहीन पर प्रहार करते हैं। जो पासे फेंकने में चतुर है। वह अनजान को तो आसानी से उस खेल में जीत लेगा। युधिष्ठिर ने कहा अच्छी बात है यह तो बताइये। यहां एकत्रित लोगों में से मुझे किसके साथ खेलना होगा। कौन दांव लगाएगा। कोई तैयार हो तो खेल शुरू किया जाए। दुर्योधन ने कहा दावं लगाने के लिए धन और रत्न तो मैं दूंगा। लेकिन मेरी तरफ से खेलेंगे मेरे शकुनि मामा। उसके बाद जूए का खेल शुरू हुआ। उस समय धृतराष्ट्र के साथ बहुत से राजा वहां आकर बैठ गए थे - भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य उनके मन में बहुत दुख था।
युधिष्ठिर ने कहा कि मैं सुन्दर आभुषण और हार दाव पर रखता हूं। अब आप बताइए आप दावं पर क्या रखते हैं? दुर्योधन ने कहा कि मेरे पास बहुत सी मणियां और धन हैं। मैं उनके नाम गिनाकर घमंड नहीं दिखाना चाहता हूं। आप इस दावं को जीतिए तो। दावं लग जाने पर पासों के विशेषज्ञ शकुनि ने हाथ में पासे उठाए और बोला यह दावं मेरा रहा । उसके बाद जैसे ही उसने पासे डाले वास्तव में जीत उसकी ही हुई। युधिष्ठिर ने कहा मेरे पास तांबे और लोहे की संदूको में चार सौं खजाने बंद है। एक-एक में बहुत सारा सोना भरा है मैं सब का सब पर दावं लगाता हूं। इस तरह धीरे-धीरे जूआ बढऩे लगा। यह अन्याय विदुरजी से बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाना शुरू किया।

सम्भालें अपने अहंकार को

कुछ लोगों को अपने शक्तियों पर बहुत अहंकार होता है। अपने ताकत के नशे में किसी का सम्मान नहीं करते और सभी का उपहास उड़ाते रहते हैं या अपमान करते हैं। इन लोगों के पतन का कारण इनका अहंकार ही बनता है। इसलिए ध्यान रखें कि यदि आप बलशाली हैं या आपके पास कोई विशेष योग्यता है तो इसका दुरुपयोग न करें तथा किसी अन्य का अपमान न करें।
श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा सगर की दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। केशिनी का एक ही पुत्र था जिसका नाम असमंजस था, जबकि सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस बहुत ही दुष्ट था। उसको देखकर सगर के अन्य पुत्र भी दुराचारी हो गए। उन्हें अपने बल पर बहुत ही घमंड था। घमंड में चूर होकर वे किसी का सम्मान नहीं करते थे।एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में छुपा दिया। जब अश्व नहीं मिला तो सगर के पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना प्रारंभ किया। तब पाताल में उन्हें कपिलमुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा दिखाई दिया।
यह देखकर घमण्ड में चूर सगर के सभी पुत्रों ने समाधि में लीन कपिल मुनि को भला-बुरा कहा। सगर पुत्रों की बात सुनकर जैसे ही कपिल मुनि ने आंखें खोली सभी सगर पुत्र वहीं भस्म हो गए।

रविवार, 27 मार्च 2011

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को

दुनिया के सबसे मुश्किल सवाल से सामना हो तो दिल चाहता है कि कुछ देर ख़ामोशी अख्तियार कर ली जाए। सोचा जाए। बहुत सोचा जाए और फिर अपनी अक्ल के मुताबिक उस पर बात की जाए। अब कुछ महीने पहले, दिसंबर 2010 में, अपने दौर की मशहूर अदाकारा नलिनी जयवंत इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर गईं। अखबारों में ख़बरें भी छपीं। टीवी पर भी कुछ-कुछ जिक्र हुआ। होना ही था। आखि़र को वह नलिनी जयवंत थीं। लेकिन मैं तो सब कुछ सुनता, सब कुछ पढ़ता भी ख़ामोश रहा.. मैं सोच रहा था। मैंने कहा न, सवाल इतना मुश्किल हो तो कुछ वक्त ख़ामोश रहना चाहिए।
कोई यह भी कह सकता है कि इस खबर में सवाल क्या है? हो सकता है कुछ लोगों को इसमें सवाल न दिखे। मुझे दिखता है। और भी बहुत लोगों को दिखता है। और वह सवाल है कि यार आखि़र को इस जगर-मगर फिल्मी दुनिया में ऐसा क्या होता है कि बरसों लोगों को रंगीन सपने देने वाले, पर्दे पर भरपूर उजाले फैलाने वाले ख़ुद अंधेरों में गुम हो जाते हैं। कभी अपनी मर्जी से, कभी अपनी मर्ज़ी के खि़लाफ।

कितना अजीब लगता है कि ज़माने के दिलों पर राज करने वाले महान अभिनेता मर्लिन ब्रांडो, राबर्ट डी नीरो, विख्यात अभिनेत्री ग्रेटा गाबरे ने एक मकाम पर आकर अपने लिए अकेलापन चुना। यहां पर साधना, नंदा, सुचित्रा सेन जैसी अभिनेत्रियां भी ख़ल्वत नशीं हैं। नलिनी जयवंत भी इसी कड़ी का ही एक हिस्सा थीं। बरसों पहले नलिनी जयवंत ने अपने चैम्बूर वाले बंगले में अपनी ही एक दुनिया आबाद कर ली थी। एक ऐसी दुनिया, जिसमें सिवा नलिनी जयवंत के कोई नहीं था। और अगर कोई था तो था माज़ी की ख़ूबसूरत यादों की महक, भरा-पूरा घर और सड़क से उठाकर घर में पाले हुए नलिनी जयवंत के दो कुत्ते।
द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर भारती दुबे ने नलिनी जयवंत की मृत्यु के बाद अनाथ हुए इन दो कुत्तों की हालत पर एक मार्मिक रिपोर्ट लिखी थी। बरसों जिसकी ममता की छांव में गुज़रे थे उसके जाने का उन्हें ख़ूब अहसास था। जिस वक्त ज़माने में किसी को इस निहायत बेआवाज़ मौत की ख़बर तक न थी, इन दो वफादार जानवरों ने रो-रो कर ज़माने को आवाज़ें दीं।
जब किसी रिश्तेदार ने आकर चुपचाप नलिनी जयवंत का शव उठा लिया और घर के दरवाज़े पर ताला लगाया तो रुदन में लगे इन दोनों कुत्तों को भी सड़क पर छोड़ दिया। जब किसी के सिर से अपने का साया उठ जाए तो उसके साथ यही होता है। ख़ासकर जानवर के साथ, जिसके दर्द की कोई दाद-फरयाद नहीं होती।
एक नजर, बस एक नजर
ऐसे ही शुरू हुआ था नलिनी जयवंत का फिल्मी सफर। बस एक नज़र में। किस्सा यूं है कि हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे जनाब चमनलाल देसाई। उनके एक बेटे थे वीरेंद्र देसाई। उनकी एक कंपनी थी नेशनल स्टूडियोज़। एक दिन दोनों बाप-बेटे फिल्म देखने पहुंचे सिनेमाघर। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थी जिसकी उम्र उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। देसाई बाप-बेटे की जोड़ी ने दिल ही दिल इस लड़की को अपनी अगली फिल्म की हीरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फिल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक इन बाप-बेटे को न हुई।
लेकिन होनी तो होनी है, सो हुई। एक दिन वीरेंद्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुंचे तो देखा कि नलिनी वहां मौजूद है। ज़ाहिर है उसकी बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में नूतन, तनूजा की मां और काजोल की नानी के रूप में ज्यादा जाना गया, नलिनी उनके मामा की बेटी थी।
देसाई ने इस बार बिना देर किए फिल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन मांगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फिल्मों के काफी सख्त विरोधी थे। लेकिन देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की स्थिति काफी खस्ता थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से फ्लैट में मिला आश्रय था।
सो यह पहली फिल्म थी ‘राधिका’ जो 1941 में रिलीज़ हुई थी। वीरेंद्र देसाई के निर्देशन में बनी फिल्म के अन्य कलाकार थे हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी। संगीत था अशोक घोष का। इस फिल्म के 10 में से 7 गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी।
इसके बाद तो इसी एक साल में महबूब ख़ान के निर्देशन में एक फिल्म रिलीज़ हुई ‘बहन’। इस फिल्म में नलिनी के साथ प्रमुख भूमिका में थे शेख मुख्तार और साथ में थी नन्हीं-सी मीना कुमारी, जो बेबी मीना के नाम से इस फिल्म में एक बाल कलाकार थीं। इस फिल्म में भी संगीतकार अनिल बिस्वास ने नलिनी से 4 गीत गवाए थे। इन चार गीतों में से वजाहत मिजऱ्ा का लिखा एक गीत था ‘नहीं खाते हैं भैया मेरे पान’ जो काफी लोकप्रिय हुआ था। और इसी साल फिर से वीरेंद्र देसाई के ही निर्देशन में बनी फिल्म ‘निदरेष’ भी आई, जिसमें मुकेश साहब नायक की भूमिका में थे। फिल्म में मुकेश की आवाज़ में कुल जमा 3 गीत थे जिनमें एक सोलो ‘दिल ही बुझा हुआ हो तो फस्ले बहार क्या’ था और बाकी दो नलिनी जयवंत के साथ युगल गीत थे, जबकि नलिनी के 3 सोलो गीत थे।
अपने एक संस्मरण में नलिनी जयवंत कहती हैं - ‘..मैं जब बमुश्किल छह-सात साल की थी तभी आल इंडिया रेडियो पर नए-नए शुरू हुए बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेने लगी थी। इसी कार्यक्रम में हुई संगीत प्रतियोगिता में मैंने गायन के लिए प्रथम पुरस्कार जीता था।’
नलिनी जयवंत अपनी पहली ही फिल्म से ‘सितारा’ घोषित कर दी गई। उस समय नलिनी फ्रॉक और दो चोटी के साथ स्कूल में पढ़ रही थी। उम्र थी 15 साल। ‘आंख मिचौली’ (42) ने उसे आसमान पर बिठा दिया।
फिल्मों में सफलता तो मिल गई, लेकिन उसी के साथ नलिनी पर फिदा वीरेंद्र देसाई से प्यार भी हो गया। शादी भी हो गई। इस मामले को उस दौर के लेखक ने इस तरह बयान किया है: ‘जब ये हंसती है तो मालूम होता है कि जंगल की ताज़गी में जान पड़ गई और नौ-शगुफ्ता कलियां फूल बनकर रुखसारों की सूरत में तब्दील हो गई हैं। नलिनी जयवंत ने ‘आंख मिचौली’ खेलते-खेलते मिस्टर वीरेंद्र देसाई से ‘दिल मिचौली’ खेलना शुरू कर दिया और यह खेल अब बाकायदा शादी की कंपनी से फिल्माया जाकर जिंदगी के पर्दे पर दिखलाया जा रहा है।’
लेकिन शादी की यह फिल्म बहुत दिन नहीं चल पाई। तलाक़ भी हो गया। फिर दूसरी शादी की अपने एक साथी कलाकार प्रभू दयाल से। 1950 के दशक में नलिनी जयवंत ने एक बार फिर धमाके के साथ अशोक कुमार के साथ फिल्म ‘समाधि’ और ‘संग्राम’ से नई ऊंचाई हासिल की। हालांकि 1948 की फिल्म ‘अनोखा प्यार’ में दिलीप कुमार और नरगिस के मुकाबिल जिस अंदाज़ में काम किया उसकी ज़बर्दस्त तारीफ हो चुकी थी, लेकिन इन दो फिल्मों ने उसके स्टारडम में चार चांद लगा दिए। फिल्म ‘समाधि में ‘गोरे-गोरे ओ बांके छोरे’ पर कुलदीप कौर के साथ उसका नाच अब तक याद किया जाता है।
अशोक कुमार के साथ जोड़ी कामयाब हुई तो दोनो के रोमांस की चर्चा भी शुरू हो गई। और तो और अशोक कुमार ने अपने परिवार से अलग चैम्बूर के यूनियन पार्क इलाके में नलिनी जयवंत के सामने बंगला भी ले लिया, जहां वे जिंदगी के आखि़री दिनों में भी बने रहे और वहीं प्राण त्यागे। इस जोड़ी ने 1952 में ‘काफिला’, ‘नौबहार’ और ‘सलोनी’ और 1957 में ‘मिस्टर एक्स’ और ‘शेरू’ जैसी फिल्में कीं। दिलीप कुमार के साथ, जिन्होंने नलिनी जयवंत को ‘सबसे बड़ी अदाकारा’ का दर्जा दिया, उन्होंने ‘अनोखा प्यार’ के अलावा ‘शिकस्त’(1953) और देव आनंद के साथ ‘राही’ (52), ‘मुनीमजी’ (55) और ‘काला पानी’(58) जैसी कामयाब फिल्में कीं।
‘काला पानी’ में किशोरी बाई वाली भूमिका के लिए तो नलिनी जयवंत को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला। निदेशक रमेश सहगल की दो फिल्मों ‘शिकस्त’ और ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ (55) की भूमिकाओं के लिए भी नलिनी जयवंत को याद किया जाता है। ‘काला पानी’ के बाद उन्होंने फिल्मों में काम लगभग बंद कर दिया। दो फिल्में ‘बॉम्बे रेसकोर्स’ (1965) और ‘नास्तिक’ (1983) इसका अपवाद हैं। ये दोनों फिल्में भी रिश्तों के दबाव में ही कीं। ‘नास्तिक’ में उन्होंने अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई थी।
इस फिल्म के बाद भी वह कभी-कभार घर की ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने बाज़ार जाती थीं। अशोक कुमार से भी एक अरसे तक जीवंत संपर्क बना रहा, लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ जिसके बारे में किसी को कोई ख़बर नहीं। नलिनी जयवंत ने ख़ुद को घर में ही कैद कर लिया। घर के सामने ही रह रहे अशोक कुमार तक से आखि़र में मिलना छोड़ दिया।
दिसंबर में जब ख़बर आई तो यह आई कि तीन दिन पहले नलिनी जयवंत का देहांत हो गया। मोहल्ले के लोगों को भी ख़बर तब हुई जब एक चौकीदार ने उस घर से एक शव को गाड़ी में ले जाते एक व्यक्ति को देखा। बाद में संदीप जयवंत नामक व्यक्ति का बयान आया कि वह नलिनी जी का भतीजा है और उसने नलिनी जी की ही इच्छा अनुसार चुपचाप उनका दाह-संस्कार कर दिया है।
और
नलिनी जयवंत पर फिल्माए गए गीतों की पड़ताल करें तो एक से एक नगीने मिलते हैं। अपनी पसंद से कुछ मिसालंे दूं। ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं’ (नौजवान 51), ‘कारे बदरा तू न जा, न जा’ (शिकस्त 53), ‘आ कि अब आता नहीं दिल को क़रार/राह तकते थक गया है इंतज़ार’ (महबूबा 54), ‘तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे कांटों से भी प्यार’(नास्तिक 54), घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीमजी 55), ‘हाए जिया रोए’ (मिलन-58)।
और हां, सबसे ज्यादा ज़रूरी और आज की बात के लिए सबसे ज्यादा मौज़ू फिल्म ‘मुनीमजी’ का गीत - ‘जीवन के सफर में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को/और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को।’

