औरतों के लिए अभी तक नहीं बदली सोच...
धर्म, शास्त्रों में व्यक्त अनेक प्रसंगों और परिभाषाओं में स्त्री-पुरुष का भेद बताया गया है लेकिन अध्यात्म तक आते-आते यह भेद समाप्त हो जाता है। बल्कि अध्यात्म में तो भक्ति के लिए स्त्रैण चित्त को श्रेष्ठ बताया है। परमात्मा को पाने के मामले में नारियां पुरुषों से आगे हैं। अध्यात्म की घोषणा है पुरुष के जीवन में भक्ति तभी उतरेगी जब उसका चित्त स्त्रैण चित्त जागेगा।
संसार भर में भक्ति, साहित्य, धर्म की व्याख्या भले ही पुरुषों द्वारा लिखा गया है लेकिन जीया स्त्रीयों ने ही है। भागवत में प्रसंग आया है कि जब मनु और शतरूपा को परमात्मा ने आशीर्वाद दिया कि वे मैथुनी सृष्टि से संतान पैदा करें तो उन्हें जो पहली जो पांच संतानें पैदा हुई उसमें से तीन कन्याएं थीं आकूती, देवहूती और प्रसूति। संतों का मत है कि संसार की तीन पहली संतानें कन्याएं हुईं, इसलिए स्त्रियों को दोयम दर्जा मानना किसी भी धर्म की दृष्टि से बुद्धिमानी नहीं है। ये लोक परंपराएं, जनसुविधाएं और अहंकार के परिणाम हैं।
हिन्दुओं में दो प्रमुख अवतार हुए हैं और दोनों ने ही नारियों को मान्यताएं दी हैं। दूसरे धर्मों में भी जो देवपुरुष हुए उन्होंने स्त्रियों की प्रतिष्ठा को प्रथम ही रखा है। श्रीराम ने अपनेअवतार काल में गिने-चुने अवसरों पर दार्शनिक व्याख्यान दिए हैं। राम मौन का जादू जानते थे इसलिए कम ही बोले लेकिन नौ प्रकार की भक्ति पर उन्होंने जो अपना दार्शनिक व्याख्यान दिया है उसके लिए एक नारी पात्र को चुना और वह थीं शबरी। इसी तरह वृंदावन में श्रीकृष्ण ने स्त्रियों को अत्यधिक मान दिया है। डॉ. लोहिया ने एक जगह लिखा है नारी यदि नर के समकक्ष हुई है तो व्रज में हुई है।
जब-जब हमारे जीवन में प्रेम है, तब तक अहंकार और वासनाओं से हम मुक्त हैं। हर धर्म यही कहता है और प्रेम के रहते हुए कोई दोयम कैसे हो सकता है फिर मातृशक्ति के लिए तो दोयम दर्जे का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए।
धर्म, शास्त्रों में व्यक्त अनेक प्रसंगों और परिभाषाओं में स्त्री-पुरुष का भेद बताया गया है लेकिन अध्यात्म तक आते-आते यह भेद समाप्त हो जाता है। बल्कि अध्यात्म में तो भक्ति के लिए स्त्रैण चित्त को श्रेष्ठ बताया है। परमात्मा को पाने के मामले में नारियां पुरुषों से आगे हैं। अध्यात्म की घोषणा है पुरुष के जीवन में भक्ति तभी उतरेगी जब उसका चित्त स्त्रैण चित्त जागेगा।
संसार भर में भक्ति, साहित्य, धर्म की व्याख्या भले ही पुरुषों द्वारा लिखा गया है लेकिन जीया स्त्रीयों ने ही है। भागवत में प्रसंग आया है कि जब मनु और शतरूपा को परमात्मा ने आशीर्वाद दिया कि वे मैथुनी सृष्टि से संतान पैदा करें तो उन्हें जो पहली जो पांच संतानें पैदा हुई उसमें से तीन कन्याएं थीं आकूती, देवहूती और प्रसूति। संतों का मत है कि संसार की तीन पहली संतानें कन्याएं हुईं, इसलिए स्त्रियों को दोयम दर्जा मानना किसी भी धर्म की दृष्टि से बुद्धिमानी नहीं है। ये लोक परंपराएं, जनसुविधाएं और अहंकार के परिणाम हैं।
हिन्दुओं में दो प्रमुख अवतार हुए हैं और दोनों ने ही नारियों को मान्यताएं दी हैं। दूसरे धर्मों में भी जो देवपुरुष हुए उन्होंने स्त्रियों की प्रतिष्ठा को प्रथम ही रखा है। श्रीराम ने अपनेअवतार काल में गिने-चुने अवसरों पर दार्शनिक व्याख्यान दिए हैं। राम मौन का जादू जानते थे इसलिए कम ही बोले लेकिन नौ प्रकार की भक्ति पर उन्होंने जो अपना दार्शनिक व्याख्यान दिया है उसके लिए एक नारी पात्र को चुना और वह थीं शबरी। इसी तरह वृंदावन में श्रीकृष्ण ने स्त्रियों को अत्यधिक मान दिया है। डॉ. लोहिया ने एक जगह लिखा है नारी यदि नर के समकक्ष हुई है तो व्रज में हुई है।
जब-जब हमारे जीवन में प्रेम है, तब तक अहंकार और वासनाओं से हम मुक्त हैं। हर धर्म यही कहता है और प्रेम के रहते हुए कोई दोयम कैसे हो सकता है फिर मातृशक्ति के लिए तो दोयम दर्जे का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए।
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