मन क्यों भटकता है?
पं.विजयशंकर मेहता
इन्द्रियों की भोग विलासी प्रवृत्तियों, चित्त का प्रवृत्ति मार्ग पर चलते रहने की इच्छा, यत्न, मन का नाना प्रकार के भौतिक व सांसारिक प्रवृत्तियों में आर्किषत होते रहने की वृत्तियों में उलझे रहने की सहजता पर जब निवृत्त होने की अवस्था आ जाए तब उसे वैराग्य की कोटि में रखा जा सकता है।
सामान्यत: संन्यासी व योगी वैराग्यवान माना जाता है, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा योगी के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं-मन पर विजय प्राप्त करने वाला, प्रसन्न एवं शांत चित्त वाला, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में सम, ज्ञान विज्ञान में तृप्त, अचल, जितेन्द्रिय-स्वर्ण व मिट्टी में सम बुद्धि लक्षणों वाला योगी, साधक, भक्त परमात्मा के निकट होता है। गीतामृत के उपक्रम (भूमिका) में स्वामी श्रीविष्णुतीर्थजी महाराज ने वैराग्य के लिए संसार की लिप्सा, मोह और आसक्ति का त्याग आवश्यक बताया।
ब्रह्मलीन चोला बदलना वैराग्य नहीं। गृहस्थ भी वैराग्यवान हो सकता है। स्वामी श्री शिवोम्तीर्थजी महाराज ने पातंजल योग दर्शन की भूमिका में वैराग्य की विषद व्याख्या की है। वह इस प्रकार है-वैराग्य के बिना योग-साधना अथवा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक उपाय का कोई अर्थ नहीं। जीव की जगत के विभिन्न पक्षों और क्रियाकलापों में इतनी आसक्ति रहती है कि उसका मन संसार में ही भटकता रहता है, यहां तक कि स्वप्न में भी संसार नजर आता है, यह जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
इस आसक्ति का पूर्ण अभाव को वैराग्य की संज्ञा दी जा सकती है। मन पर काबू पाने का वैराग्य जहां उपाय है वहीं मन को संसार से हटाने का अभ्यास ईश्वर प्रणिप्रधान है।वैराग्य एक सोपान है जिसे प्रथम स्थान दिया जा सकता है, जब तक संसार से मन हटे नहीं ईश्वर के प्रति लग नहीं सकता। मन तो एक ही है, यह सत्य है कि बिना मन की स्थिति हुए साधन, भजन, पूजन, पाठ, जपादि आधे-अधूरे ही रहते हैं।
मन ईश्वराभिमुख हो इसलिए उसको ईश्वराधन में इस प्रकार युक्त किया जाए कि वह उसमें न केवल तल्लीन हो जाए बल्कि अखंड आनंदाभूति करता रहे।भगवान के दाम्पत्य में अब आगे अनिरूद्ध का विवाह ऊषा से बताते हैं।बहुत आनन्द से भगवान् का दाम्पत्य चल रहा था।
प्यार एक ऐसी पूंजी है जो कभी खत्म नहीं होती...
मेरे पास और तो कुछ है नहीं। एक पूंजी मेरे पास है जो कभी खत्म नहीं होती और मैं जितना बांटता हूं बढ़ती जाती है। मेरे पास अगर कुछ है तो प्रेम है। अब रूक्मिणीजी को लगा कि यह तो टिप्पणी मेरे ऊपर कर दी इन्होंने। फिर भगवान् ने कहा आप जानती हैं मेरा उदासीन व्रत है। अब इतने सब दुर्गुण हैं तो भी आपकी कृपा है जो आपने विवाह कर लिया। अब रूक्मिणीजी पानी-पानी हो गईं, उन्होंने माफी मांगी।भगवान को जो नहीं भाता वह है अहंकार। दंभ या गर्व होने पर भगवान खुद ही उसे दूर करने को तैयार हो जाते हैं।
जो भगवान के जितना ज्यादा निकट है भगवान उसे उतने प्रेम से सिखाते हैं। फिर रुक्मिणीजी तो उनकी अर्धांगिनी थीं सो भगवान ने हंसी-ठिठौली में ही उनका अहंकार दूर कर दिया। भगवान समझा रहे हैं कि दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिसमें कभी अहंकार को स्थान नहीं मिलना चाहिए। जहां अहंकार आया रिश्ते में खटास भर जाती है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि पति-पत्नी के बीच हंसी-मजाक के हल्के-फुल्के क्षण भी होने चाहिए, ताकि रिश्ते की मधुरता बनी रहे।जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यंत भयभीत हो गईं, उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतरने लगीं।
भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणी हास्य विनोद की गंभीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेमपाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही कारुणिक भगवान् श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया।भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गंभीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गई है और वे अत्यंत दीन हो रही हैं तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को समझाते हुए कहा-परमप्रिये! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिए घर गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ां सुख से बिता ली जाती हैं।
मांगलिक कार्यों में इस बात का ध्यान जरूर रखें
कथा में यहां जो प्रसंग आ रहा है वह बड़ा गंभीर है और सामयिक भी। कैसे कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए। हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें।
जीवनसाथी चुनें तो क्या ध्यान रखें?
भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलरामजी रुष्ट होंगे। अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान् ने आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुल्हन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारिकापुरी को चले आए।
भगवान के जीवन के कुछ और प्रसंगों में चलते हैं। ये प्रसंग जीवन से जुड़े हैं। इनमें आज के जीवन की मर्यादाएं हैं। सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन कैसा हो, इन कथाओं के जरिए हम समझ सकते हैं।अब ऊषा-अनिरुद्ध के प्रसंग आते हैं। भगवान के परिवार के प्रसंगों में भी संदेश है। दैत्यराज बलिका और पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। बाणासुर की एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा विवाह हो रहा है। बाणासुर के मंत्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियां थीं। चित्रलेखा ने ऊषा से पूछा-राजकुमारी! अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है फिर तुम किसे ढूंढ रही हो।
ऊषा ने कहा- मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग सांवला-सांवला सा है। मैं उसी को ढूंढ रही हूं। चित्रलेखा ने बहुत से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिए। मनुष्यों में उसने वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाए। जब ऊषा ने अनिरुद्ध का चित्र देखा तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया, फिर मंद-मंद मुसकाते हुए कहा-मेरा वह प्राणवल्लभ यही हैं।
यहां एक संदेश है जब जीवन साथी चुनें तो केवल उसका आधार देह ही न हो। चित्रलेखा ने माया रची। अनिरुद्ध को जगाया, मोहित किया और अपने साथ ले चली। ऊशा ने अमर्यादित व्यवहार किया।चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्र्शन करा दिया।
अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गए। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर हम भगवान के ही रिश्तेदार क्यों न थे इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।
यही होता है चोरी-छूपे काम करने का नतीजा...
चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया।
अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छूपे रहकर अपने-आपको भूल गए।
उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर वो भगवान के रिश्तेदार ही क्यों ना हो इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।
यदुकुमार अनिरुद्धजी के सहवास से ऊषा का कुआंरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीर पर ऐसे चिन्ह प्रकट हो गए, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छूपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी न किसी पुरुष से संबंध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया हम लोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगाने वाला है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गई? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है।
हमारी निजता यानी व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता हो यह जरूरी है। कोई भी संबंध परिवार या हमारे ईष्टों की जानकारी के बिना बनाए गए हों तो चाहे उनके पीछे भावना कोई भी रही हो, उसका परिणाम गलत आता है। जब किसी से प्रेम करें, मित्रता करें या कोई और संबंध हों। सदैव याद रखें कि उसमें परिवार और इष्टों की सहमति अवश्य लें। अगर हम चोरी-छूपे कोई काम करते हैं तो उसका परिणाम दुखदायी ही होता है।
पं.विजयशंकर मेहता
इन्द्रियों की भोग विलासी प्रवृत्तियों, चित्त का प्रवृत्ति मार्ग पर चलते रहने की इच्छा, यत्न, मन का नाना प्रकार के भौतिक व सांसारिक प्रवृत्तियों में आर्किषत होते रहने की वृत्तियों में उलझे रहने की सहजता पर जब निवृत्त होने की अवस्था आ जाए तब उसे वैराग्य की कोटि में रखा जा सकता है।
सामान्यत: संन्यासी व योगी वैराग्यवान माना जाता है, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा योगी के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं-मन पर विजय प्राप्त करने वाला, प्रसन्न एवं शांत चित्त वाला, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में सम, ज्ञान विज्ञान में तृप्त, अचल, जितेन्द्रिय-स्वर्ण व मिट्टी में सम बुद्धि लक्षणों वाला योगी, साधक, भक्त परमात्मा के निकट होता है। गीतामृत के उपक्रम (भूमिका) में स्वामी श्रीविष्णुतीर्थजी महाराज ने वैराग्य के लिए संसार की लिप्सा, मोह और आसक्ति का त्याग आवश्यक बताया।
ब्रह्मलीन चोला बदलना वैराग्य नहीं। गृहस्थ भी वैराग्यवान हो सकता है। स्वामी श्री शिवोम्तीर्थजी महाराज ने पातंजल योग दर्शन की भूमिका में वैराग्य की विषद व्याख्या की है। वह इस प्रकार है-वैराग्य के बिना योग-साधना अथवा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक उपाय का कोई अर्थ नहीं। जीव की जगत के विभिन्न पक्षों और क्रियाकलापों में इतनी आसक्ति रहती है कि उसका मन संसार में ही भटकता रहता है, यहां तक कि स्वप्न में भी संसार नजर आता है, यह जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
इस आसक्ति का पूर्ण अभाव को वैराग्य की संज्ञा दी जा सकती है। मन पर काबू पाने का वैराग्य जहां उपाय है वहीं मन को संसार से हटाने का अभ्यास ईश्वर प्रणिप्रधान है।वैराग्य एक सोपान है जिसे प्रथम स्थान दिया जा सकता है, जब तक संसार से मन हटे नहीं ईश्वर के प्रति लग नहीं सकता। मन तो एक ही है, यह सत्य है कि बिना मन की स्थिति हुए साधन, भजन, पूजन, पाठ, जपादि आधे-अधूरे ही रहते हैं।
मन ईश्वराभिमुख हो इसलिए उसको ईश्वराधन में इस प्रकार युक्त किया जाए कि वह उसमें न केवल तल्लीन हो जाए बल्कि अखंड आनंदाभूति करता रहे।भगवान के दाम्पत्य में अब आगे अनिरूद्ध का विवाह ऊषा से बताते हैं।बहुत आनन्द से भगवान् का दाम्पत्य चल रहा था।
प्यार एक ऐसी पूंजी है जो कभी खत्म नहीं होती...
मेरे पास और तो कुछ है नहीं। एक पूंजी मेरे पास है जो कभी खत्म नहीं होती और मैं जितना बांटता हूं बढ़ती जाती है। मेरे पास अगर कुछ है तो प्रेम है। अब रूक्मिणीजी को लगा कि यह तो टिप्पणी मेरे ऊपर कर दी इन्होंने। फिर भगवान् ने कहा आप जानती हैं मेरा उदासीन व्रत है। अब इतने सब दुर्गुण हैं तो भी आपकी कृपा है जो आपने विवाह कर लिया। अब रूक्मिणीजी पानी-पानी हो गईं, उन्होंने माफी मांगी।भगवान को जो नहीं भाता वह है अहंकार। दंभ या गर्व होने पर भगवान खुद ही उसे दूर करने को तैयार हो जाते हैं।
जो भगवान के जितना ज्यादा निकट है भगवान उसे उतने प्रेम से सिखाते हैं। फिर रुक्मिणीजी तो उनकी अर्धांगिनी थीं सो भगवान ने हंसी-ठिठौली में ही उनका अहंकार दूर कर दिया। भगवान समझा रहे हैं कि दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिसमें कभी अहंकार को स्थान नहीं मिलना चाहिए। जहां अहंकार आया रिश्ते में खटास भर जाती है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि पति-पत्नी के बीच हंसी-मजाक के हल्के-फुल्के क्षण भी होने चाहिए, ताकि रिश्ते की मधुरता बनी रहे।जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यंत भयभीत हो गईं, उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतरने लगीं।
भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणी हास्य विनोद की गंभीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेमपाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही कारुणिक भगवान् श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया।भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गंभीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गई है और वे अत्यंत दीन हो रही हैं तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को समझाते हुए कहा-परमप्रिये! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिए घर गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ां सुख से बिता ली जाती हैं।
मांगलिक कार्यों में इस बात का ध्यान जरूर रखें
कथा में यहां जो प्रसंग आ रहा है वह बड़ा गंभीर है और सामयिक भी। कैसे कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए। हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें।
जीवनसाथी चुनें तो क्या ध्यान रखें?
भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलरामजी रुष्ट होंगे। अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान् ने आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुल्हन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारिकापुरी को चले आए।
भगवान के जीवन के कुछ और प्रसंगों में चलते हैं। ये प्रसंग जीवन से जुड़े हैं। इनमें आज के जीवन की मर्यादाएं हैं। सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन कैसा हो, इन कथाओं के जरिए हम समझ सकते हैं।अब ऊषा-अनिरुद्ध के प्रसंग आते हैं। भगवान के परिवार के प्रसंगों में भी संदेश है। दैत्यराज बलिका और पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। बाणासुर की एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा विवाह हो रहा है। बाणासुर के मंत्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियां थीं। चित्रलेखा ने ऊषा से पूछा-राजकुमारी! अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है फिर तुम किसे ढूंढ रही हो।
ऊषा ने कहा- मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग सांवला-सांवला सा है। मैं उसी को ढूंढ रही हूं। चित्रलेखा ने बहुत से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिए। मनुष्यों में उसने वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाए। जब ऊषा ने अनिरुद्ध का चित्र देखा तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया, फिर मंद-मंद मुसकाते हुए कहा-मेरा वह प्राणवल्लभ यही हैं।
यहां एक संदेश है जब जीवन साथी चुनें तो केवल उसका आधार देह ही न हो। चित्रलेखा ने माया रची। अनिरुद्ध को जगाया, मोहित किया और अपने साथ ले चली। ऊशा ने अमर्यादित व्यवहार किया।चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्र्शन करा दिया।
अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गए। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर हम भगवान के ही रिश्तेदार क्यों न थे इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।
यही होता है चोरी-छूपे काम करने का नतीजा...
चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया।
अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छूपे रहकर अपने-आपको भूल गए।
उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर वो भगवान के रिश्तेदार ही क्यों ना हो इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।
यदुकुमार अनिरुद्धजी के सहवास से ऊषा का कुआंरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीर पर ऐसे चिन्ह प्रकट हो गए, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छूपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी न किसी पुरुष से संबंध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया हम लोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगाने वाला है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गई? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है।
हमारी निजता यानी व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता हो यह जरूरी है। कोई भी संबंध परिवार या हमारे ईष्टों की जानकारी के बिना बनाए गए हों तो चाहे उनके पीछे भावना कोई भी रही हो, उसका परिणाम गलत आता है। जब किसी से प्रेम करें, मित्रता करें या कोई और संबंध हों। सदैव याद रखें कि उसमें परिवार और इष्टों की सहमति अवश्य लें। अगर हम चोरी-छूपे कोई काम करते हैं तो उसका परिणाम दुखदायी ही होता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें