बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

सांसदों को इतना ज्यादा वेतन क्यों

सांसदों के वेतन, भत्तों और पेंशन पर नजर डाले तो आप चौक जाएंगे । एक दशक में इनमें हुआ इजाफा हैरत में डाल सकता है। इनके निर्धारण और जांच के लिए भारत में कोई स्वतंत्र संस्था तक नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में ऐसी संस्थाएं हैं, जो पारदर्शिता का ख्याल रखती हैं। सांसदों के वेतन के निर्धारण के लिए भारत और दूसरे देशों में अपनाई जाने वाली व्यवस्थाओं में क्या फर्क है और इस मामले में देश के लिए कौन-सी व्यवस्था कारगर है, बता रहे हैं सत्येंद्र कनौजिया :

भारत में क्या होता है?
भारत में सांसदों के वेतन और भत्तों का निर्धारण 'सैलरीज ऐंड अलाउंसेस ऑफ मिनिस्टर्स ऐक्ट', 1952 के तहत किया जाता है। इस कानून में अब तक 28 बार संशोधन हो चुका है। कैबिनेट सांसदों को मिलने वाले वेतन और भत्तों में संशोधन के लिए प्रस्ताव लाती है और संसद उसे पास कर कानून का रूप दे देती है। ऐसे संशोधनों पर बहस नहीं होती। आमतौर पर इन्हें ध्वनिमत से पारित कर दिया जाता है। आगे कुछ आंकड़े दिए जा रहे हैं, जिनसे सांसदों के मूल वेतन, दैनिक भत्ते और पेंशन में 1954 से 2000 और 2000 से 2010 के बीच हुए संशोधनों का हवाला है।
ये आंकड़े काफी हद तक तस्वीर साफ कर देते हैं। 1954 से 2000, यानी 46 सालों में सांसदों के मूल वेतन में जहां महज 167 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं 2000 से 2010 के बीच इसमें 1150 फीसदी का इजाफा हुआ। जहां तक वेतन, भत्तों और पेंशन में संशोधन का सवाल है तो इसे उचित ठहराया जा सकता है। लेकिन यह उम्मीद करना कि लाभार्थी यानी हमारे सांसद अपने वेतन और भत्तों का निर्धारण करते वक्त तटस्थ और पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगे ठीक नहीं है। कई विकसित देशों में इस मुद्दे से निपटने के लिए स्वतंत्र संस्थाएं हैं।

विकसित देशों का हाल
ऑस्ट्रेलिया: यहां की 'रिम्यूनरेशन ट्रिब्यूनल' नाम की स्वतंत्र संस्था पर ऑस्ट्रेलियाई सांसदों के वेतन और भत्तों के निर्धारण और उनमें संशोधन की जिम्मेदारी है। हालांकि पहले ऑस्ट्रेलिया की संसद के पास ही सांसदों के भत्तों और वेतन तय करने का अधिकार था। 1971 में जस्टिस केर की अगुवाई में एक समिति बनाई गई, जिसने सांसदों के वेतन की जांच के लिए स्टैंडिंग ट्रिब्यूनल के गठन की सिफारिश की, तब जाकर रिम्यूनिरेशन ट्रिब्यूनल एक्ट, 1973 बना।
अमेरिका: अमेरिका में सांसदों के वेतन के निर्धारण में खुद सांसदों की भागीदारी बेहद कम होती है। अमेरिकी संविधान में हुआ 27वां संशोधन सांसदों को सत्र के दौरान अपने वेतन में इजाफा करने से रोकता है।
यूनाइटेड किंगडम: यहां कई ऐसी स्वतंत्र संस्थाएं हैं, जो वेतन में मनमानी बढ़ोतरी से रोकती हैं। इसके अलावा वे यह देखती हैं कि सांसद सार्वजनिक जीवन में उच्च आदर्शों का पालन कर रहे हैं या नहीं।

भारत के लिए क्या है आदर्श
यूके के मॉडल को भारत के संदर्भ में सबसे आदर्श माना जा सकता है। वहां जो संस्थान सांसदों के वेतन आदि को तय करते हैं, उनके मानक भी अलग-अलग हैं।
पार्ल्यामेंटरी कमिश्नर फॉर स्टैंडर्ड्स: यह संसद का एक स्वतंत्र अधिकारी होता है, जो सांसदों की संपत्तियों और उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज करता है।नैशनल लेवल कमिटी ऑन स्टैंडर्ड्स इन पब्लिक लाइफ : यह कमिटी सरकार को सार्वजनिक जीवन में अपनाए जाने वाले एथिकल स्टैंडर्ड्स(नैतिक मानदंडों) पर सलाह देती है। इसकी स्थापना 1994 में हुई। बीते सालों में इस कमिटी ने राजनीतिक पाटिर्यों की संपत्तियों, सांसदों के खर्चों और भत्तों समेत कई अहम रिपोर्ट तैयार की हैं।

रिव्यू बॉडी ऑन सीनियर सैलरीज (एसएसआरबी) : एसएसआरबी समय-समय पर प्रधानमंत्री को सांसदों और मंत्रियों के वेतन, भत्तों और पेंशन पर सलाह देती है। यह लॉर्ड चांसलर और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर डिफेंस को न्यायिक पदों पर बैठे लोगों, सीनियर सिविल सर्वेंट, सशस्त्र सेनाओं के सीनियर अधिकारियों को लेकर वेतन पर समय-समय पर सलाह देती है।
पार्ल्यामेंटरी स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (आईपीएसए) : यह पार्ल्यामेंटरी स्टैंडर्ड्स ऐक्ट, 2009 के जरिए अस्तित्व में आई। आईपीएसए सांसदों के खर्चों, वेतन और पेंशन की निगरानी और उन पर नियंत्रण रखती है। वह नियमित रूप से उनके खर्चों की जानकारी प्रकाशित करती है।

ब्रिटेन से जुड़े कुछ फैक्ट्स
1 अप्रैल, 2010 के आंकड़े के मुताबिक, ब्रिटेन के एक सांसद की सालाना आय 65,738 पाउंड है।
ब्रिटेन में सांसदों को सालाना आय मिलने की शुरुआत 1911 में हुई। उस वक्त यह 400 पाउंड थी।
2010 के आम चुनावों के बाद से सांसदों के वेतन और भत्तों का निर्धारण आईपीएसए करती है।
ब्रिटेन के सांसद आम जनता की तरह टैक्स और नैशनल इंश्योरेंस देते हैं।
वहां सांसदों को कंजेशन चार्ज से कोई राहत नहीं दी गई है।

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