रविवार, 29 अगस्त 2010

कैसा होता है पूर्ण पुरुष

भारतीय चिंतन धारा में कृष्ण को ही पूर्ण पुरुष कहा गया है। लेकिन एक मिथक यह है कि चूंकि उनकी 16 हजार रानियां थीं, शायद इसलिए उन्हें पूर्ण मान लिया गया। क्या यह सच है? तो कैसा होता है पूर्ण पुरुष? बता रहें हैं महाभारत के व्याख्याकार नरेन्द्र कोहली। साथ में- क्या सोचती हैं आज की सेलेब युवतियां?

सन् 1896 ई में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के डिट्रायट नगर में गए थे, तो उनका विरोध करने के लिए पादरी थबर्न ने हिंदू धर्म के विरोध में बहुत कुछ कहा और लिखा था। उसमें एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि स्वामी के आराध्य श्रीकृष्ण की दस सहस्र रानियां थीं और वे श्लथ-चरित्र की महिलाएं थीं। वस्तुत: पादरी थबर्न का संकेत कृष्ण की सोलह सहस्र रानियों की ओर था और इसके माध्यम से वे कृष्ण को लांछित कर, हिंदू धर्म को और उसके माध्यम से स्वामी विवेकानन्द को कलंकित करना चाहते थे। स्वामी ने उनकी बात का उत्तर नहीं दिया था, क्योंकि न वे उस निम्न धरातल पर उतरना चाहते थे, जिस पर पादरी उतरे हुए थे और न ही संन्यासी के रूप में वे अपने बचाव में कुछ कहना चाहते थे।

श्रीकृष्ण के विषय में ऐसे ही प्रश्न आज भी पूछे जाते हैं। मुझ से भी पूछा गया कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं, फिर भी मैं उनको भगवान मानता हूं?

मुझे लगता है कि यह जिज्ञासा नहीं है। यह तो शुद्ध आरोप है। उस आरोप के पीछे आपत्ति है, विरोध है, अश्रद्धा है, आवेश है। जाने कब से श्रीकृष्ण के इस अति बहुविवाह के विरुद्ध आक्रोश पल रहा है लोगों में और वे उसको समझने का प्रयत्न नहीं करते। स्वयं को सर्वथा निदरेष मानते हैं और भगवान में भी दोष दिखा कर, स्वयं को उससे भी महान मान कर, प्रसन्न होते हैं। इस विरोध से मेरे मन में भी रोष जन्मता है। मैं अपने आराध्य पुरुषों पर इस प्रकार के तर्कहीन आरोप सहन नहीं कर सकता। मैंने भी कब से ऐसी बेसिर-पैर की आपत्तियां करने वालों के विरुद्ध अपने मन में रोष संचित कर रखा है। मैं बोलता हूं तो मेरा स्वर भी आवेश से मुक्त नहीं रहता। कभी-कभी तो मैं कह देता हूं कि मैं इसीलिए ही उन्हें भगवान मानता हूं, क्योंकि उनकी सोलह सहस्र रानियां थीं।

भौमासुर की पराजय के पश्चात जब उसके अंत:पुर में बंदी सोलह सहस्र (यह ठीक-ठीक संख्या न होकर, मुहावरा भी हो सकता है) नारियों को मुक्त किया गया तो उनकी क्या स्थिति थी? वे अपहृत थीं, क्रीत की गई थीं, भय के कारण उपहार में दी गई थीं अथवा किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। किंतु यह सत्य है कि वे पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं।

मेरे मन में एक समानांतर बिंब जन्मता है। 1947 ई़ में जब पाकिस्तान बना था, तब अनेक हिंदू स्त्रियों का अपहरण हुआ था। वे अपने परिवार से वियुक्त होकर शत्रुओं के अधिकार में चली गई थीं। उनमें से कुछ जब किसी प्रकार लौटा कर भारत लाई गई थीं तो उनके पतियों, भाइयों और पिताओं ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया था। उन लांछित स्त्रियों को कौन अपने परिवार में स्वीकार करता? अहल्या तक को गौतम ने त्याग दिया था, तो ये तो बेचारी साधारण नारियां थीं।

बांगलादेश की मुक्ति से पहले असंख्य बंगाली महिलाओं के साथ पाकिस्तानी सैनिकों ने बलात्कार किया था। बंगलादेश की मुक्ति के पश्चात उन महिलाओं को उनके परिवारों ने स्वीकार नहीं किया। तो फिर भौमासुर के अंत:पुर से मुक्त हुई उन अभागी स्त्रियों को ही कौन पति, पुत्र, भाई या पिता स्वीकार कर लेता। तब भी यह प्रश्न उठा होगा कि उन महिलाओं का क्या होगा? उनको भोजन और आश्रय तो कोई भी राज्य दे सकता था, किंतु उनका समाज में स्थान क्या होगा? समाज में सम्मान? उनकी सामाजिक पहचान? कौन थीं वे? किसकी पुत्री, किसकी पत्नी और किस की मां थीं? तब श्रीकृष्ण ने उन सबका कलंक अपने माथे पर लेते हुए कहा होगा कि उन्हें कृष्ण की पत्नियां होने का सम्मान दिया जाए। बात केवल कृष्ण के निर्णय की ही नहीं थी, उन स्त्रियों के विश्वास की भी थी।

यदि लौकिक धरातल पर सोचा जाए तो सोलह सहस्र स्त्रियों के साथ एक पुरुष का संबंध असंभव है। वैसा नारी-पुरुष संबंध वहां था भी नहीं। यदि कृष्ण का नारायण रूप स्वीकार किया जाए, तो कुछ भी संभव है। वे सोलह सहस्र रूप भी धारण कर सकते थे, किंतु नारायण को तो लांछित नहीं किया जा सकता। वहां न प्रश्न उठते हैं, न उनके उत्तर खोजे जाते हैं। लांछन तो कृष्ण के लौकिक रूप पर ही लग सकता है। किंतु उस रूप में उनके सोलह सहस्र स्त्रियों से संबंध की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जहां किसी एक स्त्री का कलंक उसका पति अथवा पिता तक वहन नहीं करता, वहां श्रीकृष्ण ने सोलह सहस्र स्त्रियों को सम्मान देकर उनका कलंक अपने माथे पर वहन किया और आज तक कर रहे हैं। आज भी लोग उन पर आरोप लगा रहे हैं। इतने दीर्घ काल तक, इतना बड़ा आक्षेप सहते रहना और शांत मन से बांसुरी बजाते जाना किसी साधारण मनुष्य के बस का है क्या? भगवान ही कर सकते हैं ऐसा महान काम।

यह मेरी कल्पना नहीं है। भागवत में स्पष्ट वर्णन है। कोई भी पढ़ सकता है कि ये स्त्रियां कौन थीं और किन परिस्थितियों में उनका श्रीकृष्ण से साक्षात्कार हुआ। यह ठीक है कि भागवत उसे भक्ति के प्रसंग में प्रस्तुत करता है और मैं उसे सामाजिक संदर्भ में आपके सामने रख रहा हूं। जो लोग कृष्ण पर इस प्रकार का आरोप लगाते हैं, उनका आरोप और प्रश्न भक्ति क्षेत्र का नहीं, सामाजिक मान्यताओं के क्षेत्र का है।

अत:आवश्यक है कि उन्हें उन्हीं के धरातल पर समझाया जाए। भक्ति के धरातल पर तो भगवान ही उन्हें समझा सकते हैं, जब वे उन पर कृपा कर उनके मन में भक्ति अंकुरित करेंगे। यह प्रवृत्ति सब कहीं है। लोग आरोप लगाने से पहले महापुरुषों की महानता को समझने का प्रयत्न नहीं करते। वे उन पर आरोप लगा कर सहज ही उनसे बड़े हो जाना चाहते हैं। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो भगवान के काम में भी त्रुटियां खोजता है और उसे नि:शुल्क परामर्श भी देता है।

जो पार्टनर को बराबर का दर्जा दे सके
अद्वैता काला, प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार व फिल्म लेखक

मुझे लगता है कि पूर्ण पुरुष का सबसे बड़ा गुण है कि वह अपने आपमें सुरक्षित महसूस करे और इस बात पर अन्दर से खुशी महसूस करे कि मेरी पार्टनर यहां-वहां जा रही है और अच्छा काम कर रही है। यह एटीट्यूड होना चाहिए क्योंकि पहले वाली बात अब नहीं रही। अब प्रोवाइड और रिसीव का समय चला गया, पार्टनरशिप का समय आ गया है और पत्नी काम पर जा सकती है तो पुरुष को भी किचन में जाने से परहेज नहीं होना चाहिए। मैं मानती हूं कि जो अपने पार्टनर को अपने व्यक्तिगत जीवन में सही दर्जा दे सके, वही पूर्ण पुरुष है।

पश्चिम में एक नया ट्रेंड आया है। रेडिकल हाउस वाइफ का,जहां हाउस वाइफ कह रही हैं कि हम भी काम करती हैं, जिसका हमें पैसा नहीं मिलता। जब तलाक की स्थिति आती है तो वे सारे साल कोर्ट की बहस में शामिल किए जाते हैं। अमेरिका के जैक वेल्च प्रकरण से हम सब अवगत हैं जो 8-10 साल पहले सामने आया था। पढ़ाई में भी अपने पति को सहयोग करने वाली पत्नी को तलाक के समय पति की संपत्ति का बड़ा हिस्सा मिला था।

आज समाज बदल रहा है, महिलाएं बदल रही हैं। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति, पारिवारिक मूल्य आदि को काफी झटका लगा है। अगर कोई इन बातों का ध्यान रखता है तो निश्चित रूप से उनकी नजर में कमिटमेंट का मूल्य है। आज यंग वुमन दो हिस्सों में बंटी हुई हैं। एक तरफ काम पर जाने वाली महिलाएं हैं तो दूसरी तरफ वो जो ट्रैडिशन-कमिटमेंट से बंधी हुई हैं। वह आधुनिकता और परंपरा को संतुलित करने में लगी हैं।

इस स्थिति में अपने आपको समझने में उसे बहुत समय लग जाता है। और कई सवाल खड़े हो जाते हैं। उनमें एक सवाल यह भी कि क्या वह समाज में स्वीकार्य है। आधुनिकता कहती है कि उपलब्धि हासिल करो और परंपरा कहती है कि उसका पार्टनर उससे अच्छा होना चाहिए। यानी हमारे मानक बहुत ऊंचे हो गए हैं जिस कारण अकेले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। पार्टनर से बढ़ रही उम्मीदें पूरा होना आसान नहीं।

वो चमत्कारी ही नहीं, एकमात्र सम्पूर्ण पुरुष हैं
विद्या बालन, फिल्म अभिनेत्री

नंदलाला भगवान कृष्ण की महिमा चमत्कारी है। उनके विराट रूप का वर्णन करना हम जैसे उनके असंख्य भक्तों के लिए संभव नहीं है। मैं इसका सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए कभी-कभी भगवद्गीता पढ़ लेती हूं। तब जीवन के कटु सच सहज ही मेरे रू-ब-रू हो जाते हैं। मैं उनके सारे गुणों की बात नहीं कर रही हूं, पर उनके कुछेक गुण की बात जाने दें, तो एक व्यक्ति के रूप में वे आदर्श हैं।

जीवन के हर दौर में उनका क्रियाकलाप एक उदाहरण बनकर सामने आता है। पुत्र, भाई, सखा, प्रेमी आदि अपने हर रूप में वे अतुलनीय हैं। अत्याचारी मामा कंस को मारकर उन्होंने अपने माता-पिता और जन्मभूमि के लोगों की रक्षा की। भाई बलराम के प्रति उनका स्नेह और सम्मान भाव-विभोर कर देता है। यही नहीं, द्रोपदी के मुंहबोले भाई के रूप में भी वे हमेशा याद रहते हैं। बाल सखा और घोर दरिद्र सुदामा के दर्द को उन्होंने जिस तरह से समझा वे मित्रता की एक अद्भुत मिसाल पेश करता है। गोपियों के साथ उनकी रासलीला या राधा के प्रति उनका गहरा लगाव उनके प्रेमी स्वभाव को व्यक्त करता है। पति के तौर पर भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। उनकी सहनशीलता भी एक प्रेरणा का काम करती है।

शिशुपाल की सौ गलतियों को उन्होंने क्षमा किया था। पांडव का साथ देकर उन्होंने न्याय का साथ दिया। उन्होंने मिथ्या का सहारा लिया, लेकिन सिर्फ जरूरतमंद की मदद और जुल्म का खात्मा करने के लिए। जीवन का सारा रस उन्होंने अपने अंदर समेट रखा था, पर उनके व्यक्तित्व में इसकी कोई अतिरंजना कहीं नजर नहीं आती है। श्री कृष्ण का रूप निराला है और उनके इसी व्यक्तित्व पर पूरी दुनिया मोहित है और मैं भी।


दिल से खूबसूरत और जिम्मेदार होना चाहिए
ऋचा व्यास, रेडियो
बात अगर पूर्ण पुरुष की, कि जाए, वह भी कृष्ण के संदर्भ में तो मेरी नजर में एक पूर्ण पुरुष को सबसे पहले दयालु होना चाहिए। उसमें इनसानियत होनी चाहिए। अगर उसके स्वभाव में दयालुता है तो वह अपनों के साथ-साथ दूसरों के प्रति दया रखेगा।

