शनिवार, 14 अगस्त 2010

भागवत: ४१ से ४५ - जब ऋषि ने परीक्षित को दिया श्राप

एक दिन राजा परीक्षित शिकार खेलने गए। मृग का पीछा करते-करते वे बहुत थक गए। प्यास लगी तो वे शमीक ऋषि के आश्रम में गए। शमीक ऋषि ध्यान लगाकर बैठे थे। परीक्षित ने सोचा कि ये मेरी बात नहीं सुन रहे। भूख प्यास के मारे राजा अपना विवेक खो बैठा। और उसने एक छड़ी से एक मृत सर्प को शमीक ऋषि के गले में डाल दिया। और राजा चला गया। शमीक ऋषि की समाधि फिर भी भंग नहीं हुई। शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी वहां पहुंचा। उसने देखा कि किसी ने मृत सर्प पिता के गले में डाल दिया है। तो उन्हें बड़ा क्रोध आया।

उन्होंने क्रोध में आकर श्राप दे दिया कि जिस किसी ने मेरे पिताजी के गले में मृत सर्प डाला है आज से ठीक सातवे दिन सर्पराज तक्षक उसको डंस लेंगे।जब ऋषि शमीक की तपस्या पूर्ण हुई तब उन्हें पूरी बात श्रृंगी ने बताई।ऋषि ने ध्यान लगाया। वे समझ गए कि राजा परीक्षित ने कलयुग के प्रभाव में आकर यह किया है। अनजाने में उनसे भूल हो गई। मेरे पुत्र ने छोटी सी भूल का उन्हें इतना बड़ा दंड दे दिया। यह तो अच्छा नहीं हुआ। अगर राजा परीक्षित न रहें तो पृथ्वी पर अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यह सोच ऋषि चिंतित हो गए।
इधर राजा परीक्षित ने जब मुकुट उतारा तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। राजा परीक्षित को जब शाप के बारे में ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे प्रभु आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया और तुरंत राजपाट छोड़ दिया। उन्होंने निश्चय किया कि अब जो भी थोड़े दिन बचे हैं, उन दिनों में वे भगवान की भक्ति करेंगे। ऐसा विचार कर परीक्षित राजमहल छोड़कर गंगा के तट पर आकर विराज गए और संकल्प लिया कि मरणकाल तक वे निराहार रहकर तपस्या करेंगे।

संकट आने पर धैर्य रखें
ऋषि-मुनियों को जब यह पता चला कि राजा परीक्षित श्रापित हो चुके हैं तो वे राजा के समीप उनके आश्रम पहुंचे। उनमें मुख्य थे अत्री, वशिष्ठ, च्यवन अरिष्ठनेमी, अंगीरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, भृगु, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, अगस्त्य, और वेदव्यास। नारदजी भी वहां पहुंच गए। राजा ने सबको प्रणाम किया और सारी बात बता दी व कहा कि अब मैं इसी प्रकार से अपना शेष जीवन-यापन करूंगा। तब सभी ऋषि-मुनियों ने विचार किया कि जब तक आप जीवित हैं तब तक वे सब लोग यहीं विराजेंगे और धर्मोपदेष करेंगे।
ऋषियों ने राजा को भांति-भांति का उपदेष देना आरंभ किया और संयोग से शुकदेवजी वहां उपस्थित हो गए। सभी ने उनका स्वागत किया, सत्कार किया उनको उचित आसन पर बैठाया। राजा ने अपनी कथा संक्षेप में शुकदेवजी महाराज को सुनाई और अपने कल्याण की कामना की। राजा ने कहा कि वो ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा उद्धार हो। प्रश्न सुन शुकदेवजी ने मौन होकर राजा की भावनाओं को पहचाना और परीक्षित को उपदेश देना आरंभ किया। उस वातावरण को देखकर परीक्षित ने अपने को धन्य माना।
शुकदेवजी ने कहा जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो, भविष्य का विचार भी मत करो। केवल वर्तमान को सुधारो। सात दिन बाकी रहे हैं। भगवान नारायण को स्मरण करो। तुम्हारा जीवन अवश्य धन्य हो जाएगा और इस प्रकार व्यासजी प्रथम स्कंध को समाप्त करते है। परीक्षित से सीखा जाए कि संकट आने पर कैसे संयम रख जीवन बिताएं। संयम को बल देना हो तो एक काम और किया जा सकता है, जरा मुस्कुराइए...

