रविवार, 27 जून 2010

'अतिथि भगवान होता है


रेगिस्तान को पार करते हुए दो यात्रियों ने एक खानाबदोश बेदुइन की झोपड़ी को देखा और ठहरने की इजाजत माँगी। जैसे सभी बंजारा जातियाँ करती हैं, बेदुइन ने बहुत हर्षोल्लास से उनका स्वागत किया और उनकी दावत के लिए एक ऊँट को जिबह करके बेहतरीन भोजन परोसा।

अगले दिन दोनों यात्री तड़के ही उठ गए और उन्होंने यात्रा जारी रखने का निश्चय किया। बेदुइन उस वक्त घर पर नहीं था इसलिए उन्होंने उसकी पत्नी को सौ दीनार दिए और अलसुबह चलने के लिए इजाजत माँगी। उन्होंने कहा कि ज्यादा देर करने पर सूरज चढ़ जाएगा और उन्हें यात्रा करने में असुविधा होगी।

वे लगभग चार घंटे तक रेगिस्तान में चलते रहे। उन्होंने पीछे से किसी को पुकार लगाते सुना। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, बेदुइन आ रहा था। पास आने पर बेदुइन ने दीनारों की पोटली रेत पर फेंक दी। बेदुइन ने कहा- 'क्या तुम लोगों को यह सोचकर शर्म नहीं आती कि मैंने कितनी खुशी से तुम दोनों का अपनी झोपड़ी में स्वागत किया था!'

यात्री आश्चर्यचकित थे। उनमें से एक ने कहा- 'हमें जितना ठीक लगा उतना हमने दे दिया। इतने दीनारों में तो तुम तीन ऊँट खरीद सकते हो।'

'मैं ऊँट और दीनारों की बात नहीं कर रहा हूँ!' बेदुइन ने कहा, 'यह रेगिस्तान हमारा सब कुछ है। यह हमें हर कहीं जाने देता है और हमसे बदले में कुछ नहीं माँगता। हमने अपने प्यारे रेगिस्तान से यही सीखा है कि अतिथि भगवान का रूप होता है। अतिथि की सेवा-सत्कार करना ही हमारा धर्म है। अतिथि से हम कुछ ले नहीं सकते और आप मुझे ये दीनार देकर जा रहे हैं। आपने मेरे आतिथ्य का अपमान किया है।' तभी दोनों यात्रियों ने बेदुइन को दिव्य रूप के दर्शन कराए और कहा- 'हम आपकी परीक्षा ले रहे थे।'


पूजा किसे कहें!

नीना अग्रवाल

उन्होंने स्कार्पियो से उतर मंदिर में प्रवेश किया, शिव जी को जल चढ़ाया, फिर बारी-बारी से सभी देवी-देवताओं के सामने नतमस्तक होती रही। हम भी वहीं विधिवत पूजा अर्चना कर रहे थे। हमने सभी मूर्तियों के सामने दस-दस के नोट चढ़ाए, दान-पात्र में पचास रुपए का करारा नोट डाला। इन सौ-सवा सौ रुपए के बदले प्रभु से अ‍नगिनत बार मिन्नतें कीं। पति की कमाई में दोगुनी बढ़ोतरी करें, बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी किसी धनाढ्‍य खानदान में हो जाए। उधर हमारा ध्यान उन प्रौढ़ भक्त पर भी था जिन्होंने अभी तक प्रभु के चरणों में एक रुपया भी नहीं चढ़ाया था।

हमने सगर्व एक पचास रुपए का नोट पंडितजी को चरण स्पर्श करके दिया और प्रदर्शित किया, पूजा इसे कहते हैं। हम दोनों पूजा के बाद साथ ही मंदिर के बाहर निकले, हमें मंदिर के द्वार पर एक परिचित मिल गईं। हम उनसे बातें करने लगे मगर हमारा ध्यान उन्हीं कंजूस भक्तों पर रहा।

उधर उन्होंने अपनी गाड़ी से एक बड़ी सी डलिया निकाली, जिसमें से ताजा बने भोजन की भीनी-भीनी महक आ रही थी। वो मंदिर के बगल में बने आदिवासी आश्रम में गईं। तब तक हमारी परिचित जा चुकी थीं। अब वो प्रौढ़ा हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बन गईं। हम आगे बढ़कर उनकी जासूसी करने लगे।

उन्होंने स्वयं अपने हाथों से पत्तलें बिछानी शुरू कीं, बच्चे हाथ धोकर टाट-पट्टी पर बैठने लगे। वो बड़े चाव से आलू-गोभी की सब्जी व गरमागरम पराठे उन मनुष्यमात्र में विद्यमान ईश्वर को परोस रही थीं। वाह रे मेरा अहंकार! हम इस भोली पवित्र मानसिकता में भक्ति को पनपी देख सोचने लगे, पूजा किसे कहते हैं।

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