शनिवार, 24 जुलाई 2010

सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त एकलव्य


एक भील बालक जिसका नाम एकलव्य था। उसे धनुष-बाण चलाना बहुत प्रिय था। वह धनुर्विद्या सीखना चाहता था। इसीलिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा। परंतु जब द्रोणाचार्य को मालूम हुआ कि यह बालक भील है तब उन्होंने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया।
एकलव्य निराश होकर वहां से लौट आया परंतु उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और उसके आगे अभ्यास करने लगा।
एक दिन गुरु द्रोण और पांडव जंगल से गुजर रहे थे। उनके साथ उनका एक कुत्ता भी था। कुत्ता भौंकते हुए आगे-आगे चल रहा था। कुत्ता भौंकते हुए थोड़ी आगे चला गया और जब वह वापस आया तो उसका मुंह बाणों से भरा हुआ था। यह देखकर गुरु आश्चर्यचकित रह गए कि बाण इतनी कुशलता से मारे गए थे कि कुत्ते मुंह से रक्त की बूंद भी नहीं निकली।
द्रोणाचार्य ने सभी शिष्यों को उस कुशल धनुर्धर की खोज करने की आज्ञा दी। जल्द ही उस धनुर्धर को खोज लिया गया। धनुर्धर वही भील बालक एकलव्य था, उसने बताया कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या सीखाने से इंकार करने के बाद मैंने इनकी मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई है। द्रोणाचार्य चूंकि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे, इसलिए अर्जुन को भी पीछे छोडऩे वाले एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना विचार किए अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में अंगूठा काटकर दे दिया।
आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति से बढ़कर ओर कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता।

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