रविवार, 31 अक्टूबर 2010

भागवत: १०७: ब्रह्माजी ने हिरण्यकषिपु को दिया अमरता का वरदान


हम आज भक्त प्रह्लाद की कथा पढ़ेंगे। भगवान नारायण ने देवताओं का पक्ष लेकर वाराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला। हिरण्यकषिपु क्रोध से आग बबूला हो गया। भगवान विष्णु से बदला लेने का सोचने लगा। नारदजी ने कहा कि युधिष्ठिर हिरण्यकषिपु के मन में यह आया कि मैं ऐसी तपस्या करूं कि अजर अमर हो जाऊं। मदरांचल पर्वत पर चला गया, कठोर तप किया। 'विष्णु हैं बलवान तो मुझे क्या करना चाहिए? उसने सोचा मैं तप से विष्णु से बदला लूंगा। तप करूंगा। तप किया जाता है भगवान को पाने के लिए और ये तप कर रहा है भगवान को पराजित करने के लिए ।
ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो हिरण्यकषिपु ने ब्रह्मा को देखकर कहा कि आपके द्वारा रचित प्राणियों द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मैं न भवन के बाहर मरूं और न भीतर मरूं । न पृथ्वी पर, न आकाश में। मानव, दानव व देवता, पशु, पक्षी, सर्प आदि मुझे कोई न मार सके। युद्ध में मैं अजय बनूं और संसार का ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हो। तप के पूर्व क्षेपक कथा संत सुनाते हैं। हिरण्यकषिपु के बारे में कहते हैं बड़ा अहंकारी व्यक्ति था। उसे अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय लगता था। उसने अपनी पत्नी कयाधु से कहा कि मैं तप करने जा रहा हूं और कब आऊंगा मुझे नहीं मालूम। पर कुछ ऐसा हांसिल करके आऊंगा कि विष्णु का नामो-निशान मिटा दूंगा।
जैसे ही तप करने गया तो देवता को पता लगा कि हिरण्यकषिपु तप कर लेगा तो उन्होंने अपने गुरु बृहस्पति से कहा गुरुदेव कोई तरीका निकालिए इसके तप में विघ्न डालिए। तो बृहस्पति उस पेड़ के नीचे जहां हिरण्यकषिपु बैठा था, के ऊपर बैठ गए और जैसे ही इसने ध्यान लगाया और आंख बंद की और तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्युकषिपु का ध्यान भंग हुआ कि ये नारायण-नारायण कौन बोल रहा है ? उसने इधर-उधर देखा फिर आंख बंद करके शुरू हुआ और जैसे ही उसने मंत्रोच्चार किया तो तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्यकषिपु को लगा ये तोता तप करने नहीं देगा। जिस शब्द से मुझे इतनी घृणा है ये बार-बार बोल रहा है तो संध्या को घर लौट आया।

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