शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

कहानी

प्रभु को भी प्रिय है सरलता
सतपुड़ा के वन प्रांत में अनेक प्रकार के वृक्ष में दो वृक्ष सन्निकट थे। एक सरल-सीधा चंदन का वृक्ष था दूसरा टेढ़ा-मेढ़ा पलाश का वृक्ष था। पलाश पर फूल थे। उसकी शोभा से वन भी शोभित था। चंदन का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार सरल तथा पलाश का स्वभाव अपनी आकृति के अनुसार वक्र और कुटिल था, पर थे दोनों पड़ोसी व मित्र। यद्यपि दोनों भिन्न स्वभाव के थे। परंतु दोनों का जन्म एक ही स्थान पर साथ ही हुआ था। अत: दोनों सखा थे।

कुठार लेकर एक बार लकड़हारे वन में घुस आए। चंदन का वृक्ष सहम गया। पलाश उसे भयभीत करते हुए बोला - 'सीधे वृक्ष को काट दिया जाता है। ज्यादा सीधे व सरल रहने का जमाना नहीं है। टेढ़ी उँगली से घी निकलता है। देखो सरलता से तुम्हारे ऊपर संकट आ गया। मुझसे सब दूर ही रहते हैं।'

चंदन का वृक्ष धीरे से बोला - 'भाई संसार में जन्म लेने वाले सभी का अंतिम समय आता ही है। परंतु दुख है कि तुमसे जाने कब मिलना होगा। अब चलते हैं। मुझे भूलना मत ईश्वर चाहेगा तो पुन: मिलेंगे। मेरे न रहने का दुख मत करना। आशा करता हूँ सभी वृक्षों के साथ तुम भी फलते-फूलते रहोगे।'

लकड़हारों ने आठ-दस प्रहार किए चंदन उनके कुल्हाड़े को सुगंधित करता हुआ सद्‍गति को प्राप्त हुआ। उसकी लकड़ी ऊँचे दाम में बेची गई। भगवान की काष्ठ प्रतिमा बनाने वाले ने उसकी बाँके बिहारी की मूर्ति बनाकर बेच दी। मूर्ति प्रतिष्ठा के अवसर पर यज्ञ-हवन का आयोजन रखा गया। बड़ा उत्सव होने वाला था।

यज्ञीय समिधा (लकड़ी) की आवश्यकता थी। लकड़हारे उसी वन प्रांतर में प्रवेश कर उस पलाश को देखने लगा जो काँप रहा था। यमदूत आ पहुँचे। अपने पड़ोसी चंदन के वृक्ष की अंतिम बातें याद करते हुए पलाश परलोक सिधार गया। उसके छोटे-छोटे टुकड़े होकर यज्ञशाला में पहुँचे।

यज्ञ मण्डप अच्छा सजा था। तोरण द्वार बना था। वेदज्ञ पंडितजन मंत्रोच्चार कर रहे थे। समिधा को पहचान कर काष्ट मूर्ति बन चंदन बोला - 'आओ मित्र! ईश्वर की इच्‍छा बड़ी बलवान है। फिर से तुम्हारा हमारा मिलन हो गया। अपने वन के वृक्षों का कुशल मंगल सुनाओ। मुझे वन की बहुत याद आती है। मंदिर में पंडित मंत्र पढ़ते हैं और मन में जंगल को याद करता हुआ रहता हूँ।

पलाश बोला - 'देखो, यज्ञ मंडप में यज्ञाग्नि प्रज्जवलित हो चुकी है। लगता है कुछ ही पल में राख हो जाऊँगा। अब नहीं मिल सकेंगे। मुझे भय लग रहा है। ‍अब बिछड़ना ही पड़ेगा।'

चंदन ने कहा - 'भाई मैं सरल व सीधा था मुझे परमात्मा ने अपना आवास बनाकर धन्य कर‍ दिया तुम्हारे लिए भी मैंने भगवान से प्रार्थना की थी अत: यज्ञीय कार्य में देह त्याग रहे हो। अन्यथा दावानल में जल मरते। सरलता भगवान को प्रिय है। अगला जन्म मिले तो सरलता, सीधापन मत छोड़ना। सज्जन कठिनता में भी सरलता नहीं छोड़ते जबकि दुष्ट सरलता में भी कठोर हो जाते हैं। सरलता में तनाव नहीं रहता। तनाव से बचने का एक मात्र उपाय सरलता पूर्ण जीवन है।'

बाबा तुलसीदास के रामचरितमानस में भगवान ने स्वयं ही कहा है -

निरमल मन जन सो मोहिं पावा।
मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।।

