जीवन के रंगमंच से
पप्पू, नौ साल का एक बालक, कक्षा पाँच में पढ़ता है। उसकी माँ को हमेशा शिकायत रहती है कि पप्पू पढ़ता नहीं है। वह इतना होनहार है कि चाहे तो कुछ भी कर डाले, मगर वह मेहनत नहीं करना चाहता।
आइए अब जरा नन्हे पप्पू की दिनचर्या पर नजर डालें। पप्पू का दिन शुरू होता है सुबह साढ़े पाँच बजे, जब उसकी माँ की तेज आवाज उसे सुहाने सपनों भरी नींद से जगाती है। उठने के बाद आलस करने या माँ से लिपटने-चिपटने, लाड़-मनुहार का भी समय नहीं क्योंकि ठीक साढ़े छह बजे पप्पू की बस आ जाती है। (अच्छे स्कूल के लालच में पप्पू का दाखिला घर से पंद्रह किलोमीटर दूर के स्कूल में कराया गया है) भागमभाग में तैयार हो पप्पू स्कूल जाता है। स्कूल छूटता है तीन बजे और वही दूरी के चक्कर में पप्पू घर पहुँचता है साढ़े चार बजे।
घर में माँ तैयार है नाश्ता और अन्य साजोसामान लिए... सवा पाँच बजे पप्पू की कराटे क्लास जो होती है। एक घंटे की कराटे क्लास के बाद पप्पू टेबल टेनिस क्लास में जाता है। साढ़े सात बजे बेचारा थका-हारा वापस आता है। खाना जैसे-तैसे खाया कि आठ से नौ ट्यूशन टीचर आती है। स्कूल का होमवर्क अनमने मन से किया जाता है। साढ़े नौ बजे तक तो पप्पू अधमरा सा बिस्तर पर लुढ़क चुका होता है।
रविवार आमतौर पर सभी के लिए राहत भरा होता है। मगर क्या पप्पू के लिए भी?... रविवार की सुबह-सुबह पप्पू की स्वीमिंग क्लास होती है। डेढ़ घंटे की स्वीमिंग के बाद पप्पू नाश्ता करके (बाजार में ही) व्यक्तित्व विकास की कक्षा में जाता है। दो घंटे की कक्षा में उसे संस्कार, सोसायटी में उठना-बैठना, बोलने का तरीका, स्मार्टनेस सब कुछ परोस दिया जाता है। ठीक साढ़े नौ बजे पप्पू संगीत और गिटार सीखने जाता है।
ग्यारह बजे घर लौटने के बाद वह सचमुच थक चुका होता है। जैसे-तैसे लंच करके सो जाता है। शाम को चार से छह ही उसकी ट्यूशन टीचर आती है। फिर छह से सात स्केटिंग क्लास और पप्पू का रविवार भी समाप्त....।
पप्पू की माँ हैरान होती है कि पप्पू न तो टीवी देखता है, न कंप्यूटर चलाता है, न खेलता है। फिर भी पप्पू ध्यान से पढ़ता क्यों नहीं है? कक्षा में उसका परफार्मेंस दिन प्रतिदिन नीचे क्यों जा रहा है?
ये सब पढ़कर कहीं आपको भी अपने आसपास का कोई पप्पू तो याद नहीं आ गया? हैरानी होती है कि जो बच्चा माँ-बाप के जिगर का टुकड़ा बनता है, वही बड़ा होते-होते किस तरह स्वयं को माँ-बाप के अधूरे सपनों की सूली पर लटकने को मजबूर किया हुआ पाता है। क्या ही अच्छा होता आज भी पहले की तरह हर घर में चार-पाँच बच्चे होते। एक बच्चा माँ के सपनों का भार ढोता, दूसरा पिता के, तीसरा दादा के, चौथा नाना के। बेचारी एक नन्ही जान पर दुनिया भर का बोझा लादना कहाँ का इंसाफ है?
माना कि दुनिया बहुत आगे जा रही है, माना कि प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है, माना कि विकास के मायने बदल रहे हैं... मगर क्या इसके लिए जीते जागते इंसान की संवेदनाएँ छीन उसे मशीनी मानव बनाना जरूरी है? क्या 'ऑल राउंडर्स' के बिना दुनिया चलती नहीं है? क्या आपका बच्चा दुनिया भर की सफलताएँ बटोरने की बजाय अपनी क्षमतानुसार किसी क्षेत्र में सफल हो, एक अच्छा इंसान बनने का प्रयास करें, यह ठीक न होगा?
बचपन, जो समय होता है रिश्तों की मजबूती का, पारिवारिक संस्कारों को दृढ़ करने का, प्रेम के धागों को परिपक्व बनाने का...। यदि वही बचपन प्रतियोगिताओं की भेंट चढ़ा दिया जाए, यदि बच्चे को परिवार में घुलने-मिलने, रूठने-मनाने, मिलने-मिलाने का समय ही न दिया जाए, उसे अपना बचपना महसूस ही न करने दिया जाए तो वह बच्चा न केवल एकाकी बन जाएगा वरन् किसी भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगा और हार का यह कटु अहसास उसे मानसिक रोगी भी बना सकता है।
हर माता-पिता मन में यह अपेक्षा रखकर ही बच्चे को पालते-पोसते हैं कि वह बड़ा होकर हमारा ध्यान रखेगा, हमारी सेवा करेगा मगर क्या प्रेम, स्नेह व आदर का बीज वे बच्चे के बाल-मन में बो पाए हैं? क्या उसकी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति वे कर पा रहे हैं? क्या उसे परिवार का पूर्ण साहचर्य व स्नेह प्राप्त हो रहा है? क्या उसके साथ मुखर संवाद बनाया जा रहा है? क्या उसकी क्षमताओं व परेशानियों को समझा जा रहा है?
क्या उसे भी 'नहीं' कहने और गलतियाँ करने की छूट दी जा रही है? क्या उसके माता-पिता उसके समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं।
यदि इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी यदि 'नहीं' हैं तो यकीन मानिए आप की अपेक्षाओं का पूरा होना कठिन है क्योंकि आप रुपयों के बल पर एक बच्चे को संवेदनहीन मशीनी मानव में बदलते जा रहे हैं। मशीनी मानव सिर्फ उपलब्ध सूचनाओं पर काम करता है। उसके पास संवेदनाएँ नहीं होतीं, दुख दर्द महसूस करने वाला दिल, वो तो होता ही नहीं है, उसे चलाने वाली सूचनाएँ भी नहीं होती।
अब आप क्या चाहते हैं अपने पप्पू के लिए... ये आप पर निर्भर करता है।
पप्पू, नौ साल का एक बालक, कक्षा पाँच में पढ़ता है। उसकी माँ को हमेशा शिकायत रहती है कि पप्पू पढ़ता नहीं है। वह इतना होनहार है कि चाहे तो कुछ भी कर डाले, मगर वह मेहनत नहीं करना चाहता।
आइए अब जरा नन्हे पप्पू की दिनचर्या पर नजर डालें। पप्पू का दिन शुरू होता है सुबह साढ़े पाँच बजे, जब उसकी माँ की तेज आवाज उसे सुहाने सपनों भरी नींद से जगाती है। उठने के बाद आलस करने या माँ से लिपटने-चिपटने, लाड़-मनुहार का भी समय नहीं क्योंकि ठीक साढ़े छह बजे पप्पू की बस आ जाती है। (अच्छे स्कूल के लालच में पप्पू का दाखिला घर से पंद्रह किलोमीटर दूर के स्कूल में कराया गया है) भागमभाग में तैयार हो पप्पू स्कूल जाता है। स्कूल छूटता है तीन बजे और वही दूरी के चक्कर में पप्पू घर पहुँचता है साढ़े चार बजे।
घर में माँ तैयार है नाश्ता और अन्य साजोसामान लिए... सवा पाँच बजे पप्पू की कराटे क्लास जो होती है। एक घंटे की कराटे क्लास के बाद पप्पू टेबल टेनिस क्लास में जाता है। साढ़े सात बजे बेचारा थका-हारा वापस आता है। खाना जैसे-तैसे खाया कि आठ से नौ ट्यूशन टीचर आती है। स्कूल का होमवर्क अनमने मन से किया जाता है। साढ़े नौ बजे तक तो पप्पू अधमरा सा बिस्तर पर लुढ़क चुका होता है।
रविवार आमतौर पर सभी के लिए राहत भरा होता है। मगर क्या पप्पू के लिए भी?... रविवार की सुबह-सुबह पप्पू की स्वीमिंग क्लास होती है। डेढ़ घंटे की स्वीमिंग के बाद पप्पू नाश्ता करके (बाजार में ही) व्यक्तित्व विकास की कक्षा में जाता है। दो घंटे की कक्षा में उसे संस्कार, सोसायटी में उठना-बैठना, बोलने का तरीका, स्मार्टनेस सब कुछ परोस दिया जाता है। ठीक साढ़े नौ बजे पप्पू संगीत और गिटार सीखने जाता है।
ग्यारह बजे घर लौटने के बाद वह सचमुच थक चुका होता है। जैसे-तैसे लंच करके सो जाता है। शाम को चार से छह ही उसकी ट्यूशन टीचर आती है। फिर छह से सात स्केटिंग क्लास और पप्पू का रविवार भी समाप्त....।
पप्पू की माँ हैरान होती है कि पप्पू न तो टीवी देखता है, न कंप्यूटर चलाता है, न खेलता है। फिर भी पप्पू ध्यान से पढ़ता क्यों नहीं है? कक्षा में उसका परफार्मेंस दिन प्रतिदिन नीचे क्यों जा रहा है?