शनिवार, 26 मार्च 2011

कितने अशुभ हैं मंगल और शनि?

ज्योतिष में शनि और मंगल को क्रूर पाप ग्रह माना जाता है। ये ग्रह अपना अशुभ प्रभाव साथ में मिल कर देते हैं।
शनि और मंगल आपस में एक-दूसरे के शत्रु हैं । मृत्यु का कारक ग्रह शनि को माना गया है और खून के लिए कारक ग्रह मूल रूप से मंगल को माना गया है।
जन्म कुंडली में शनि और मंगल की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। जन्म कुंडली में इन दोनों ग्रहों की युति यानी एक ही भाव में दोनों का साथ बैठना और आपस में एक दूसरे को देखना अशुभ माना गया है। शनि मंगल का दृष्टि संबंध बनना और एक दूसरे से छठी या आठवीं राशि में होकर षडाष्टक योग बनाना दुर्घटनाओं का मूल कारण है।
अगर गोचर कुंडली में भी शनि और मंगल की अशुभ युतियां बनती हैं तो भी इनका अशुभ प्रभाव होगा। यानी इन ग्रहों का अपने शत्रु ग्रह की राशि में एक साथ होना कोई दुघर्टना होने का सूचक होगा। आपस में छठी आंठवी राशि में हो कर षडाष्टक योग बनाना प्राकृतिक आपदा का कारक है।
गोचर में जब ऐसे योग बनते हैं तो उस योग की अवधि में दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ जाती है। इस युति काल में दुर्घटनाओं में एक-दो नहीं, बल्कि समूह में मृत्यु होती है। प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। देशों में युद्ध की स्थिति बनती है। आतंकी घटनाओं में भी इस अवधि में जान-माल का ज्यादा नुकसान होता है।
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पति-पत्नी को तीर्थ यात्रा पर साथ ही क्यों जाना चाहिए?

पति-पत्नी के मुख्य कर्तव्य में से एक है कि सभी पूजन कार्य दोनों एक साथ ही करेंगे। पति या पत्नी अकेले पूजा-अर्चना करते हैं तो उसका अधिक महत्व नहीं माना गया है। शास्त्रों के अनुसार पति-पत्नी एक साथ पूजादि कर्म करते हैं तो उसका पुण्य कई जन्मों तक साथ रहता है और पुराने पापों का नाश होता है।
इसलिए हमारे यहां ऐसी मान्यता है कि पति-पत्नी को तीर्थ दर्शन या मंदिर एक साथ ही जाना चाहिए क्योंकि विवाह के बाद पति-पत्नी को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। सभी धार्मिक कार्यों में दोनों का एक साथ होना अनिवार्य है। पत्नी के बिना पति को अधूरा ही माना जाता है। दोनों को एक साथ ही भगवान के निमित्त सभी कार्य करने चाहिए।
पत्नी को पति अद्र्धांगिनी कहा जाता है, इसका मतलब यही है कि पत्नी के बिना पति अधूरा है। पति के हर कार्य में पत्नी हिस्सेदार होती है। शास्त्रों में इसी वजह सभी पूजा कर्म दोनों के लिए एक साथ करने का नियम बनाया गया है।दोनों एक साथ तीर्थ यात्रा करते हैं तो इससे पति-पत्नी को पुण्य तो मिलता है साथ ही परस्पर प्रेम भी बढ़ता है। स्त्री को पुरुष की शक्ति माना जाता है इसी वजह से सभी देवी-देवताओं के नाम के पहले उनकी शक्ति का नाम लिया जाता है जैसे सीताराम, राधाकृष्ण। इसी वजह से पत्नी के बिना पति का कोई भी धार्मिक कर्म अधूरा ही माना जाता है। इसीलिए पति-पत्नी को तीर्थ यात्रा साथ ही करना चाहिए।

सफलता के लिए सख्ती भी जरूरी है...

अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करना पड़ते हैं और दूसरों से भी कराना पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिन्दू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं जिसमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्राह्मण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का वेष धरा और वार्तालाप किया। ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है।
भगवान ने सोचा जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। कुछ कार्य स्वयं ही करना चाहिए। अपने सहायकों और साथियों पर आधारित रहने की एक सीमा रेखा तय करना होगी। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।
भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। शत्-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं पाली कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। जो नेतृत्व सफलता तक पहुंचता है वह अपने सहायकों, साथियों में सदैव लोकप्रिय रहे यह आवश्यक नहीं है। सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेना ही पड़ते हैं

भागवत-२१७- उसी का नाम अभिमान है

भागवत का दसवां स्कंध दो भागों में है। पूर्वाद्र्ध में 49 अध्याय हैं। उत्तरार्ध में 50वें अध्याय से लेकर 90 अध्याय तक प्रसंग हैं। यदि भागवत कथा सात दिन के अनुसार रहे तो इस समय पांचवे दिवस की कथा चल रही है। पांचवे दिन की कथा दसवें स्कंध के 54वें अध्याय में समाप्त होती है जहां भगवान श्रीकृष्ण का रुक्मिणीजी के साथ विवाह होता है।कृष्ण के वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने से पहले कंस और उसके जीवन को समझना आवश्यक है। कंस हिंसा का प्रतीक है। हिंसा अभिमान और अधर्म के पक्ष से हो तो वह कंस को ही जन्म देगी। कंस की दो पत्नियां हैं, यहां से हम अधर्म और हिंसा को बेहतर समझ सकते हैं। कंस अधर्म और हिंसा का प्रतीक था सो उसकी जीवन संगिनियां भी वैसी ही थीं, जो उसके इस अवगुण को बढ़ावा दे।
कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दो पत्नियां थीं। कंस यानी अभिमान होता है। हिंसक: एव कंस: इति उच्यते-जो हिंसा करे, उसका नाम कंस है। वह हिंसा ऐसे करता है कि किसी वस्तु को देश, काल से परिच्छिन्न करके मैं बना लेता है। उसी का नाम अभिमान है। 'अभि तो मान: परिणाम:- जिसके चारों ओर मान हो, परिमाण अलग-थलग कर देता है। अपने चारों ओर चहारदीवारी बनाकर कहता है-अहं ब्राह्मण:, क्षत्रियो न भवामिमैं ब्राह्मण हूं क्षत्रिय नहीं हूं,-त्वं क्षत्रिय:, मत्तो भिन्न:-तू क्षत्रिय है, मुझसे भिन्न है आदि। अभिमान केवल जाति का ही नहीं कुल का, कर्म का, विद्या का, बुद्धि का-अनेक प्रकार का होता है और परिच्छेदन ही इसका नाम है। यह अभिमान बड़ा भारी हिंसक होता है। अब कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दोनों पत्नियों का स्वरूप देखो। अस्ति यानी इतना तो हमारे पास है, इतने के हम मालिक हैं और प्राप्ति यानी आगे इतना और प्राप्त करेंगे।
इसी में अभिमानी लगा रहता है।यहां से दशम स्कंध का उत्तरार्ध आरम्भ होता है। कंस को यमलोक पहुंचा देने के बाद ब्रजवासी सुखी हो गए। उस पर राजा उग्रसेन के राज्य में सब भांति सुख था, किन्तु कंस की पत्नियां दुखी थीं। उन्होंने अपने पिता जरासंध को जाकर ये सारी बातें कहीं। जरासंध को सहन नहीं हुआ। उसने अपने हितचितन्कों को सूचना दी, राजाओं को एकत्रित किया और मथुरा पर आक्रमण कर दिया।उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया।
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क्यों चले गए युधिष्ठिर जुआ खेलने?

