अब गणपति की विदाई में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं। घर-घर में विराजे गणपति कल विदा होकर फिर अपने धाम चले जाएंगे। पीछे रह जाएगा एक सूनापन। लोग पूजन-अर्चनकर भगवान गणपति की प्रतिमा को नदी-तालाब और समंदर में विसर्जित कर देंगे। इस दौरान एक सवाल मन में उठता है कि प्रतिमाओं को पानी में ही क्यों बहाया जाता है? क्या इनकी विदाई का कोई और मार्ग नहीं है?
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भगवान बारह दिन और माता दुर्गा नौ दिन हमारे घर में रहती हैं। उत्सव के आखिरी दिन हम इनकी प्रतिमाओं को नदी, तालाब या किसी अन्य जलस्रोत में विसर्जित कर देते हैं। दरअसल यह एक परंपरा ही नहीं है, इसके पीछे बहुत बड़ी वैज्ञानिकता और दर्शन छिपा है। वास्तव में जल से सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और जल ही पूरी सृष्टि का मूल है। जल बुद्धि का प्रतीक है और गणपति इसके अधिपति हैं। प्रतिमाएं नदियों की मिट्टी से बनती है। हम अपनी शुद्ध बुद्धि से यह कल्पना करते हैं कि इसमें भगवान विराजित हैं। अंतिम दिन हम प्रतिमाओं को जल में इसी लिए विसर्जित कर देते हैं क्योंकि वे जल के किनारे की मिट्टी से बने हैं और हमारी श्रद्धा से ही उसमें परमात्मा विराजित है।
पानी को इस सृष्टि में सबसे पवित्र तत्व माना गया है क्योंकि उससे ही सबकी उत्पत्ति हुई है। पानी को ही ब्रह्मा भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को हम विसर्जित करते समय यही सोचते हैं कि भगवान अपने धाम को वापस को जा रहे हैं यानी प्रतिमा अपने वास्तविक स्थान परमात्मा से मिलने जा रही है।
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