शुक्रवार, 27 मई 2011

पूत के पैर पालने में ही दीख जाते हैं!! क्योंकि?

संस्कार, स्वभाव या आदतें व्यक्ति को भीड़ से अलग पहचान दिलाते हैं। संस्कार या आदतें सिर्फ इसी जन्म की नहीं होती बल्कि पिछले जन्मों से भी साथ में आती हैं। इसीलिये तो कुछ लोग बहुत छोटी उम्र यानी बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाने लगते हैं। जो बच्चा अच्छे संस्कारों को साथ में लेकर जन्म लेता है वह छोटी उम्र से ही श्रेष्ठ और महान कामों को करने लगता है। शायद इसीलिये समाज में यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि -पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। तो आइये चलते हैं ऐसी ही एक छोटी सी घटना की तरफ जो आश्चर्यजनक संस्कारों की नायाब उदाहरण है-
यह एक ऐतिहासिक और पौराणिक कथा है, जिसकी प्रामाणिकता पर भी किसी को संदेह नहीं है। हुआ यह कि बालक शुकदेव चार-पांच वर्ष की उम्र में ही घर छोड़कर ब्रह्म ज्ञान को पाने के लिये चल दिया। शुकदेव के पिता महर्षि व्यासजी ने उन्हें रोका कि अभी तो तुम्हारी उम्र मां की गोद में बैठकर लाड़-प्यार पाने की है, अभी से तुम कहां चले? लेकिन बालक शुकदेव के इरादे पक्के थे, उसने कहा कि पिताजी आप मुझे जाने से नहीं रोकें क्योंकि एक बार अगर इस संसार में फंस गया तो फिर कभी भी आत्मज्ञान प्राप्त नही कर सकूंगा। हर तरह से समझाने और रोकने के बाद भी इरादों का पक्का बालक शुकदेव नहीं माना ओर आत्म ज्ञान की खोज मे अकेला ही घर-बार छोड़कर घर से निकल पड़ा। बुलंद इरादों और अटूट संकल्प का मालिक यह शुकदेव ही आगे चलकर ब्रह्म ज्ञानी शुकदेवजी के नाम से जगत में विख्यात हुए। मतलब साफ है कि जिसके इरादों में चट्टानों जैसी दृढ़ता होती है वह अपनी मंजिल को हर हाल में पा कर रहता है।
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