रविवार, 25 जुलाई 2010

मन का लेखा


रात को बहू ने उठकर ससुर साहब के लिए खाना परोसा, और सुबह-सुबह बहू को घर के संवाद पुल पर लिखा मिला - ‘जीती रहो बहू, तुम्हारी फिक्र ने दिल जीत लिया।’

मां को सुबह थका-थका पाया, तो बेटा ऑफिस जाते-जाते लिख गया - ‘मां, दिन में थोड़ा आराम कर लीजिएगा।’ पहले जिस संवाद पुल बने बोर्ड के पास बहू और बेटा खड़े मुस्कुरा रहे थे, वहीं आज मां की आंखें छलक रहीं थीं।

रोज़ाना की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में कई ऐसे मौके आते हैं, जब हम अपनों से अपनापन जता नहीं पाते, कह नहीं पाते। नतीजतन वह बातें मन की कंदराओं में ही दम तोड़ देती हैं। बोर्ड पर लिख देना कि ‘अपना ध्यान रखना, मुझे चिंता रहती है’ या ‘मम्मीजी आप खाना खाकर आराम कर लीजिए’ या फिर ‘थैंक्स पापाजी, आपने मेरी गाड़ी में पेट्रोल भरवा दिया’ वगैरह-वगैरह रिश्तों की आत्मीयता को दोगुना कर सकता है।

हमेशा अच्छा कहने और अच्छा कहने का मौका ढूंढ लेने की भी आदत पड़ जाती है। शिकायतें भी बस सामान्य तौर पर कह ली जाती हैं। छोटे भाई ने बड़े के लिए लिखा ही था- ‘क्या दादा, आ जाते मेरे मैच पर, तो मेरा हौसला बढ़ता।’

सुबह दादा ने उसे तुरंत मना भी लिया। हम हमेशा चाहते हैं कि कोई हमारा ध्यान रखे, उसे हमारी चिंता हो और कई बार, हम जताना भी चाहते हैं कि हम उनकी कितनी चिंता करते हैं, लेकिन जता नहीं पाते। इन दोनों ही परिस्थितियों में लिखकर व्यक्त कर देना, मन की उधेड़बुन से निकलने का आसान रास्ता बन जाता है। मन की अनकही, को कहने का माध्यम आप घर में ही पा सकती हैं।

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