शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

केवल सुख से नहीं मिलता सुकून

दुख कोई नहीं चाहता इसीलिए सुख के पीछे हर कोई भाग रहा है। दुख मिलता है तो पीड़ा होती है लेकिन सुख मिलने पर सुकून मिल जाए यह जरूरी नहीं होता। सुख की भी अपनी पीड़ा होती है और अध्यात्म समझाता है पीड़ा का भी अपना सुख होता है।

आज महाभारत के एक पात्र से मुलाकात की जाए जिनका नाम है भीष्म। इनका सारा जीवन सुख की पीड़ा और पीड़ा के सुख के बीच में बीता। दोनों ही स्थितियों में इस व्यक्तित्व ने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। ऊपर से भीष्म जितने सांसारिक दिखते थे भीतर से उतने ही आध्यात्मिक थे। वे राजगादी से जुड़े हुए नजर आते थे लेकिन उनकी दृष्टि परम् पद पर टिकी हुई थी। स्वयं राजा थे, कई राजाओं को बनाने और बिगाडऩे वाले थे। वे यह जानते थे कि च्च्वो एक शख्स जो तुझसे पहले तख्त नशीं था उसको भी अपने खुदा होने का उतना ही यकीं थाज्ज् न तख्त रहते हैं न ताज, बड़े-बड़े राजा आम आदमी की तरह दुनिया से चले जाते हैं। भीष्म के पास सारे सुख थे पर उतनी ही पीड़ा भी थी। वे दुर्योधन को नियंत्रण में नहीं रख पाए। कुरुवंश की नई पीढ़ी उन्हीं के सामने अमर्यादित हो गई। यह सुख की पीड़ा है।
इसी में से उन्होंने पीड़ा का सुख भी उठाया। भीष्म ने हमें अपने चरित्र से बताया है कि मनुष्य छिपा हुआ परमात्मा है। एक तरह से परमात्मा का बीज है मनुष्य। परमात्मा खिला हुआ परमात्मा है और मनुष्य अधखिला हुआ परमात्मा है। हर एक के भीतर परमात्मा है बस च्च्मैंज्ज् हटाओ और ईश्वर प्रकट हो जाएगा। सुख की पीड़ा तो उन्होंने बहुत देखी थी। जब अंतिम समय वे शरशैया पर थे तो उनकी मृत्यु की गवाही देने श्रीकृष्ण स्वयं उपस्थित हुए थे। यह पीड़ा का सुख था। चाहें तो हम भी इस सुख को उठा सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें