इब्न बतूता, पहन के जूता...
एक यात्री, जो याद बन गया
रफीक विसाल
सिर्फ इक्कीस बरस की उम्र में इब्न बतूता ने उत्तरी अफ्रीका के उत्तरी-पश्चिमी सिरे (मोरक्को) से जब 14 जून 1325 (02 रज्जब 225 हिजरी) को सफर की शुरुआत की तो ...उसे पता नहीं था कि उसकी मंजिल या रास्ते क्या होंगे। सिर्फ दिल में मक्का-मदीना की जियारत (दर्शन) करने की कोरी ख्वाहिश थी। जियारत और सियाहत (यात्रा) के इस जुनूनी शौक ने इब्न बतूता के नाम के साथ वह कारनामा चस्पाँ कर दिया कि आज भी उसका नाम लबों पर डोल जाता है। 24 फरवरी 1304 (14 रज्जब 703 हिजरी) में मराकिश (मोरक्को) के काजी खानदान में उनका जन्म हुआ। लंबे सफर के लिए मशहूर इब्न बतूता का पूरा नाम भी आम नामों की तुलना में काफी लंबा हैः इब्न बतूता मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह। अपने समय के इस जाँबाज यात्री ने सिर्फ 28 साल की उम्र में 75 हजार मील का सफर तय किया था।
इब्न बतूता जब मोरक्को से रवाना हुआ था तो सिर्फ हज का इरादा था लेकिन सफर के रोमांच ने उसे आगे बढ़ने का हौंसला दिया। सऊदी अरब से पहले अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मिस्र, फिलिस्तीन और सीरिया होते हुए एक बड़े कारवाँ के साथ वह मक्का पहुँचा। यहाँ की जियारतों ने उसके दिल में बह रहे ईमान के दरिया को नई लहरें दीं।
सऊदी अरब की यात्रा में ही बतूता का दो साधुओं से मिलना हुआ। इन साधुओं ने पूरब के मुल्कों की खूब तारीफें कीं। पूरब के बारे में सुनने के बाद उसे अंदाजा हो गया कि यह मजहब और ईमान के कद्रदानों की धरती है। उसने भारत के उत्तर-पश्चिम दरवाजे यानी अफगानिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश किया। उस वक्त दिल्लीClick here to see more news from this city में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की हुकूमत थी। तुगलक ने पहले से ही इब्न बतूता के बारे में सुन रखा था। दिल्ली पहुँचने पर बतूता की खूब खातिरदारी की गई और उसे कई तोहफों से नवाजा गया। बतूता को राजधानी के काजी-ए-आला का ओहदा सौंप दिया गया। तुगलक को बतूता के काम करने का अंदाज बहुत पसंद आया।
उसने 1342 में बतूता को अपना सफीर (दूत) बनाकर चीन के लिए रवाना किया। लेकिन चीन के रास्ते में उसे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसी सफर के दौरान वह मध्य भारत के मालवा होते हुए गोआ पहुँचा था और वहाँ से कालीकट तक पहुँचने में उसे पसीना आ गया था। आखिरकार तमाम मुश्किलों के बावजूद इब्न बतूता श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी के मार्ग से चीन पहुँचने में कामयाब हो गया।
जिस दौर में इब्न बतूता आया तब पूरे अफ्रीका और भारतीय समुद्र मार्ग का पूरा कारोबार सौदागरों के ही हाथ में था। उसने इराक और ईरान में भी 1329 में काफी समय बिताया और फिर मक्का लौट आया। अपनी यात्रा के पड़ाव में तकरीबन तीन साल इब्न बतूता मक्का में ही रहा। यहीं रहते हुए जद्दाह पहुँचकर समुद्र के रास्ते यमन भी जाना हुआ। अदन से मुंबासा और पूर्वी अफ्रीका भी जाना हुआ। यहाँ पहुँचते बतूता काफी संपन्ना हो गया था क्योंकि वह जिस सल्तनत से गुजरता था, वहाँ के सुल्तान उसका सम्मान कर इनाम-इकराम से नवाजते थे।
तमाम सफर के बाद 1354 की शुरुआत में इब्न बतूता अपने देश मोरक्को पहुँचा। राजधानी फेज में उसका सम्मान किया गया क्योंकि इससे पहले किसी ने इतनी लंबी यात्रा नहीं की थी। फेज में सुल्तान अबू हन्नान के दरबार पहुँचकर अपना यात्रा वृतांत सुनाया तो सुल्तान ने अपने सचिव मुहम्मद इब्न जुजैय को इसे लिखने का आदेश दिया। इसके बाद पूरा समय बतूता का मोरक्को में ही बीता। 1377 (779 हिजरी) में बतूता का निधन हो गया।
FILEउसके पूरे सफरनामे को किताबी शक्ल दी गई। इस किताब को 'अजाइब अलअसफारनी गराइबुद्दयार' और ' तुहफतुल नज्जार फी गरायतब अल अमसार' के नाम से प्रकशित किया गया। इस किताब में मध्यकालीन भारत और विश्व के कई देशों के इतिहास और भौगोलिक परिस्थितियों का जिक्र है। इसकी पांडुलिपि पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस हस्तलिपि को दे फ्रेमरी और सांगिनेती ने संपादित किया है। यह हस्तलिपि 1836 में तांजियार में मिली थी। इसका फ्रेंच में चार खंडों अनुवाद किया गया है।
नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी और विद्या बालनCute Vidya Balan Pics & Wallpapers अभिनीत ताजा फिल्म 'इश्किया' के गाने 'इब्न बतूता/ बग्ल में जूता/ पहने तो करता है चुर्र...उड़ उड़ आवे/दाना चुगे/उड़ जावे चिड़िया फुर्र...' ने इब्न बतूता का नाम हर खासो-आम की जबान पर ला दिया है। इस गीत को गुलजार साहब ने बड़ी खूबसूरती से लिखा है। हालाँकि बरसों पहले हिन्दी के ख्यातनाम कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'बतूता का जूता' काफी मकबूल हुई थी। हो सकता है गुलजार साहब के जहन में गीत लिखते हुए यह आ गई हो लेकिन गीत और कविता में काफी फर्क है।
बतूता का जूता
इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्न बतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में।
एक यात्री, जो याद बन गया
रफीक विसाल
सिर्फ इक्कीस बरस की उम्र में इब्न बतूता ने उत्तरी अफ्रीका के उत्तरी-पश्चिमी सिरे (मोरक्को) से जब 14 जून 1325 (02 रज्जब 225 हिजरी) को सफर की शुरुआत की तो ...उसे पता नहीं था कि उसकी मंजिल या रास्ते क्या होंगे। सिर्फ दिल में मक्का-मदीना की जियारत (दर्शन) करने की कोरी ख्वाहिश थी। जियारत और सियाहत (यात्रा) के इस जुनूनी शौक ने इब्न बतूता के नाम के साथ वह कारनामा चस्पाँ कर दिया कि आज भी उसका नाम लबों पर डोल जाता है। 24 फरवरी 1304 (14 रज्जब 703 हिजरी) में मराकिश (मोरक्को) के काजी खानदान में उनका जन्म हुआ। लंबे सफर के लिए मशहूर इब्न बतूता का पूरा नाम भी आम नामों की तुलना में काफी लंबा हैः इब्न बतूता मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह। अपने समय के इस जाँबाज यात्री ने सिर्फ 28 साल की उम्र में 75 हजार मील का सफर तय किया था।
इब्न बतूता जब मोरक्को से रवाना हुआ था तो सिर्फ हज का इरादा था लेकिन सफर के रोमांच ने उसे आगे बढ़ने का हौंसला दिया। सऊदी अरब से पहले अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मिस्र, फिलिस्तीन और सीरिया होते हुए एक बड़े कारवाँ के साथ वह मक्का पहुँचा। यहाँ की जियारतों ने उसके दिल में बह रहे ईमान के दरिया को नई लहरें दीं।
