शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

प्रेम कहानी


तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी।
लाइब्रेरी में लड़का अपने सामने अखबार फैलाए बैठा था, मगर उसका सारा ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही था। सीढ़ियों पर जैसे ही किसी के आने की आहट होती, वह चौकन्ना होकर उधर देखने लगता। उसे पूरी उम्मीद थी, कि लड़की आएगी। दरअसल वह खुद ही तयशुदा वक्त से पंद्रह-बीस मिनट पहले आ गया था। आज तो लड़की को हर हालत में आना ही था, क्योंकि वह नौकरी ज्वॉइन करने दिल्ली जो जा रहा था।
यूँ इस कस्बे में उन दोनों की मुलाकातें न के बराबर ही हो पाती थीं। सारा दिन एक-दूसरे के लिए तड़पते रहने के बावजूद, वे दस-पंद्रह दिनों में एकाध बार, बस तीन-चार मिनट के लिए ही मिल पाते थे। इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान भी आमतौर पर उनमें आपस में कोई बात न हो पाती। उनकी बातचीत का माध्यम वे स्लिपें ही रह गई थीं, जो एक-दूसरे को लिखा करते थे। इन्हीं स्लिपों में वे अपनी सब भावनाएँ, अपने सब दर्द उड़ेल दिया करते थे। इन्हीं स्लिपों से तय होती थी, उनकी अगली मुलाकात की जगह और उसका वक्त।
दरअसल छोटे से इस कस्बे में लड़के-लड़की का आपस में बात करना इतना आसान नहीं था। बात तो कहीं न कहीं की जा सकती थी, पर बात करने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे कस्बे में फैलते देर नहीं लगती थी। कम उम्र के होने के बावजूद लड़के-लड़की में इतनी समझ थी, कि वे न तो अपनी और न अपने घर वालों की बदनामी होने देना चाहते थे। इसलिए जब भी वे आपस में मिलते तो यही कोशिश करते, कि बात न की जाए। हाँ, कभी-कभार मौका मिल जाने पर एकाध वाक्य का आदान-प्रदान हो जाया करता था।
लड़का अखबार सामने रखे अपने आसपास बैठे लोगों पर भी नजर रखे था। यह ध्यान रखना बेहद जरूरी था, कि उन लोगों में से उसकी जान-पहचान का कोई न हो। साथ ही इस बात का ख्याल रखना भी जरूरी था, कि वहाँ बैठे किसी आदमी को उस पर यह शक न हो जाए कि वह वहाँ अखबार पढ़ने के लिए नहीं बल्कि किसी और इरादे से आया है। एक समस्या और भी थी। सामने के, किताबों से भरी अलमारियों वाले, कमरे में लाइब्रेरियन के अलावा कई लोग मौजूद होते थे। उस कमरे में लोगों का आना-जाना भी लगा रहता था।
लड़के-लड़की की मुलाकात करीब एक साल पहले एक टाइपिंग क्लास में हुई थी। लड़के ने बीए करने के बाद नौकरी पाने के लिए कोई इम्तिहान दिया था और फिर टाइपिंग सीखने के लिए इस क्लास में आने लगा था। यहाँ आना शुरू करने के दूसरे-तीसरे दिन से उसने एक टाइपराइटर छोड़कर, अगले टाइपराइटर पर टाइप करती लड़की पर ध्यान देना शुरू किया था। वह भी टाइप करने दो से तीन बजे ही आया करती थी। हालाँकि वह एक छोटे कद की, साँवली सी, साधारण-सी लड़की थी, पर न जाने क्यों लड़के को वह बड़ी आकर्षक लगी थी। लगभग एक महीने तक साथ-साथ टाइप करते रहने के बावजूद उनके बीच सिर्फ एक बार बात हुई थी, जब लड़की ने लड़के से अपना टाइपराइटर थोड़ा-सा दूसरी तरफ खिसका लेने के लिए कहा था। यह बात जरूर थी कि टाइप करने के दौरान लड़का लड़की की तरफ नजरें उठाकर देख लिया करता था। इस तरह देखने के दौरान कभी-कभी लड़की भी लड़के की ओर देख लेती थी। हालाँकि लड़का बहुत चाहता था, कि लड़की से बात की जाए, पर ऐसा करने की हिम्मत अपने में पाता नहीं था। अलबत्ता उसने क्लास के रजिस्टर से यह जरूर जान लिया था, कि लड़की का नाम सपना था।
