- अरुण कुमार बंछोर
एक थी बहन। उसके सात भाई थे। सबसे छोटा भाई बहन से बहुत स्नेह करता था। भैयादूज के दिन जब तक बहन से टीका न लगा ले, खाता नहीं था। एक दिन उसकी पत्नी बोली कि यदि तुम्हारी बहन की शादी कहीं दूर हो गई तो तुम क्या करोगे? वह बोला कि मैं बहन की शादी दूर करूँगा ही नहीं।
उसने माता-पिता से कहकर बहन की शादी निकट के गाँव में करा दी। भाग्य की बात, बहनोई बड़े खराब स्वभाव का निकला। वह अपनी ससुराल वालों को देखना भी न चाहे। उसने अपनी दुल्हन से साफ-साफ कह दिया कि मेरे घर में तुम्हारे मायके वाले नहीं आ सकते। मुझे अपना घर बिगाड़ना नहीं है।
अब बेचारी ने रो-धोकर संतोष किया और मायके यह संदेश भेज दिया कि कोई यहाँ न आए। अब आया भाईदूज का त्योहार। भाई का जी नहीं माना। वह नहा-धोकर टीका कराने बहन की ससुराल पहुँचा। उसके बहनोई ने देखते ही उसे पकड़कर सात तालों के भीतर बंद कर दिया और स्वयं काम पर चला गया।
बहन का छोटा भाई वेश बदलना जानता था। वह कुत्ते का छोटा पिल्ला बनकर नाली के रास्ते-रास्ते उसके पास पहुँच गया। बहन रो-रोकर हल्दी पीस रही थी और सोच रही थी कि हल्दी तो पीस रही हूँ पर भइया को टीका कैसे कर पाऊँगी। इतने में कुत्ते का पिल्ला कूँ-कूँ करता हुआ उसके पास पहुँच गया।
बहन दुःखी तो थी ही, उसे क्रोध आ गया। उसने हल्दी सने हाथ से पिल्ले के सिर में मार दिया। पिल्ले ने मार खाते ही सोने का सिक्का अपने मुँह से उगल दिया और नाली के रास्ते फिर वापस चला गया। सोने का सिक्का देखकर बहन सोच में पड़ गई।
बहनोई लौटकर आया तो ताला खोलकर भीतर गया। वहाँ क्या देखता है कि भाई के माथे पर पाँच टीका लगा हुआ है।
उसे निकालकर बाहर लाया और दालान में बैठाकर भीतर अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उससे पूछने लगा, 'तुमने अपने भाई को पाँच टीका कैसे लगाया?'
वह बोली, 'मैंने तो अपने भाई की सूरत ही नहीं देखी। एक टीका की कौन कहे, पाँच कैसे लगाती?
हाँ, एक आश्चर्य की बात अवश्य हुई है कि नाली के रास्ते एक कुत्ते का पिल्ला आया था। मैं हल्दी पीस रही थी। गुस्से में आकर मैंने हल्दी के हाथ से उसे मार दिया, तो वह सोने का सिक्का उगलकर फिर नाली के रास्ते वापस लौट गया।'
सोने का सिक्का देखकर और सारी बात देख-सुनकर बहनोई को अपनी भूल का भान हुआ। उसने माफी माँगते हुए कहा, 'मुझे बहुत दुःख है। मैं भाई-बहन के सच्चे प्रेम के बीच रुकावट बना। सच्चा प्यार कभी नहीं टूटता।' वह अपने साले को भीतर ले गया। जैसे उस भाई-बहन के दिन फिरे, वैसे सबके फिरें।
बंदरों का उपवास
एक बार बंदरों के एक झुंड में यह तय हुआ कि क्यों न एक दिन सभी मिलकर उपवास करें। एक बंदर ने दूसरे से बात की और दूसरे ने तीसरे से...। इस तरह सभी बंदरों में यह बात तय हो गई कि अगले शुक्रवार को उपवास करेंगे।
बंदरों के मुखिया के सामने सभी बंदर जमा हुए और अपने मन की बात बता दी। मुखिया को उपवास वाली बात बहुत पसंद आई। मुखिया ने कहा कि क्यों न हम उपवास करने से पहले अपने पास खाने-पीने की चीजें रख लें ताकि शाम को जैसे ही उपवास खत्म हो।
हमें खाने के लिए ज्यादा देर तक इंतजार नहीं करना पड़े। मुखिया ने यह बात अनुभव से कही थी इसलिए सभी ने ऐसा करने की हामी भर दी। उपवास से पहले सभी बंदर जंगल में जाकर कई दर्जन बढ़िया केले ले आए। केले साथ में लेकर सभी बंदर एक जगह उपवास करने बैठे।
जब सभी बंदर एक ही जगह जमा थे तो मुखिया ने कहा कि जब उपवासखत्म होगा तो हमें केले आपस में बाँटने पड़ेंगे और इसमें समय बेकार जाएगा। क्यों न हर कोई अपने हिस्से के केले अभी से अपने पास रख ले। ऐसा ही हुआ और सभी ने अपने हिस्से के केले अपने पास रख लिए।
थोड़ी ही देर बीती कि एक बंदर बोला- उपवास खत्म होने पर हमें केले छीलकर खाने होंगे तो क्यों अभी खाली समय में हम केले को छीलकर रख लें। मुखिया ने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं। सभी ने अपने-अपने केले छीलकर रख लिए।
अभी यह काम करके सभी बैठे ही थे कि एक बाल-बंदर उछलता हुआ आया और बोला-मुखियाजी, मुखियाजी क्या मैं केले को अपने मुँह में रख लूँ ताकि समय की बचत होगी। मैं उसे खाऊँगा नहीं। पक्का। मुखिया ने कहा कि हम यह भी कर सकते हैं।
... और एक बार केला मुँह में रखने के बाद बंदरों का उपवास शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। तो दोस्तों, किसी भी काम के लिए मन में दृढ़ निश्चय होना चाहिए। सिर्फ दिखाने के लिए कोई काम मत करो। मन लगाकर काम करो।
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