राजा धृतराष्ट्र ने अपने मुख्य मंत्री विदुर को बुलवाकर कहा कि विदुर तुम मेरी आज्ञा से जाओ और युधिष्ठिर को बुलाकर ले आओ। युधिष्टिर से कहना हमने एक रत्न से जड़ी सभा बनवाई है। उन्हें कहना वे उसे अपने भाइयों के साथ आकर देखें और सब इष्ट मित्रों के साथ द्यूत क्रीड़ा करें।विदुर को यह बात न्याय के प्रतिकू ल लगी। इसलिए विदुर ने उनसे कहा कि मैं आपकी इस आज्ञा को स्वीकार नहीं कर सकता हूं।
तब धृतराष्ट्र ने कहा अगर तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो दुर्योधन के वैर विरोध से भी मुझे कोई दुख नहीं है। धृतराष्ट्र की ऐसी बात सुनकर विदुर मजबूर हो गए। वे शीघ्रगामी रथ से इन्द्रप्रस्थ के लिए निकल पड़े। वहां जाकर उन्होंने युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया। वहां पहुंचकर उन्होंने कौरवों का संदेश युधिष्ठिर को सुनाया। उनका संदेश सुनकर युधिष्ठिर ने कहा चाचाजी द्यूत खेलना तो मुझे सही नहीं लगता? तब विदुर ने कहा कि मैं यह जानता हूं कि जुआ खेलना सारे अनर्थो की जड़ है। ऐसा कौन भला आदमी होगा जो जुआ खेलना पसंद करेगा।
मैंने इसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली। आप को जो अच्छा लगे आप वही करें। युधिष्ठिर ने कहा वहा दुर्योधन, दु:शासन आदि के सिवा और भी खिलाड़ी इकठ्ठे होंगे। हमें उनके साथ जुआ खेलने के लिए बुलाया जा रहा है। तब विदुर ने कहा आप तो जानते ही हैं कि शकुनि पास फेंकने के लिए प्रसिद्ध है। युधिष्ठिर ने कहा तब तो आपका कहना ही सही है। अगर मुझे धृतराष्ट्र शकुनि के साथ जुआ खेलने नहीं बुलाते तो मैं कभी नहीं जाता। युधिष्ठिर ने इतना कहकर कहा कि कल सुबह द्रोपदी और अन्य रानियों के साथ हम पांचों भाई हस्तिनापुर चलेंगे।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

इरादा हो पक्का तो संभव है सबकुछ...

एक बार स्वामी विवेकानंद अपने एक विदेशी दोस्त के यहां गए हुए थे। रात के समय दोनों मित्र आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी स्वामीजी के मित्र को कहीं जाना पड़ा। अब स्वामीजी घर में अकेले थे, उन्हें एक किताब दिखाई दी और उन्होंने किताब पढऩा शुरू कर दी। कुछ देर बाद उनका दोस्त उनके सामने आकर खड़ा हो गया। परंतु स्वामीजी का ध्यान उनके दोस्त की ओर नहीं गया वे किताब पढऩे में लगे रहे।
जब स्वामीजी ने किताब पूरी पढ़ ली तो उन्होंने देखा कि उनका दोस्त उनके सामने ही खड़ा था। स्वामीजी ने माफी मांगते हुए कहा कि मैं किताब पढऩे में इतना खो गया था कि तुम कब आए पता ही नहीं चला। उनका दोस्त मुस्करा दिया। दोनों फिर से चर्चा करने लगे। इस बार स्वामीजी ने अभी-अभी जो किताब पढ़ी थी उसकी बातें बताने लगे। उनके विदेशी मित्र ने कहा आपने यह किताब पहले भी कई बार पढ़ी होगी, तभी आपको इस किताब की सारी बाते ज्यों की त्यों याद है।
स्वामीजी ने कहा नहीं मैंने यह किताब अभी ही पढ़ी है। उनके दोस्त को विश्वास नहीं हुआ कि 400 पेज की किताब कोई इतनी जल्दी कैसे पढ़ सकता है? तब स्वामीजी ने कहा कि यदि हम अपना पूरा ध्यान किसी काम में लगा दे और दूसरी सारी बातें छोड़ दे तो यह संभव है कि हम 400 पेज की किताब भी थोड़े ही समय में पढ़ सकते हैं और उस किताब की सारी बातें आपको याद रहेंगी।
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भागवत २१६- क्या कहा अक्रूरजी ने धृतराष्ट्र से?

अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आए। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रों का-सा बर्ताव नहीं करते! अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैशिता से भरा संदेश कह सुनाया। अक्रूरजी ने कहा-महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियों की उज्जवल कीर्ति को और भी बढ़ाइये।
यदि आप विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी। इसलिए अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिए। इसलिए महाराज! यह बात समझ लीजिए कि यह दुनिया चार दिन की चांदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्य मात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये, ममतावश पक्षपात न कीजिए। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम शांत हो आइये।श्लोक पर बैठकर स्नान का कुुछ ही क्षणों राजा धृतराष्ट्र ने कहा आप मेरे कल्याण भले की बात कह रहे हैं जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाए तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूं।
फिर भी हमारे हितैशी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्र्तध्यान हो जाती है। वही दशा आपके उपदेशों की है। अक्रूरजी! सुना है भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है। जो उनके विधान में उलट फेर कर सके उनकी जैसी इच्छा होगी वही होगा।इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन संबंधियों से प्रेम पूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आए।

दुर्योधन ने क्यों दी जान देने की धमकी?

दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से बोला पिताजी मामाजी ठीक कह रहे हैं मैं जूए के अलावा किसी भी तरीके से पांडवों को नहीं हरा सकता हूं। तब धृतराष्ट्र ने कहा मेरे मंत्री विदूर बहुत बुद्धिमान है। मैं उनके कहे अनुसार ही काम करता हूं। उनसे सलाह लेकर ही मैं निश्चय करूंगा कि इस विषय पर मुझे क्या काम करना चाहिए। जो बात दोनों पक्ष के लिए हितकर होगी, वही वे कहेंगे।दुर्योधन ने कहा पिताजी यदि विदुरजी आ गए तब तो वे आपको जरूर रोक देंगे और मैं निश्चित ही अपनी जान दे दूंगा। तब आप विदुर के साथ आराम से राज्य में रहिएगा।
मुझसे आपको क्या लेना है? दुर्योधन की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने उसकी बात मान ली। परंतु फिर जूए को अनेक अनर्थो की खान जानकर विदुर से सलाह करने निश्चय किया और उनके पास समाचार भेज दिया। यह समाचार सुनते ही विदुर जी ने समझ लिया कि अब कलयुगि अथवा कलयुग का प्रारंभ होने वाला है। विनाश की जड़े जमना शुरू हो गई हैं। वे बहुत ही जल्दी धृतराष्ट्र के पास पहुंचे। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा मैं जूए को बहुत ही अशुभ मानता हूं। आप कुछ ऐसा उपाय कीजिए जिससे मेरे भाई भतीजों में विरोध ना हो।
धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही चाहता हूं। लेकिन यदि देवता अनुकूल होंगे तो पुत्र और भतीजों में कलह नहीं होगा।इतना कहने के बाद धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र दुर्योधन को अकेले में बुलवाया और उसे समझाने का प्रयास किया लेकिन दुर्योधन बोला पिताजी मेरी धनसम्पति तो बहुत ही सामान्य है। इससे मुझे संतोष नहीं है। मुझे बहुत दुख हो रहा है। मैंने राजसूय यज्ञ के समय युधिष्ठिर की आज्ञा से मणि, रत्न व राशि इकट्ठी की थी। उसके धन का कोई छोर नहीं है। जब रत्नों की भेंट लेते हुए मेरे हाथ थक गए थे। मैं जब उनकी सभा में घुम रहा था तो मयदानव के बनाए स्फटिक बिन्दु सरोवर ने मुझे बावला सा बना दिया था।

कैसे जन्म हुआ मनुष्य जाति का?


नारदजी की कथा समाप्त होने के बाद याज्ञवल्क्य जी भारद्वाज मुनि से बोले कि शंकर जी की बात सुनकर पार्वती जी मुस्कुराई। फिर शिवजी पार्वती जी को भगवान के अवतार की दूसरी कहानी सुनाने लगे। मनु और शतरूपा जिनसे मनुष्यो की उत्पति हुई दोनों आचरण में बहुत अच्छे थे। राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे। जिनके पुत्र ध्रुव थे। उनके छोटे लड़के का नाम प्रियवृत था। देवहूति उनकी पुत्री थी।
जो कदम मुनि की पत्नी बनी। उन्होंने आदिदेव कपिल मुनि को जन्म दिया। राजा मनु ने बहुत समय तक राज्य किया। उसके बाद उम्र ढलने के साथ उन्होंने सन्यास लेने का मन बना लिया। वे सारा राज्य जबरदस्ती अपने पुत्रों को देकर वे वन चले गए।चलते-चलत वे गोमती के किनारे जा पहुंचे। जहां बहुत से सुन्दर तीर्थ थे। मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए।
उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों जैसे ही वस्त्र धारण करते थे। दोनों राजा और रानी साग फल और कन्द का आहार करते थे। इस प्रकार जल का आहार करते छ: हजार वर्ष बीत गए। ऐसे उन्होंने कई वर्षो तक तपस्या की। दस हजार वर्षो तक केवल वायु के आधार पर जीवित रहे और उन्होंने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कुछ वर मांगो। लेकिन वे बिना डिगे तप करते रहे।

बुधवार, 23 मार्च 2011

जल्दबाजी में न खोएं अपनी मंजिल को...


एक बूढ़ा व्यक्ति था वह लोगों को पेड़ पर चढऩे व उतरने की कला सिखाता था जो उनको मुसीबत के समय और जंगली जानवरों से रक्षा के काम भी आती थी। एक दिन एक लड़का उस बूढ़े व्यक्ति के पास आया और विनम्रता पूर्वक निवेदन करते हुए बोला कि उसे इस कला में जल्द से जल्द निपुण(परफेक्ट)होना है।बूढ़े व्यक्ति ने उसे यह कला सिखाते हुए बताया कि किसी भी काम को करने के लिए धैर्य और संयम की बड़ी आवश्यकता होती है। लड़के ने बूढ़े की बात को अनसुना कर दिया।एक दिन बूढ़े व्यक्ति के कहने पर वह एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गया। बूढ़ा व्यक्ति उसे देखता रहा और उसका हौसला बढ़ाता रहा पेड़ से उतरते उतरते जब वह लड़का आखिरी डाल पर पहुंचा तब बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि बेटा जल्दी मत करना सम्भलकर कर उतरो। लड़के ने सुना और धीरे धीरे उतरने लगा।
नीचे आकर लड़के ने हैरानी के साथ अपने गुरु से पूछा कि जब में पेड़ की चोटी पर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं आधी दूर तक उतर आया तब आपने मुझे सावधान रहने को कहा ऐसा क्यों। तब बूढ़े व्यक्ति ने उस लड़के को समझाते हुए कहा कि जब तुम पेड़ के सबसे ऊपर भाग पर थे तब तुम खुद सावधान थे जैसे ही तुम अपने लक्ष्य के नजदीक पहुंचे तो जल्दबाजी करने लगे और जल्दी में तुम पेड़ से गिर जाते और तुम्हें चोट लग जाती।कथा बताती है कि अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए कभी भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्यों कि कई बार की गई जल्दबाजी ही लक्ष्य को पाने में परेशानी बन जाती है।
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भागवत २१५-यह कहानी आपको जीवन के भीतर की महाभारत दिखाएगी

सच पूछो तो धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे। अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत से अत्याचार किए हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं।
यह कथा हमें हमारे जीवन के भीतर चल रही महाभारत को दिखाएगी। हमारा मन भी एक कुरुक्षेत्र है, जिसमें हर समय विचारों, भावनाओं और न जाने कितने सवालों का युद्ध चलता रहता है। यह कथा हमें इसी द्वंद्व में जीना और जीतना सिखाएगी। जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आए, तब वह अपने भाई के पास जो बैठी। अक्रूरजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गई और नेत्रों में आंसू भर आए।
उन्होंने कहा - प्यारे भाई! क्या कभी मेरे मां-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियां और सखी-सहेलियां मेरी याद करती हैं? मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं? मैं शत्रु के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गए हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहां आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सांत्वना देंगे? अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं। तुम्हारी शरण में आई हूं। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ। श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यंत दुखित हो गई और रोने लगी।
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बाल कब और क्यों नहीं कटवाना चाहिए?