दूसरी बात, उसे बहादुर होना चाहिए। बहादुरी का मतलब यह नहीं कि वह अकेला ही चार-चार गुंडों से भिड़ जाए। मेरी नजर में उसमें हिम्मत होनी चाहिए, विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की। वह परिस्थितियों से घबराए नहीं बल्कि उनका सामना करे।

हिम्मत होना अच्छी बात है लेकिन अगर इसमें रोमानियत का साथ भी मिल जाए तो जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे आप तपती हुई धूप में लंबा सफर तय करके आ रहे हों और आपको अचानक से शीतल हवा का झोंका छू जाए और जिंदगी के नए मायने सिखा जाए। मेरा खयाल से रोमांटिक होना अच्छी बात है, इसलिए उसे रोमांटिक भी होना चाहिए। सिर्फ प्रेम करना ही जरूरी नहीं है, बल्कि उसका इजहार भी जरूरी है। आप जिससे प्यार करते हैं, उसे इसका एहसास होना भी जरूरी है कि कोई उसकी केयर भी करता है, उससे प्यार करता है और उसका, उसकी जिंदगी में होना खास मायने रखता है।
प्यार के साथ-साथ उसमें सेंस ऑफ ह्यूमर का होना भी जरूरी है, नहीं तो जिंदगी और प्यार के मायने बदलते देर नहीं लगती। इन सबसे बड़ी बात यदि पुरुष में या फिर कहें आपके साथी में जिम्मेदारी की भावना नहीं है तो उसकी सारी खूबियों को खामियों में बदलते देर नहीं लगती। जिम्मेदारी का एहसास इनसान को जीवन में न केवल ऊंचाइयों तक ले जाता है, बल्कि दूसरों के करीब भी ले जाता है।

एक बात और, इन सारी बातों के अलावा अगर वह गुड लुकिंग भी हो तो कोई बुरी बात नहीं है। मेरा मानना है कि तन के साथ-साथ मन की यानी कि दिल की खूबसूरती की होना भी बहुत जरूरी है। अगर ये सारी खूबियां एक पुरुष में हैं तो मेरी नजर में वह पूर्ण पुरुष है।


जो दूसरों को खुशियां दे वही है पूर्ण पुरुष
ममता खरब, (पूर्व कप्तान, भारतीय महिला हॉकी टीम)

इस संसार में हर शख्स का एक ही ध्येय होता है कि उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल जाएं। वह जिंदगी भर आनंद के सागर में डूबा रहे। व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, उसका एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि उसके जीवन में कभी किसी तरह की कोई परेशानी पैदा न हो। मनोविज्ञान के पितामह सिगमंड फ्राइड ने भी यही बात कही है। हर धर्म और दर्शन शास्त्र का उद्देश्य भी मानवजाति के लिए खुशी अर्जित करना है। हां, यहां व्यक्ति का खुद का व्यवहार भी बहुत मायने रखता है।

बेशक यहां भगवान कृष्ण का उदाहरण दिया जा सकता है। गीता के उपदेश भगवान कृष्ण के जीवन का सटीक उदाहरण हैं। गीता में कृष्ण के चरित्र का बखूबी वर्णन किया गया है। कृष्ण ने अपने जीवन में बेशक कितने भी छल-कपट किए हों लेकिन उनका उद्देश्य यही होता था कि सब खुश रहें। बावजूद इसके मेरे आइडियल कृष्ण नहीं हैं। मेरे आइडियल तो हैं भगत सिंह। भगत सिंह ने जीवनर्पयत स्ट्रगल किया है, अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों की खुशियों के लिए। उनका सबसे बड़ा त्याग तो यही था कि उन्होंने शादी नहीं की। देशभक्ति में सारा जीवन बिता दिया। जेल तक गए। जलियांवाला बाग कांड ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। उनके लिए देशप्रेम ही सब कुछ था। मेरे लिए तो भगत सिंह पूर्ण पुरुष हैं। जो दूसरों की खुशियों के बारे में सोचे वही पूर्ण पुरुष है।

मैं एक खिलाड़ी हूं। मैं भी अपने जीवन में एक ऐसा इंसान चाहूंगी जो कि सपोर्टिव हो। बड़े-बूढ़ों की इज्जत करे। मैं आगे खेलना चाहूं तो मेरी जरूरतों को समझे। इसके लिए एक-दूसरे में अच्छी समझ-बूझ का होना भी बहुत जरूरी है। समझ-समझ के समझ को समझे, समझ समझना भी एक समझ है। यह उक्ति एक पूर्ण पुरुष पर बिल्कुल सटीक बैठती है।