रविवार, 31 जनवरी 2010

कहानी

शक्तियाँ
हर काम के लिए व्यक्ति के अंदर शक्ति का होना आवश्यक है। शक्ति दो प्रकार की होती है। शारीरिक तथा मानसिक। जो व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है उसके शरीर और मन दोनों में शक्ति होना आवश्यक है। शरीर की शक्ति आती है शरीर को स्वस्थ रखने से और शरीर को स्वस्थ रखने से और मन की शक्ति आती है सत्य के आचरण से। शरीर और मन दोनों की शक्तियाँ जब तक व्यक्ति में हों तभी तक वह सच्चे अर्थों में शक्तिशाली कहलाने का दावा कर सकता है। दोनों में से केवल एक ही शक्ति रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में सफल नहीं हो सकता।
कालू नाम का एक लड़का था। वह रोज नियमपूर्वक कसरत करता था, अच्छी तरह खाता-पीता था। अपने स्वास्थ्‍य का बहुत ही ध्यान रखता था, किंतु न तो वह पढ़ता-लिखता था, न ही ज्ञान-चर्चा करता था। बड़ा होने पर वह शरीर से हट्‍टा-कट्‍टा तो हुआ, परंतु मानसिक बल उसके पास कुछ नहीं था। लोगों को मारपीट की धमकी देकर ही उनसे रुपया-पैंसा ऐंठ लेता था और उसी से अपना काम चलाता था।
ऐसा करते-करते एक दिन वह डाकुओं के दल में जा मिला। पुलिस के डर से भयभीत वह हमेशा अपने आप को छिपाए-छिपाए रहता था। शरीर में इतना बल रखते हुए भी उसे एक दिन पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा। क्या कालू को हम शक्तिशाली कह सकते हैं? नहीं, मानसिक बल न रहने के कारण उसका शारीरिक बल व्यर्थ ही नहीं गया, उसकी मृत्यु का कारण भी बना।
इसके विपरीत रामानुजम नाम का लड़का था। वह गणित में बहुत ही अधिक कुशल था। उसे केवल अपनी किताबों से ही प्रेम था। हिसाब बनाते-बनाते न उसे खाने-पीने की सुध रहती न अपने शरीर के आराम की। छोटी-सी उम्र में ही उसने बहुत कुछ जान लिया। यहाँ तक कि उसके एक अँगरेज प्रोफेसर उसे विश्वविख्यात कैंब्रिज विश्वविद्यालय में ले गए ताकि उसे गणित के अध्ययन में सुविधा हो। लेकिन निरंतर अवहेलना के कारण उसके शरीर का सारा बल जाता रहा था। उसे टीबी हो गई और 25 साल की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। वह संसार को बहुत कुछ दे सकता था, किंतु शरीर के बल के अभाव के कारण उसका जीवन एक प्रकार से व्यर्थ हो गया।

इन दो उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है‍ कि शारीरिक और मानसिक बल एक-दूसरे के बिना निरर्थक हैं। शरीर में बल प्राप्त करने के लिए उसकी देखभाल बहुत आवश्यक है। जब तक बच्चा छोटा रहता है, उसका स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उसके माता-पिता पर रहती है। बड़े होने पर अपने शरीर की देखभाल स्वयं करना बहुत आवश्यक है। आरंभ से ही ठीक आदतें डालनी चाहिए। समय से खानापीना, सोना, खेलना शरीर के स्वास्‍थ्‍य के लिए अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त भोजन को रुचि तथा प्रेम से करना भी बहुत आवश्यक है।
में नहीं जीभ में होता है। स्वस्थ आदमी जब क्ष‍ुधा के साथ भोजन पर बैठेगा तो परोसी हुई हर अच्छी वस्तु खाने की आदत डालना बहुत अच्छा रहता है। खाने-पीने की कुछ चीजें अवश्य ही हानिकारक हैं - जैसे सड़े-गले फल, सड़क पर बिकने वाली खुली भोजन सामग्री, बिना धुली गंदी चीजें, तंबाकू शराब इत्यादि। इन चीजों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है। इसके अतिरिक्त नियमित रूप से कसरत करना, टहलना भी स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। शरीर भगवान की एक अनमोल देन है। उसे भगवान का वरदान मानकर हमेशा स्वस्थ, साफ-सुथरा और सुंदर रखना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, तभी शरीर में बल रहता है और तभी व्यक्ति अपने जीवन के उद्‍देश्य की प्राप्ति के लिए पूरी तरह चेष्टा कर सकता है।
जो व्यक्ति शरीर की देखभाल नहीं करते, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। शरीर की देखभाल का स्थान प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति की दिनचर्या में होना नितांत आवश्यक है।
स्वस्थ शरीर के बिना सफल जीवन की कामना करना व्यर्थ है। शरीर की शक्ति ही मन की विविध शक्तियों को कार्य रूप देने में सफल हो सकती है। स्वस्थ जीवन बल यही शरीर की एकमात्र शक्ति है, किंतु इसके विपरीत मन की शक्तियाँ ही कई प्रकार की होती हैं। उनके नाम हैं बुद्धि, दृढ़ता और कल्पना। ये शक्तियाँ सब व्यक्तियों में समान रूप से निहित नहीं होतीं, लेकिन न्यूनाधिक मात्रा में हर एक के पास विद्यमान रहती हैं। स्वस्थ मन वाला व्यक्ति यदि चाहे तो इनका और अधिक विकास भी सहज ही कर सकता है।
मन के स्वास्थ्य के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है और साथ ही शरीर के स्वास्थ्य के लिए मन का स्वस्थ होना भी आवश्यक है। दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मन सूक्ष्म है, उसकी देखभाल करना शरीर की देखभाल करने की अपेक्षा अधिक कठिन है। इसलिए पहले शरीर को स्वस्थ बनाकर ही मन के स्वास्थ्‍य पर ध्यान देना उचित है। स्वस्थ मन वह है जिसकी बुद्धि हमेशा अच्छी बातों की प्रेरणा देती है तथा निरंतर ज्ञान के पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करती है। स्वस्थ मन की दृढ़ता व्यक्ति को उत्साहित रखती है और उसे अपने हर काम को पूरा करने में मदद देती है। स्वस्थ मन की कल्पना व्यक्ति को ऊँचा उठाने और अधिक अच्‍छा बनने में सतत सहायता करती है।
अस्वस्थ मन को बुद्धि बुरी दिशा की तरफ ले जाती है। अस्वस्थ मन में दृढ़ता होती ही नहीं और अस्वस्थ मन की कल्पना सदा भयावह होती है। बुद्धि दूसरों की बुराई सोचती है। दृढ़ता न रहने के कारण अस्वस्थ मन वाला व्यक्ति कोई भी काम नहीं कर पाता। उसकी कल्पना उसे असफलता तथा पतन की तस्वीरें ही उसके आगे प्रस्तुत करती है।
अब प्रश्न उठता है कि मन को स्वस्थ कैसे रखा जाए? मन को स्वस्थ रखने के लिए दो बातें बिल्कुल ही आवश्यक हैं। भगवान में दृढ़ विश्वास और सत्य का आचरण। भगवान में विश्वास न रहने पर व्यक्ति का जीवन अव्यवस्थित हो उठता है। उसे पता नहीं चलता कि वह जीवित ही क्यों है? ऐसे प्रश्न मन में उठकर उसे अशांत बना देते हैं और उसकी बुद्धि उद्‍भ्रांत-सी रहती है।
भगवान में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह जानता है कि भगवान ने उसे बनाया है, उसकी आत्मा भगवान का ही एक अंश है। भगवान ने उसे संसार में एक खास उद्‍देश्य से भेजा है - वह सुखी रहे, ज्ञान प्राप्त करे और अपने प्राप्त किए हुए ज्ञान को संसार को अच्छा करने में काम में लाए। ऐसा सोचने वाले व्यक्ति का मन सदा प्रसन्न, सदा शांत रहता है और अपने आप में वह शक्ति का अनुभव करता है। जो व्यक्ति यह जान लेता है कि वह एक उद्‍देश्य से संसार में आया है वह कभी भी बुरा आचरण नहीं करता है। सत्य को अपने जीवन की धुरी बनाकर वह हमेशा कठिन काम करता है।
अपना कर्तव्य भली-भाँति निभाता है और उसका मन सशक्त और प्रफुल्ल रहता है। मन में शक्ति रहने के कारण वह व्यक्ति समाज में सदा प्रतिष्ठित रहता है। दूसरे लोगों का श्रद्धा-पात्र रहता है।
स्वस्थ रखने के लिए मन पर नियंत्रण रखना भी बहुत आवश्यक है। आज के संसार में बहुत सारे व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जो यह कहते हैं कि यदि भगवान ने हमें इच्छा, अभिलाषा, भावनाएँ, अनुभूतियाँ दी हैं तो हम उन्हें ‍छिपाकर क्यों रखें? मन जो कहे वही करना उचित है। ऐसा करने वाले लोग मन और प्रवृत्तियों के अंतर को स्पष्ट नहीं समझ सकते हैं। हम किसी के घर जाते हैं, वहाँ कोई बड़ी लुभावनी वस्तु यदि हमारे सामने आए तो क्या उसे हम उठा लेंगे? नहीं, प्रवृत्ति कहती है, 'वह हमारी हो जाए' लेकिन मन कहता है, नहीं, वह किसी और की है, हम उसे नहीं ले सकते। बीमार रहने पर कई बार हमारी जीभ, हमारा स्वाद चाहता है कि अमुक वस्तु खाएँ, लेकिन मन समझाता है, 'नहीं, यह ठीक नहीं। इसे खा लेने पर हम और अधिक बीमार हो जाएँगे।

पुस्तक 'बच्चो अच्छे बनो' से।


नारदजी
एक बार नारदजी भ्रमण करते हुए भगवान शिव की नगरी वाराणसी जा पहुँचे। नगरी के मनोरम दृश्य देखकर उनका मन प्रसन्ना हो गया। जब वे चौक बाजार से होकर जा रहे थे तो उनकी इच्छा तांबूल खाने की हुई। नारदजी को वाराणसी के पान की प्रसिद्धि का पता देवलोक में लग गया था इसलिए उनका पान खाने का बड़ा मन था। वे ललचाई नजरों से किसी पान वाले की दुकान की तलाश कर रहे थे। तभी एक लड़के ने आकर एक दुकान पर बैठे हुए मोटे लालाजी की ओर संकेत करते हुए नारदजी से कहा- "आपको बाबूजी बुला रहे हैं।"
नारदजी ने मन ही मन सोचा, लो अच्छा हुआ, बाबूजी अतिथि-सत्कार के तौर पर पान तो खिलाएँगे ही। जैसे हीएक बार नारदजी भ्रमण करते हुए भगवान शिव की नगरी वाराणसी जा पहुँचे। नगरी के मनोरम दृश्य देखकर उनका मन प्रसन्ना हो गया। जब वे चौक बाजार से होकर जा रहे थे तो उनकी इच्छा तांबूल खाने की हुई। नारदजी को वाराणसी के पान की प्रसिद्धि का पता देवलोक में लग गया था इसलिए उनका पान खाने का बड़ा मन था। वे ललचाई नजरों से किसी पान वाले की दुकान की तलाश कर रहे थे। तभी एक लड़के ने आकर एक दुकान पर बैठे हुए मोटे लालाजी की ओर संकेत करते हुए नारदजी से कहा- "आपको बाबूजी बुला रहे हैं।"

नारदजी ने मन ही मन सोचा, लो अच्छा हुआ, बाबूजी अतिथि-सत्कार के तौर पर पान तो खिलाएँगे ही। जैसे ही नारदजी दुकान पर पहुँचे, वहाँ बैठा हुआ लाला बोल- "बाबा राधेश्याम! नारदजी ने सोचा, शायद किसी राधेश्याम के चक्कर में मुझे बुला लिया है। अतः वे बोले- "भैया क्षमा करना, मेरा नाम राधेश्याम नहीं है, मैं तो नारद हूँ। यह सुनकर लाला मुस्कुराकर बोला-"आप नारद हों या कोई और, मुझे इससे मतलब नहीं है, हाँ आप इस वीणा को मुझे बेच दो, मेरा लाडला वीणा चाहता है।

यह सुनते ही नारदजी के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह तो इस आशा से दुकान पर आए थे कि‍ कुछ आदर सत्‍कार होगा, किंतु यहाँ तो लेने के देने पड़ने लगे। वे बोले 'ना भैया यह वीणा बि‍काऊ नहीं है। अपने लाड़ले सपूत को कोई दूसरी वीणा दि‍ला दो।' इतना कहकर नारद जी जाने लगे तो दुकानदार कड़ककर बोला, 'देखो बाबा मेरे बच्‍चे के मन में ये वीणा बस गई है आप चाहे जि‍तना पैसा ले लो, यह वीणा दे दो।'

अरे क्‍या कहते हो भैया तुम्‍हारे लड़के के मन में तो ये आज बसी है मेरे मन में तो सदैव से यही बसी हुई है। मैं इसे नहीं दूँगा मुझे रुपए पैसे से कोई मतलब नहीं है।' नारद जी ने कहा।

नारदजी के इस उत्तर से लाला जनभुन गया। उसने नारद जी को ऊपर से नीचे तक देखा और बोला- 'शायद कहीं बाहर से आए हो बाबा?'
'हाँ भैया मैं देवलोक से आया हूँ।' नारद जी ने वि‍नम्रता के साथ कहा। 'हुममम, तभी तो! वाराणसी में रहने का कब तक रहने का वि‍चार है?' लाला ने घमंड के साथ पूछा। 'अब आ ही गया हूँ तो भगवान शि‍व की नहरी में दस-पाँच दि‍न घूमूँगा फि‍रूँगा।' नारद जी ने जवाब दि‍या। 'तो कान खोलकर सुन लो बाबा! आप इस वीणा को लेकर वाराणसी से वापस नहीं जा सकते। मुझे सेठ पकौड़ीलाल कहते हैं। मेरी शक्ति‍ और सामर्थ्‍य के बारे में जानना हो तो कि‍सी भी बनारसी से पूछ लेना।'

सेठ की बे सि‍र पैर की बाते सुनकर नारद जी को भी मजाक सूझा। वे बोले, 'हाँ तुम्‍हारी शक्ति‍ का तो अंदाजा तुम्‍हारी मोटी तोंद से ही लग रहा है लेकि‍न शायद तुम्‍हारी बुद्धि‍ तुम्‍हारी तोंद से भी मोटी है।' नारद जी के मुँह से ऐसा सुनकर से सेठ आग बबूला हो गया जैसे ही वह नारद जी पर ढपटा वे अंतर्ध्‍यान हो गए। लाला का पैर फि‍सला और वो धम्‍म से नीचे गि‍र पड़ा।

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