ब्रह्मचर्य तो जवानी में ही काम का है
ब्रह्मचर्य को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। क्या यह अनिवार्य है या ऐच्छिक यह बहस का विषय भी रहा है। अगर समझा जाए तो ब्रह्मचर्य शक्ति के संग्रह की ही एक प्रक्रिया है। हर आदमी के जीवन में कुछ समय तो ब्रह्मचर्य घटना ही चाहिए। युवावस्था में इसके लिए सबसे ज्यादा प्रयास होने चाहिए। यह हमारे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास के लिए जरूरी है।
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है और जवानी में तो खासतौर पर कि ब्रह्मचर्य आखिर होता क्या है। शाब्दिक अर्थ तो यह है कि जिसकी चर्या ब्रह्म में स्थित हो वह ब्रम्हचारी है। बहुत गहराई में जाएं तो इसका विवाहित या अवाहित होने से उतना संबंध नहीं है जितना जुड़ाव कामशक्ति के उपयोग से है। हरेक के भीतर यह शक्ति जीवन ऊर्जा के रूप में स्थित है। जब कोई परमात्मा, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, सत्य, अहिंसा जैसे आध्यात्मिक तत्वों की शोध में निकलेगा तब उसे इस शक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी और इसे ही ब्रह्मचर्य माना गया है। जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त करना हो उन्हें अपने भीतर के ब्रह्मचर्य को समझना और पकड़ना होगा।जानवर और इन्सान में यही फर्क है। ऐसा शरीर तो दोनों के पास रहता है जो पंच तत्वों से बना है। इसी कारण शरीर को जड़ कहा है, लेकिन आत्मा चेतन है। वह विचार और भाव सम्पन्न है।
जानवरों में आत्मा भी है। फर्क यह है कि मनुष्य के भीतर जड़ और चेतन के इस संयोग का उपयोग करने की संभावना अधिक है और यही उसकी विशिष्टता, योग्यता का कारण बनती है। यदि इसका दुरुपयोग हो तो मनुष्य भी जानवर से गया बीता होगा और सद्उपयोग हो तो जानवर भी इन्सान से बेहतर हो जाता है। हम ब्रह्मचर्य के प्रति जागरुक रहें इसके लिए नियमित प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास सहायक होगा। जड़ शरीर को साज-संभाल करने में जितना समय हम खर्च करते हैं उससे आधा भी यदि चेतन, जीवन ऊर्जा के लिए निकालें, थोड़ा अपने ही भीतर जाएं।
ब्रह्मचर्य को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। क्या यह अनिवार्य है या ऐच्छिक यह बहस का विषय भी रहा है। अगर समझा जाए तो ब्रह्मचर्य शक्ति के संग्रह की ही एक प्रक्रिया है। हर आदमी के जीवन में कुछ समय तो ब्रह्मचर्य घटना ही चाहिए। युवावस्था में इसके लिए सबसे ज्यादा प्रयास होने चाहिए। यह हमारे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास के लिए जरूरी है।
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है और जवानी में तो खासतौर पर कि ब्रह्मचर्य आखिर होता क्या है। शाब्दिक अर्थ तो यह है कि जिसकी चर्या ब्रह्म में स्थित हो वह ब्रम्हचारी है। बहुत गहराई में जाएं तो इसका विवाहित या अवाहित होने से उतना संबंध नहीं है जितना जुड़ाव कामशक्ति के उपयोग से है। हरेक के भीतर यह शक्ति जीवन ऊर्जा के रूप में स्थित है। जब कोई परमात्मा, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, सत्य, अहिंसा जैसे आध्यात्मिक तत्वों की शोध में निकलेगा तब उसे इस शक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी और इसे ही ब्रह्मचर्य माना गया है। जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त करना हो उन्हें अपने भीतर के ब्रह्मचर्य को समझना और पकड़ना होगा।जानवर और इन्सान में यही फर्क है। ऐसा शरीर तो दोनों के पास रहता है जो पंच तत्वों से बना है। इसी कारण शरीर को जड़ कहा है, लेकिन आत्मा चेतन है। वह विचार और भाव सम्पन्न है।
जानवरों में आत्मा भी है। फर्क यह है कि मनुष्य के भीतर जड़ और चेतन के इस संयोग का उपयोग करने की संभावना अधिक है और यही उसकी विशिष्टता, योग्यता का कारण बनती है। यदि इसका दुरुपयोग हो तो मनुष्य भी जानवर से गया बीता होगा और सद्उपयोग हो तो जानवर भी इन्सान से बेहतर हो जाता है। हम ब्रह्मचर्य के प्रति जागरुक रहें इसके लिए नियमित प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास सहायक होगा। जड़ शरीर को साज-संभाल करने में जितना समय हम खर्च करते हैं उससे आधा भी यदि चेतन, जीवन ऊर्जा के लिए निकालें, थोड़ा अपने ही भीतर जाएं।
शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा आपने..बधाई.
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