ये दो बातें मुश्किलों से बचा सकती हैं...
दो चीजों को भूलमत जो चाहे कल्याण। अयंभावी मृत्यु इक और दूजे श्री भगवान।
इन दो की स्मृति साधक को अनेक दुविधाओं, कदाचरणों, ममता जनित क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बचा सकती है। इससे ज्ञानोदय होने में सहायता मिलती है। महात्मा या सद्गुरु शक्तिपात करके विराट पुरुष के दर्शन से मिलने वाले आनन्द का अनुभव तब ही करा सकते हैं जब निष्काम कर्म द्वारा चित्त शुद्ध कर लिया गया हो, निष्ठा को अपने में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो अपने अन्तर को कपट रहित निर्मल कर लिया हो और सब प्राणी जिसमें आश्रित हो उस परमात्मा को जानो। अन्य सबकुछ तुच्छ समझकर छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।
परमात्मा सत्य है। उसे सत्य निष्ठ ही जान सकता है, अन्य नहीं। सत्य का आचरण कल्याणकारी होता है। सत्य की प्रतिष्ठा से क्रिया सफल हो जाती है। सत्य से ही ब्रम्ह का अनुभव किया जा सकता है। इससे चित्त दर्पण स्वच्छ, निर्मल होता है फिर वह प्रतिबिम्ब रूप में स्पष्टत: भासित होता है। यह उसका दर्शन है। वस्तुत: वह मन, बुद्धि से परे तथा इन्द्रियातीत है। अनुभवगम्य ब्रम्ह बखानने का विषय नहीं है। फिर यह अनुभव ध्यान में हो या प्रतीक-पूजन में।
नियमित पूजन-भजन और ध्यान साधन करने वाला साधक चिन्ता, भय, विषाद, शोक आदि से सर्वथा मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके सान्निध्य में अन्य भी शान्ति रूपी सुगन्ध का अनुभव कर लेते हैं।
यह पूर्ण या आंशिक ब्रम्हानुभूति का प्रभाव कहा जा सकता है। वैसे पूर्ण ब्रम्हानुभूति अत्यन्त दुष्कर है लेकिन आंशिक प्राप्ति भी बिना सत्याचरण के सम्भव नहीं। सत्याचरण इसलिए आवश्यक है कि ब्रम्ह सत्य है। उस परम सत्य को जगत-सत्य में खोजने के लिए तीर्थाटन, सत्संग, महात्माओं के दर्शन, प्रतीक दर्शन आदि किए जाते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक क्षेत्र की रचना परम सत्य के द्वारा ही की गई है, इसलिए उसे झूठा कैसे कहें, हालांकि दार्शनिक शंकर चिन्तन में ब्रम्ह सत्य जगत मिध्या स्वीकारा गया है। उसको चुनौती नहीं दी जा सकती है। नित्य-अनित्य व अक्षर-क्षर का भेद तो करना ही होगा। ब्रम्ह अक्षर अनन्त और तेजरूप चिन्मय है, जबकि जगत और जगत का सम्पूर्ण व्यवहार और स्वरूप अन्तवान है। अनन्त और अन्त में मूलभूत अन्तर तो है ही।
दूसरे ब्रम्हानुभूति चिर आनन्द का विषय हैं। जगतानुभूति चाहे प्रारम्भ में मोहवशात ब्राम्ह और क्षणिक आनन्द दे दे किन्तु वह अल्पकाल या कालान्तर में दु:खदायी होती है। पुत्र, विवाह या व्यवसाय सुख दे किन्तु विछोह महा कष्टप्रद होता है। भगवतीय विछोह या तो होता नहीं है और यदि प्रारब्धवशात् हो गया तो भी आनन्दानुभूति उसी प्रकार होती है जैसी कि महारासलीला के मध्य गोपियों को हुई थी।
तीसरे महारास लीला उस ब्रम्ह की अत्यन्त सुन्दरतम प्रेम-प्रदर्शन की लीला कही जा सकती है, जिससे प्रेम किया जाता है। उसमें सुन्दरतम देखने की दृष्टि हमेशा रहती है। वह सुन्दर दिखाई भी देता है। ब्रम्ह ने सुन्दर सुष्टि का निर्माण किया, उससे सुन्दर कोई हो नहीं सकता, क्योंकि सुन्दर ही सुन्दर का निर्माण करता है।
