सोमवार, 20 जून 2011

भागवत २८३

सच क्या है ऐसे ही पता चलेगा?
दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिए अशक्य था, मारकर द्वारिकापुरी में प्रवेश किया।
एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधन आदि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिए वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारिका से चले गए।
भगवान् इस पूरे युद्ध के सूत्रधार की तरह हैं, जबकि बलराम ने अहिंसा का पक्ष लिया और तीर्थ यात्रा पर निकल गए। कृष्ण का कहना था कि जब धर्म और अधर्म के बीच लड़ाई हो रही हो तो सबसे बड़ा तीर्थ रणभूमि ही हो सकती है। बलराम को दुर्योधन से भी स्नेह था, वह उनका शिष्य भी था और इधर पाण्डव उनकी बुआ के लड़के थे। इसलिए बलराम ने तीर्थ पर जाना ही ज्यादा ठीक समझा।
तीर्थयात्रा के कई उद्देश्य होते हैं। यह एक अभ्यास है जिससे वैराग्य वृत्ति जगाने में सहायता मिलती है। पापों का क्षरण भी तीर्थयात्रा से होता है। यहां यह तथ्य विचारणीय है पापात्मा अशांत रहता है, अशांत कैसे परमात्मा के निकट जाने की कल्पना भी कर सकता है। मन का शांत व अचंचल (स्थिर) होना आवश्यक है। तीनों गुणों के आवरण भी साथ-साथ हटाने का अभ्यास करना होगा। निष्काम कर्म, प्रतीक या निराकार उपासना, बहिरंग योग साधन या ध्यान योग अतरंग साधन जो की जावे फलस्वरूप पराभक्ति उदय होगी, यौगिक शब्दों में शक्ति जाग्रत होगी, सच का ज्ञान ऐसे ही होगा।

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