शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

भागवत: १०६: क्या भगवान भी पक्षपात करते हैं?

अब सातवां स्कंध आरंभ होता है। छठवें स्कंध में हमने भगवान की पुष्टि लीला देखी। पुष्टि मतलब दया कृपा। अब सातवां स्कंध जब आरंभ हो रहा है तो इसमें तीन तरह की वासनाएं बताई गई हैं। परीक्षित प्रश्न पूछ रहे हैं - शुकदेवजी एक बात बताइए भगवान पक्षपात क्यों करते हैं? किसी को बहुत ऊंचा खड़ा कर देते हैं और किसी को नीचे गिरा देते हैं। किसी को मुक्त कर देते हैं, किसी को नर्क, किसी को स्वर्ग तो भगवान ऐसा पक्षपात क्यों करते हैं?
शिशुपाल को तो मुक्त कर दिया और वेन नाम के राजा को नर्क में पटक दिया। (वेन की कथा हम पहले पढ़ चुके हैं)। शिशुपाल ने भगवान को इतनी गालियां दी कि भगवान ने उसको सुदर्शन से मारा और मुक्त कर दिया। उसको मुक्ति प्रदान की जो भगवान को गाली दे रहा है। अब शुकदेवजी परीक्षितजी को कह रहे हैं कि परीक्षित आपने जो प्रश्न पूछा ऐसा ही एक प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से भी पूछा था। शुकदेवजी समझा रहे हैं। देखो एक बात समझ लो भगवान सिर्फ भाव के भूखे हैं। भगवान से यदि संबंध रखना है तो जिस भाव से आप रख रहे हैं उस भाव से आपको परिणाम मिलेगा। शिशुपाल ने शत्रु भाव रखा लेकिन वेन ने भगवान के प्रति कोई भाव ही नहीं रखा तो फिर भगवान ने कहा मैं इसे कैसे मुक्त करूं?
ये बहुत महत्वपूर्ण है किस भाव से भगवान को पूज रहे हैं। अब प्रह्लाद प्रसंग आ रहा है। हिरण्यकषिपु अहंकार का रूप है। और दूसरे जन्म में ये ही हिरण्यकष्यपु तथा असुर हिरण्याक्ष, विश्रवा पत्नी के उदर से रावण और कुंभकरण के रूप में उत्पन्न हुए और तृतीय जन्म में शिशुपाल और दंतवक्र बने। इस प्रकार इनके ये तीन जन्म थे और भगवान ने इनका वध किया। युधिष्ठिर ने पूछा कि हिरण्यकषिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद से द्वेष क्यों किया और राक्षस कुल में उत्पन्न होने पर भी प्रह्लाद का मन भगवान में किस प्रकार लग गया? इसके आगे की कथा हम कल पढेंग़े।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें