मंगलवार, 29 मार्च 2011

भागवत २१८ : शांति चाहिए तो.....

कंस के मारे जाने पर सारे मथुरावासी तो सुखी है लेकिन कंस की पत्नियां दुखी थी। अपने पति की मौत से दुखी थी तब उनकी दोनों पत्नियों का दुख उनके पिता जरासंध से देखा नहीं गया। उन्होंने मथुरा को आक्रमण करने के लिए चारों तरफ से घेर लिया।
अब आगे... भगवान श्रीकृष्ण ने देखा-जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं।
भगवान ने विचार किया कि अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत सी सेना लाएगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल्का कर दूं, साधु-सज्जनों की रक्षा करूं और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्मरक्षा के लिए और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिए मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूं।कृ्ष्ण दिग्दृष्टा थे वे दूर की सोचते थे। क्षणिक आवेश उनका स्वभाव ही नहीं था। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में शांति को सबसे ज्यादा महत्व दिया। शांति किसी भी मोल मिले, सस्ती ही है। हम जीवनभर जिस सुख की तलाश में भटकते हैं, वह खोज अंतत: शांति पर ही आकर टिकती है।
हर युद्ध के पहले कृष्ण ने किसी न किसी तरह से शांति का महत्व बताया है। शांति तभी मिलती है जब सारे विकार मिट जाएं। भगवान सारे विकारों को मिटाने के लिए जरासंध को हर बार जिन्दा छोड़ देते हैं, ताकि ये फिर अपने बचे-खुचे साथियों को जोड़कर लाए।उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिए हुए थे और छोटी सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हांक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांच्यजन्य शंख बजाया। उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों के हृदय डर के मारे थर्रा उठे।

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