छेंगा और नौगांग दो भाई थे। दोनों एक सराय में रहते थे। सराय के मालिक ने ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था। दोनों भाई मालिक को पिता समान मानते और उसके काम में हाथ बंटाते थे। एक दिन अचानक सराय का मालिक बीमार हो गया। तबीयत •यादा बिगड़ने की वजह से उसकी मृत्यु हो गई। पिता समान मालिक को खोने का गम दोनों भाइयों को था। उस समय दोनों की उम्र दस-बारह साल थी। छेंगा क्योंकि उम्र में बड़ा था इसलिए, उसने ही सराय का काम सम्भालना शुरू कर दिया। छेंगा अब रोज़ सुबह उठता, आग जलाता, चाय बनाकर यात्रियों को पिलाता, साफ-सफाई करता।
बस किसी तरह दिन गुज़र रहे थे। गर्मी और सर्दी के मौसम में तो यात्रियों का आना-जाना लगा रहता, पर बरसात के मौसम में यात्री बिलकुल नहीं आते थे। बरसात के दिनों में गुज़ारा करना दोनों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता। बरसात के मौसम में एक दिन दोनों भाई भूखे बैठे सोच रहे थे, ‘हमें इन दिनों के लिए कुछ धन बचाकर रखना चाहिए था, पर बचाने के लिए काम क्या करें?’ छेंगा ने नौगांग से कहा, ‘क्यों न हम सराय में ठहरने वालों के लिए खाना बना दिया करें। ऐसा करने से हमारे पास •यादा पैसा आएगा, जिसमें से कुछ पैसे हम बरसात के दिनों के लिए बचा सकते हैं।’
छेंगा की तरकीब नौगांग को पसंद आई। मौसम बदलते ही, उन्होंने व्यापारियों व अन्य यात्रियों के लिए खाने की व्यवस्था भी कर ली। छेंगा सराय का सब काम करता और नौगांग नदी से मछलियां पकड़ लाता। छेंगा के हाथ का भात और माछेर झोल यात्री शौक से खाते। अब सराय आराम पहुंचाने वाले घर की तरह हो गई थी। यात्री वहां कई-कई दिन रुकने लगे। दोनों भाई मन लगाकर लोगों की सेवा करते। इस तरह उनके पास खूब पैसा जमा होने लगा। एक दिन सराय में एक गरीब बुज़ुर्ग महिला आई। उसने छेंगा से कुछ खाने को मांगा। छेंगा दयालू तो था ही, उसने बिना किसी टालमटोल के बुज़ुर्ग महिला को भरपेट खाने को दे दिया। खा-पीकर बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया।
बुज़र्ग महिला की आंखों में आंसू देख छेंगा ने पूछा, ‘क्या बात है अम्मा? क्यों रो रही हो?’ बुज़र्ग महिला ने बताया कि उसका एक बेटा था, जो उसका बहुत ध्यान रखता था। कुछ साल पहले वह कहीं खो गया। वह उसी को ढ़ूंढती फिर रही है। छेंगा को देखकर उसे अपने बेटे की याद आ गई थी। छेंगा और नौगांग, दोनों भाई उसकी बातें सुनकर दुखी हो गए। उन्होंने बुज़र्ग महिला को कहा, ‘अम्मा, तुम चाहो तो हमारे साथ रहो, मन करे तो कभी-कभी हमारे काम में हाथ बंटा देना।’