हमारे यहां रोजमर्रा के कार्यो से जुड़ी भी अनेक परंपराएं हैं। जैसे स्नान के बाद ही पूजा करना, खाने के पहले नहाना, ग्यारस को चावल नहीं खाना, मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाना आदि ऐसी ही एक बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल कटवाने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं।
आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन बाल नहीं काटवाना चाहिए। पर आखिर ऐसा क्यों? जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करें तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है।
विज्ञान के अनुसार सप्ताह में कुछ ऐसे दिन बताए गए हैं जब ग्रहों से ऐसी किरणें निकलती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शनिवार, मंगलवार और गुरुवार को निकलने वाली इन किरणों का सीधा प्रभाव हमारे सिर पर पड़ता है। हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग मस्तिष्क ही है, सिर का मध्य भाग अति संवेदनशील और बहुत ही कोमल होता है। जिसकी सुरक्षा बालों से होती है। इसी वजह से इन दिनों में बालों को नहीं कटवाना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि मंगलवार को बाल कटाने से हमारी आयु आठ माह कम हो जाती है। गुरुवार देवी लक्ष्मी का दिन माना जाता है अत: इस दिन बाल कटवाने से धन की कमी होने की संभावनाएं रहती हैं। शनिवार को बाल कटवाने से आयु में सात माह की कमी हो जाती है।
ज्योतिष के अनुसार मंगलवार का दिन मंगल ग्रह का दिन होता है। शरीर में मंगल का निवास हमारे रक्त में रहता है और रक्त से बालों की उत्पत्ति होती है। इसी तरह शनिवार शनि ग्रह का दिन हैं और शनि का संबंध हमारी त्वचा से होता है। अत: मंगलवार और शनिवार को बाल कटवाने से मंगल तथा शनि ग्रह संबंधी अशुभ प्रभाव झेलने पड़ सकते हैं। इनसे बचने के लिए ही इन दिनों में बाल ना कटवाने की बात कही जाती है।
यद्यपि आजकल इन बातों को केवल अंधविश्वास ही माना जाता है लेकिन प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने जो परंपराएं बनाई हैं इनका अवश्य ही हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
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क्यों गुस्से से भर गया दुर्योधन?


हस्तिनापुर लौटने पर शकुनि ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा मैं आपको ये बताना चाहता हूं कि दुर्योधन का चेहरा उतर रहा है। वह क्रोध से जल रहा है। वह दिनोंदिन पीला पड़ता जा रहा है। आप उसके तनाव का कारण पता क्यों नहीं लगाते? धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बुलवाया और पूछा तुम इतने गुस्से में क्यों हो शकुनि बता रहा है कि तुम किसी बात को लेकर परेशान हो? मुझे तो तुम्हारे गुस्से का कोई कारण समझ नहीं आ रहा है। क्या तुम अपने भाइयों या अपने किसी प्रिय व्यक्ति के कारण दुखी हो। दुर्योधन ने कहा-पिताजी मैं कायरों जैसा जीवन नहीं बिता सकता हूं।
मेरे मन में पांडवों से बदला लेने की आग धधक रही है। जिस दिन से मैंने युधिष्ठिर का महल और उसके जीवन का ऐश्चर्य देखा है। तब से मुझे खाना पीना अच्छा नहीं लगता। मेरे शत्रु के घर में इतना वैभव देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। मेरा मन बैचेन हो गया है। लोग सब ओर दिग्विजय कर लेते हैं लेकिन उत्तर की तरफ कोई नही जाता। लेकिन अर्जुन वहां से भी धन लेकर आया है। लाख-लाख ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो शंख ध्वनि होती थी। उसे सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। युधिष्ठिर के समान तो इन्द्र का ऐश्वर्य नहीं होगा। तब धृतराष्ट्र शकुनि के सामने ही बोले कि युधिष्ठिर जूए का शौकिन है। तुम उन्हें बुलाओ। मैं उन्हे हराकर छल से हराकर सारी सम्पति ले लुंगा।
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न भागें अपनी जिम्मेदारी से...

अक्सर लोग अपनी जिम्मेदारियों से परेशान होकर उनसे भागने लगते हैं। कभी कभी तो वे किसी दूसरे रास्ते का रुख ही कर लेते हैं। लेकिन अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाला कभी खुश नहीं रह पाता है।
एक राजा को शासन करते करते लम्बा समय बीत गया। एक दिन वो एक दिन वो सोचने लगा कि इतने लम्बे राज्यकाल में मैंनें क्या पाया।जनसेवा में ही सारा जीवन बीत गया। यह सोचते-सोचते वह जंगल की ओर निकल लिया। जंगल में सारे पशु पक्षी आंनद से आजाद घूम रहे थे। वहीं दूसरी ओर राजा चिंता में बैठा हुआ था।
वह पशु पक्षियों को देख सोचने लगा ये कितने खुश हैं राजा सोच ही रहा था कि एक तेज हवा का झोंका आया और एक पेड़ भरभरा के गिर गय और सारे पक्षी उड़ गए। राजा बोला इस संसार में सब अपने लाभ के लिए ही साथ देते है। तभी उधर से गुजर रहे एक साधु ने राजा का अकेले उदास बैठे देखा। वह राजा के पास गया और बोला कि तुम इस जंगल में क्या का रहे हो। वह साधु से बोला कि महात्मा जी मेरा मन अब संसार में नहीं लगता मैं अभी थक गया हूं।अब मैं भगवान की भक्ति करना चाहता हूं।
राजा की बात सुनकर साधु हंसने लगा और बोला आप राजा हैं और राजा का काम है राज काज देखना न कि फकीरी करना। अपने कतव्य से मुहं फे र कर आपको शांति नहीं मिलेगी। आप अपनी प्रजा की देखभाल करो अपको सच्चा सुख उसी में मिलेगा। क्यों कि जो अपना कर्तव्य पालन को ही अपना धर्म मानते हैं सच्चा सुख उन्हीं को मिलता है।
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इन गुणों से मिलती है प्रशंसा और प्रतिष्ठा

ज्ञान और गुण के सागर हनुमानजी आपकी जय हो। तीन लोक (स्वर्ग, भू और पाताल) आपसे प्रकाशमान हैं। अत: आप कपीस यानी वानरों के राजा हैं। इनका पहला नाम हनुमान लिखा है। जब इन्होंने सूर्य को मुंह में रख लिया था तब इन्द्र ने वज्र का प्रहार कर सूर्य को मुक्त कराया था, प्रहार से इनकी ठोढ़ी टूट गई थी। संस्कृत में ठोढ़ी को हनु कहा है, अत: इनका एक नाम हनुमान पड़ा।
लेकिन हनुमान का एक महत्वपूर्ण अर्थ है जो अपने मान का हनन कर दे वो हनुमान है। हनुमान के भक्त को निराभिमानी होना चाहिए। परमात्मा अहंकार शून्य चित्त में ही उतरते हैं। इन्हें ज्ञान, गुण का सागर कहा है मंदिर नहीं। एक फर्क है मंदिर में पवित्र होकर जाया जाता है। योग्यता मनुष्य की पहचान कैसे बन जाती है देखें, कपीस लिखा है हनुमानजी को। लेकिन वानरों के राजा सुग्रीव थे, हनुमानजी तो उनके मंत्री थे। परन्तु तुलसीदासजी का मानना है जो लोगों के दिल पर राज करे वो असली राजा है।
इसलिए उन्होंने हनुमानजी को राजा संबोधित किया। हनुमानजी पद से नहीं, पद हनुमानजी के नाम से जाना जा रहा है। योग्यता से प्रतिष्ठा को किस प्रकार जोड़ा जा सकता है यह इस चौपाई से पता चलता है, तिहुंलोक उजागर का अर्थ है अपने सद्कर्मों से प्रतिष्ठा अर्जित की जाए तथा उसे सीमित न रखें, उसका विस्तार हो ताकि अधिक से अधिक लोग उससे प्रेरित हो सकें। हनुमान केवल पूजनीय नहीं प्रेरक भी हैं।
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मंगलवार, 22 मार्च 2011

भागवत २१३ २१४ तब उद्धव हस्तिनापुर के लिए निकल पड़े क्योंकि...

कृष्ण का संदेश देकर उद्धवजी गोकुल से लौटते हैं। उसके बाद भगवान उनसे पांडवों की सुध लेने के लिए हस्तिनापुर जाने का निवेदन करते हैं अब आगे....अक्रूरजी का हस्तीनापुर जाना-भगवान् ने अक्रूरजी के घर जाकर उनसे निवेदन किया कि वे एक बार हस्तीनापुर जाकर पांडवों की सुध लें। अब भगवान का उस कथा में प्रवेश हो रहा है जो हमें उनके विराट रूप, अद्भूत ज्ञान और धर्म स्वरूप के दर्शन कराएगी। भगवान हस्तिनापुर जाने वाले हैं जहां धर्म का दमन हो रहा है, उनके अभिन्न सखा अर्जुन से मिलने वाले हैं, दुनिया को गीता का उपदेश मिलने वाला है।हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुख में पड़ गए थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आए हैं और वे वहीं रहते हैं।
आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने के कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्रों जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए आप वहां जाइये और मालूम कीजिए कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले।भगवान् का आदेश पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां उन्होंने पाण्डवों की दशा देखी। यहां से श्रीकृष्ण के जीवन में महाभारत युग का आरंभ हो रहा है।
भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमर कीर्ति की छाप लग रही है। वे वहां पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाम्हीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट मित्रों से मिले। जब गान्दिनीनन्दन अकू्ररजी सब इष्ट मित्रों और संबंधियों से भलीभांति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन, संबंधियों की कुशल क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल मंगल के संबंध में पूछताछ की। अक्रूरजी यह जानने के लिए कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे।

उद्धव मथुरा पहुंचकर गोपियों की प्रशंसा करने लगे क्योंकि....
हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं के आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्रिय परीक्षित नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया।
अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरा में लौटे आए। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।मथुरा लौटै-उद्धवजी कृष्ण के पास आए। अन्तरयामी श्रीकृष्ण जानते हैं कि उद्धवजी क्या कहने जा रहे हैं। सो वे कहने लगे-उद्धव जब तुम इधर थे, तो मेरी प्रशंसा करते थे।
अब गोकुल हो आए हो, तो गोपियों की प्रशंसा करने लगे हो। मैं निष्ठुर नहीं हूं। उद्धव का गोकुलागमन प्रसंग ज्ञान और भक्ति के मधुर कलह का चित्रण है।यूं कहा जा सकता है कि गोकुल से लौटकर उद्धवजी की कुण्डलिनी जाग्रत हो गई थी। गोपी भाव योगी भाव एक जैसे हैं एक स्थिति में जाकर।आत्म स्वरूपा शक्ति कुण्डलिनी ब्रम्हा ही है। पंच महाभूतों के माध्यम से यह जब व्यक्त होती है तो जड़ कहलाती है और इन्द्रिय मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के माध्यम से व्यक्त होती है, तब चेतन कहलाती है। इसका शक्तिपात में रूपांतरण होता है। चेतनता का गुरु शक्तिपात द्वारा जाग्रत करते हैं।