अचानक पलाश का मुख एक आध्‍यात्मिक दीप्ति से चमक उठा।
सौजन्य से - देवपुत्र


रेत का घर

एक गाँव में नदी के तट पर कुछ बच्चे खेल रहे थे। रेत के घर बना रहे थे। किसी का पैर किसी के घर में लग जाता तो रेत का घर बिखर जाता। झगड़ा हो जाता। मारपीट हो जाती। तूने मेरा घर मिटा दिया। वह उसके घर पर कूद पड़ता है। वह उसका घर मिटा देता है और फिर अपना घर बनाने में तल्लीन हो जाता है।

महात्मा बुद्ध चुपचाप खड़े अपने भिक्षुओं के साथ ये तमाशा देख रहे थे पर बच्चे इतने व्यस्त थे कि उन्हें कुछ भी पता नहीं लगा। घर बनाना ऐसी व्यस्तता की बात है दूसरों से अच्छा बनाना है उनसे ऊँचा बनाना है। दूसरों से अच्छा बनाना है, उनसे ऊँचा बनाना है, उनसे ऊँचा बनाना है।

प्रतियोगिता है, जलन है, ईर्ष्या है। सब अपने-अपने घर को बड़ा करने में लगे हैं परंतु किसी ने सच ही कहा है -
जितने ऊँचे महल तुम्हारे, उतना ही गिरने का डर है। जिसको तुमने सागर समझा, पगले जीवन एक लहर है। इस सबके बीच एक स्त्री ने घाट पर आकर आवाज दी, सांझ हो गई है, माँ घरों में याद करती है घर चलो। बच्चों ने चौंक कर देखा। दिन बीत गया है सूरज डूब गया है। अँधेरा उतर रहा है। वे उछले-कूदे अपने ही घरों पर। सब मटियामेट कर डाला अब कोई झगड़ा नहीं कि तू मेरे घर पे कूद रहा या मैं तेरे घर पे कूद रहा हूँ।

कोई ईर्ष्या नहीं, कोई बैर नहीं। वे सब बच्चे भागते हुए अपने घरों की तरफ चले गए। दिन भर का सारा झगड़ा, व्यवसाय, मकान, अपना-पराया सब भूल गया। महात्मा बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा 'ऐसे ही एक दिन जब परमात्मा की आवाज आती है 'मृत्यु, तब तुम्हारे बाजार राजधानियाँ सब ऐसे ही पड़ी रह जाती है। हम सब जीवन भर रेत के घर ही तो बनाते रहते हैं और मरते वक्त सब वहीं रह जाता है। जीवन का लक्ष्य रेत के मकानों में रहते हुए वास्तविक मकान को ढूँढना है।

योग्यता की पहचान
नागार्जुन अपने जमाने के प्रख्यात रसायन शास्त्री थे। उन्होंने अपनी चिकित्सकीय ‍सूझबूझ से अनेक असाध्य रोगों की औषधियाँ तैयार की। वह निरंतर अपनी प्रयोगशाला में जुटे रहते और नित नई औषधियों की खोज करते।

नागार्जुन जब वृद्ध हो चले, तो उन्होंने एक बार राजा से कहा - 'राजन! प्रयोगशाला का काम बहुत बढ़ चला है। अपनी अवस्था को देखते हुए मैं भी अधिक काम करने में असमर्थ हूँ। इसलिए मुझे अपने काम के लिए एक सहायक की आवश्यकता है।

राजा ने ध्यान से नागार्जुन की बात सुनी और कुछ सोचकर कहा- 'कल मैं आपके पास दो कुशल और योग्य नवयुवकों को भेजूँगा। आप उनमें से किसी एक का चयन अपने सहायक के रूप में कर लीजिएगा।'

अगले दिन सवेरे दो नवयुवक नागार्जुन के पास पहुँचे। नागार्जुन ने उन्हें अपने पास बिठाया और उनसे उनकी योग्यताओं के बारे में पूछा। दोनों ही नवयुवक समान योग्यताएँ रखते थे और पढ़े-लिखे भी दोनों समान थे। अब नागार्जुन के सामने यह समस्या उठ खड़ी हुई कि वह उन दोनों में से किसे अपना सहायक चुनें?

आखिरकार बहुत सोच-विचार के बाद नागार्जुन ने उन दोनों को एक-एक पदार्थ दिया और उनसे कहा - 'यह क्या है, इस बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बताऊँगा। तुम स्वयं इसकी पहचान करो और फिर इसका कोई एक रसायन अपनी मर्जी के अनुसार बनाकर लाओ।

इसके बाद ही मैं यह निर्णय करूँगा कि तुम दोनों में से किसे अपना सहायक बनाऊँ?' दोनों युवक पदार्थ लेकर उठ खड़े हुए। तब नागार्जुन ने कहा - 'तुम लोगों की मैं परसों प्रतीक्षा करूँगा।' वह दोनों युवक जैसे ही जाने को हुए। नागार्जुन ने फिर कहा, 'और सुनो, घर जाने के लिए तुम्हें पूरा राजमार्ग तय करना होगा।'

दोनों नवयुवक उनकी अजीब शर्त सुनकर हैरत में पड़ गए और सोचने लगे कि आचार्य उन्हें राजमार्ग पर से होकर ही जाने को क्यों कह रहे हैं? लेकिन आचार्य से उन्होंने इस बारे में कोई सवाल नहीं किया और वहाँ से चल दिए। तीसरे दिन सायं दोनों नवयुवक यथासमय नागार्जुन के पास पहुँचे। उनमें से एक नवयुवक काफी खुश दिखाई दे रहा था और दूसरा खामोश।

नागार्जुन ने पहले युवक से पूछा 'क्यों भाई! वह रसायन तैयार कर लिया?'
युवक ने तत्परता से प्रत्युत्तर दिया - 'जी हाँ! मैंने उस पदार्थ की पहचान कर रसायन तैयार कर लिया है।'

तब नागार्जुन ने तैयार रसायन की परख की और उसके संबंध में युवक से कुछ प्रश्न किए। युवक ने उनके सही-सही उत्तर दे दिए।

तब नागार्जुन ने दूसरे युवक से पूछा - 'तुम अपना रसायन क्यों नहीं लाए?'
युवक ने उत्तर दिया - 'आचार्य जी! मुझे बहुत दुख है कि मैं रसायन बनाकर नहीं ला सका। हालाँकि मैंने आपके दिए हुए पदार्थ को पहचान लिया था।'
'लेकिन क्यों?' नागार्जुन ने पूछा।

युवक ने उत्तर दिया - 'जी! मैं आपके आदेश के अनुसार राजमार्ग से होकर गुजर रहा था कि अचानक मैंने देखा कि एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध और बीमार व्यक्ति पड़ा दर्द से कराह रहा है और पानी माँग रहा है। कोई उसे पानी तक देने के लिए तैयार नहीं था।

सब अपने-अपने रास्ते चले जा रहे थे। मुझसे उस वृद्ध की यह दशा देखी न गई और मैं उसे उठाकर अपने घर ले गया। वह अत्यधिक बीमार था। मेरा सारा समय उसकी चिकित्सा और सेवा सुश्रुषा में लग गया। अब वह स्वास्थ्य लाभ कर रहा है। इसीलिए मैं आपके द्वारा दिए गए पदार्थ का रसायन तैयार न कर पाया। कृपया मुझे क्षमा करें।'

इस पर नागार्जुन मुस्करा उठे और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा - 'मैं तुम्हें अपना सहायक नियुक्त करता हूँ।

अगले दिन जब नागार्जुन राजा से मिले तो राजा ने आश्चर्य से पूछा - 'आचार्य जी! मैं अब तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपने रसायन बनाकर लाने वाले युवक के स्थान पर उस युवक को क्यों अपना सहायक बनाना स्वीकार किया, जो रसायन बनाकर नहीं ला सका?'

तब नागार्जुन ने बताया - 'राजन! मैंने उचित ही किया है। जिस नवयुवक ने रसायन नहीं बनाया। उसने मानवता की सेवा की। दोनों नवयुवक एक ही रास्ते से गुजरे, लेकिन एक उस वृद्ध बीमार की सेवा के‍ लिए रुक गया और दूसरा उसे अनदेखा कर चला गया।

मुझे पहले ही ज्ञात था कि राजमार्ग में एक पेड़ के नीचे बीमार आदमी पड़ा है। स्वयं जाकर उसे अपने यहाँ लाने की सोच रहा था‍ कि संयोग से ये दोनों युवक आ पहुँचे। तब मैंने योग्यता की परख के विचार से उन्हें राजमार्ग से ही जाने का निर्देश दिया। रसायन तो बहुत लोग तैयार कर सकते हैं किंतु अपने स्वार्थ को भूलकर मानवता की सेवा करने वाले सेवाभावी बहुत कम हुआ करते हैं। मेरे जीवन का ध्येय ही मानवता की सेवा करना है। और मुझे ऐसे ही व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो सच्चे मन से मानव सेवा कर सके।

मुझे प्रसन्नता है कि आप द्वारा भेजे गए नवयुवकों में से एक मानवता की सेवा के लिए तत्पर निकला। यही कारण है कि मैंने उसका चयन किया।' राजा नागार्जुन की यह अनुभव भरी व समझपूर्ण बात सुनकर उनके आगे श्रद्धा से नतमस्तक हो गया।
सौजन्य से - देवपुत्र

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