ये सब पढ़कर कहीं आपको भी अपने आसपास का कोई पप्पू तो याद नहीं आ गया? हैरानी होती है कि जो बच्चा माँ-बाप के जिगर का टुकड़ा बनता है, वही बड़ा होते-होते किस तरह स्वयं को माँ-बाप के अधूरे सपनों की सूली पर लटकने को मजबूर किया हुआ पाता है। क्या ही अच्छा होता आज भी पहले की तरह हर घर में चार-पाँच बच्चे होते। एक बच्चा माँ के सपनों का भार ढोता, दूसरा पिता के, तीसरा दादा के, चौथा नाना के। बेचारी एक नन्ही जान पर दुनिया भर का बोझा लादना कहाँ का इंसाफ है?
माना कि दुनिया बहुत आगे जा रही है, माना कि प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है, माना कि विकास के मायने बदल रहे हैं... मगर क्या इसके लिए जीते जागते इंसान की संवेदनाएँ छीन उसे मशीनी मानव बनाना जरूरी है? क्या 'ऑल राउंडर्स' के बिना दुनिया चलती नहीं है? क्या आपका बच्चा दुनिया भर की सफलताएँ बटोरने की बजाय अपनी क्षमतानुसार किसी क्षेत्र में सफल हो, एक अच्छा इंसान बनने का प्रयास करें, यह ठीक न होगा?
बचपन, जो समय होता है रिश्तों की मजबूती का, पारिवारिक संस्कारों को दृढ़ करने का, प्रेम के धागों को परिपक्व बनाने का...। यदि वही बचपन प्रतियोगिताओं की भेंट चढ़ा दिया जाए, यदि बच्चे को परिवार में घुलने-मिलने, रूठने-मनाने, मिलने-मिलाने का समय ही न दिया जाए, उसे अपना बचपना महसूस ही न करने दिया जाए तो वह बच्चा न केवल एकाकी बन जाएगा वरन् किसी भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगा और हार का यह कटु अहसास उसे मानसिक रोगी भी बना सकता है।
हर माता-पिता मन में यह अपेक्षा रखकर ही बच्चे को पालते-पोसते हैं कि वह बड़ा होकर हमारा ध्यान रखेगा, हमारी सेवा करेगा मगर क्या प्रेम, स्नेह व आदर का बीज वे बच्चे के बाल-मन में बो पाए हैं? क्या उसकी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति वे कर पा रहे हैं? क्या उसे परिवार का पूर्ण साहचर्य व स्नेह प्राप्त हो रहा है? क्या उसके साथ मुखर संवाद बनाया जा रहा है? क्या उसकी क्षमताओं व परेशानियों को समझा जा रहा है?
क्या उसे भी 'नहीं' कहने और गलतियाँ करने की छूट दी जा रही है? क्या उसके माता-पिता उसके समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं।
यदि इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी यदि 'नहीं' हैं तो यकीन मानिए आप की अपेक्षाओं का पूरा होना कठिन है क्योंकि आप रुपयों के बल पर एक बच्चे को संवेदनहीन मशीनी मानव में बदलते जा रहे हैं। मशीनी मानव सिर्फ उपलब्ध सूचनाओं पर काम करता है। उसके पास संवेदनाएँ नहीं होतीं, दुख दर्द महसूस करने वाला दिल, वो तो होता ही नहीं है, उसे चलाने वाली सूचनाएँ भी नहीं होती।
अब आप क्या चाहते हैं अपने पप्पू के लिए... ये आप पर निर्भर करता है।
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