सऊदी अरब की यात्रा में ही बतूता का दो साधुओं से मिलना हुआ। इन साधुओं ने पूरब के मुल्कों की खूब तारीफें कीं। पूरब के बारे में सुनने के बाद उसे अंदाजा हो गया कि यह मजहब और ईमान के कद्रदानों की धरती है। उसने भारत के उत्तर-पश्चिम दरवाजे यानी अफगानिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश किया। उस वक्त दिल्लीClick here to see more news from this city में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की हुकूमत थी। तुगलक ने पहले से ही इब्न बतूता के बारे में सुन रखा था। दिल्ली पहुँचने पर बतूता की खूब खातिरदारी की गई और उसे कई तोहफों से नवाजा गया। बतूता को राजधानी के काजी-ए-आला का ओहदा सौंप दिया गया। तुगलक को बतूता के काम करने का अंदाज बहुत पसंद आया।
उसने 1342 में बतूता को अपना सफीर (दूत) बनाकर चीन के लिए रवाना किया। लेकिन चीन के रास्ते में उसे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसी सफर के दौरान वह मध्य भारत के मालवा होते हुए गोआ पहुँचा था और वहाँ से कालीकट तक पहुँचने में उसे पसीना आ गया था। आखिरकार तमाम मुश्किलों के बावजूद इब्न बतूता श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी के मार्ग से चीन पहुँचने में कामयाब हो गया।
जिस दौर में इब्न बतूता आया तब पूरे अफ्रीका और भारतीय समुद्र मार्ग का पूरा कारोबार सौदागरों के ही हाथ में था। उसने इराक और ईरान में भी 1329 में काफी समय बिताया और फिर मक्का लौट आया। अपनी यात्रा के पड़ाव में तकरीबन तीन साल इब्न बतूता मक्का में ही रहा। यहीं रहते हुए जद्दाह पहुँचकर समुद्र के रास्ते यमन भी जाना हुआ। अदन से मुंबासा और पूर्वी अफ्रीका भी जाना हुआ। यहाँ पहुँचते बतूता काफी संपन्ना हो गया था क्योंकि वह जिस सल्तनत से गुजरता था, वहाँ के सुल्तान उसका सम्मान कर इनाम-इकराम से नवाजते थे।
तमाम सफर के बाद 1354 की शुरुआत में इब्न बतूता अपने देश मोरक्को पहुँचा। राजधानी फेज में उसका सम्मान किया गया क्योंकि इससे पहले किसी ने इतनी लंबी यात्रा नहीं की थी। फेज में सुल्तान अबू हन्नान के दरबार पहुँचकर अपना यात्रा वृतांत सुनाया तो सुल्तान ने अपने सचिव मुहम्मद इब्न जुजैय को इसे लिखने का आदेश दिया। इसके बाद पूरा समय बतूता का मोरक्को में ही बीता। 1377 (779 हिजरी) में बतूता का निधन हो गया।
FILEउसके पूरे सफरनामे को किताबी शक्ल दी गई। इस किताब को 'अजाइब अलअसफारनी गराइबुद्दयार' और ' तुहफतुल नज्जार फी गरायतब अल अमसार' के नाम से प्रकशित किया गया। इस किताब में मध्यकालीन भारत और विश्व के कई देशों के इतिहास और भौगोलिक परिस्थितियों का जिक्र है। इसकी पांडुलिपि पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस हस्तलिपि को दे फ्रेमरी और सांगिनेती ने संपादित किया है। यह हस्तलिपि 1836 में तांजियार में मिली थी। इसका फ्रेंच में चार खंडों अनुवाद किया गया है।
नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी और विद्या बालनCute Vidya Balan Pics & Wallpapers अभिनीत ताजा फिल्म 'इश्किया' के गाने 'इब्न बतूता/ बग्ल में जूता/ पहने तो करता है चुर्र...उड़ उड़ आवे/दाना चुगे/उड़ जावे चिड़िया फुर्र...' ने इब्न बतूता का नाम हर खासो-आम की जबान पर ला दिया है। इस गीत को गुलजार साहब ने बड़ी खूबसूरती से लिखा है। हालाँकि बरसों पहले हिन्दी के ख्यातनाम कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'बतूता का जूता' काफी मकबूल हुई थी। हो सकता है गुलजार साहब के जहन में गीत लिखते हुए यह आ गई हो लेकिन गीत और कविता में काफी फर्क है।
बतूता का जूता
इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्न बतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में।
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