बस अब बुज़र्ग महिला भी उन्हीं के साथ सराय में रहने लगी। वह कभी-कभी साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम कर लेती। दोनों भाइयों ने भी अम्मा का खूब ध्यान रखा। समय पर पेटभर भोजन मिलने से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया था। बुज़ुर्ग महिला के दिन आराम से कटने लगे। अब उसकी नीयत में खोट आने लगा। वह सराय के रख-रखाव और अन्य कामों में दखल देने लगी। वह छेंगा को सिखाती कि जब व्यापारी खा-पीकर सो जाते हैं, तो उनका कुछ न कुछ सामान चोरी कर लिया करो या मछली के टुकड़े और छोटे कर दिया करो।
उसकी ये बातें न छेंगा को पसंद आतीं, न नौगांग को। दोनों भाई उससे परेशान भी होते, पर उसे जाने के लिए भी तो नहीं कह सकते थे न। बुज़ुर्ग महिला चाहती थी कि किसी तरह सराय और उससे होने वाली आय पर उसका कब्ज़ा हो जाए। पर दोनों भाइयों के आपसी प्यार के आगे उसकी एक न चलती। अब उसने उन दोनों भाइयों के बीच फूट डालने की योजना बनाई।
एक दिन सराय में कुछ नए व्यापारी आए। इस व्यापारी दल को बहुत ज़्यादा फायदा हुआ था। खा-पीकर उन सभी ने अपना-अपना धन खोलकर हिसाब लगाना शुरू किया। छेंगा जो उनकी सेवा में लगा था, उसने इतने सारे चांदी के सिक्के पहले कभी नहीं देखे थे। बस, बाहर खड़े-खड़े उनकी खन-खन की आवाज़ ही सुनी थी। यह यात्री दल कई दिन सराय में रुका। छेंगा और नौगांग ने उनकी बहुत सेवा की। जाते समय दल के प्रमुख ने छेंगा को पांच चांदी के सिक्के दिए। छेंगा खुशी से फूला न समाया। नौगांग जब बाहर से लौटा, तो उसने सिक्के उसके हाथ में रख दिए। छोटा भाई भी उन चमचमाते सिक्कों को देखकर खुश हो गया। बुज़ुर्ग महिला ने भी सिक्कों को हाथ में लेकर देखा।
एक दिन जब छेंगा रसोई के काम में लगा था, अम्मा नौगांग के पास आई। कुछ देर इधर-उधर की बात कर बोली, ‘मज़े तो छेंगा के हैं। दिन भर घर में आराम करता है और सिक्के भी पाता है।’
‘सराय में भी तो बहुत काम है, वह सब भी तो वही करता है’ नौगांग ने अम्मा की बात काटते हुए कहा।
‘फिर भी बेटा तेरा काम तो बाहर का है। चाहे धूप हो या बरखा, देख तो चेहरा कैसे मुरझा गया है’ कहते हुए अम्मा ने नौगांग की पीठ पर हाथ फेरा।
नौगांग धीरे-धीरे बुढ़िया की चुलबुली बातों में आने लगा। उसे लगने लगा कि भाई ने वाकई उसके साथ बुरा व्यवहार किया है। रात को खाना खाते समय नौगांग ने छेंगा से कहा, ‘भाई, मैं रोज़ मछली पकड़ने के काम से ऊब गया हूं, अब कुछ दिन सराय का काम मैं करता हूं, तुम मछलियां पकड़ लाना।’
छेंगा ने कहा, ‘सराय का काम तो बहुत •यादा है, तुझसे सम्भलेगा नहीं। ऐसा कर, तू कुछ दिन आराम कर ले। हम यात्रियों को साग-भाजी ही खिला देंगे।’
‘नहीं भैया, तबीयत तो ठीक है, मैं तो सराय में काम करना चाहता हूं।’
कुछ देर मना करने के बाद छेंगा तैयार हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह छेंगा मछली पकड़ने का सामान लेकर नदी की ओर चल दिया। उधर नौगांग ने आग जलाई और चाय का पानी चढ़ा दिया। नौगांग ने इससे पहले इतनी •यादा चाय कभी नहीं बनाई थी। इसलिए चाय काली और बेस्वाद बनी थी। यात्रियों ने चाय पीने के बजाय फेंक दी। उदास नौगांग रसोई में चला आया। उसने बड़े बर्तन में चावल डाले और आंच पर चढ़ा दिए। इधर सराय के यात्रियों में कोई किसी चीज़ की फरमाइश करता, तो कोई कुछ मांगता। दौड़ने-भागने के बाद जब ज़रा-सी राहत हुई, तो नौगांग को रसोई में पक रहे भात की याद आई। अभी तो माछेर झोल व कई अन्य चीज़ें भी बनानी थीं। वह दौड़ा हुआ रसोई में आया तो देखा कि सारा भात जलकर काला हो गया था।
वह अपना सिर पकड़कर बैठ गया। अब वह भी क्या कर सकता था। तभी सब यात्रियों ने अपने-अपने असबाब बांध लिए और भोजन मांगने लगे। जब उन्हें रसोई में जले भात की गंध आई, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा। उन्होंने पहले तो नौगांग को अच्छी चपत लगाई और फिर उसके हाथ बांधकर अपने साथ ले गए। बुज़ुर्ग महिला तो बस देखती ही रह गई।
नौगांग चलता जाता और भाई को पुकारता जाता। छेंगा नदी किनारे बैठा मछलियां पकड़ रहा था। उसने अपने भाई की आवाज़ सुनी तो दौड़ पड़ा। कुछ दूर आकर उसने मछलियां एक चादर में बांध दीं और घने पेड़ की ऊंची डाल पर लटका दी। दूर से ही उसने देखा कि यात्रियों ने नौगांग के हाथ बांध रखे हैं। रोता-रोता वहा भाई को पुकार रहा है। जल्दी-जल्दी चलकर वह यात्रियों के दल तक पहुंचा। मुखिया ने उसे सारी बात कह सुनाई। मुखिया की बत सुनकर छेंगा बोला, ‘आपके पास चावल हों तो दीजिए, मैं कुछ देर में सबको पकाकर खिला दूंगा।’
मुखिया ने तुरंत घोड़े पर से चावल का बोरा और बर्तन उतरवा दिए। छेंगा ने पत्थर जोड़कर चूल्हा बनाया और भात पकाने रख दिया। जैसे-जैसे भात की खुशबू फैलने लगी यात्रियों की भूख और भड़कने लगी। तभी छेंगा ने मुखिया से कहा, ‘यहां से कुछ ही दूर जाने पर एक मछली का पेड़ है। उस पर ताज़ी मछलियां लगी होंगी।
‘मछली का भी कोई पेड़ होता है?’ मुखिया उसकी बेवकूफी वाली बात पर हंस पड़ा। सब उसका मज़ाक उड़ाने लगे। छेंगा ने कहा, ‘आप में से कुछ लोग मेरे साथ चलें। मैं अभी ताज़ी मछलियां तोड़ लाता हूं। मुखिया को उसकी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं हो रहा था। वह बोला, ‘अगर तुम पेड़ से मछलियां उतारकर दिखाओ तो जो तुम चाहोगे, तुम्हें दूंगा।’ ‘मुझे ज़्यादा कुछ नहीं, मेरा भाई वापिस चाहिए और हो सके तो दो थैलियां चांदी के सिक्के भी दे देना’ छेंगा ने कहा। अब सभी यात्री उसके साथ चल दिए। पेड़ के पास पहुंचे तो देखा कि पेड़ बहुत ऊंचा था। उस पर चढ़ने का साहस किसी को न हुआ। इसलिए बाद में छेंगा ही पेड़ पर चढ़ा। पत्तों के झुरमुट में छिपी पोटली निकालकर वह एक-एक मछली को इधर-उधर गिराने लगा। यात्री दौड़-दौड़ कर मछलियां उठाते।
छेंगा पेड़ से ही बड़बड़ा रहा था, ‘जब दादाजी जीवित थे, तब यह पेड़ खूब फला करता था। अब तो सिर्फ ऊंची टहनियों पर ही मछलियां मिल पाती हैं।’
जब वह नीचे उतरा तो सभी ने उसकी पीठ थपथपाई। उसके बाद छेंगा ने माछेर-झोल भात पकाया। सभी के साथ भूख से बेहाल नौगांग ने भी भरपेट खाया।
