पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के मन में प्राणीमात्र के प्रति अथाह करुणा को देखकर उन्हें लोग करुणा देखकर उन्हें लोग करुणा का सागर कहकर बुलाते थे। असहाय प्राणियों के प्रति उनकी करुणा व कर्तव्यपरायणता देखते ही बनती थी। उन दिनों वे कोलकाता के एक समीपवर्ती कस्बे में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे।
वातावरण में भयानक ठंड बढ़ गई। एक दिन शाम से ही बूँदाबाँदी हो रही थी। रात होते-होते मूसलाधार बारिश से वातावरण में भयानक ठंड बढ़ गई। ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने स्वाध्याय में व्यस्त थे, तभी किसी ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी।
विद्यासागर ने एक अजनबी को दरवाजे पर खड़ा देखा। अपनेपन से उस अजनबी को घर के भीतर बुलाया। उसे अपने नए कपड़े देकर भीगे वस्त्र बदलने को कहा।
वह अतिथि उनके इस प्रेमभरे व्यवहार को देखकर भर्राये गले से बोला - 'मैं इस कस्बे में नया हूँ, यहाँ मैं अपने एक मित्र से मिलने के लिए आया था। जब मैं उसके घर के बाहर पहुँचा तो पूछने पर पता चला कि वह इस कस्बे से बाहर गया हुआ है। ये सुनकर निरुपाय होकर मैंने कई लोगों से रात्रिभर के लिए शरण माँगी।
लेकिन सभी ने मुझे संदेह की दृष्टि से देखकर दुत्कार दिया। आप पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने ...।'
'अरे भाई, तुम तो मेरे अतिथि हो। हमारे शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अतिथि देवो भव। मैंने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है।' कहकर ईश्वरचंद्र ने उस अतिथि के सोने के लिए बिस्तर व भोजन की व्यवस्था की। फिर अपने हाथ से अँगीठी जलाकर उसके कमरे में रख दी। सुबह जब वह अतिथि पंडित ईश्वरचंद्र से विदा लेने गया तो वे हँसकर बोले - 'कहिए अतिथि देवता! रात को ठीग ढंग से नींद तो आई?'
अतिथि उनके सद्व्यवहार को मन ही मन नमन करते हुए बोला - 'असली देवता तो आप हैं, जिसने मुझे विपदग्रस्त देखकर मदद की।' पूरी जिंदगी उस व्यक्ति के मन में विद्यासागर की करुणामय छबि बसी रही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें