स्वामी विवकानंद जी के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम दुनियाभर में सुविख्यात है। परमहंस जी के विषय में कहा जाता है कि वे जिस काली मंदिर के पुजारी थे वहां की काली की मूर्ति साक्षात प्रकट होकर परमहंस जी के हाथों से भोजन ग्रहण करती थीं और उनसे बात-चीत भी करती थी। इस चमत्कार के पीछे अटूट श्रृद्धा थी।
ऐसी ही एक घटना महान भक्त रैदास के जीवन की है। संत रैदास चर्मकार थे तथा मोची का व्यवसाय करते थे। चमड़े के जूते-चप्पल बनाने के काम को वे पूरे दिल से मेहनत लगाकर करते थे। उनके मन में अपने कार्य या व्यवसाय को लेकर कोई शर्म-संकोच नहीं था। वे पूरे समय अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने में लगे रहते थे। सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करना, सच्चे मन से सभी का भला चाहना तथा समय पर काम करके अपने गा्रहक को प्रशन्न रखना ही उनकी रोज की दिनचर्या थी।
दशहरे का पर्व था। गांव के मंदिर के साधु ब्रह्ममुुहूर्त में ही स्नान करने के लिये घर से निकले। भक्त रैदास की झोंपड़ी से गुजरते समय उन्होंने रैदास जी से पूछा, आज दशहरा है, स्नान रकने नहीं चलोगे क्या? रैदास जी ने प्रणाम करते हुए कहा कि गंगा स्नान करना सायद मेरी किस्मत में नहीं है, क्योंकि मुझे आज ही ग्राहक के जूते बनाकर देना है भाई। साधु महाराज से प्रार्थना करते हुए रैदास जी बोले कि महाराज यह सिक्का लेते जाइये, मेरी तरफ से इसे गंगा माता को भेंट चढ़ा देना। सिक्का लेकर साधु महाराज चल दिये। पूजा पाठ और स्नान करके वापस लोटने लगे। भक्ति भाव में ऐसे डूबे कि यह भूल ही गए कि भक्त रैदास जी ने गंगा मां के लिये भैंट भेजी थी। साधु महाराज तो रैदास जी की बात भूल कर चल दिये, लेकिन पीछे से स्त्री की सी कोई दिव्य आवाज आई- रुको... पुत्र रैदास द्वारा मेरे लिये भेजा गया उपहार तो देते जाओ! और एक दिव्य स्त्री मूर्ति के रूप में देवी गंगा प्रकट हो गईं। इस अद्भुत घटना से साधु महाराज आश्चर्यचकित रह गए, उन्होंने जल्दी से वह सिक्का निकाल कर देवी के हाथों में रख दिया। यह घटना इतनी अद्भुत थी कि साधु महाराज की आंखें फटी की फटी रह गईं। इस घटना के बाद से उनका जीवन ही बदल गया। उन्हें समझ में आ गया कि भक्ति का असली मतलब क्या होता है। उन्होंने रैदास जी को अपना गुरु बना लिया।
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ऐसी ही एक घटना महान भक्त रैदास के जीवन की है। संत रैदास चर्मकार थे तथा मोची का व्यवसाय करते थे। चमड़े के जूते-चप्पल बनाने के काम को वे पूरे दिल से मेहनत लगाकर करते थे। उनके मन में अपने कार्य या व्यवसाय को लेकर कोई शर्म-संकोच नहीं था। वे पूरे समय अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने में लगे रहते थे। सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करना, सच्चे मन से सभी का भला चाहना तथा समय पर काम करके अपने गा्रहक को प्रशन्न रखना ही उनकी रोज की दिनचर्या थी।
दशहरे का पर्व था। गांव के मंदिर के साधु ब्रह्ममुुहूर्त में ही स्नान करने के लिये घर से निकले। भक्त रैदास की झोंपड़ी से गुजरते समय उन्होंने रैदास जी से पूछा, आज दशहरा है, स्नान रकने नहीं चलोगे क्या? रैदास जी ने प्रणाम करते हुए कहा कि गंगा स्नान करना सायद मेरी किस्मत में नहीं है, क्योंकि मुझे आज ही ग्राहक के जूते बनाकर देना है भाई। साधु महाराज से प्रार्थना करते हुए रैदास जी बोले कि महाराज यह सिक्का लेते जाइये, मेरी तरफ से इसे गंगा माता को भेंट चढ़ा देना। सिक्का लेकर साधु महाराज चल दिये। पूजा पाठ और स्नान करके वापस लोटने लगे। भक्ति भाव में ऐसे डूबे कि यह भूल ही गए कि भक्त रैदास जी ने गंगा मां के लिये भैंट भेजी थी। साधु महाराज तो रैदास जी की बात भूल कर चल दिये, लेकिन पीछे से स्त्री की सी कोई दिव्य आवाज आई- रुको... पुत्र रैदास द्वारा मेरे लिये भेजा गया उपहार तो देते जाओ! और एक दिव्य स्त्री मूर्ति के रूप में देवी गंगा प्रकट हो गईं। इस अद्भुत घटना से साधु महाराज आश्चर्यचकित रह गए, उन्होंने जल्दी से वह सिक्का निकाल कर देवी के हाथों में रख दिया। यह घटना इतनी अद्भुत थी कि साधु महाराज की आंखें फटी की फटी रह गईं। इस घटना के बाद से उनका जीवन ही बदल गया। उन्हें समझ में आ गया कि भक्ति का असली मतलब क्या होता है। उन्होंने रैदास जी को अपना गुरु बना लिया।
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