जाते समय मुखिया ने शर्त के अनुसार उसे दो थैली सिक्के और उसका प्यारा भाई सौंप दिया।
दोनों भाई खुशी-खुशी घर आ गए। बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को साथ देखकर अपनी भूल स्वीकर कर ली। छेंगा और नौगांग ने उसे क्षमा कर दिया।
बस किसी तरह दिन गुज़र रहे थे। गर्मी और सर्दी के मौसम में तो यात्रियों का आना-जाना लगा रहता, पर बरसात के मौसम में यात्री बिलकुल नहीं आते थे। बरसात के दिनों में गुज़ारा करना दोनों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता। बरसात के मौसम में एक दिन दोनों भाई भूखे बैठे सोच रहे थे, ‘हमें इन दिनों के लिए कुछ धन बचाकर रखना चाहिए था, पर बचाने के लिए काम क्या करें?’ छेंगा ने नौगांग से कहा, ‘क्यों न हम सराय में ठहरने वालों के लिए खाना बना दिया करें। ऐसा करने से हमारे पास •यादा पैसा आएगा, जिसमें से कुछ पैसे हम बरसात के दिनों के लिए बचा सकते हैं।’
छेंगा की तरकीब नौगांग को पसंद आई। मौसम बदलते ही, उन्होंने व्यापारियों व अन्य यात्रियों के लिए खाने की व्यवस्था भी कर ली। छेंगा सराय का सब काम करता और नौगांग नदी से मछलियां पकड़ लाता। छेंगा के हाथ का भात और माछेर झोल यात्री शौक से खाते। अब सराय आराम पहुंचाने वाले घर की तरह हो गई थी। यात्री वहां कई-कई दिन रुकने लगे। दोनों भाई मन लगाकर लोगों की सेवा करते। इस तरह उनके पास खूब पैसा जमा होने लगा। एक दिन सराय में एक गरीब बुज़ुर्ग महिला आई। उसने छेंगा से कुछ खाने को मांगा। छेंगा दयालू तो था ही, उसने बिना किसी टालमटोल के बुज़ुर्ग महिला को भरपेट खाने को दे दिया। खा-पीकर बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया।
बुज़र्ग महिला की आंखों में आंसू देख छेंगा ने पूछा, ‘क्या बात है अम्मा? क्यों रो रही हो?’ बुज़र्ग महिला ने बताया कि उसका एक बेटा था, जो उसका बहुत ध्यान रखता था। कुछ साल पहले वह कहीं खो गया। वह उसी को ढ़ूंढती फिर रही है। छेंगा को देखकर उसे अपने बेटे की याद आ गई थी। छेंगा और नौगांग, दोनों भाई उसकी बातें सुनकर दुखी हो गए। उन्होंने बुज़र्ग महिला को कहा, ‘अम्मा, तुम चाहो तो हमारे साथ रहो, मन करे तो कभी-कभी हमारे काम में हाथ बंटा देना।’
बस अब बुज़र्ग महिला भी उन्हीं के साथ सराय में रहने लगी। वह कभी-कभी साफ-सफाई और बर्तन धोने का काम कर लेती। दोनों भाइयों ने भी अम्मा का खूब ध्यान रखा। समय पर पेटभर भोजन मिलने से उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया था। बुज़ुर्ग महिला के दिन आराम से कटने लगे। अब उसकी नीयत में खोट आने लगा। वह सराय के रख-रखाव और अन्य कामों में दखल देने लगी। वह छेंगा को सिखाती कि जब व्यापारी खा-पीकर सो जाते हैं, तो उनका कुछ न कुछ सामान चोरी कर लिया करो या मछली के टुकड़े और छोटे कर दिया करो।
उसकी ये बातें न छेंगा को पसंद आतीं, न नौगांग को। दोनों भाई उससे परेशान भी होते, पर उसे जाने के लिए भी तो नहीं कह सकते थे न। बुज़ुर्ग महिला चाहती थी कि किसी तरह सराय और उससे होने वाली आय पर उसका कब्ज़ा हो जाए। पर दोनों भाइयों के आपसी प्यार के आगे उसकी एक न चलती। अब उसने उन दोनों भाइयों के बीच फूट डालने की योजना बनाई।
एक दिन सराय में कुछ नए व्यापारी आए। इस व्यापारी दल को बहुत ज़्यादा फायदा हुआ था। खा-पीकर उन सभी ने अपना-अपना धन खोलकर हिसाब लगाना शुरू किया। छेंगा जो उनकी सेवा में लगा था, उसने इतने सारे चांदी के सिक्के पहले कभी नहीं देखे थे। बस, बाहर खड़े-खड़े उनकी खन-खन की आवाज़ ही सुनी थी। यह यात्री दल कई दिन सराय में रुका। छेंगा और नौगांग ने उनकी बहुत सेवा की। जाते समय दल के प्रमुख ने छेंगा को पांच चांदी के सिक्के दिए। छेंगा खुशी से फूला न समाया। नौगांग जब बाहर से लौटा, तो उसने सिक्के उसके हाथ में रख दिए। छोटा भाई भी उन चमचमाते सिक्कों को देखकर खुश हो गया। बुज़ुर्ग महिला ने भी सिक्कों को हाथ में लेकर देखा।
एक दिन जब छेंगा रसोई के काम में लगा था, अम्मा नौगांग के पास आई। कुछ देर इधर-उधर की बात कर बोली, ‘मज़े तो छेंगा के हैं। दिन भर घर में आराम करता है और सिक्के भी पाता है।’
‘सराय में भी तो बहुत काम है, वह सब भी तो वही करता है’ नौगांग ने अम्मा की बात काटते हुए कहा।
‘फिर भी बेटा तेरा काम तो बाहर का है। चाहे धूप हो या बरखा, देख तो चेहरा कैसे मुरझा गया है’ कहते हुए अम्मा ने नौगांग की पीठ पर हाथ फेरा।
नौगांग धीरे-धीरे बुढ़िया की चुलबुली बातों में आने लगा। उसे लगने लगा कि भाई ने वाकई उसके साथ बुरा व्यवहार किया है। रात को खाना खाते समय नौगांग ने छेंगा से कहा, ‘भाई, मैं रोज़ मछली पकड़ने के काम से ऊब गया हूं, अब कुछ दिन सराय का काम मैं करता हूं, तुम मछलियां पकड़ लाना।’
छेंगा ने कहा, ‘सराय का काम तो बहुत •यादा है, तुझसे सम्भलेगा नहीं। ऐसा कर, तू कुछ दिन आराम कर ले। हम यात्रियों को साग-भाजी ही खिला देंगे।’
‘नहीं भैया, तबीयत तो ठीक है, मैं तो सराय में काम करना चाहता हूं।’
कुछ देर मना करने के बाद छेंगा तैयार हो गया। अगले दिन सुबह-सुबह छेंगा मछली पकड़ने का सामान लेकर नदी की ओर चल दिया। उधर नौगांग ने आग जलाई और चाय का पानी चढ़ा दिया। नौगांग ने इससे पहले इतनी •यादा चाय कभी नहीं बनाई थी। इसलिए चाय काली और बेस्वाद बनी थी। यात्रियों ने चाय पीने के बजाय फेंक दी। उदास नौगांग रसोई में चला आया। उसने बड़े बर्तन में चावल डाले और आंच पर चढ़ा दिए। इधर सराय के यात्रियों में कोई किसी चीज़ की फरमाइश करता, तो कोई कुछ मांगता। दौड़ने-भागने के बाद जब ज़रा-सी राहत हुई, तो नौगांग को रसोई में पक रहे भात की याद आई। अभी तो माछेर झोल व कई अन्य चीज़ें भी बनानी थीं। वह दौड़ा हुआ रसोई में आया तो देखा कि सारा भात जलकर काला हो गया था।
