सोमवार, 18 अप्रैल 2011

हर दुख का कारण यही है...

ब्राह्मणों की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत शोक प्रकट किया। वे उदास होकर जमीन पर बैठ गए। तब आत्मज्ञानी शौनक ने उनसे कहा राजन् अज्ञानी मनुष्यों को सामने प्रतिदिन सैकड़ों और हजारों शोक और भय के अवसर आया करते हैं, ज्ञानियों के सामने नहीं। आप जैसे सत्पुरुष ऐसे अवसरों से कर्मबंधन में नहीं पड़ते। वे तो हमेशा मुक्त ही रहते है। आपकी चित्तवृति, यम, नियम आदि अष्टांगयोग से पुष्ट है।
आपकी जैसी बुद्धि जिसके पास है उसे अन्न-वस्त्र के नाश से दुख नहीं होता। कोई भी शारीरिक या मानसिक दुख उसे नहीं सता सकता। जनक ने जगत को शारीरिक और मानसिक दुख से पीडि़त देखकर उसके लिए यह बात कही थी। आप उनके वचन सुनिए। शरीर के दुख: के चार कारण है- रोग, किसी दुख पहुंचाने वाली वस्तु का स्पर्श, अधिक परिश्रम और मनचाही वस्तु ना मिलना।
इन सभी बातों से मन में चिंता हो जाती है और मानसिक दुख ही शारीरिक दुख का कारण बन जाता है। लोहे का गरम गोला यदि घड़े के जल में डाल दिया जाए तो वह जल गरम हो जाता है। वैसे ही मानसिक पीड़ा से शरीर खराब हो जाता है। इसलिए जैसे आग को पानी से ठंडा किया जाता है। वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए। मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख मिट जाता है। मन के दुखी होने का कारण प्यार है। प्यार के कारण ही मनुष्य दुखों में फंसता चला जाता है।
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