ऐसे व्यक्ति से कभी मदद लेने की न सोचें क्योंकि....
भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है।इसलिए तय कर लें, आश्रय किसका रखें। प्रभु ने सृष्टि की संरचना बड़े सुन्दर ढंग से की है। उसने जीवन के दु:खों-क्लेशों की पृष्ठभूमि में आनन्द एवं प्रेम का अथाह एवं अनन्त समुद्र छुपा कर रखा है।
यह मनुष्य के ऊपर ही छोड़ दिया है कि चाहे तो वह जगत विषयों के पीछे लग कर, जीवन में दु:ख एवं अशांति को भोगता रहे तथा चाहे तो आनन्द समुद्र में गोते लगाकर परम शान्ति को प्राप्त करे। भक्ति जगत विषयों की गंदी नालियों से निकालकर, अन्दर में ही विद्यमान प्रेम एवं आनन्द समुद्र की ओर अग्रसर करने का मार्ग है।
आवश्यकता है केवल मनुष्य के चेत जाने की। पहले तो उसे इस बात का आभास होना चाहिए कि वह विषय के दलदल में फंसकर रह गया है, उसे इसमें से बाहर निकलना है। वह निकलने का प्रयत्न भी करता है, मन को नियंत्रित करने का यत्न करता है, जप तप करता है तथा शास्त्रों में शान्ति को खोजता है, परन्तु सफल हो पाना कठिन है। दलदल से निकलने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है जो स्वयं दलदल से बाहर खड़ा हो। दलदल में फंसा दूसरा व्यक्ति भी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो स्वयं धंसता चला जा रहा है। मुख्यस्तु महत्कृपैव महापुरुषों, महानुभावों की कृपा प्राप्त करो, क्योंकि वह स्वयं जगत में रहकर भी जगत के बाहर हैं।
परम-प्रेम के निरन्तर प्रवाह का नाम ही भक्ति है। कभी भक्ति की, कभी उधर से उदासीन होकर जगत व्यवहार में लग गए। यह तो भक्ति नहीं, जिस प्रकार नदी की स्वाभाविक जल धारा रात-दिन, प्रतिक्षण बहती रहती है, उसी प्रकार हृदय भी परम-प्रेम से हरदम ढका रहे। वासना, कामना तथा जगत विषयों को हृदय में प्रवेश का अवसर ही प्राप्त न हो। प्रियतम प्रभु हर दम अभिमुख बना रहे। उसकी रासलीला चौबीसों घण्टे चलती रहे तथा भक्त उसके आनन्द तथा मधुरता में ही डूबा रहे, यही परम-प्रेम-रूपा भक्ति का स्वरूप है।
भागवत में लिखा है, कलयुग आएगा तो ऐसे मिलेंगे संकेत...
