गुरुवार, 13 मई 2010

महज खेल न समझिए क्रिकेट को!


पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कोच वूल्मर मरे पाए गए। कहते हैं कि उन्हें टीम की हार के बाद मार डाला गया। किसने मारा, कैसे मरे, ये बातें जाँच का ही विषय हो सकती हैं। मगर उनकी मौत पाकिस्तानी टीम की हार से जुड़ती लगती है।

अपने यहाँ के हालात अभी इतने बुरे नहीं लगते। बांग्लादेश से हारने के दंड स्वरूप यहाँ टीम इंडिया को गालियाँ दी गईं, जूते पहनाए गए, पुतले जलाए गए। धोनी के घर पर हमला किया गया, सहवाग को सजा देने की बात तक की जाने लगी। टीम इंडिया के कोच चैपल साहब भारतीय क्रिकेट फैनों का पागलपन पहले ही झेल चुके हैं जब एक जगह उनसे धक्का-मुक्की तक की गई थी। यह होना है। होते रहना है। यह अपने क्रिकेट का एक अंतःस्फोट है। उसके भीतरी अर्थ बदल रहे हैं। बदल चुके हैं। वह क्रिकेट से ज्यादा कुछ बन चला है। खेल से अधिक बन गया है। यह लेखक क्रिकेट का विश्लेषक नहीं है।

क्रिकेट एक पॉपुलर कल्चर की तरह है, जिसका आस्वाद लेने के लिए उसका विशेषज्ञ होना आदमी को उसके उस मजे से वंचित करना है, जो किसी खेल को देखकर आदमी को मिलता है। एक पाठक-दर्शक होने के नाते, देश का एक मामूली नागरिक होने के नाते इस लेखक को भी टीम का जीतना-हारना दिलचस्पी का विषय लगता है। कमेंट्रेटर जीत-हार का बारीकी से विश्लेषण करते हैं तो अक्ल दंग रह जाती है। कभी-कभी लगता है कि खेलने वाले से ज्यादा ये लोग जानते हैं। इन्हीं को खेलने के लिए कहना चाहिए।

यह लेखक कभी-कभी इस बात को देखकर चकित होता है कि जब जाने-माने क्रिकेट विशेषज्ञ खेल की समीक्षा करते हैं तो उनमें क्रिकेट को लेकर एक तरह की अंध-देशभक्ति मचलती है जैसी कि सड़क-छाप क्रिकेट फैन में होती है, जो जीत पर जश्न मनाता है और हार पर बौखलाता है, हिंसक होता है। जब से क्रिकेट का कॉर्पोरेटीकरण हुआ है, जब से उसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बड़े धन का निवेश हुआ है, जब से स्पांसर उसके एक-एक पल को खरीदने-बेचने की होड़ लिए आए हैं, जब से टीवी प्रसारण ने क्रिकेट को खेल से ज्यादा एक पॉपुलर जीवन-शैली बना दिया है, जब से उसका बहुराष्ट्रीय ब्रांड बना है, जब से 'टीम इंडिया' बनी है, जब से हमारे खिलाड़ियों के माथे, पेट, पीठ, हाथ, पैर सब किसी न किसी ब्रांड चिह्न से सज्जित नजर आते हैं, तब से क्रिकेट की चाल, चेहरा, चरित्र यानी सकल चोला बदल गया है।

इन सबसे संवलित क्रिकेट अब एक विराट पॉपुलर कल्चर है जिसमें एक ही वक्त में क्षणिक देशभक्ति, थोड़ा भय, थोड़ा आंनद, थोड़ा खेल, थोड़ा कौतूहल, थोड़ा साहस और थोड़ी हार-जीत रहने लगी है। उसको उसके संपूर्ण अर्थ देने वाला तत्व उसका दर्शक, उसका फैन है, प्र्रशंसक है। यह प्रशंसक भी इकहरा नहीं है, उसमें भी थोड़ा-थोड़ा कुछ मिला रहता है।
हमारे क्रिकेट के विश्लेषकों को क्रिकेट की बॉल दिखती है, बल्ला दिखता है, हार-जीत दिखती है। उन्हें यह फैन नहीं दिखता कि वह हर बॉल, हर जीत-हार को कैसे लेता है और वह क्रिकेट के मानी को किस तरह घड़ी-घड़ी बदलता है। यदि इन दिनों क्रिकेट का विश्व कप देश की प्रतिष्ठा का पर्याय बन चला है, तो इसी फैन कल्चर के कारण। एक क्रिकेट मैदान में होती है, तो उससे भी बड़ी क्रिकेट फैन के दिमाग में होती है, उसके आसपास उसके घर में होती है। यह क्रिकेट का भाव है, रस है जिससे परिचालित होकर फैन अपनी क्रियाएँ करता है।

