सोमवार, 15 नवंबर 2010

देश-विदेश के प्रबुद्ध भारतीय वर्ग की प्रतिक्रिया

अरुंधति राय, एक नाम जो इन दिनों विवाद का पर्याय बन गया है। एक लेखक जब अपने लेखकीय धर्म को भूलकर व्यक्तिगत प्रसिद्धि की लालसा पाल लेता है तब उसकी वाणी और लेखनी दिशाहीन होने लगती है। मात्र चर्चा में बने रहने की इच्छा के चलते वह यह भूल जाता है कि उसके पाठकों की उम्मीदें उससे क्या है, और लेखक होने के नाते खुद उसके अपने दायित्वबोध क्या है? राष्ट्रहित क्या है और देश के व्यापक संदर्भों में सार्वजनिक रूप से उसे कितना और कैसा बोलना चाहिए।

भारतीय मसलों पर बेबाकी से राय प्रकट करने से पहले अरुंधति राय को इतिहास के अलावा भारतीय संवेदनशीलता का ज्ञान हासिल करना भी आवश्यक है। अरुंधति के बयान पर देश के जानेमाने प्रबुद्धजनों की राय यही है। वेबदुनिया से बातचीत करते हुए कुछ लेखक तो अरुंधति से इतने नाराज नजर आए कि इस पर बात करना भी वे अपने समय की बर्बादी मानते हैं वहीं कुछ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज से अरुंधति के बयान को स्वाभाविक मानते हैं। पेश है पहली कड़ी :
मालती जोशी, वरिष्ठ लेखिका भोपाल : मैं सोचती हूँ कि किसी लेखक को ही नहीं किसी भारतीय को भी इस तरह का बयान नहीं देना चाहिए। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि वह ऐसा क्यों कर रही है? उसे कंट्रोवर्सी खड़ा करने में मजा आता है। एक लेखक ने यह बयान दिया इसलिए अधिक दुख है कोई साधारण व्यक्ति अगर ऐसा कहता तो बात को उतना वजन नहीं मिलता। और फिर मीडिया भी तो इस तरह की बयानबाजी को बढ़ावा देता है। कोई भी लेखक हो या सामान्य नागरिक भारतीय होने के नाते हमारा कुछ दायित्व है यह अरूंधति को नहीं भूलना चाहिए। और उसे ही क्यों हम सबको भी अपने देश की शांति के लिए इन बातों को याद रखना चाहिए।
विश्वनाथ सचदेव,वरिष्ठ पत्रकार, नई दिल्ली : एक नागरिक के रूप में संविधान हमें इस बात का हक देता है कि हम अपनी बात कहें। सवाल यह नहीं है अरुंधति ने जो कहा वह क्यों कहा, रास्ता यह है कि अगर हम उसके तर्कों से सहमत नहीं है तो उन तर्कों की आलोचना कर सकते हैं। उनकी राय से असहमत हुआ जा सकता हैं, मगर उनके अपने तर्क हैं जो मैं गलत नहीं मानता। यह उनकी निजी राय है आपको या किसी को पसंद नहीं तो मुकदमा लगा दीजिए उस पर, यह तो कोई बात नहीं कि लेखक होने के नाते वह कुछ कहे नहीं।
लेखक का काम अगर दिशा देना है, एक नई सोच देना है तो वह अरुंधति ने किया है अब वह दिशा सही है या सोच गलत है यह तय करने वाले हम कौन? हमारे पास विकल्प है कि हम उसे अस्वीकृत कर दे। नक्सलियों के समर्थन में भी वह एक अकेली नहीं बल्कि कई लेखक हैं इसी तरह कश्मीर भारत का अंग है या नहीं इस पर भी लेखकों की अलग-अलग राय है, हो सकती है। अरुंधति ने कह दिया बाकि कहते नहीं है।
तेजेन्द्र शर्मा,वरिष्ठ लेखक, लंदन :'अरुंधति राय की माओवादियों एवं कश्मीर की समस्या पर अपनी निजी राय है। माओवादियों की हिंसा का भी वह समर्थन करती हैं और कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानती हैं। अलगाववादियों की सोच का समर्थन करती हैं। मैं स्वयं लेखकीय स्वतंत्रता का पक्षधर हूँ। किसी भी तरह की सेंसरशिप के सख्त खिलाफ हूँ और किसी भी पुस्तक पर जब बैन लगाया जाता है मुझमें आक्रोश पैदा होता है। मगर मैं अरुंधति राय के व्यवहार को समझ नहीं पा रहा हूँ।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भी कोई सीमा होनी चाहिए। जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता देश की स्वतंत्रता के आड़े आने लगे तो सोचना तो पड़ेगा। अलगाववादी नेताओं के साथ एक ही मंच से उनका समर्थन करना कम से कम देशभक्ति तो नहीं कहला सकता। अरुंधति को सयंम से काम लेना चाहिए। अब उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए या नहीं, यह हम तय नहीं कर सकते। इसके लिए विधिवक्ता एवं न्यायविद मौजूद हैं। अरुंधति को ऐसे बेलगाम बयान देने से बचना चाहिए।
संजय पटेल, लोकप्रिय कलाकर्मी, इंदौर कश्मीर भारत का अविभाजित अंग है। वह हमारी साँसों में थिरकता है। हो सकता है कि हालात कुछ ऐसे हों कि वहाँ की अवाम भारत के बारे में अपनी निजी सोच रखती हो। यह एक संवेदनशील विषय है और इसके बारे में एक समर्थ लेखिका को इस तरह का उत्तेजक बयान सर्वथा नहीं देना चाहिए।
जब पूरा देश जानता हो कि आजादी के बाद से ही कश्मीर समस्या के समाधान के लिए विभिन्न प्रयास किए जा रहे हैं और उन्हें लगातार जारी भी रखना होगा तब बयान में निर्णायक उत्तेजना होना अनावश्यक लगती है। हम सब एक महान लोकतंत्र के नागरिक हैं और संविधान हमें अपने बात को कहने की पूरी आज़ादी भी देता है लेकिन अपनी बात को कितना नाप-तौल कर बोलना चाहिए ये तो हमें ही जानना और समझना चाहिए। कभी-कभी लगता है कि 'सेलिब्रिटी लेखक' खबरों में आने के लिए भी इस तरह के शिग़ूफे छोड़ते हैं जिनसे सहमति और सदभावना के सार्थक प्रयासों में चिंगारी भड़क सकती है।
राजशेखर व्यास, दूरदर्शन अधिकारी, नई दिल्ली : वैचारिक स्वतंत्रता का सरासर दुरूपयोग! कोई किसी से असहमत हैं तो असहमति पर सहमत हों कि हम दोनों एक-दूसरे से असहमत हैं। वॉल्टेयर ने कहा था मैं आपसे असहमत हो सकता हूँ पर बोलने की आपकी स्वतंत्रता आपसे छीन नहीं सकता। शायद इसी का नाम लोकतंत्र हो। पर यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
मालती देसाई, लेखिका,अमेरिका : जब मैंने यह खबर सुनी तो शॉक्ड रह गई। कोई लेखक कैसे इस तरह की बात कह सकता है? चाणक्य की एक बात याद आ रही है, 'एक ईमानदार और सच्चा देशभक्त कभी बुरे लोगों का समर्थन नहीं करता। लेखक देश के सैनिक होते हैं। कलम के सिपाही होते हैं। इतनी जानीमानी लेखिका का ऐसी 'बिकाऊ' बातें करना अशोभनीय है।

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