वह अपना सिर पकड़कर बैठ गया। अब वह भी क्या कर सकता था। तभी सब यात्रियों ने अपने-अपने असबाब बांध लिए और भोजन मांगने लगे। जब उन्हें रसोई में जले भात की गंध आई, तो उनका गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा। उन्होंने पहले तो नौगांग को अच्छी चपत लगाई और फिर उसके हाथ बांधकर अपने साथ ले गए। बुज़ुर्ग महिला तो बस देखती ही रह गई।
नौगांग चलता जाता और भाई को पुकारता जाता। छेंगा नदी किनारे बैठा मछलियां पकड़ रहा था। उसने अपने भाई की आवाज़ सुनी तो दौड़ पड़ा। कुछ दूर आकर उसने मछलियां एक चादर में बांध दीं और घने पेड़ की ऊंची डाल पर लटका दी। दूर से ही उसने देखा कि यात्रियों ने नौगांग के हाथ बांध रखे हैं। रोता-रोता वहा भाई को पुकार रहा है। जल्दी-जल्दी चलकर वह यात्रियों के दल तक पहुंचा। मुखिया ने उसे सारी बात कह सुनाई। मुखिया की बत सुनकर छेंगा बोला, ‘आपके पास चावल हों तो दीजिए, मैं कुछ देर में सबको पकाकर खिला दूंगा।’
मुखिया ने तुरंत घोड़े पर से चावल का बोरा और बर्तन उतरवा दिए। छेंगा ने पत्थर जोड़कर चूल्हा बनाया और भात पकाने रख दिया। जैसे-जैसे भात की खुशबू फैलने लगी यात्रियों की भूख और भड़कने लगी। तभी छेंगा ने मुखिया से कहा, ‘यहां से कुछ ही दूर जाने पर एक मछली का पेड़ है। उस पर ताज़ी मछलियां लगी होंगी।
‘मछली का भी कोई पेड़ होता है?’ मुखिया उसकी बेवकूफी वाली बात पर हंस पड़ा। सब उसका मज़ाक उड़ाने लगे। छेंगा ने कहा, ‘आप में से कुछ लोग मेरे साथ चलें। मैं अभी ताज़ी मछलियां तोड़ लाता हूं। मुखिया को उसकी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं हो रहा था। वह बोला, ‘अगर तुम पेड़ से मछलियां उतारकर दिखाओ तो जो तुम चाहोगे, तुम्हें दूंगा।’ ‘मुझे ज़्यादा कुछ नहीं, मेरा भाई वापिस चाहिए और हो सके तो दो थैलियां चांदी के सिक्के भी दे देना’ छेंगा ने कहा। अब सभी यात्री उसके साथ चल दिए। पेड़ के पास पहुंचे तो देखा कि पेड़ बहुत ऊंचा था। उस पर चढ़ने का साहस किसी को न हुआ। इसलिए बाद में छेंगा ही पेड़ पर चढ़ा। पत्तों के झुरमुट में छिपी पोटली निकालकर वह एक-एक मछली को इधर-उधर गिराने लगा। यात्री दौड़-दौड़ कर मछलियां उठाते।
छेंगा पेड़ से ही बड़बड़ा रहा था, ‘जब दादाजी जीवित थे, तब यह पेड़ खूब फला करता था। अब तो सिर्फ ऊंची टहनियों पर ही मछलियां मिल पाती हैं।’
जब वह नीचे उतरा तो सभी ने उसकी पीठ थपथपाई। उसके बाद छेंगा ने माछेर-झोल भात पकाया। सभी के साथ भूख से बेहाल नौगांग ने भी भरपेट खाया।
जाते समय मुखिया ने शर्त के अनुसार उसे दो थैली सिक्के और उसका प्यारा भाई सौंप दिया।
दोनों भाई खुशी-खुशी घर आ गए। बुज़र्ग महिला ने दोनों भाइयों को साथ देखकर अपनी भूल स्वीकर कर ली। छेंगा और नौगांग ने उसे क्षमा कर दिया।
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