जब से टीवी उपभोक्ता ब्रांडों का बाजार बनाने वाला एक बड़ा माध्यम बना है, तब से क्रिकेट खेल से कुछ ज्यादा हो गया है। कुछ ही दिन पहले एक फैन से परिचय हुआ। वह टीम इंडिया की उसी ड्रेस में सज्जित था, जिसमें खिलाड़ी रहते हैं। उसका चेहरा धोनी जैसा था, बाल भीधोनी जैसे थे। वह भारतीय क्रिकेटर की ऑफिशियल शर्ट-पैंट को पहने था और खुद को धोनी से कम न समझ रहा था।

पूछने पर उसने बड़े गर्व से बताया कि उसने यह ड्रेस तीन हजार में एक मॉल से खरीदी है, उसके कई दोस्तों ने भी ली है। वे क्रिकेट वर्ल्ड कप के मैचों को जब देखेंगे तो इसी ड्रेस को पहनकर देखेंगे। मोहल्ले का वह नौजवान एक कॉल सेंटर में काम करता है। उसकी पाली दिन की है। वह रात में मैच जरूर देखेगा क्योंकि वर्ल्ड कप इस बार 'हमारा है'। उसने दाँव लगाया हुआ है कि अगर टीम अपने पहले कुछ मैच लगातार जीतती है तो उसे इतने का फायदा होगा। यह दोस्तों में लगी शर्त है। यदि हारी तो बुरा होगा, बहुत बुरा होगा...।

जब बांग्लादेश से टीम बुरी तरह हारी और वह अगले दिन सुबह मिला तो उसके चेहरे पर एक वास्तविक किस्म की उदासी थी, थोड़ी चिढ़ थी।

जाहिर है कि वह उन तमाम सवालों से उलझ चुका था जो उसके जैसे हीरो से लोगों ने पूछे होंगे। उसका कहना था कि उसका वश चलेतो टीम से सहवाग को फौरन आउट कर दे। चैपल को गोली मार दे। धोनी अब उसका हीरो नहीं था। लेकिन वह उस चेहरे को कहीं नहीं ले जा सकता था, जो धोनी जैसा था, वह उन बालों को नहीं कटवा सकता था, जो धोनी के बालों जैसे दिखते थे। वह धोनी का क्लोन था, उससे जुदा ज्यादा देर नहीं रह सकता था। उसे मंदिर जाना था और धोनी की सफलता की कामना करनी थी। टीम इंडिया जीते या हारे, धोनी तो आगे रहे!
यह एक आम फैन है, जिसे क्रिकेट ने बनाया है। यह इकहरा नहीं है। इसका क्रिकेट पर दबाव है क्योंकि उस पर ब्रांडों का दबाव है। उसने टीम जैसा होने, उसका असल दर्शक होने के लिए चार-पाँच हजार रुपया खर्च किया है। वह अपने को टीम का अभिन्ना हिस्सा मानता है,क्लोन मानता है। अगर टीम हारती है तो क्या उसे उतना भी दर्द न होगा जितना असल हारने वालों को होगा? वह फैन क्या जिसे दर्द न हो, हर्ष न हो! बल्कि ज्यादा दर्द होगा क्योंकि वह क्लोन है। हारने पर जो हिंसा अचानक हो उठती है, जीतने पर जैसी अंधी पटाखेदार खुशी मचल जाती है, वह इसी तरह के क्लोन या कहें फैन का व्यवहार है, जो क्रिकेट को 'डिफाइन' करता है। क्रिकेट का अर्थ अब खेल में महदूद नहीं है। वह उससे बाहर उसके चाहने वालों के पास है।

इस तरह क्रिकेट अब एक 'कल्चरल एक्शन' है, एक सांस्कृतिक कार्रवाई है। वहाँ कुछ भी हो सकता है। खिलाड़ी देवता बन सकता है, खिलाड़ी राक्षस भी बन सकता है। यही हो रहा है। खेल के मानी बदल गए हैं। इन नए अर्थों को पढ़े बिना काम नहीं चल सकता।

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