फिर अचानक लड़की टाइपिंग क्लास में दिखना बंद हो गई। दो-चार दिन तो लड़का यही सोचता रहा, कि कहीं बाहर गई होगी या बीमार होगी। मगर जब पूरे एक सप्ताह तक लड़की की शक्ल दिखाई न दी, तो उसने क्लास के रजिस्टर के जरिए पता लगाया, कि लड़की अब चार से पाँच के बीच वहाँ आती है। लड़के ने भी अपना वक्त बदलवाकर चार से पाँच करवा लिया। साथ ही अपना टाइपराइटर बदलवाकर लड़की के साथ वाला करवा लिया। अब वे दोनों पास-पास बैठकर टाइप करते।
तब धीरे-धीरे उनमें बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कस्बे के माहौल के हिसाब से कुछ ज्यादा बात तो की नहीं जा सकती थी। मगर करीब दस-बारह दिन बाद ही जब लड़के के एक दोस्त, विपिन ने उससे पूछा कि लगता है टाँका फिट हो गया है, तो वह सन्न-सा रह गया। अपने दोस्त की बात सुनकर लड़के को यह एकदम से समझ आ गया था, कि इस स्थिति को और ज्यादा खींचना ठीक नहीं है। उसने लड़की से बात करके अपना टाइपराइटर बदलवा लिया। अब वह उससे दूर बैठने लगा था। एक-दूसरे से बात करने का एक नया तरीका उन्होंने ढूँढ निकाला। वे छोटी-छोटी स्लिपों पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करके उन्हें किताब में रखकर एक-दूसरे को पकड़ा देते। मगर किताब के अंदर रखकर स्लिप देने का तरीका दो-चार दिन ही चल पाया। जल्दी ही लड़के-लड़की को यह भान हो गया कि ही रोज इस तरह किताबों का आदान-प्रदान करना ठीक नहीं। तब एक नया तरीका उन्होंने निकाला, कि पेन में निब वगैरह निकाल उस जगह में स्लिप रखकर एक-दूसरे को देने लगे। एक-दूसरे तक ऐसा 'पेन' पहुँचाना भी कोई आसान बात नहीं थी। इसके लिए किया यह जाता था, कि टाइप करते-करते दोनों में से कोई एक टाइप करने की सामग्री वाला कोई दूसरा गत्ता ढूँढते-ढूँढते दूसरे के पास जाता और चुपचाप पेन वहाँ रख देता।
लेकिन जल्दी ही लड़के को लगा कि उनके बीच उपजे संबंध की बात फैल रही है। ऐसा उसे तब लगा, जब टाइप क्लास के मालिक ने उसे चेतावनी दी, कि यहाँ यह सब नहीं चलेगा। तब लड़के ने लड़की से फिर बात की और अपना वक्त पाँच से छः बजे तक का करवा लिया।
अब उन दोनों के मिलने का तरीका बस यही रह गया था कि वह लड़की के, टाइप खत्म करके घर लौटने के, वक्त से कुछ पहले साइकल पर सवार होकर टाइपिंग क्लास की ओर निकल पड़ता। ऐसे में कभी-कभी वे एक-दूसरे को सड़क पर आते-जाते देख पाते। कभी एक-दो मिनट का हिसाब गड़बड़ा जाने पर, एक-दूसरे को देख पाना संभव न हो पाता। ऐसे में एक दूसरे से बात करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था।
फिर कुछ महीने बाद लड़की ने टाइप सीखना बंद कर दिया। शायद उसकी आर्थिक स्थिति इसका कारण थी- ऐसा लड़के को लगा था। लड़का हर रोज दोपहर के बाद लाइब्रेरी जाया करता था। एक दिन संयोग से या न जाने कैसे, लड़की उसे लाइब्रेरी में मिल गई। अब उन्हें आपस में मिलने की एक नई जगह मिल गई थी। उस कस्बे में तीन लाइब्रेरियाँ थीं, जो ज्यादा बड़ी नहीं थीं। इनमें से एक तो बिल्‍कुल ही छोटी थी- एक छोटे कमरे जितनी। अब लड़का, लड़की के घर पर चिट्ठी लिखता मधु के नाम से और लड़की, लड़के को चिट्ठी लिखती रमेश के नाम से। कोड शब्दों के जरिए मिलने की जगह, तारीख और समय तय कर लेते और इस तरह दस-पंद्रह दिनों में एक बार मिला करते। इन्हीं मुलाकातों में वे भावनाओं से लबालब अपनी-अपनी स्लिपें, किसी न किसी तरीके से एक-दूसरे को पकड़ा देते।
आज का मिलना भी इसी तरह एक चिट्टी के जरिए ही तय हुआ था, जो लड़के ने लिखी थी। लड़की की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह मान रहा था कि उसकी चिट्ठी लड़की को मिल गई हो। उसकी नजरें बार-बार अपनी कलाई घड़ी से टकराती। तयशुदा वक्त से पूरे सात मिनट ऊपर हो चुके थे। लड़का मायूस हो चुका था, कि अब लड़की नहीं आएगी। तभी हाथ में एक छोटा-सा लिफाफा पकड़े लड़की सीढ़ियों से प्रकट हुई। बैंच पर संयोगवश लड़के के पास वाली जगह खाली थी, जहाँ लड़की बैठ गई। आसपास इतने लोग बैठे थे कि बात करना बिलकुल असंभव लग रहा था। लड़के के दिल में तूफान-सा मच रहा था। वह लड़की से कम से कम कुछ तो कहना ही चाहता था, विदाई के शब्दों के तौर पर। पर लाइब्रेरी में जमे तल्लीनता से अखबार पढ़ रहे लोगों के बीच पसरी चुप्पी के होते, यह कतई संभव नहीं लग रहा था। लड़के ने कनखियों से लड़की की ओर देखा। वह भी अखबार सामने रखे हुए उसे पढ़ने का नाटक कर रही थी।
इसी उधेड़बुन में कई मिनट बीत गए। लड़का बड़ी बेचैनी-सी महसूस कर रहा था। इससे पहले ऐसे कई मौके आए थे, जब वे इस तरह लाइब्रेरी में मिले थे और आपस में उनकी कोई बात नहीं हो पाई थी, पर आज का दिन तो विशेष था। एक बार दिल्ली जाने के बाद फिर न जाने कब लड़के का वापस आना होता।
तभी अचानक लड़की मेज पर रखा लिफाफा, धीरे से उसकी तरफ खिसकाते हुए फुसफुसाई, 'आल दि बेस्ट!' ये शब्द सुनते ही आसपास बैठे तीन-चार लोगों के चेहरे एकदम से लड़की की ओर घूम गए, जो तब तक बैंच से उठकर सीढ़ियों की तरफ जा रही थी। संकोच, डर और घबराहट से लड़के का चेहरा पीला पड़ गया और उसके माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा। सीढ़ियों की तरफ जा रही लड़की को देख पाने का साहस जुटा पाना, उसके लिए संभव नहीं हो पाया। वह उसी तरह नजरें गड़ाए, अखबार पढ़ने का नाटक करता रहा।

हल्की भूरी आँखों का जादू
- अमर

अपने ऑफिस के कमरे में बैठा मैं हमेशा की तरह काम में मशगूल था। मुझे खनकती हँसी सुनाई दी, यह हँसी पहले तो इस ऑफिस में कभी भी नहीं सुनाई दी? आखिर किसकी हँसी है यह, छनकते घुँघरुओं सी? मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और केबिन खोलकर बाहर झाँकने पर मजबूर हो ही गया। देखा तो केबिन के सामने एक डेस्क छोड़कर ही वह बैठी थी, हल्की भूरी बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग, चेहरे पर बच्चों सा भोलापन। वह फोन पर किसी से बात कर रही थी। मुझे इस तरह देखता हुआ पाकर वह सहम गई। वह नई-नई नियुक्त हुई थी, फिर किसी न किसी काम को लेकर बातें होती रहीं।
एक दिन शाम को जाते-जाते उसका स्कूटर खराब हो गया, मैं भी निकल ही रहा था। मैंने मदद करने की बहुत कोशिश की पर स्कूटर ने चालू होना गवारा नहीं किया। मैंने उसे लिफ्ट का प्रस्ताव दिया और वह मान गई। मैं उसे लेकर उड़ चला।
बस उस दिन के बाद से हमारी दोस्ती ने उड़ान भरना शुरु कर दी। मुलाकातें शुरु हुई और फिर प्यार का इजहार हुआ। 21 फरवरी 1994 का वह दिन आज मुझे याद है जब हम दोनों ने पवित्र अग्नि के फेरे लिए। विवाह-बंधन ने हमारे प्रेम को मजबूती दी। मैं अपने आपको इस दुनिया का सबसे भाग्यशाली पुरुष मान रहा था, और बाद में भी यही हुआ। उसने मुझ पर अपनी सारी खुशियाँ कुर्बान कर दी और बदले में मैंने उसे कभी दुःख न देने का वादा किया। आज इतने वर्ष बीत गए लेकिन हमारा प्यार आज भी वही है, वैसा ही जैसा सालों पहले था।
कुछ समय से मैं काम में बहुत मसरूफ हो गया और समय नहीं निकाल पाया। उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा, कभी कोई शिकायत नहीं की। फिर भी मैं उसके मन के भावों को जान गया। वह कुछ उदास सी रहने लगी थी। मैंने ऑफिस से आठ दिन की छुट्टी के लिए आवेदन दिया और केरल का टूर बुक कराया। केरल की हरी-भरी खूबसूरती उसे बेहद भाती है, यह मुझे पता था। दो दिन पहले जब मैंने उसे यह बात बताई तो वह खुशी से उछल पड़ी। हम यात्रा पर चल पड़े, ट्रेन में खिड़की के पास बैठकर जब वह बाहर का नजारा देख रही थी तो मैं उसे देख रहा था। मैंने देखा उसकी बड़ी-बड़ी भूरी आँखों में बच्चों की सी चमक फिर से जिंदा हो उठी है।