यदुवंश के मृत व्यक्तियों का श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक करवाया। भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबो दी।पिण्डदान के पश्चात स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आए। वहां सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। हे परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की।
परीक्षित ने शापित होने के कारण शुकदेवजी से जो कथा सुनी थी उसके नायक भगवान श्रीकृष्ण थे। नायक अपनी लीला समेट कर जा चुके हैं और परीक्षित के मन में अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पुन: तैयार हो गए हैं। शुकदेवजी परीक्षित को समझा चुके हैं कि मैंने विस्तार से कृष्ण चरित्र सुनाया है और तुम जान गए होंगे कि धर्म क्या है? जीवन का आरंभ, मध्य और समापन कैसे होता है? इस प्रकार ग्यारहवें स्कंध का समापन होता है।
आइए, इसी के साथ भागवत की कथा अब बारहवें स्कंध में प्रवेश कर रही है। यहां कलयुग का वर्णन आएगा। शुकदेवजी ने जिस बारीकी से और विस्तार के साथ कलयुग का वर्णन किया है हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अब जो चित्रण आएगा उससे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन हमें अब उससे सीखना है कि कलयुग की घटनाएं हमारे भीतर न जन्म लेने लगे। बाहर के दुनियादारी के जीवन में कलयुग का होना स्वाभाविक है। बारहवें स्कंध से हम यह सीखें कि हमारे भीतर कलयुग की स्थिति न बन जाए।
कलयुग तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि भगवान जाएं और मैं आऊं। जब-जब जीवन से भगवान गए, कलयुग आया। भगवान कह रहे हैं अब मैं जा रहा हूं, आप कलयुग को पहचानिए, जानिए। द्वादश स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी कलयुग के बारे में जानकारी दे रहे हैं। कलयुग आएगा तो हमको दिखेगा जीवन का विपरीत घट रहा है। कलयुग में वो लोग जो नीचे बैठे हुए, ऊपर नजर आएंगे। कलयुग जब आएगा तो पापी व्यक्ति जो हैं वे पूजे जाएंगे। कलयुग जब आएगा तो अयोग्य लोग समर्थों पर राज करेंगे। कलयुग जब आएगा तो जो चोर होगा वह साहूकार के रूप में पूजा जाने लगेगा। जो जोर से बोलेगा उसकी बात सुनी जाएगी। भगवान कलयुग का लम्बा-चौड़ा वर्णन करते हैं और हम तो कलयुग को अच्छी तरह से परिचित हैं।
'समय-समय की बात है और समय-समय का योग, लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।कलयुग में ऐसा होता है। जो पतीत है, जो चरित्र से गिरा है वह ऊपर चला जाता है। 'गिरने वाला तो छू गया बुलंदी आसमान की और जो संभलकर चल रहे थे वो रेंगते नजर आए इसका नाम कलयुग है। कलयुग में कौन किसकी मदद कर रहा है यह पता ही नहीं लगता। आपको जो सहयोगी दिख रहा है वह पीछे षडयंत्र कर रहा होगा। कलयुग में कौन आपसे प्रेम से बात कर रहा है यह ज्ञात ही नहीं होता। कलयुग में आपका शत्रु है या मित्र है यह भान ही नहीं होता। कलयुग में मनुष्य प्रेम प्रदर्शन के, एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकाने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है।
मौत से डरने वालों का ऐसा होता है हाल...
सूतजी शौनकादिजी से बोल रहे हैं- सुनो अब समापन होने जा रहा है। मैं जो कथा तुम्हें सुना रहा था, शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे अब दृश्य ऐसा हो गया शुकदेवजी गए। परीक्षित अकेले हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परीक्षितजी ध्यान में बैठ गए। आंखें बंद की, अपनी ऊर्जा को ऊपर लिया, अपने प्राणों को नियंत्रण में किया। आज्ञा चक्र से उठकर ऊर्जा सहस्त्रार पर हैं और आदेश दिया अपने प्राण को मुक्त हो एकदम से प्राण मुक्त हुए, अब केवल देह रह गई। परीक्षितजी दूर खड़े अपनी देह को देख रहे हैं।
