गुरुवार, 16 जून 2011

इसे ही कहते हैं असली पुरुषार्थ...

पं. विजयशंकर मेहता
परिश्रम एक साधारण शब्द है, फिर इस समय जब मेहनत का बड़ा मोल है सब लोग जम कर शोर मचाते हैं कि खूब मेहनत करो। इस चक्कर में परिश्रम और हम्माली का अंतर ही समाप्त हो गया। चलिए इन्हीं से मिलाजुला एक शब्द है पुरुषार्थ।
आज इससे परिचय प्राप्त करें। परिश्रम में जब मन, वचन और कर्म एक जैसे हो जाते हैं तब वह पुरुषार्थ कहलाएगा। यह परिश्रम की दिव्य स्थिति है। जिनकी कथनी और करनी के बीच अंतर जितना कम होता है उनकी सफलता और शांति के बीच भी उतना ही कम फर्क रह जाता है।
जो लोग इस अंतर को मिटा देंगे वे निष्काम कर्मयोगी होंगे। ऐसे लोग किसी भी क्षेत्र में हों सफल होने पर कभी भी अशांत नहीं रहेंगे। हम यह कैसे तय करें कि हम जो कर रहे हैं या कह रहे हैं वह सही है। अपने परिश्रम को पुरुषार्थ का रूप देते समय निर्णायक तत्व क्या हो।
इसके लिए एक प्रयोग करिए, कुछ ऐसे लोगों को लगातार ढूंढते रहें जिनके पास बैठने पर चित्त रूपांतरित होने लगे। हमें एहसास हो कि इन्हें देखकर, सुनकर और इनके पास बैठकर हम अपने भीतर एक परिवर्तन महसूस करते हैं, जो सदैव सु:खद होता है। इस बात का ध्यान रखें कि ऐसे व्यक्तियों के पास बैठते समय हमें जो उपलब्ध हो रहा है उसके लिए हमें कोई प्रयास न करना पड़े, अपने आप ऐसा होने लगेगा, बस अपने को थोड़ा शून्य बना लीजिए, थोड़ा खाली छोड़ दीजिए।
यदि अच्छे से अच्छे व्यक्ति के पास बैठकर भी हम खाली नहीं होंगे तो उसकी अच्छाई को अपने भीतर कैसे भरेंगे। उसकी आती हुई तरंगों का अपने खालीपन से स्वागत करना पड़ेगा और जब आप लगभग फ्रेश हो चुके हों तब अपना परिश्रम करिए और ऐसा परिश्रम पुरुषार्थ में अवश्य बदल जाएगा।

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