शनिवार, 21 मई 2011

bhaagavat 257 258

...तो ऐसी थी कृष्ण की गृहस्थी
: पं.विजयशंकर मेहता
वहां से फिर दूसरे महल में गए तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं। इसी प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान् को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा। कहीं वे यज्ञकुण्डों में हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राम्हणों को भोजन करा रहे हैं तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं। कहीं संध्या कर रहे हैं तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैंतरे बदल रहे हैं। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंग पर सो रहे हैं तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं। किसी महल में उद्धव आदि मंत्रियों के साथ किसी गंभीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं और कहीं प्रजा में तथा अन्त:पुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सबका अभिप्राय जानने के लिए विचरण कर रहे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया का परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही। द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थ की भांति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरूषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया।
नारदजी ने उनको प्रणाम किया और कहा भगवान् मैं आपकी माया से हार गया। सचमुच आप कुछ अलग ही लीला कर रहे हैं। भगवान् ने कहा-नारद एक बात ध्यान रखना, तुम संत हो और सन्त का काम है गृहस्थों के परिवार में प्रवेश करना, उनकी रक्षा करना, पर तांक-झांक करना ठीक नहीं है। आज से कसम खा लेना। ताक-झांक मत करना। नारद ने भी अपनी भूल स्वीकार की। नारद ने कहा-मैं जा रहा हूं आप मुझे आज्ञा दीजिए। नारदजी को समझ में आ गया। वे सबके अन्तरात्मा हैं। जो उनका साक्षात्कार कर लेते हैं उन्हें ही शांति है, अन्य को नहीं मिलती। अपनी अन्तरात्मा में स्थित ब्रम्ह का सतत् तेल धारावत् चिन्तन, ममन, ध्यान, स्मरण, नाम, जप इत्यादि, उसकी आराधना, उपासना साधन या कोई नाम दें, एक ही बात है कि वह हमसे भुलाए न भूले। होना चाहिए सत्य का अनुसंधान, सत्य का वास्तविक प्रयोग। सत्य-स्वरूप केवल-केवल सत्य से ही जाना जा सकता है।

जरूरी है दायरे से बाहर निकलना क्योंकि..
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो।
देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है।
आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा।
अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईश्वरार्थ कर्म करने का निर्देष देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है। व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, सौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है।

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