रविवार, 25 जुलाई 2010

अहसास

दिशा मिले तो दशा बदले सौम्या सी
सुपर चोर बंटी पिछले दिनों जब जेल से छूटकर आया, तो उसके घरवालों ने उसे क़बूल नहीं किया। अहम बात यह कि इंस्पेक्टर राजेंद्र सिंह, जिसने काफ़ी मश़क्क़त के बाद इस माहिर चोर को गिऱफ्तार किया था, उसी ने बंटी को पनाह दी।

इसके बाद उसकी जिंदगी पर ‘ओए लक्की, लक्की ओए’ नाम से हिट फिल्म बन चुकी है। अब बंटी को ‘एडर डिटेक्शन एंड प्रोटेक्शन प्राइवेट लिमिटेड’ में जासूस की नौकरी मिल गई है और इन दिनों वह दिल लगाकर इस एजेंसी के चेयरमैन संजीव देसवाल से जासूसी के गुर सीख रहा है।

बहरहाल, बंटी जैसे शातिर चोर से जो पुलिस घबराई रहती थी, उसी पुलिस ने एडर डिटेक्शन एंड प्रोटेक्शन प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन देसवाल से कहकर उसे नौकरी लगवाई। बस, अब बंटी को साबित करना है कि उस पर दांव लगाकर पुलिस अफ़सरों ने ग़लती नहीं की है।

सरकारी तौर पर जेलों को सुधार गृह के रूप में प्रचारित किया जाता है, सरकारी दावे के मुताबिक़ क़ैदियों के सुधार के लिए जेलों में कार्यक्रम भी चलाए जाते रहे हैं। बावजूद इसके, रिहा क़ैदियों की जिंदगी की राह बदल गई हो ऐसा कम ही दिखता है। बल्कि कई बार तो यह भी होता है कि जेल जाने से उसकी अपराध करने की झिझक खत्म हो जाती है, जिसके चलते वह जेल को ही अपना दूसरा घर मानने लगता है और जुर्म की राह पर निकल पड़ता है।

कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इ़फ्तिखार गिलानी की एक किताब है- जेल में कटे वे दिन। जिन्होंने यह किताब पढ़ी है, उन्हें पता है कि जेल की जिंदगी क्या होती है। कुछ सरकारी अधिकारियों के कोप के चलते निर्देष होने के बावजूद इ़फ्तिखार को 2000 में तिहाड़ जेल में कई महीने गुजारने पड़े थे।

जेल के नाम से उन लोगों की रूह नहीं कांपती, जिन्हें आज की भाषा में प्रोफेशनल अपराधी कहा जाता है। लेकिन सामान्य इंसान और छोटे-मोटे अपराधियों को तो डर लगता ही है। ख़ैर, यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस राह पर चलने वाले ज्यादातर कैदी या तो जवान होते हैं या फिर जवानी की दहलीज पर क़दम रख रहे होते हैं।

राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी इसी की तस्दीक करती है। 31 दिसंबर 2007 तक जेलों में बंद क़ैदियों की संख्या पर आधारित यह रिपोर्ट पिछले साल जुलाई 2009 में प्रकाशित हुई थी। इसके मुताबिक़ देशभर की जेलों में 3 लाख 76 हजार 396 क़ैदी बंद हैं। जिनमें से 18 से 30 साल की उम्र वाले क़ैदियों की संख्या 1 लाख 60 हजार 627 है। जबकि 16 से 18 साल की उम्र के क़ैदियों की संख्या 378 है।

ऐसा नहीं कि छोटी उम्र वाले अपराध नहीं कर रहे, लेकिन हमारा कानून 16 साल से छोटी उम्र वालों को जेल की बजाय बाल सुधार गृह में रखने की अनुमति देता है। अकेले दिल्ली की तिहाड़ जेल में ही 1500 से कुछ ज्यादा क़ैदी जवान हैं।
सामाजिक जीवन में आ रहे बदलाव और अपराध के बढ़ती ख़बरों से साफ़ है कि यह संख्या बढ़ चुकी होगी। वैसे भी ये आंकड़े क़रीब ढाई साल पहले तक के हैं।

इन आंकड़ों से साफ़ है कि भारत में ज्यादातर क़ैदी जवान हैं। जाहिर है, इनकी जिंदगी में बदलाव लाए जाने की जरूरत है। सरकारी स्तर पर ऐसे प्रयास किए भी जा रहे हैं। यूं तो हर तरह की जेलों में क़ैदियों से काम कराया जाता है। जिन्हें सुधार प्रयास ही कहा जाता है।

राज्य सरकारों ने जेलों में बोर्सटल स्कूल खोले हैं, जहां क़ैदियों को उनका भावी जीवन सुधारने की ट्रेनिंग दी जाती है। लेकिन इनकी क्षमता क़ैदियों की संख्या के लिहाज से नाकाफ़ी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़ इन स्कूलों की क्षमता महज 1602 क़ैदियों को ही ट्रेंड करने की है। और ऐसे स्कूल सिर्फ़ आंध्र प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, झारखंड, कर्नाटक. महाराष्ट्र, पंजाब और तमिलनाडु में ही प्रभावी तरीक़े से चलाए जा रहे हैं। लेकिन बोर्सटल स्कूलों का सबसे ज्यादा फ़ायदा जहां पंजाब में 489 क़ैदियों को मिल रहा है, वहीं हिमाचल में सिर्फ़ 15 क़ैदी ही इसका लाभ पा रहे हैं। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या सभी युवा क़ैदियों से इस तरह के प्रशिक्षणों के जरिए अपराध जगत छोड़कर अच्छे आचरण और समाज की मुख्य धारा में शरीक होने की उम्मीद की जा सकती है?

पूर्व जेल अधीक्षक, भोपाल पुरुषोत्तम सोमकुंवर के अनुसार युवा अपराधियों में आमतौर पर बदले की प्रवृत्ति रहती है। ऐसे में उनकी मनोवृत्ति बदलने के लिए जेलों में एजुकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है और हिंसात्मक विचार ख़त्म करने के लिए उन्हें मनोवैज्ञानिक और व्यक्तित्व विकास कोर्स भी कराए जाते हैं। कैदियों को आत्मनिर्भर बनाने की भी ट्रेनिंग दी जाती है।

सोमकुंवर कहते हैं कि मुझे लगता है और त्वरित नतीजे हासिल करने जेलों के अंदर स्कूल खोलने चाहिए। हालांकि 10-15 सालों की तुलना में युवा अपराधियों की संख्या में 15-20 फ़ीसदी इजाफ़ा हुआ है। बहरहाल, जेल में अच्छे चाल-चलन और व्यवहार के मद्देनजर क़ैदियों को कुछ कम कठोर जेलों में रखने का राज्य सरकारों ने इंतजाम किया है, जिन्हें खुली जेल कहा जाता है। लेकिन क़ैदियों की संख्या के मुक़ाबले ये भी कम हैं। देशभर में सिर्फ़ 28 खुली जेल हैं, जिनमें कुल 3076 क़ैदी ही रखे गए हैं।

वैसे जेलों में सुधार की मांग तो अरसे से उठती रही है, लेकिन किरण बेदी ने तिहाड़ जेल की महानिदेशक बनने के बाद इस दिशा में सार्थक पहल की। उनके कारण ही वहां पढ़ाई और योग की कक्षाएं शुरू हुईं और क़ैदियों के हुनर को बढ़ावा देने प्रयास हुए। हालांकि तिहाड़ में वैसी गर्मजोशी अब नहीं दिखती, लेकिन अब भी यहां काम हो रहे हैं। जैसे- नौजवान क़ैदियों को अंग्रेजी सिखाई जाती है। जिसके शिक्षक विदेशी क़ैदी ही हैं। आजकल वहां क़रीब 400 युवा क़ैदी अंग्रेजी सीख रहे हैं।

ऐसी हों कोशिशें

दिल से साहित्यकार, यूपी कैडर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय की कोशिशों से गोवा की पणजी जेल में बंद सुधीर शर्मा की जिंदगी ही बदल गई। सुधीर शर्मा ड्रग्स रखने के जुर्म में दस साल की सजा काट रहा था, अब लेखक बन चुका है। उसके लेख और संस्मरण हिंदी पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान बना रहे हैं। विभूति नारायण राय इन दिनों महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय वर्धा के कुलपति हैं।

जेल में फूड पार्लर

छह साल पहले आंध्र प्रदेश की राजामुंदरी जेल में पांच साल की सजा काटने वाले पेशे से बावर्ची रहे, जाकिर हुसैन ने सजा के दौरान ही जेल में फूड पार्लर खोलने की मंजूरी मांगी और जेल प्रशासन ने उसकी बात मानी। उसके पार्लर की शुरुआत इडली-सांभर, चाय-डोसे से हुई और देखते ही देखते काम फैल गया। हालांकि जाकिर जेल से बाहर है, लेकिन पार्लर के चलते अब भी उसका जेल से नाता बना हुआ है।

ग़ुमनाम नहीं रहा नगेंद्र

नगेंद्र सिंह परिहार और उनके परिजनों पर पत्नी की हत्या का आरोप था। 20 अप्रैल 2001 को उन्हें मप्र के शहडोल स्थित अपने निवास से गिऱफ्तार किया गया था। उन्होंने जेल में नौ साल बतौर क़ैदी काटे। पिछले महीने जबलपुर हाईकोर्ट ने उन्हें आरोप से बरी किया और वे जेल से रिहा हुए। लेकिन इससे पहले क्योंकि नगेंद्र का सपना कवि बनने का था सो जेल आने पर उन्होंने इस काम में मशगूल होने में देर नहीं की। और सेंट्रल जेल रीवा से रिहा होने तक वे सात उपन्यास, सौ से ज्यादा कविताएं, ढेर सारी लघु कथाएं व नाटक लिख चुके थे।

इतना ही नहीं, जेल में बिताए नौ सालों में उन्होंने समाज शास्त्र, हिंदी और अंग्रेजी में मास्टर डिग्रियां लीं और कंप्यूटर स्किल और प्रयाग संगीत समिति से म्यूजिक का दो वर्षीय डिप्लोमा लिया। नगेंद्र परिहार कहते हैं मुझे शब्दों की ताक़त पर यक़ीन है।

मैंने जेल में जो पहली कविता लिखी है उसका नाम- ‘गुमनाम नहीं मरूंगा मैं’ था। मुझे पता था कि वे मेरे शरीर को ग़ुलाम बना सकते हैं, लेकिन मेरी आत्मा को नहीं। जेल में परिहार को सीनियर जेलर सुरेंद्र सिंह मिले थे। सिंह का कहना था, परिहार के रिहा होने पर ख़ुशी हुई। वह निर्देष था, उसकी पत्नी ने आत्महत्या की थी। मैंने अपनी 27 साल की सर्विस में ऐसा कैदी नहीं देखा।

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