आदत बुरी सुधार लो

किसी भी व्यक्ति के पास कितनी ही धनसमृद्धि या पराक्रम क्यों ना हो?लेकिन एक भी बुरी आदत किसी की सारी अच्छाईयों पर भारी पड़ सकती है और दुख का कारण बन सकती हैं। युघिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है उनके सभी भाई उनका सम्मान करते हैं सभी धर्म के अनुसार कार्य करते हैं लेकिन किसी भी तरह का व्यसन इंसान के सुखी जीवन को दुखी बना सकता है।
महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...सभी पांडवों द्वारा दुर्योधन की हंसी उड़ाना अब आगे...दुर्योधन जब वापस लौटकर आया तो पाण्डवों की हंसी जैसे उसके कानों में गुंज रही थी। उसका मन गुस्से से भरा हुआ था मन भयंकर संकल्पों से भर गया। शकुनि ने उसका गुस्सा भाप लिया और बोला भानजे तुम्हारी सांसे लंबी क्यों चल रही है? दुर्योधन बोला मामाजी धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के शस्त्र कौशल से सारी पृथ्वी अपने अधीन कर ली है। उन्होंने राजसूय यज्ञ करके सब कुछ जीत लिया है। उनका यह ऐश्वर्य देखकर मेरा मन जलता है।
कृष्ण ने सबके सामने ही शिशुपाल को मार गिराया। लेकिन किसी राजा ने कुछ नहीं किया। समस्या तो यह है कि मैं अकेला तो कुछ नहीं कर सकता और मुझे कोई सहायक नहीं देता है। अब मैं सोच रहा हूं कि मैं मौत को गले लगा लूं। मैने पहले भी पांडवों के अस्तित्व को मिटाने कि कोशिश की लेकिन वो बच गए और अब तरक्की करते जा रहे हैं। अब आप मुझ दुखी को प्राण त्यागने की आज्ञा दीजिए क्योंकि मैं गुस्से की आग मैं झुलस रहा हूं। आप पिताजी को जाकर यह समाचार सुना दीजिएगा।
तब शकुनि ने कहा पाण्डव अपने भाग्य के अनुसार भाग्य का भोग कर रहे हैं। तुम्हे उनसे द्वेष नहीं करना चाहिए। तुम्हारे सभी भाई तुम्हारे अधीन और अनुयायी है। तुम इनकी सहायता से चाहो तो पूरी दुनिया जीत सकते हो। दुर्योधन बोला मामा श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, नकुल, सहदेव, द्रुपद, आदि को युद्ध में जीतना मेरी शक्ति से बाहर है। लेकिन युधिष्ठिर को जीतने का उपाय बतलाता हूं। युधिष्ठिर को जूए का शौक तो बहुत है लेकिन उन्हें खेलना नहीं आता है। अगर उन्हें जूए के लिए बुलाया जाए तो वे मना नहीं कर पाएंगे। इस तरह उनकी शक्ति को पराजित करने का सबसे आसान तरीका है कि मैं उन्हें जूए मैं हरा दूं।

गौर करें अपने शब्दों पर...

हम कई बार अनजाने में ही कोई भी बात मुंह से निकाल देते हैं। बिना सोचे-समझें बोली गई कई बातें हमारा जीवन बदल देती हैं। कई बार थोड़ा सा गुस्सा या अनजाने में किया गया मजाक भी भारी पड़ सकता है। इसी कारण से विद्वानों ने कहा है कि हमेशा तौलों फिर बोलो। कई बार जरा सी बातें भी इतना तूल पकड़ती है कि उसका परिणाम आपकी जिंदगी की दिशा बदल देता है।
श्रीमद् भागवत पुराण में एक कथा इसी बात की ओर संकेत करती है। वृषपर्वा दैत्यों के राजा थे, उनके गुरु थे शुक्राचार्य। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी दोनों सखी थीं लेकिन शर्मिष्ठा को राजा की पुत्री होने का अभिमान भी बहुत था। दोनों साथ-साथ रहती थीं, घूमती, खेलती थीं। एक दिन शर्मिष्ठा और देवयानी नदी में नहा रही थीं, तभी देवयानी ने नदी से निकलकर कपड़े पहने, उसने गलती से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए। शर्मिष्ठा से यह देखा न गया और उसने अपनी दूसरी सहेलियों से कहा कि देखो, इस देवयानी की औकात, राजकुमारी के कपड़े पहनने की कोशिश कर रही है। इसका पिता दासों की तरह मेरे पिता के गुणगान किया करता है और यह मेरे कपड़ों पर अधिकार जमा रही है। देवयानी और शर्मिष्ठा में इस बात को लेकर झगड़ा हो गया। देवयानी ने सारी बात अपने पिता शुक्राचार्य को सुनाई और कहा कि अब हम इस राजा के राज में नहीं रहेंगे। शुक्राचार्य ने वृषपर्वा को सारी बात बताई और राज्य छोड़कर जाने का फैसला भी सुना दिया।
चूंकि शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या के एकमात्र जानकार थे और वे देवताओं से मारे गए दैत्यों को जीवित कर देते थे, उनके जाने से वृषपर्वा को बहुत नुकसान होता सो उसने शुक्राचार्य के पैर पकड़ लिए। शुक्राचार्य ने कहा तुम मेरी बेटी को प्रसन्न कर दो तो ही मैं यहां रह सकता हूं। वृषपर्वा ने देवयानी के भी पैर पकड़ लिए, देवयानी ने कहा तुम्हारी पुत्री ने मेरे पिता को दास को कहा है इसलिए अब उसे मेरी दासी बनकर रहना होगा। वृषपर्वा ने उसकी बात मान ली और अपनी बेटी राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बना दिया। उसके बाद पूरे जीवन शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर ही रहना पड़ा। एक क्षण के गुस्से ने शर्मिष्ठा का पूरा जीवन बदल दिया।

सोमवार, 21 मार्च 2011

उद्धव मथुरा पहुंचकर गोपियों की प्रशंसा करने लगे क्योंकि....

हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं के आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्रिय परीक्षित नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया।
अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरा में लौटे आए। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।मथुरा लौटै-उद्धवजी कृष्ण के पास आए। अन्तरयामी श्रीकृष्ण जानते हैं कि उद्धवजी क्या कहने जा रहे हैं। सो वे कहने लगे-उद्धव जब तुम इधर थे, तो मेरी प्रशंसा करते थे।
अब गोकुल हो आए हो, तो गोपियों की प्रशंसा करने लगे हो। मैं निष्ठुर नहीं हूं। उद्धव का गोकुलागमन प्रसंग ज्ञान और भक्ति के मधुर कलह का चित्रण है।यूं कहा जा सकता है कि गोकुल से लौटकर उद्धवजी की कुण्डलिनी जाग्रत हो गई थी। गोपी भाव योगी भाव एक जैसे हैं एक स्थिति में जाकर।आत्म स्वरूपा शक्ति कुण्डलिनी ब्रम्हा ही है। पंच महाभूतों के माध्यम से यह जब व्यक्त होती है तो जड़ कहलाती है और इन्द्रिय मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के माध्यम से व्यक्त होती है, तब चेतन कहलाती है। इसका शक्तिपात में रूपांतरण होता है। चेतनता का गुरु शक्तिपात द्वारा जाग्रत करते हैं।

महाभारत की भविष्यवाणी?

जब राजसूय यज्ञ समाप्त हो गया तब भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन अपने शिष्यों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठर ने भाइयों के साथ उठकर उनका पूजन किया। उसके बाद वे अपने सिंहासन पर बैठ गए और सबको बैठने की आज्ञा दी। तब भगवान व्यास जी ने कहा की आपके सम्राट होने से कुरुवंश की कीर्ति बहुत उन्नति हुई। धर्मराज ने हाथ जोड़कर पितामह व्यास का चरणस्पर्श किया और कहा मुझे एक बात पर संशय है।
आप ही मेरे संशय को दूर कर सकते है।नारद ने कहा था कि भुकंप आदि उत्पात हो रहे हैं। आप कृपा करके यह बताइए की शिशुपाल की मृत्यु से उनकी समाप्ति हो गई या वे अभी बाकि है। युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर भगवान व्यास जी ने कहा इन उत्पातों का फल तेरह साल बाद नजर आएगा। वह होगा क्षत्रियों का संहार। उस समय दुर्योधन के अपराध से आप निमित बनोगे और इकठ्ठे होकर भीमसेन और अर्जुन के बल से मर मिटेंगें।
उसके बादभगवान कृष्ण द्वैपायन अपने शिष्यों को लेकर कैलास चले गए। युधिष्ठिर को बहुत चिन्ता हो गई। भगवान व्यास की बात याद करके उनकी सांसे गरम हो गई।
वे अपने भाइयों से बोले - भाइयों तुम्हारा कल्याण हो आज से मेरी जो प्रतिज्ञा है उसे सुनो अब मैं तेरह वर्ष तक जीकर ही क्या करूंगा? यदि जीना ही है तो आज से मेरी प्रतिज्ञा सुनों आज से मैं किसी के प्रति कड़वी बात नहीं कहूंगा। यदि जीना ही है तो आज से मैं अपने भाई-बन्धुओं के कहे अनुसार ही कार्य करूंगा। अपने पुत्र और दुश्मन के पुत्र प्रति एक जैसा बर्ताव करने से मुझमें और उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। यह भेदभाव ही तो लड़ाई की जड़ है ना। युधिष्ठिर भाइयों के साथ ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करने लगे। वे नियम से पितरों का तर्पण और देवताओं की पूजा करने लगे।
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तब दुर्योधन पर पांचों पांडव हंसने लगे

राजा दुर्योधन ने शकुनि के साथ इन्द्रप्रस्थ में ठहरकर धीरे-धीरे सारी सभा का निरीक्षण किया। उसने ऐसा कला कौशल कभी नहीं देखा था। सभा में घूमते समय दुर्योधन स्फ टिक चौक में पहुंच गया। उसे जल समझकर उसने अपने कपड़ो को ऊंचा उठा लिया। बाद में जब उसे यह समझ आया कि यह तो स्फटिक फर्श है तो उसे दुख हुआ।
वह इधर-उधर भटकने लगा। उसके बाद वह थोड़ा आगे बड़ा और स्फटिक की बावड़ी में जा गिरा। उसकी ऐसी हालत देखकर भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सब के सब हंसने लगे। उनकी हंसी से दुर्योधन को बहुत दुख हुआ। इसके बाद जब वह दरवाजे के आकार की स्फटिक की बने दरवाजे को बंद दरवाजा समझकर उसके अंदर प्र्रवेश करने की कोशिश करने लगा। तब उसे ऐसी टक्कर लगी कि उसे चक्कर आ गया।
एक स्थान पर बड़े-बड़े दरवाजे को धक्का देकर खोलने लगा तो दूसरी ओर गिर पड़ा। एक बार सही दरवाजे पर भी पहुंचा तो धोखा समझकर वहां से वापस लौट गया। इस तरह राजसूय यज्ञ और पाण्डवों की सभा देखकर दुर्योधन के मन में बहुत जलन हुई। उसका मन कड़वाहट से भर गया। उसके बाद वह युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर वह हस्तिनापुर लौट गया।

शनिवार, 19 मार्च 2011

होलिका दहन : एक नजर

इस वर्ष होलिका दहन का पर्व 19 मार्च 2011, फाल्गुन पूर्णिमा; शनिवार को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में मनाया जाएगा। 13 मार्च की अष्टमी तिथि रविवार और मृ्गशिरा नक्षत्र से शुरु हुए इस होलाष्टक में कोई भी नया शुभ कार्य नहीं किया जाएगा। इन आठ दिनों में मांगलिक कार्य, गृह निर्माण और गृह प्रवेश आदि के सभी कार्यों पर रोक रहेगी। होलाष्टक के आठ दिनों में किए गए शुभ कार्य अशुभ फल देते हैं इसलिए इन दिनों कोई भी नया कार्य शास्त्र सम्मत नहीं माना जाता है।
होलाष्टक से जुडी़ मान्यताओं को भारत के कुछ भागों में ही माना जाता है। होलाष्टक मुख्य रूप से पंजाब और उत्तरी भारत में ज्यादा मनाया जाता है। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा आदि राज्यों में अलग-अलग ढंग से होलर मानई जाती है।
होलाष्टक संबंधी पौराणिक मान्यता के अनुसार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है। इस दिन से सर्दियों के दिन कम होने लगते है और मौसम की बदलाव आना प्रारंभ हो जाता है। दिन में अच्छी-खासी गर्मी का अहसास होने लगता है।
वसंत आगमन के इस मौसम में फूलों की खुशबू अपनी महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है। यह भी माना जाता है कि इस दिन ही भगवान शिव ने क्रोध में आकर कामदेव को भस्म कर दिया था, इसलिए इसी दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई।
होलाष्टक की विशेषता यह है कि होलिका पूजन करने के लिए होली से आठ दिन पूर्व होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखी खास, सूखे उपले, सूखी लकडी़ व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है। जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारंभ का दिन भी कहा जाता है। जिस स्थान पर होली का डंडा स्थापित किया जाता है, वहाँ के संबंधित क्षेत्रों में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता।
उसके बाद होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन कुछ लकडि़याँ इकट्‍ठी कर उसमें डाल दी जाती है। इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यहाँ लकडि़यों का ढेर बन जाता है। फिर मोहल्ले के सभी निवासीजन होलिका दहन करके अच्छे जीवन की कामना करते है और बच्चों की मंडली होली खेलने में रम जाते हैं। पाँच दिनों तक मनाएँ जाने वाले होली के इस पावन पर्व पर सभी के घरों में गुजिए, भजिए-श्रीखंड और पूरन-पोली बनाकर होली का त्योहार मनाया जाता है।

पानी का बचाव है बहुत जरूरी

लूट लो होली का मजा...
देश भर में महँगाई के साथ-साथ पानी की समस्या आम बात बन गई है। आम आदमी को रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त पानी नहीं है। हम सभी रोजाना इसी समस्या से रूबरू होते रहते है। हर रोज के खर्च में पानी भी उसी तरह है जैसे सुबह से शाम तक दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगे रहना। पानी को लेकर सुबह से ही आम आदमी की भागदौड़ शुरू हो जाती है। पानी को लेकर झगड़े, मारपीट... और यहाँ तक तक चाकू-छूरे भी चल जाते हैं। यह बहुत ही भयावह किंतु वास्तविक स्थिति है।
होली का त्योहार आ गया है। होली यानी रंगों का रंगबिरंगी त्योहार। लोगों को, खासकर बच्चों को होली खेलने में, एक-दूसरे को कलर लगाने में बहुत मजा आता है। एक-दूसरे के रंग में रंगे चेहरे को देखकर बच्चों की खुशी दोगुनी हो जाती है। आदमी होली खेलने में इतना मशगूल हो जाता है कि उसे कुछ भान ही नहीं रहता कि उसके शरीर पर लगाए गए रंगों को निकालने के लिए उसे कितना पानी खर्च करना पड़ेगा। कितना अनचाहा पानी व्यर्थ बहाकर अपने रंगों को छुड़ाने में कामयाब हो पाएगा। लेकिन क्या इस तरह पानी का दुरुपयोग सही है।
आम आदमी को जहाँ पीने के लिए ठीक से पानी नहीं मिलता, रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए दूर-दूर से पानी लाकर उसकी व्यवस्था करनी पड़ती है। ऐसे में क्या पानी का दुरुपयोग कितना सही है।
इस पानी के दुरुपयोग की बात को शायद ही कोई 'हाँ' कहें। लेकिन दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें होली का त्योहार बहुत अच्छा लगता है। उन्हें होली खेलना, एक-दूसरे को कलर लगाना, रंगों से पट जाना, घर भर को तरह-तरह के रंगों से भर देना बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यहाँ समस्या होली खेलने की नहीं, 'पानी' की है।
आज महँगाई भरे युग में बिजली, पेट्रोल, खाने-पीने की चीजें और पानी सभी पर महँगाई की भरपूर मार पड़ रही है। रंग भी सस्ते आते हैं ऐसी बात नहीं है। पानी भी सस्ता मिलता है यह भी बात नहीं है। जो बात है वह यह कि होली तो खेलें लेकिन ऐसी कि हमें रंगों को छुड़ाने के लिए ज्यादा पानी खर्च ना करना पड़े। तो ही हम असली होली का आनंद ले पाएँगे।
अगर आपके यहाँ पीने को पर्याप्त पानी, रोजमर्रा की सारी जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी नहीं है तो ऐसे में रंगों से रंगी इसी होली को खेलने के बाद उसे छुड़ाने के लिए कितने पानी को बर्बाद करना पड़ेगा। यह बात तो सोचने वाली है।
बिना रंगों के होली का पर्व अधूरा है, लेकिन केमिकल वाले रंगों से कई लोगों को स्किन में एलर्जी हो जाती है, जिसके चलते कई लोग गुलाल और रंग खेलना पसंद नहीं करते हैं। ऐसे ही लोगों का ध्यान रखकर बनाए गए हैं हर्बल कलर्स, जो खास कर प्राकृतिक पदार्थों से बनाए जाते हैं। जिसके उपयोग से त्वचा में कोई भी साइड इफेक्ट नहीं होता है।
पलाश, जासौन, चंदन, गुलाब आदि से तैयार कई तरह के हर्बल कलर मार्केट में आसानी से मिल जाते हैं, जो प्राकृतिक पौधों एवं उनके रस से बनाए जाते हैं। शायद आपको पता न हो‍ कि इन हर्बल कलर्स निर्माण में टेलकम पावडर का उपयोग किया जाता है। इन रंगों की यह विशेषता होती है कि केमिकल रंगों की तरह घंटों बैठकर छु़ड़ाना नहीं पड़ता, यह थोड़े से पानी में ही निकल जाते हैं।
वैसे भी होली के त्योहार में गुलाल लगाने की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसके चलते बड़े-बुजुर्ग टीका लगाकर गले मिल एक-दूसरे को होली की बधाई देते हैं। प्राकृतिक रूप से तैयार किए जाने वाले गुलाल में अरारोट का बेस लिया जाता है, जिसमें कई तरह के प्राकृतिक तत्वों का समावेश कर गुलाल तैयार होता है। जिनमें हर्बल गुलाल, पीला, गुलाबी, हरा एवं लाल गुलाल ऐसे चार रंगों में आता है। हर्बल गुलाल दो तरह के होते हैं। पहले इत्र वाले गुलाल में चंदन, गुलाब आदि खुशबू मिली होती है, तो वहीं बिना इत्र वाले गुलाल में हर्बल रंग मिलाए जाते हैं।
तो लीजिए आपके सवाल का एक बढि़या जवाब है हमारे पास.... 'वो यह कि होली खेलो, खूब खेलो, जरूर खेलो, प्यार से खेलों, रंगों से खेलों लेकिन सिर्फ उन रंगों से जिसमें आपको पानी व्यर्थ ना बहाना पड़े यानी सूखे रंगों की वह होली जो आपके कपड़ों, आपके तन पर लगे रंगों को आसानी से साफ करने में आपकी मदद करें। ऐसी होली जो हाथ से झटकते ही कलर गायब हो जाएँ।' तो होली के पावन त्योहार पर होल‍ी तो खेलों, लेकिन पानी बचाने का संकल्प भी लो और होली का मजा भी लूट लो ऐसी रंगबिरंगे हर्बल सूखे रंगों की होली खेलो और वसंतोत्सव के रंग में रंग जाओ..!
हैप्पी होली....!

होली में छुपे वैज्ञानिक तथ्य

होली का त्योहार न केवल मौज-मस्ती, सामुदायिक सद्भाव और मेल-मिलाप का त्योहार है बल्कि इस त्योहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण को बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्योहार मनाने की शुरूआत की। लेकिन होली के त्योहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं।
होली का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रूख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं।
इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।
योगाश्रम के डॉ. प्रधान ने बताया कि होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।
होली का त्योहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालाँकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है।
शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।
दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वस्थ को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।
कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है।
होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है।
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होली यानी रंगों की मस्ती

'मल दे गुलाल मोहे, आई होली आई रे...' अजी होली तो अब दरवाजे पर खड़ी है और दरवाजे के पीछे छिपे आपके दोस्त-यार और मस्तीखोरों की टोली हथेली पर रंग लगाए और हरे, नीले रंग के पानी की बाल्टी छिपाए इंतजार कर रही है। ऐसे में आप भले ही घर के किसी भी कोने में छिप जाएँगे पर इनसे बचकर कहाँ जाएँगे?

तो दोस्तों तैयार हो जाइए होली के रंग में रंगने के लिए, लेकिन कहीं होली के दिन गालों पर लगा रंग-गुलाल महीनों तक आपकी परेशानी का सबब न बन जाए। दोस्तों, अगर सिंथेटिक रंग से आपकी त्वचा या शरीर को किसी प्रकार का नुकसान पहुँचा तो मौज-मस्ती का सारा रंग फीका पड़ जाएगा। सवाल है कि विकल्प क्या है?
सिंथेटिक रंगों के रासायनिक तत्वों से बचने के लिए आमतौर पर चिकित्सक प्राकृतिक रंगों के उपयोग की सलाह देते हैं लेकिन या तो प्राकृतिक रंग बाजार में हर जगह उपलब्ध नहीं होते या फिर जेब पर भारी पड़ने की वजह से इन्हें खरीदने से हम बचते हैं। तो क्यों न इस होली पर हम अपने मनपसंद रंग अपने ही घर में बना लें।
हरा रंग हरियाली का : आमतौर पर घरों में मेहंदी तो होती ही होगी। तो बराबर मात्रा में मेहंदी और हिना को मिला लें। गीला करना हो तो इसमें सिर्फ थोड़ा-सा पानी या चाय पत्ती उबालकर साफ किया हुआ पानी मिला लें। अगर हरा रंग अधिक गाढ़ा करने का मन हो तो उसमें धनिया पत्ता, पुदीना, टमाटर आदि में से कुछ भी मिलाया जा सकता है। हरा रंग तैयार हो जाएगा। ध्यान रखें कि मेंहदी हाथों पर लगाने वाली हो (यानी आँवला रहित हो)। जनाब, मेंहदी का रंग कम से कम हफ्ते भर तक तो उतरने से रहा। कह सकते हैं कि लगे हर न फिटकरी, रंग भी चोखा होय।
मस्ती में घुल जाए पीला रंग : होली पर अगर आप अपने दोस्त या प्रियजन को रंग लगाएँ और उसकी त्वचा कुछ दिनों बाद और भी निखर जाए तो रंग की दमक दोगुनी हो जाएगी। हल्दी और बेसन से तैयार किए गए पीले रंग की भी ऐसी ही कुछ बात है। सामान्य या कस्तूरी हल्दी में बेसन, मैदा, आटा या टेलकम पावडर मिलाकर सूखा रंग तैयार किया जा सकता है। आप इस मिश्रण में थोड़ा-सा पानी मिलाकर उबाल दें और फिर ठंडा कर लें तो गीला रंग। हाँ, अगर हल्दी के इस सूखे रंग में गेंदे के फूल या अमलताश के फूलों की पंखुड़ियाँ मिला दी जाएँ तो बात ही क्या होगी।
प्यार का लाल रंग प्रिय के संग : प्यार और सौहार्द बढ़ाने का रंग है लाल। इसे घर पर बनाकर क्यों न होली पर प्यार के इस रंग को और गहरा कर दिया जाए। लाल चंदन पावडर या रक्त चंदन का उपयोग लाल गुलाल की जगह किया जा सकता है। अगर घर के आसपास गुड़हल का पेड़ हो तो गुड़हल के फूलों को सुखाकर उनका पावडर भी बना सकते हैं।
गीला रंग बनाने के लिए लाल चंदन में पानी मिलाकर घोल तैयार किया जा सकता है या फिर अनार के दानों को पानी में उबालकर भी रंग तैयार कर सकते हैं।
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शुक्रवार, 18 मार्च 2011

गोखले थे गाँधी के राजनीतिक गुरू!

गोपाल कृष्ण गोखले महान स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ भी थे। महात्मा गाँधी ने राजनीति के बारे में उनसे बहुत कुछ सीखा और इसीलिए वह राष्ट्रपिता के राजनीतिक गुरु कहलाए।
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में नौ मई 1866 को जन्मे गोखले अपनी शिक्षा दीक्षा के दौरान अत्यंत मेधावी छात्र थे। पढ़ाई में सराहनीय प्रदर्शन के लिए जब उन्हें सरकार की ओर से 20 रुपए की छात्रवृत्ति मिलनी शुरू हुई तो उन्हें शिक्षकों और सहपाठियों की काफी सराहना मिली।
इतिहासकार एचएन कुमार का कहना है कि अधिकतर लोग गोखले को सिर्फ महात्मा गाँधी के राजनीतिक गुरु के रूप में ही जानते हैं लेकिन वह सिर्फ राष्ट्रपिता ही नहीं बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना के भी राजनीतिक गुरु थे।
उनका मानना है कि यदि आजादी के समय गोखले जीवित होते तो शायद जिन्ना देश के बँटवारे की बात रखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। गोखले का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उनके पिता कृष्ण राव पेशे से क्लर्क थे।'
इतिहास के प्रोफेसर केके सिंह का कहना है कि गांधी जी को अहिंसा के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा गोखले से ही मिली थी। उन्हीं की प्रेरणा से गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि गाँधी जी के आमंत्रण पर 1912 में गोखले खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और रंगभेद की निन्दा की तथा इसके खिलाफ आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया।
जन नेता कहे जाने वाले गोखले एक नरमपंथी सुधारवादी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने के साथ ही देश में व्याप्त जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ भी संघर्ष किया।
वह जीवनभर हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे और मोहम्मद अली जिन्ना ने भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना। यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना देश के बँटवारे का कारण बने और गोखले द्वारा दी गई शिक्षा का पालन नहीं किया।
गोखले पुणे के फारगुसन कालेज के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उन्होंने इस कॉलेज में अध्यापन का कार्य करने के साथ ही राजनीतिक गतिविधियाँ भी जारी रखीं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और सर्वेंट्स सोसायटी ऑफ इंडिया के सम्मानित सदस्य गोखले का 19 फरवरी 1915 को निधन हो गया।

मैं तो मर गया

बात पांच साल पुरानी है। होली के दिन देवरजी को उनके दोस्तों ने काफी ज्यादा भांग पिला दी। भांग पीते ही और उनके मुंह से पहला शब्द फूट पड़ा- ‘बाप रे, मैं तो मर गया।’ कहते हैं कि भांग पीने के बाद जो पहला शब्द मुंह से निकलता है, व्यक्ति बार-बार वही शब्द बोलता है। शाम को वे सभी नशे में धुत, लड़खड़ाते हुए घर आए।

घर में चारपाई में बैठे देवर जी बोले जा रहे थे, ‘ए विजु (देवरानी का नाम), मुझे मरना है और मैं मरने जा रहा हूं।’ वे खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। देखते-देखते घर और आंगन में भीड़ जमा हो गई। छोटे बच्चों को मज़ा आ रहा था। वहीं बड़े-बुज़ुर्ग समझा रहे थे कि ‘कुछ नहीं हुआ है तुझे, भांग पीने से भी कोई मरता है क्या? शोर मत मचा।’
लेकिन देवर जी थे कि बार-बार चिल्लाए जा रहे थे, ‘बाप रे, मैं तो मर गया। मैं तो मरने जा रहा हूं।’ इतना सुन देवरानी भी रोने लगी और कहने लगी, ‘आप चले गए, तो मेरा क्या होगा?’ इस पर देवरजी ने कहा, ‘विजु, पहले पेन और कागज़ ले आ। मैं अभी के अभी सारी ज़ायदाद और ज़मीन तेरे नाम कर देता हूं। मेरी नौकरी भी तुझे मिल जाएगी, फिर आराम से अपनी ज़िंदगी बिताना। जल्दी कर मेरे पास टाइम नहीं है। मुझे मरने जाना है।’
विजु भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, ‘आग लगे इन चीज़ों को। आपके बिना इन चीज़ों का क्या करूंगी? मैं आपके बिना ज़िंदा नहीं रह सकती।’ इस पर देवर जी ने कहा, ‘ठीक है, तू भी चल मेरे साथ मरने के लिए। ये देख मैं तो चला ऊपर को मरने। अरे विजु, ये क्या हुआ. मैं तो छत में अटक गया। जल्दी आ और छत को तोड़ दे। इसके कारण मैं ऊपर मरने को नहीं जा पा रहा।’
डर के मारे देवरानी भगवान से प्रार्थना करने लगी, ‘हे प्रभु, मेरे पति के प्राणों की रक्षा करना। मैं सत्यनारायण की कथा कराऊंगी, नंगे पैर दर्शन को आऊंगी। इनको कभी भांग नहीं पीने दूंगी।’ तभी एक आदमी जामफल के पत्तों का रस निकाल लाया। रस पीते ही देवरजी को उल्टी हुई और नींद आ गई। आज भी होली आती है, तो उस दिन को याद कर हम सबका हंस-हंसकर बुरा हाल होता है। बच्चे देवरजी को चिढ़ाते हुए कहते हैं, ‘काका मरने के लिए चलना है क्या?’

सोने की रोटियां

बात 326 ईसा पूर्व की है, जब मेसिडोनिया का शासक सिकंदर विश्व विजेता बनने के लिए निकल पड़ा था। सेना सहित उसने भारत की की सीमा पर डेरा डाल लिया था। परंतु भारत पर कब्ज़ा करने से पहले उसे सिंध के महाराज पोरस से युद्ध करना ज़रूरी था। पोरस की वीरता के किस्से वह पहले ही सुन चुका था। पोरस की विशाल सेना और मदमाते हाथियों से भिड़ना, उसकी सेना के लिए कठिन था। इसलिए उसने महाराजा पोरस से दुश्मनी की जगह दोस्ती का हाथ बढ़ाना ही उचित समझा। वह महाराजा से संधि ही करना चाहता था।

सिंध को पार किए बगैर भारत में पैर रखना मुश्किल था। महाराजा पोरस सिंध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे। अब संधि का प्रस्ताव लेकर महाराज पोरस के पास कौन जाए? सिकंदर को इस बात की बड़ी उलझन थी। एक दिन वह स्वयं दूत का भेष धारण कर महाराजा पोरस के दरबार पहुंच गया। महाराजा पोरस में देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इसके साथ-साथ वह इंसान की परख भी बखूबी कर लेते थे। उनकी तेज़ नज़रें, दूत भेष में आए सिकंदर को पहचान गईं। किंतु वह चुप रहे। उन्होंने दूत को पूरा सम्मान दिया। दूत भेषधारी सिकंदर ने अपने सम्राट का आदेश सुनाते हुए कहा, ‘सम्राट सिकंदर विश्व विजय के लिए निकले हैं और राजा-महाराजाओं के सिर पर पैर रखकर चल सकने में समर्थ हैं, वह सम्राट सिकंदर आपसे मित्रता करना चाहते हैं।’
यह सुनकर पोरस मुस्कुराए और बोले, ‘राजदूत, हम पहले देश के पहरेदार हैं, बाद में किसी के मित्र। और फिर देश के दुश्मनों से मित्रता..!! दुश्मनों से तो रणभूमि में तलवारें लड़ाना ही पसंद करते हैं।’
दरबार में बतचीत का सिलसिला ज़ारी ही था, तभी रसोइए ने भोजन के लिए आकर कहा।
दूत को साथ लेकर महाराज पोरस भोजनालय पहुंच गए। भोजन कक्ष में मंत्री, सेनापति, स्वजन आदि सभी मौजूद थे। सबके सामने भोजन परोसा गया किंतु सिकंदर की थाली खाली थी। तभी महाराज पोरस ने आदेश दिया, ‘हमारे प्रिय अतिथि को इनका प्रिय भोजन परोसा जाए।’
आज्ञानुसार दूत भेषधारी सिकंदर की थाली में सोने की रोटियां और चांदी की कटोरियों में हीरे-मोती का चूर्ण परोसा गया। सभी ने भोजन शुरू किया, किंतु सिकंदर की आश्चर्य भरी निगाहें महाराज पर थीं। दूत को परेशान देख महारोज पोरस बोले, ‘खाइए न राजदूत, इससे महंगा भोजन प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं।’
महाराज पोरस के इस वचन को सुनकर विश्व विजय का सपना देखने वाला सिकंदर गुस्से से लाल हो गया और बोला, ‘ये या मज़ाक है पौरवराज।’
‘यह कोई मज़ाक नहीं, आपका प्रिय भोजन है। ये सोने की रोटियां ले जाकर अपने सम्राट सिकंदर को देना और कहना कि सिंधु नरेश ने आपका प्रिय भोजन भिजवाया है’ महाराज बोले।
यह सुनकर सिकंदर तिलमिला उठा, ‘आज तक किसी ने सोने, चांदी, हीरे-मोती का भोजन किया है जो मैं करूं?’
‘मेरे प्यारे मित्र सिकंदर, जब तुम ये जानते हो कि मनुष्य का पेट अन्न से भरता है, सोने-चांदी, हीरे-मोती से नहीं भरता, फिर तुम यों लाखों घर उजाड़ते हो?’ महाराज पोरस बड़े शांतचित होकर बोल रहे थे। ‘मित्र उन्हें तो पसीने की खाद और शांति की हवा चाहिए। जिसे तुम उजाड़ते, नष्ट करते घूम रहे हो, तुम्हें सोने-चांदी की भूख ज़्यादा थी, इसलिए मैंने यह भोजन बनवाया था।’
अपने पहचाने जाने पर सिकंदर घबरा गया। परंतु महाराज पोरस ने बिना किसी विरोध व क्षति के सिकंदर को सम्मान सहित उसकी सेना तक भिजवा दिया।
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नारदजी अपना वैराग्य भूल गए क्योंकि...

