मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आंसुओं के क्या मानी हैं?

रचना समंदर
जाने कब-कब बरस पड़ती हैं आंखें। घुमड़ता मन है, बरसती ये हैं। सच्चे भाव दस्तक देते हैं, तो मन का आंगन कच्ची मिट्टी-सा पिघल जाता है। कभी सुख में सीजता है, तो कभी दुख से दरक जाता है। पिछले दिनों एक पारिवारिक चर्चा के दौरान यह मुद्दा उठा कि अगर आंसुओं का रंग भावनाओं को प्रदर्शित कर पाता तो कितना अच्छा होता। मिसाल के तौर पर, खुशी के आंसू आते तो अलग रंग के होते, ग़म के होते, तो कुछ अलग रंग होता। सारे रंग तय हो गए, तभी तस्वीर का दूसरा रुख सामने आया। किसी के दुख के मौके पर अगर खुशी के रंगों वाले आंसू निकल गए, तो क्या होगा? जहां खुशी मनानी हो, वहां ईष्र्या के रंगों वाली दो बूंदें छलक गईं, तो? क्या जाने मन को क्या महसूस होता? और फिर आंसुओं के रंगों पर कैसे काबू पाते?
बात दिमाग में अटक कर रह गई। क्या गलत होता, जो खास आंसुओं के खास रंग होते? कितना आसान हो जाता एक-दूजे को समझना। लेकिन हम शायद यही नहीं चाहते हैं। किसी को सही समझने से डरते हैं या कोई हमें समझ जाएगा, इसका भय सताता है? इस कदर डरते हैं, हम भावों से? क्यों?
यही तो सौगात हमें मिली थी इंसान होने के नाते कि अपने मन को कई तरीकों से अभिव्यक्त कर सकें। हमने उसे भी मुखौटे में तब्दील कर लिया? मन की तहें खोलते-खोलते, खुद रहस्य बनने में रोमांच महसूस करने लगे।
सच को कितने पर्दो के पीछे छुपा दिया है हमने, अब तो इसका हिसाब भी नहीं रहा। मन की सच्चई सामने न दिखे, इसके लिए क्या-क्या जतन करते हैं हम। तभी तो आंसुओं के रंगों से भी भय खा गए। बुज़ुर्ग कहा करते थे कि हंसते इंसान के साथ सब रहते हैं, रोने को कोई साथ नहीं आता। सच ही था क्योंकि हंसी को नकली हुए तो ज़माने हो गए। खोखली, बेजान हंसी हंसते युग बीत गए। लेकिन आंसुओं में दम बाकी था। ये निकलते ही तभी थे, जब मन पिघले। अब मन ने आंखें फेर ली हैं। खरे अश्क, इंसानी फितरत का खोटापन पा गए।
सच है, ईश्वर ने कुछ सोचकर ही जब रंगों-भरी दुनिया बनाई, तो पानी को रंग देने से खुद को रोक दिया होगा। उसने भी इंसान को रहस्यमय बनाने के लिए इस कैनवास को रीता छोड़ दिया।
काश, हम उसके सृजन के भेद को समझें। काश, हम मन से आंखें न फेरें।

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