जगत नहीं जगदीश की उपासना करें

परीक्षित श्रापित हो चुके, इतनी कथा हम पढ़ चुके हैं। परीक्षितजी ने अपना पाप बता दिया, उनसे भूल हुई, गंगा के तट पर बैठ गए। साधु-संतों से कहा जीवन के अंतिम समय में क्या किया जाए कि आदमी को मोक्ष मिले। कोई मुझे सिखाए। साधु-संतों ने कहा हम ये नहीं कर सकते। तभी किसी ने कहा शुकदेवजी यह कर सकते हैं। तभी शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी से परीक्षित ने पूछा- शुकदेवजी आप ज्ञान दीजिए हमें क्या करना चाहिए, हम अपने जीवन को कैसे सिद्ध कर सकें? शुकदेवजी ने कहा मैं आपको सात दिन तक कथा सुनाऊंगा। परीक्षितजी ध्यान से बैठ गए। यहां भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त होने जा रहा है।
शुकदेवजी कह रहे हैं- यह संसार आपको कुछ अधिक नहीं देगा, दुनिया पर टिकोगे कुछ नहीं मिलेगा, दुनिया बनाने वाले पर टिकोगे तो बहुत मिलेगा। शुकदेवजी ने कथा सुनाई- चंचला नाम की बहुत सुंदर स्त्री थी। सारे गांव के युवक उससे विवाह करना चाहते थे पर चंचला ऐसी नखराली कि सबको मना कर गई। एक दिन उसके गांव के पागलखाने में राजनेता निरीक्षण करने आए वहां उन्होंने देखा कोठरी में एक सुंदर युवक बाल नोच रहा था। उन्होंने पूछा ये कैसे पागल हो गया? किसी ने बताया हमारे गांव में चंचला नाम की स्त्री है। ये उससे विवाह करना चाहता था। उसने मना कर दिया तो यह पागल हो गया। अगली कोठरी में गए तो एक युवक खुद को थप्पड़ मार रहा था। उन्होंने कहा ये कैसे पागल हो गया? फिर किसी ने कहा चंचला ने इससे शादी कर ली इसलिए ये पागल हो गया।
चंचला जिसको मिली वो भी पागल हो गया और जिसको नहीं मिली वो भी गया। ये संसार चंचला है। दुनिया जिसे मिली उसको भी कुछ नहीं मिला और जिसकी चली गई वो भी दु:खी हो गया। शुकदेवजी राजा परीक्षित को द्वितीय स्कंध की ओर ले जा रहे हैं। यहां दूसरे स्कंध से लेकर आठवें स्कंध तक गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करना सीखाएगी तथा व्यवसायिक जीवन में परिश्रम की चर्चा आएगी।

श्रोता में कौन से गुण होने चाहिए

भागवत के प्रथम स्कंध में अधिकार निरूपण किया गया है। श्रोता कैसा होना चाहिए, और वक्ता कैसा होना चाहिए। यह दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है। दस अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए हैं। मुख्य रूप से श्रवण को ही परमात्मा प्राप्ति का साधन बताया है। इस स्कंध के दस अध्याय में से पहले दो में ध्यान की चर्चा है। बाद के दो अध्याय में वक्ता, श्रोता की श्रद्धा का वर्णन है। शेष छ: अध्याय में मनन का वर्णन है। इन साधनों के द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है।

आगे के स्कंधों में सर्ग-विसर्ग का वर्णन आएगा इसलिए शुकदेवजी ने अधिकार और साधन को पहले बता दिया है। यह भागवत की विशिष्ट भाषा है। द्वितीय स्कंध आरंभ होता है। शुकदेवजी को राजा परीक्षित के प्रश्न सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कि राजा के प्रश्न बड़े ही महत्व के हैं। आत्म तत्व को न जानने के कारण प्राणी प्रपंच में ही लीन रहता है जबकि मानव जीवन का लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की अद्भूत लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है। यह श्रीमद्भागवत पुराण वेद के समान पठनीय और मननीय है। शुकदेवजी ने राजा को कहा कि उनके कल्याण और जनहित की दृष्टि से वे इस कथा को सुनाएंगे।
परीक्षित अधिकारी थे अत: उनको शुकदेव जैसे सदगुरू मिले। परीक्षित में पांच प्रकार की शुद्धियां हैं- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, अन्न शुद्धि, और आत्म शुद्धि। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा- हे राजन, तुम यह न समझना कि तुम्हारी आयु अल्प रह गई है। दो घड़ी के सद्विचार से ही मनुष्य अपना हित साध सकता है।

मृत्यु ज्ञात हो जाने पर क्या करें?
अब आरंभ हो रहा है दूसरा स्कंध। इस स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता हमें बताएगी जीवन में कर्म कैसे किए जाएं। गीता महाभारत का एक छोटा सा साहित्य है। महाभारत के बीच में छोटे से दीए के रूप में पूरी महाभारत को प्रकाशित करने वाले का नाम गीता है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को बताते हैं।

किस तरह से खट्वांग राजा को जब यह पता लगा इंद्र के द्वारा उसकी मृत्यु में दो चार घड़ी शेष हैं तो खट्वांग राजा तुरंत स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आए, दान दक्षिणा दी, वैराग्य लिया, सरयू तट पर तप किया और योग क्रिया द्वारा अपने शरीर को मुक्त कर दिया। शुकदेवजी ने बताया कि मृत्यु निकट जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह माया मोह का त्याग कर औंकार मंत्र का जाप करे। इस प्रकार राजा परीक्षित को मृत्युकाल में क्या करना उचित है, शुकदेवजी इसका उपदेश देकर कहते हैं कि अलग-अलग देवताओं की उपासना का फल सुनिए। जो ब्रह्म तेज चाहते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा की, उत्तम इंद्रियों को चाहने वाले इंद्र की, संतान चाहने वाले दक्ष प्रजापति की, संपत्ति की कामना वाले देवी दुर्गा की, तेज चाहने वालेे अग्नि की, धन चाहने वाले वरूण की, विद्या चाहने वाले शंकर की, पति-पत्नी में प्रेम चाहने वाले पार्वती की, धर्म चाहने वाले विष्णु की, कुल को चाहने वाला पितरों की तथा विघ्नों से रक्षा चाहने वाला यज्ञ उपासना करें। फिर शुकदेवजी ने बताया निष्काम कर्म के लिए साधक को इन देवी-देवताओं की उपेक्षा करते हुए श्रीनारायण की ही आराधना करनी चाहिए।
सूतजी कहने लगे कि मुने, शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने अपना तन-मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन कर दिया। राजा ने जब देखा कि उनका मृत्यु काल समीप आ गया है तो उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण में ही ध्यान लगाया। राजा ने शुकदेवजी से कहा कि प्रभु इस जगत को अपनी माया से किस भांति उत्पन्न करते हैं ? किस भांति इसका पालन करते हैं? और किस भांति इसका संहार करते हैं? कृपया बताइए?