उस नगर का ऐश्वर्य अद्भुत था। वहां विश्वमोहिनी नाम की एक कन्या थी। जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी स्वंयवर करना चाहती थी। इसलिए वहां अगणित राजा आए हुए थे। तभी नारदजी भ्रमण करते हुए उस नगर में पहुंचे। वहां के राजा से बात की। राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को दिखाया और पूछा कि नारद मुनि आप इस कन्या के गुण व दोष बताएं।
उसके रूप को देखकर नारद मुनि अपना वैराग्य भूल गए। बड़ी देर तक उसकी तरफ देखते रहे। उसके लक्षण देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई। वे मन ही मन खुद से कहने लगे कि जो इसे ब्याहेगा वह अमर हो जाएगा। रणभूमि में उसे कोई जीत न सकेगा। यह कन्या जिससे भी शादी करेगी सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। राजा से यह कहकर कि आपकी लड़की सुलक्षणा है नारदजी वहां से चल दिए। लेकिन उनके मन की चिंता यह थी कि मैं जाकर सोच-समझकर कुछ ऐसा करूं जिससे ये कन्या मुझसे ही शादी करे। इस समय तो सबसे पहले मुझे सुन्दर रूप की आवश्यकता है। तब नारदजी ने सोचा कि क्यों ना मैं भगवान से विनती करके सुन्दरता मांगू क्योंकि इस समय सिर्फ वही मेरी मदद कर सकते हैं।

नारद मुनि को क्यों हो गया अभिमान?

कामदेव की कोई कला नारदमुनि पर असर नहीं कर सकी। अप्सराओं की सुन्दरता भी नारदजी को रिझा नहीं पाई। नारदजी को कामदेव के इतना करने पर भी गुस्सा नहीं आया। कामदेव को उनकी भूल का अहसास हुआ तब उन्होंने नारदजी से माफी मांगी। उसके बाद इन्द्र की सभा में जाकर कामदेव ने इन्द्र को सारी बात बताई। सभी ने कामदेव की बात सुनकर नारदजी के सामने सिर नवाया।
तब नारदजी शिवजी के पास गए। उनके मन में इस बात का घमंड हो गया कि उन्होंने कामदेव को जीत लिया। तब शिवजी से जाकर उन्होंने कहा जिस तरह ये जो सारी बात आपने मुझे सुनाई। उस तरह शिवजी को कभी मत सुनाना। शिवजी ने यह शिक्षा नारदजी को उनके भले के लिए ही दी लेकिन उन्हें शिवजी की यह बात अच्छी नहीं लगी। एक बार नारदजी घुमते हुए विष्णु भगवान के लोक पहुंचे। विष्णु जी ने बड़े ही आदर से उन्हें आसन पर बिठाया। नारदजी ने शिवजी के मना करने के बाद भी विष्णु जी को अपने साथ घटित हुई सारी कथा सुनाई।
तब भगवान समझ गए कि नारदजी के मन में घमंड का अंकुर पैदा हो गया है। भगवान ने सोचा मुझे इनके मन से ये अंकुर तुरंत उखाड़ फेंकना चाहिए। तब विष्णुजी ने अपनी माया से एक नगर रचा। वह नगर विष्णु भगवान के नगर से ज्यादा सुन्दर था। उस नगर में कई सुन्दर पुरुष और स्त्रियां रहते थे। उस नगर का वैभव इन्द्र की नगरी की तरह था। उस नगर में एक रूपवती कन्या थी।जिसके रूप को देखकर लक्ष्मी जी भी मोहित हो जाए। वह राजकुमारी सब गुणों की खान थी। उसके स्वयंवर के लिए दूर-दूर से कई राजकुमार आए हुए थे। नारदजी जी उस समय नगर में गये।
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जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को गोद में लिया तो....

चेदिराज के घर में हुए विचित्र बालक का समाचार सुनकर सारी पृथ्वी के राजा उसे देखने आने लगे। चेदिराज ने सभी का बहुत प्रसन्नता के साथ स्वागत किया। उसके जन्म का समाचार सुनकर कृष्ण और बलराम भी अपनी बुआ से मिलने और उसे देखने पहुंचे। श्रीकृष्ण ने जैसे ही उसे गोद में लिया। उसी समय उसकी दो भुजाएं गिर गई। तीसरा नैत्र गायब हो गया।
यह देखकर शिशुपाल की मां व्याकुल होकर उससे कहने लगी श्री कृष्ण में तुमसे डर गई हूं। तब उसकी मां ने श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा तुम मेरी ओर देखकर शिशुपाल के सारे अपराध क्षमा कर देना ये मेरी विनती है तुमसे। तब श्रीकृष्ण ने कहा बुआजी तुम चिंता मत करो मैं इसके सौ अपराध भी क्षमा कर दूंगा। जिनके बदले इसे मार डालना चाहिए।इसी कारण इस कुल के कलंक शिशुपाल ने आज इतना दुस्साहस दिखाया है। मेरा अपमान किया है। भीष्म की बातें शिशुपाल से सही नहीं गई। उसे गुस्सा आ गया।

होलिका दहन की शुभ घड़ी में करें श्रीसूक्त का पाठ

हिन्दू पंचांग की फाल्गुन माह की पूर्णिमा पर होलिका दहन के बाद धुरेड़ी का त्यौहार यही संदेश देता है कि मन, वाणी और शरीर की दरिद्रता को छोड़कर पवित्रता को अपनाया जाए। चूंकि फाल्गुन माह हिन्दू वर्ष का अंतिम माह भी होता है। इसलिए होली की पवित्र अग्रि में प्रतीकात्मक रूप से हर दोष, बुराई और बुरी बातों का होम आने वाले समय को सुखी, शांत और खुशहाल बनाने की कामना के साथ करना चाहिए।
शास्त्रों में होलिका दहन की शुभ और पुण्य घड़ी में श्रीसूक्त का पाठ करना या सुनना घर-परिवार और जीवन से रोग, कलह और मलीनता को दूर कर खुशहाली व समृद्धि लाता है। जानते हैं यह श्रीसूक्त पाठ -

हिरण्यवर्णांहरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ।1।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ।2।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ।3।

कांसोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।4।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् । तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ।5।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसानुदन्तुमायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।6।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेस्मिन्कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ।7।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुदमे गृहात् ।8।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।9।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ।10।

कर्दमेन प्रजाभूतामयि सम्भवकर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ।11।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीतवसमे गृहे। निचदेवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।12।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ।13।

आर्द्रां यःकरिणीं यष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ।14।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावोदास्योश्वान्विन्देयं पुरुषानहम् ।15।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ।16।

पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। तन्मेभजसि पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ।17।

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने। धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ।18।

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि। विश्वप्रिये विश्वमनोनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि संनिधत्स्व ।19।

पुत्रपौत्रं धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्। प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे ।20।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः। धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु ते ।21।

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा। सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ।23।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः। भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत् ।24।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे। भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ।25।

विष्णुपत्नीं क्षमादेवीं माधवीं माधवप्रियाम्। लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ।26।

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ।27।

श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते। धान्यं धनं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ।28।

जब गोपियों ने उद्धव को देखा तो उन्हें लगा....

जब भगवान् भुवन भास्कर का उदय हुआ, तब व्रजांगनाओं ने देखा कि नन्दबाबा के दरवाजे पर एक सोने का रथ खड़ा है। वे एक-दूसरे से पूछने लगीं यह किसका रथ है? किसी गोपी ने कहा कंस का प्रयोजन सिद्ध करने वाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुंदर को यहां से मथुरा ले गया था। किसी दूसरी गोपी ने कहा- क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंस का पिण्डदान करेगा ? अब यहां उसके आने का और क्या प्रयोजन हो सकता है? व्रजवासिनी स्त्रियां इसी प्रकार आपस में बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्म से निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुंचे।गोपी प्रेम देखा-उद्धवजी यशोदा की आज्ञा से यमुना स्नान को चले। सखियों को भी कन्हैया का सन्देश देना था।
गोपियों का कृष्ण कीर्तन सुना, तो उन्होंने सोचा कि जिनके कण्ठ इतने मधुर हैं, वे कैसी अद्भुतस्वरूपा होंगी। उन्होंने अब तक किसी भी गोपी का दर्शन पाया नहीं था।ब्रह्म मुहूर्त में कृष्ण कीर्तन करने वाले ये गोप धन्य हैं। कृष्ण के स्मरण मात्र से इनके हृदय द्रवित होते हैं। उद्धवजी का ज्ञानमार्ग धीरे-धीरे मिट रहा था। उद्धव भये सुद्धव। उद्धव का ज्ञान भक्ति रहित था, सो कृष्ण ने उनको ब्रज भेजा। उद्धवजी नन्द-यशोदा की प्रेम मूर्ति को देखकर आनन्दित हो गए।नन्द के आंगन में गोपियां प्रणाम करने आईं। गोपियों ने देखा कि वहां रथ खड़ा है। उनको अक्रूर प्रसंग याद आ गया। हमारे कन्हैया को ले जाने वाला अक्रूर लगता है फिर आया, क्यों आया होगा ?
ललिता नाम की सखी कहने लगी-मैं कृष्ण को ज्यों-ज्यों भूलने का प्रयत्न करती हूं वे उतने ही याद आते हैं। कल मैं कुंए पर जल भरने गई थी तो बांसुरी का स्वर सुनाई दिया। एक गोपी कहती है लोग चाहे कुछ भी कहें किन्तु मुझे तो कृष्ण यहीं दिखाई देता है मथुरा गया ही नहीं।उद्धवजी ने गोपियों को अपना परिचय देते हुए कहा-मैं तुम्हारे मथुरावासी श्रीकृष्ण का अन्तरंग सखा उद्धव हूं और आपके लिए उनका सन्देश लाया हूं। गोपियां बोलीं-तुम थोथे पण्डित ही हो। क्या श्रीकृष्ण केवल मथुरा में ही बसते हैं। वे तो सर्वत्र हैं, तुम्हें मात्र मथुरा में ही भगवान दिखाई देते हैं और हमको तो यहां कण-कण में उनका दर्शन हो रहा है

विवाह के लिए नारदजी भी पहुंच गए स्वयंवर में...

नारदजी उस सुन्दरी के रूप को देखकर मोहित हो गए। नारदजी ने सोचा कि उन्हें उस कन्या के स्वयंवर को जीत कर उसका वर बनना है तो इसके लिए उन्हें रूपवान बनना होगा। यह सोचकर नारदजी भगवान विष्णु के पास पहुंचे। वे विष्णु भगवान से विनती करने लगे उन्होंने विष्णु भगवान को सारी कहानी सुनाई। कहानी सुनाने के बाद वे विष्णुजी से बोले आप अपना सौन्दर्य मुझे दे दीजिए।

तब भगवान विष्णु नारदजी से बोले की मैं वही करूंगा जो आपके लिए कल्याणकारी होगा। मैंने तुम्हारा हित करने की ठान ली है। अब नारदजी को अपने रूप का अभिमान हो गया। वहीं शिवजी के दो गण बैठे थे। वे दोनों गण ब्राह्मण का वेष बनाकर घुमते थे। वे बहुत मनमौजी थे। ब्राह्मण का स्वरूप होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं पाता था।वे दोनों नारदजी पर व्यंग्य करने लगे।
वे कहने लगे भगवान ने इन्हे अच्छी सुन्दरता दी है। इनकी सुन्दरता देखकर वह कन्या रीझ जाएगी। नारदजी को मन में अपने आप से मोह हो रहा था क्योंकि उनका मन दूसरों के हाथ में था। मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे। जब वह कन्या स्वयंवर के लिए तो नारदजी का वह रूप जो केवल उसी ने देखा उसे देखकर उस कन्या को बहुत गुस्सा आया। वह राजकुमारी अपने हाथों में वरमाला लेकर चल रही थी। वह सभी राजाओं को देखते हुए वहां घुमने लगी। नारदजी बार-बार उचकते और छटपटाते।
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