दो चीजों को भूलमत जो चाहे कल्याण। अयंभावी मृत्यु इक और दूजे श्री भगवान।
इन दो की स्मृति साधक को अनेक दुविधाओं, कदाचरणों, ममता जनित क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बचा सकती है। इससे ज्ञानोदय होने में सहायता मिलती है। महात्मा या सद्गुरु शक्तिपात करके विराट पुरुष के दर्शन से मिलने वाले आनन्द का अनुभव तब ही करा सकते हैं जब निष्काम कर्म द्वारा चित्त शुद्ध कर लिया गया हो, निष्ठा को अपने में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो अपने अन्तर को कपट रहित निर्मल कर लिया हो और सब प्राणी जिसमें आश्रित हो उस परमात्मा को जानो। अन्य सबकुछ तुच्छ समझकर छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।
परमात्मा सत्य है। उसे सत्य निष्ठ ही जान सकता है, अन्य नहीं। सत्य का आचरण कल्याणकारी होता है। सत्य की प्रतिष्ठा से क्रिया सफल हो जाती है। सत्य से ही ब्रम्ह का अनुभव किया जा सकता है। इससे चित्त दर्पण स्वच्छ, निर्मल होता है फिर वह प्रतिबिम्ब रूप में स्पष्टत: भासित होता है। यह उसका दर्शन है। वस्तुत: वह मन, बुद्धि से परे तथा इन्द्रियातीत है। अनुभवगम्य ब्रम्ह बखानने का विषय नहीं है। फिर यह अनुभव ध्यान में हो या प्रतीक-पूजन में।
नियमित पूजन-भजन और ध्यान साधन करने वाला साधक चिन्ता, भय, विषाद, शोक आदि से सर्वथा मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके सान्निध्य में अन्य भी शान्ति रूपी सुगन्ध का अनुभव कर लेते हैं।
यह पूर्ण या आंशिक ब्रम्हानुभूति का प्रभाव कहा जा सकता है। वैसे पूर्ण ब्रम्हानुभूति अत्यन्त दुष्कर है लेकिन आंशिक प्राप्ति भी बिना सत्याचरण के सम्भव नहीं। सत्याचरण इसलिए आवश्यक है कि ब्रम्ह सत्य है। उस परम सत्य को जगत-सत्य में खोजने के लिए तीर्थाटन, सत्संग, महात्माओं के दर्शन, प्रतीक दर्शन आदि किए जाते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक क्षेत्र की रचना परम सत्य के द्वारा ही की गई है, इसलिए उसे झूठा कैसे कहें, हालांकि दार्शनिक शंकर चिन्तन में ब्रम्ह सत्य जगत मिध्या स्वीकारा गया है। उसको चुनौती नहीं दी जा सकती है। नित्य-अनित्य व अक्षर-क्षर का भेद तो करना ही होगा। ब्रम्ह अक्षर अनन्त और तेजरूप चिन्मय है, जबकि जगत और जगत का सम्पूर्ण व्यवहार और स्वरूप अन्तवान है। अनन्त और अन्त में मूलभूत अन्तर तो है ही।
दूसरे ब्रम्हानुभूति चिर आनन्द का विषय हैं। जगतानुभूति चाहे प्रारम्भ में मोहवशात ब्राम्ह और क्षणिक आनन्द दे दे किन्तु वह अल्पकाल या कालान्तर में दु:खदायी होती है। पुत्र, विवाह या व्यवसाय सुख दे किन्तु विछोह महा कष्टप्रद होता है। भगवतीय विछोह या तो होता नहीं है और यदि प्रारब्धवशात् हो गया तो भी आनन्दानुभूति उसी प्रकार होती है जैसी कि महारासलीला के मध्य गोपियों को हुई थी।
तीसरे महारास लीला उस ब्रम्ह की अत्यन्त सुन्दरतम प्रेम-प्रदर्शन की लीला कही जा सकती है, जिससे प्रेम किया जाता है। उसमें सुन्दरतम देखने की दृष्टि हमेशा रहती है। वह सुन्दर दिखाई भी देता है। ब्रम्ह ने सुन्दर सुष्टि का निर्माण किया, उससे सुन्दर कोई हो नहीं सकता, क्योंकि सुन्दर ही सुन्दर का निर्माण करता है।
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