ये दृश्य बहुत कम लोग देख पाते हैं। कोई शांत मन से अपनी देह का मोह छोड़े मृत्यु के स्वागत में बैठा है। वो राजा परीक्षित सात दिन पहले जो चक्रवर्ती सम्राट थे। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद जिन्हें जीवन दान दिया था। मृत्यु के मुख से बचाकर लाए थे। महान पांडवों का वो वंशज था। दुनियाभर के वैभव, सुख और जिसने भोग किया। परमपराक्रमी और धर्म के तत्व को जानने वाला राजा परीक्षित आज सब कुछ छोड़कर अपनी मृत्यु के इंतजार में बैठ गया है। बिना डरे, बिना किसी असमंजस के। दुनिया में कई शूरवीरों को धूल चटा देने वाला योद्धा आज खाली हाथ मौत से मिलने के लिए बैठा है।आइए उस दृश्य को देखें। तक्षक ने जैसे ही प्रवेश किया, तकक्ष यानी मृत्यु आई है। आज तक्षक के रूप मृत्यु पहली बार अपने जीवन में शरमा गई। मृत्यु ने कहा- यह क्या हुआ मेरा तो सारा आतंक, मेरा सारा अभिमान, भय है और जिस व्यक्ति को मैं मारने आई हूं यह तो निर्भय खड़ा है, दूर खड़ा देख रहा है इसको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है और मुस्कुराते हुए स्वागत किया जा रहा है।
आज मृत्यु शरमा गई। मौत का सारा आतंक किसमें है, भय में है। दुनिया में सारा आतंक भय के कारण है अगर आपके मन से भय दूर हो जाए तो सारा आतंक खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।एक गांव में हैजा फैला तो हजार लोग मर गए। गांव के बाहर एक फकीर बैठा था उसने देखा रात को त्राही-त्राही मची और छम-छम करती हुई एक काली सी औरत जा रही है। उसने पूछा देवी आप कौन हैं? वह बोली- मैं मृत्यु की देवी हूं। इस गांव में हजार लोग मारने आई थी कल फिर आऊंगी, क्योंकि हजार और मारना है।
फकीर ने कहा - कल देखेंगे। कल हुआ, पर मर गए दो हजार। जब वो जा रही थी तो फकीर ने उसको रोककर पूछा- तुमने तो कहा था हजार लोग मारने आओगी, पर संख्या तो दो हजार की हो गई। जिंदगी झूठ बोलती है यह तो सुना था पर मौत भी झूठ बोलती है यह आज देखा मैंने। तुमने हजार की जगह दो हजार मार दिए। मौत ने बड़ा सुंदर जवाब दिया- मैं तो हजार ही मारने आई थी और हजार का ही विधान था, बाकी जो एक्स्ट्रा एक हजार मरे वो मेरे डर के मारे मर गए। आदमी डर के मारे ही मर जाता है।
भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है।इसलिए तय कर लें, आश्रय किसका रखें। प्रभु ने सृष्टि की संरचना बड़े सुन्दर ढंग से की है। उसने जीवन के दु:खों-क्लेशों की पृष्ठभूमि में आनन्द एवं प्रेम का अथाह एवं अनन्त समुद्र छुपा कर रखा है।
यह मनुष्य के ऊपर ही छोड़ दिया है कि चाहे तो वह जगत विषयों के पीछे लग कर, जीवन में दु:ख एवं अशांति को भोगता रहे तथा चाहे तो आनन्द समुद्र में गोते लगाकर परम शान्ति को प्राप्त करे। भक्ति जगत विषयों की गंदी नालियों से निकालकर, अन्दर में ही विद्यमान प्रेम एवं आनन्द समुद्र की ओर अग्रसर करने का मार्ग है।
आवश्यकता है केवल मनुष्य के चेत जाने की। पहले तो उसे इस बात का आभास होना चाहिए कि वह विषय के दलदल में फंसकर रह गया है, उसे इसमें से बाहर निकलना है। वह निकलने का प्रयत्न भी करता है, मन को नियंत्रित करने का यत्न करता है, जप तप करता है तथा शास्त्रों में शान्ति को खोजता है, परन्तु सफल हो पाना कठिन है। दलदल से निकलने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है जो स्वयं दलदल से बाहर खड़ा हो। दलदल में फंसा दूसरा व्यक्ति भी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो स्वयं धंसता चला जा रहा है। मुख्यस्तु महत्कृपैव महापुरुषों, महानुभावों की कृपा प्राप्त करो, क्योंकि वह स्वयं जगत में रहकर भी जगत के बाहर हैं।
परम-प्रेम के निरन्तर प्रवाह का नाम ही भक्ति है। कभी भक्ति की, कभी उधर से उदासीन होकर जगत व्यवहार में लग गए। यह तो भक्ति नहीं, जिस प्रकार नदी की स्वाभाविक जल धारा रात-दिन, प्रतिक्षण बहती रहती है, उसी प्रकार हृदय भी परम-प्रेम से हरदम ढका रहे। वासना, कामना तथा जगत विषयों को हृदय में प्रवेश का अवसर ही प्राप्त न हो। प्रियतम प्रभु हर दम अभिमुख बना रहे। उसकी रासलीला चौबीसों घण्टे चलती रहे तथा भक्त उसके आनन्द तथा मधुरता में ही डूबा रहे, यही परम-प्रेम-रूपा भक्ति का स्वरूप है।
भागवत में लिखा है, कलयुग आएगा तो ऐसे मिलेंगे संकेत...
यदुवंश के मृत व्यक्तियों का श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक करवाया। भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबो दी।पिण्डदान के पश्चात स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आए। वहां सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। हे परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की।
परीक्षित ने शापित होने के कारण शुकदेवजी से जो कथा सुनी थी उसके नायक भगवान श्रीकृष्ण थे। नायक अपनी लीला समेट कर जा चुके हैं और परीक्षित के मन में अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पुन: तैयार हो गए हैं। शुकदेवजी परीक्षित को समझा चुके हैं कि मैंने विस्तार से कृष्ण चरित्र सुनाया है और तुम जान गए होंगे कि धर्म क्या है? जीवन का आरंभ, मध्य और समापन कैसे होता है? इस प्रकार ग्यारहवें स्कंध का समापन होता है।
आइए, इसी के साथ भागवत की कथा अब बारहवें स्कंध में प्रवेश कर रही है। यहां कलयुग का वर्णन आएगा। शुकदेवजी ने जिस बारीकी से और विस्तार के साथ कलयुग का वर्णन किया है हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अब जो चित्रण आएगा उससे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन हमें अब उससे सीखना है कि कलयुग की घटनाएं हमारे भीतर न जन्म लेने लगे। बाहर के दुनियादारी के जीवन में कलयुग का होना स्वाभाविक है। बारहवें स्कंध से हम यह सीखें कि हमारे भीतर कलयुग की स्थिति न बन जाए।
कलयुग तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि भगवान जाएं और मैं आऊं। जब-जब जीवन से भगवान गए, कलयुग आया। भगवान कह रहे हैं अब मैं जा रहा हूं, आप कलयुग को पहचानिए, जानिए। द्वादश स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी कलयुग के बारे में जानकारी दे रहे हैं। कलयुग आएगा तो हमको दिखेगा जीवन का विपरीत घट रहा है। कलयुग में वो लोग जो नीचे बैठे हुए, ऊपर नजर आएंगे। कलयुग जब आएगा तो पापी व्यक्ति जो हैं वे पूजे जाएंगे। कलयुग जब आएगा तो अयोग्य लोग समर्थों पर राज करेंगे। कलयुग जब आएगा तो जो चोर होगा वह साहूकार के रूप में पूजा जाने लगेगा। जो जोर से बोलेगा उसकी बात सुनी जाएगी। भगवान कलयुग का लम्बा-चौड़ा वर्णन करते हैं और हम तो कलयुग को अच्छी तरह से परिचित हैं।
'समय-समय की बात है और समय-समय का योग, लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।कलयुग में ऐसा होता है। जो पतीत है, जो चरित्र से गिरा है वह ऊपर चला जाता है। 'गिरने वाला तो छू गया बुलंदी आसमान की और जो संभलकर चल रहे थे वो रेंगते नजर आए इसका नाम कलयुग है। कलयुग में कौन किसकी मदद कर रहा है यह पता ही नहीं लगता। आपको जो सहयोगी दिख रहा है वह पीछे षडयंत्र कर रहा होगा। कलयुग में कौन आपसे प्रेम से बात कर रहा है यह ज्ञात ही नहीं होता। कलयुग में आपका शत्रु है या मित्र है यह भान ही नहीं होता। कलयुग में मनुष्य प्रेम प्रदर्शन के, एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकाने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है।
मौत से डरने वालों का ऐसा होता है हाल...
सूतजी शौनकादिजी से बोल रहे हैं- सुनो अब समापन होने जा रहा है। मैं जो कथा तुम्हें सुना रहा था, शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे अब दृश्य ऐसा हो गया शुकदेवजी गए। परीक्षित अकेले हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परीक्षितजी ध्यान में बैठ गए। आंखें बंद की, अपनी ऊर्जा को ऊपर लिया, अपने प्राणों को नियंत्रण में किया। आज्ञा चक्र से उठकर ऊर्जा सहस्त्रार पर हैं और आदेश दिया अपने प्राण को मुक्त हो एकदम से प्राण मुक्त हुए, अब केवल देह रह गई। परीक्षितजी दूर खड़े अपनी देह को देख रहे हैं।
ये दृश्य बहुत कम लोग देख पाते हैं। कोई शांत मन से अपनी देह का मोह छोड़े मृत्यु के स्वागत में बैठा है। वो राजा परीक्षित सात दिन पहले जो चक्रवर्ती सम्राट थे। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद जिन्हें जीवन दान दिया था। मृत्यु के मुख से बचाकर लाए थे। महान पांडवों का वो वंशज था। दुनियाभर के वैभव, सुख और जिसने भोग किया। परमपराक्रमी और धर्म के तत्व को जानने वाला राजा परीक्षित आज सब कुछ छोड़कर अपनी मृत्यु के इंतजार में बैठ गया है। बिना डरे, बिना किसी असमंजस के। दुनिया में कई शूरवीरों को धूल चटा देने वाला योद्धा आज खाली हाथ मौत से मिलने के लिए बैठा है।आइए उस दृश्य को देखें। तक्षक ने जैसे ही प्रवेश किया, तकक्ष यानी मृत्यु आई है। आज तक्षक के रूप मृत्यु पहली बार अपने जीवन में शरमा गई। मृत्यु ने कहा- यह क्या हुआ मेरा तो सारा आतंक, मेरा सारा अभिमान, भय है और जिस व्यक्ति को मैं मारने आई हूं यह तो निर्भय खड़ा है, दूर खड़ा देख रहा है इसको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है और मुस्कुराते हुए स्वागत किया जा रहा है।
आज मृत्यु शरमा गई। मौत का सारा आतंक किसमें है, भय में है। दुनिया में सारा आतंक भय के कारण है अगर आपके मन से भय दूर हो जाए तो सारा आतंक खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।एक गांव में हैजा फैला तो हजार लोग मर गए। गांव के बाहर एक फकीर बैठा था उसने देखा रात को त्राही-त्राही मची और छम-छम करती हुई एक काली सी औरत जा रही है। उसने पूछा देवी आप कौन हैं? वह बोली- मैं मृत्यु की देवी हूं। इस गांव में हजार लोग मारने आई थी कल फिर आऊंगी, क्योंकि हजार और मारना है।
फकीर ने कहा - कल देखेंगे। कल हुआ, पर मर गए दो हजार। जब वो जा रही थी तो फकीर ने उसको रोककर पूछा- तुमने तो कहा था हजार लोग मारने आओगी, पर संख्या तो दो हजार की हो गई। जिंदगी झूठ बोलती है यह तो सुना था पर मौत भी झूठ बोलती है यह आज देखा मैंने। तुमने हजार की जगह दो हजार मार दिए। मौत ने बड़ा सुंदर जवाब दिया- मैं तो हजार ही मारने आई थी और हजार का ही विधान था, बाकी जो एक्स्ट्रा एक हजार मरे वो मेरे डर के मारे मर गए। आदमी डर के मारे ही मर जाता है।
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