शादी, पत्नी-बच्चे अपार दौलत फिर भी योगी?
जिन परमयोगी जनक की बात हम कर रहे हैं वे सार्वकालिक भारतीय हीरो श्री राम की पत्नी देवी सीता के पिता थे। मिथिला प्रदेश के राजा जनक एक ऐतिहासिक राजा हैं। जनक का ही एक दूसरा नाम विदेह भी है। विदेह का अर्थ है जो शरीर के होते हुए भी शरीर से प्रथक हो। राजा जनक की महानता इस बात में है कि वे गृहस्थ होकर भी परम योगी माने जाते हैं। विशाल देश के राजा, अक्षय धन संपत्ति, एकाधिक पत्नियां, पुत्र-पुत्रियां होने के बावजूद किसी का परम योगी माना जाना आश्चर्यजनक लगता है।
योगी कौन?- योगी के विषय में आम धारणा यही है कि, योगी आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाला कोई सन्यासी ही हो सकता है। लोग सोचते हैं कि जो घर परिवार छोड़कर पहाड़ों पर, जंगलों में या गुफाओं में एकांतवास करते हैं वे ही योगी हैं। किन्तु ऐसा सोचना अधूरे ज्ञान की पहचान है। योग का असली अर्थ है, उस परम चेतना परमात्मा से जुडऩा। यह जोड़ चेतना या आत्मा के स्तर पर होता है। कोई साधक तभी योगी बन पाता है जब वह भीतर से इस क्षणिक संसार का त्याग कर देता है। बाहरी रूप में भले ही वह जगत में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।
बाहर नहीं भीतर से- योगी को संसार त्यागना होता है, जगत नहीं। संसार और जगत में बड़ा सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण अंतर होता है। जगत वो है जिसमे रहकर इंसान अनासक्त रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करता है। जबकि संसार वह है जिसमें इंसान मैं और मेरे की भावना से बंघ कर कार्य करता है। इसीलिये निस्वार्थ रूप से अनासक्त होकर जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करने वाले राजा जनक परम योगी बन सके।
जिन परमयोगी जनक की बात हम कर रहे हैं वे सार्वकालिक भारतीय हीरो श्री राम की पत्नी देवी सीता के पिता थे। मिथिला प्रदेश के राजा जनक एक ऐतिहासिक राजा हैं। जनक का ही एक दूसरा नाम विदेह भी है। विदेह का अर्थ है जो शरीर के होते हुए भी शरीर से प्रथक हो। राजा जनक की महानता इस बात में है कि वे गृहस्थ होकर भी परम योगी माने जाते हैं। विशाल देश के राजा, अक्षय धन संपत्ति, एकाधिक पत्नियां, पुत्र-पुत्रियां होने के बावजूद किसी का परम योगी माना जाना आश्चर्यजनक लगता है।
योगी कौन?- योगी के विषय में आम धारणा यही है कि, योगी आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाला कोई सन्यासी ही हो सकता है। लोग सोचते हैं कि जो घर परिवार छोड़कर पहाड़ों पर, जंगलों में या गुफाओं में एकांतवास करते हैं वे ही योगी हैं। किन्तु ऐसा सोचना अधूरे ज्ञान की पहचान है। योग का असली अर्थ है, उस परम चेतना परमात्मा से जुडऩा। यह जोड़ चेतना या आत्मा के स्तर पर होता है। कोई साधक तभी योगी बन पाता है जब वह भीतर से इस क्षणिक संसार का त्याग कर देता है। बाहरी रूप में भले ही वह जगत में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।
बाहर नहीं भीतर से- योगी को संसार त्यागना होता है, जगत नहीं। संसार और जगत में बड़ा सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण अंतर होता है। जगत वो है जिसमे रहकर इंसान अनासक्त रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करता है। जबकि संसार वह है जिसमें इंसान मैं और मेरे की भावना से बंघ कर कार्य करता है। इसीलिये निस्वार्थ रूप से अनासक्त होकर जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करने वाले राजा जनक परम योगी बन सके।
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