मंगलवार, 2 नवंबर 2010

भागवत: १०९: भक्ति करें तो प्रह्लाद की तरह

पिछले अंक में हमने पढ़ा जब हिरण्यकषिपु भगवान नारायण का नाम ले रहा था तभी प्रह्लाद कयाधु के गर्भ में आए। प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद जब आए सारा वातावरण दिव्य हो गया। प्रह्लाद पांच साल के हो गए। एक दिन हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि तू क्या बनना चाहता है ? प्रह्लाद ने कहा मैं भगवान नारायण का भक्त बनना चाहता हूं। यह सुनकर एकदम हिल गया हिरण्यकषिपु। दैत्यों के गुरु थे शुक्राचार्य। उन्होंने हिरण्यकषिपु से कहा भेजिए प्रह्लाद को हम सब संभाल लेंगे।

गुरु शुक्राचार्य के दो पुत्र थे षड और अमर्क उनको पीछे लगा दिया प्रह्लाद के। वे पढ़ाने लगे प्रह्लाद को। लेकिन फिर भी प्रह्लाद की भगवान के प्रति भक्ति कम नहीं हुई। एक दिन शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों ने प्रह्लाद को नारायण-नारायण का जाप करते सुन लिया तो उन्होंने सोचा कि अगर इसके पिता को सूचना मिल गई कि ये आश्रम में भी नारायण-नारायण बोलता है तो हमारी भी नौकरी जाएगी इसका जो होगा सो होगा। उन्होंने बोला तू नारायण-नारायण मत बोलना बाकी सब करना। प्रह्लाद ने कहा मन में बोलने लग जाऊंगा और क्या। एक दिन हिरण्यकषिपु ने कहा प्रह्लाद से कितना पढ़ा हैं। मैं जानना चाहता हूं। पिता ने गोद में बैठाया राजसिंहासन पर और प्रह्लाद से एक प्रश्न पूछा - बेटा, तूने क्या सीखा।
प्रह्लाद ने बोला जो मुझे गुरुजी ने सिखाया वो मैंने सीखा। उन्होंने बोला शस्त्र संचालन, हां। राजनीति, हां। शासन, हां। मंत्रियों का नियंत्रण वो भी सीखा। इधर गुरु ने कहा मैंने तो इसे इन सबके बारे में कुछ बताया ही नहीं तो इसने कहां से सीखा?प्रह्लाद ने बोला- भगवान नारायण ने सीखाया। हिरण्यकषिपु को गुस्सा आ गया। फिर भी प्यार से समझाया प्रह्लाद को कि तुझे ये नारायण का नाम लेना बंद करना पड़ेगा अन्यथा दंड मिलेगा। काफी समझाने के बाद भी जब प्रह्लाद भगवान का स्मरण करता रहा तो हिरण्यकषिपु के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। प्रहलाद को दंड देने की घोषणा की गई।

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