गुरुवार, 21 जनवरी 2010

साहित्य

फर्क

शेष नारायण बंछोर
पहले ही बता दूं कि डेली टाइम्स से इसलिए नहीं जुडी थी कि पत्रकारिता या लेखन को लेकर मेरे कोई सपने थे या मैं कोई जन्मजात लेखिका थी अथवा पत्रकारिता मेरे बाप-दादों की पुश्तैनी जीविका थी। न मम्मी ने और न ही पापा ने चाहा या सोचा था कि मैं पत्रकारिता को पेशे के तौर पर अपनाऊं। इन बातों में कोई भी बात ऐसी नहीं है, जिससे मैं दूर-दराज का भी अपना कोई संबंध जोड सकूं।

सच तो यह है कि पत्रकारिता से पढने-लिखने का जितना संबंध है, मेरे बाप-दादों को पढने-लिखने से उतनी ही विरक्ति, बल्कि कहिए कि चिढ थी, लेकिन जैसे ही अंग्रेजों की गुलामी से देश आजाद हुआ, सरकार ने पढने-लिखने की कुछ ऐसी हवा चला दी कि हिन्दुस्तान का घर-घर शिक्षा की रोशनी से जगमगा उठा।

हवा चली थी तो फिर चलकर हमारे गांव-कस्बे तक भी आनी ही थी और घर की बडी संतान होने के नाते मुझे स्कूल जाना ही था। जाना था तो स्कूल गयी और फिर कॉलेज भी। अभी एम.ए. कर रही थी कि एक्सीडेंट में पापा की मौत हो गयी। घर में कमाने वाले मात्र वही थे। सो, घर पर कठिनाइयों का पहाड टूट पडा। दिल्ली के वाईएमसीए में जर्नलिज्म में एडमिशन दिलवा पाने में मामाजी सफल हो गए और फिर डिप्लोमा पा लेने के बाद टाइम्स से ट्रेनी जर्नलिस्ट के रूप में उन्होंने ही जोड दिया था, अन्यथा दिल्ली मेरे लिए बहुत दूर थी।

हमारा दफ्तर मुख्य सडक पर है। सडक की ओर देखने लगी। अर्थी पर नजर पडी तो एकाएक दिमाग में सवाल उठा, क्या दिल्ली में भी लोग मरते हैं? दिल्ली आए यही कोई डेढेक साल हो गया है। इस दौरान मैंने पहली बार कोई अर्थी देखी। दिमाग में अपने छोटे से गंवई कस्बे के कुछ दृश्य उभर आए: कहीं दूर से उभरती राम नाम सत्य है की आवाज, जो तेजी से करीब आती प्रतीत होती। तब मम्मी के मुंह से निकलता, कौन चला गया इतनी सर्दी में या किसका काल आ गया इस बारिश में या फिर कौन चल दिया दिवाली के दिन।

वैसे तो अक्सर मालूम ही रहता कि कौन गुजर गया है। बहुत छोटा भी नहीं था हमारा कस्बा, लेकिन किसी भी परिवार में कोई गुजर जाता तो खबर हवा की तरह सभी के पास अपने आप पहुंच जाती। सुबह सात बजे से पहले यदि कोई दरवाजे पर दस्तक देता तो हम दरवाजा खोलने नहीं जाते, प्राय: पापा ही जाते तो मम्मी पूछतीं, कौन चला गया इतनी सुबह! पापा आशंका जताते, महेश की हालत खराब थी, रात कहीं गुजर तो नहीं गया।

दरवाजा खोलने पर जान-पहचान के दो-चार लोग सामने खडे होते और महेश के गुजर जाने की सूचना तो देते, लेकिन कोई अंदर नहीं आता। पापा भी जल्दी में कपडे बदलते और जूते पहनकर उन लोगों के साथ चल देते। मम्मी की दिनचर्या भी उस दिन बदल जाती। सामान्य दिनों में वह सारे काम निबटाकर सुबह नौ बजे तक नहा लेती, लेकिन ऐसे दिनों में वह दूसरे काम तो करती रहतीं, लेकिन नहाती नहीं थीं। फिर मुझे हिदायतें देने लग जातीं, पापा आएंगे तो उन्हें यह-यह कपडे दे देना। वे तो गंगा घाट जाएंगे ही, मुझे भी लौटने में बारह बज जाएगा। आज मेरा और तुम्हारा ही खाना बनेगा, तुम्हारे पापा तो शाम देर तक ही लौट पाएंगे आदि-आदि। फिर हल्की बदरंग साडी लपेट लेतीं। मैं कहती, यह नहीं, कोई ठीक-सी साडी पहनकर जाओ। इतने लोग आएंगे, सबके सामने क्या अच्छी लगेगी यह। इस पर वे मुझे डांट देतीं, वहां क्या किसी की शादी हो रही है? किसी को होश ही नहीं होगा साडी-वाडी देखने का। मैं कहती, अच्छा, चाय तो पी कर जाओ। तब फिर वह मुझे समझातीं, ऐसे में मन नहीं करता कुछ खाने-पीने का, अब लौट कर ही पिऊंगी चाय भी। कहकर वे भी पापा की तरह तेज कदमों से निकल जातीं, मानो वहां उनका भी इंतजार हो रहा होगा।

मै भी अपने कामों में लग जाती। कोई दरवाजा थपथपाता, अरी गुडिया, तेरे पापा हैं घर में? दरवाजा खोलते हुए मैं कहती, पापा तो नहीं हैं..

अच्छा, चले गए, ठीक है। दरवाजा बंद कर लो। किसी को बताने की जरूरत नहीं पडती थी कि पापा कहां गए हैं। पूछने वाला स्वयं समझ जाता कि आज सब लोग कहां गए होंगे। फिर ग्यारह-बारह बजे के आसपास पापा आते और बहुत जल्दी में कहते, ला, मेरे कपडे दे दे। और फिर कुछ रुपये लेकर चल देते।

पापा, चाय तो पी लो। मैं कहती।

नहीं, सब कुछ तैयार है। घाट ले जा रहे हैं, कहीं निकल न जाएं। कहते हुए पापा तेजी से निकल जाते।

मम्मी भी चार-पांच घंटे बाद लौटतीं। नहाने के कपडे मांगतीं और शुरू हो जातीं, वह तो पागल ही हो रही थी रो-रो कर। दो छोटे-छोटे बच्चे छोडे हैं महेश ने। कैसे-क्या करेगी बेचारी! और फिर दिन भर महेश के परिवार की ही बातें होती रहतीं। शाम को पापा गंगा घाट से लौटकर आते तो फिर वही बातें दोहराई जातीं।

कोई ऐसी मृत्यु होती, जिसकी सूचना हमें न मिल पाती तो तेजी से आती राम नाम सत्य है की आवाज सुनकर मां तेज कदमों से जातीं और दरवाजे की आड लेकर खडी हो जातीं। मैं भी खिडकी से झांकती। समूह में पच्चीस-तीस लोग तो होते ही। मरने वाला यदि किसी अच्छे घर का होता तो लोगों की संख्या सौ से ऊपर भी पहुंच जाती। लोगों का समूह तेजी से बढता हुआ हमारे दरवाजे के सामने से निकल जाता। एक अजीब-सी तेजी होती उनकी चाल में। जहां-जहां से अर्थी गुजरती, सभी लोग उसके लिए राह छोड देते। अधिकतर लोग उस समूह में शामिल होकर कुछ दूर तक अर्थी का साथ भी देते। अर्थी के साथ जाने वालों की चाल इतनी तेज हो जाती कि अन्य लोगों की चाल कुछ पल के लिए धीमी हो जाती। हम उस समूह के चेहरे पहचानने की कोशिश करते रह जाते। फिर लोगों को देखकर अनुमान लगाते कि शव किधर से आया है, किस मोहल्ले का है और किसकी मृत्यु हुई है?

अर्थी के गुजर जाने के बाद मम्मी उस घर की औरतों के आने का इंतजार करतीं, जो मंदिर में हाथ धोने की रस्म अदा करने जातीं। उनमें से किसी से वे पूछतीं, कौन था वह, क्या उम्र थी, क्या बीमारी थी। फिर अंदर आकर हमे सब कुछ बतातीं। रात को जब पापा दुकान से घर लौटते तो चर्चा का विषय मरने वाला ही होता। उससे एकदम अलग थी दिल्ली की यह अर्थी। सभी लोग बहुत शांत और लगभग मौन चल रहे थे।

राम नाम सत्य है भी कोई नहीं बोल रहा था। शायद उन्हें शर्म आ रही होगी सडक पर जोर से बोलने में। दस-ग्यारह व्यक्ति ही रहे होंगे अर्थी के पीछे। वे भी इधर-उधर बिखरे-बिखरे से चल रहे थे। लग रहा था कि जैसे इन्हें जबरदस्ती लाया गया है। दिल्ली में किसके पास फुर्सत है मरते या मरे हुए आदमी के लिए! अपना समय वे क्यों बर्बाद करें? वैसा दिल भी नहीं है शायद दिल्ली वालों के पास, जिसमें गांव-कस्बे के लोगों जैसा अपनापन बसता हो।

इस बीच मेरे पीछे आ खडी हुई कलीग बता रही है कि मेट्रोज में अर्थी को कंधे पर ले जाने की परंपरा खत्म हो रही है। लोग उसे वाहन में ले जाने लगे हैं। मरने वालों को सब का कंधा देने की जरूरत नहीं समझी जा रही।

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